
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए कामयाबी के दरवाजे खोलने में नाकामी से बढ़कर कुछ भी मदद नहीं करती. महज छह महीने पहले लोकसभा चुनाव में पार्टी लोकसभा में बहुमत के आंकड़े 272 से 30 सीटें पीछे रह गई थी. भले ही नरेंद्र मोदी ने लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी, लेकिन उस जीत में हार का एहसास था.
उस चुनाव में भाजपा ने अपने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सहयोगियों पर अब निर्भर रहने के बजाए अपने दम पर 350 से अधिक सीटों के विशाल बहुमत के साथ सत्ता में वापसी का लक्ष्य रखा था. कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन, भारतीय राष्ट्रीय विकासात्मक समावेशी गठबंधन (इंडिया) के लिए 234 सीटों का आंकड़ा केंद्र में सरकार बनाने के लिए नाकाफी था, लेकिन भाजपा को बहुमत से पीछे कर देना हर मायने में जीत से कतई कम नहीं लगा.
पिछले हफ्ते यह माहौल बदल गया. भाजपा ने महाराष्ट्र जैसे बेहद अहम राज्य के विधानसभा चुनाव में लगभग एकतरफा जीत दर्ज की, जो एक महीने पहले ही हरियाणा में वर्चस्व की कड़ी लड़ाई में जीत के बाद दूसरी बड़ी सफलता है. इन दो लगातार जीत ने लोकसभा चुनाव में मिले झटके को बेअसर कर दिया और पार्टी को फिर केंद्र में अपनी पकड़ मजबूत करने में मददगार साबित हुई. ये जीत इसलिए भी खास हैं क्योंकि एनडीए और भाजपा इन दो राज्यों में लोकसभा की सीटों में आई अपनी गिरावट से बने माहौल में नाटकीय बदलाव करने में कामयाब हुई.
भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, "इन दो बड़ी जीत, खासकर महाराष्ट्र से हमारी पार्टी की ढलान को लेकर बेचैनी दूर हो गई है. इससे इंडिया ब्लॉक की कमजोरी उजागर हुई और एनडीए के नीतीश कुमार और आंध्र प्रदेश में चंद्रबाबू नायडू जैसे सहयोगियों को भी संकेत मिला है कि भाजपा ही एकमात्र विकल्प है, जिनके समर्थन पर हम निर्भर हैं."
हालांकि कुछ चेतावनियां जरूर हवा में हैं. झारखंड और जम्मू-कश्मीर में इंडिया ब्लॉक की जीत से भाजपा के कवच में छेद उजागर हुई, जिसने पार्टी के आक्रामक हिंदुत्व अभियान की हदें दिखा दी हैं.
इसके बावजूद, एनडीए की विधानसभा चुनावों में सूनामी जैसी जीत मोदी 3.0 में कथित कमजोरियों को दूर कर देगी और प्रधानमंत्री को अपने विकास तथा बदलाव के एजेंडे पर पूरी ताकत से आगे बढ़ने का जनादेश देगी. महाराष्ट्र में नतीजों के ऐलान के फौरन बाद एक्स पर एक पोस्ट में मोदी ने लिखा, ''विकास जीता! सुशासन जीता! एकजुट होकर हम साथ-साथ उड़ान भरेंगे!"
उस शाम बाद में, भाजपा के दिल्ली मुख्यालय में एक विजय रैली में मोदी ने समर्थकों की उत्साही भीड़ से कहा, "मतदाता अस्थिरता नहीं चाहते, वे राष्ट्र को ऊपर रखते हैं...वे उन लोगों को पसंद नहीं करते हैं जो कुर्सी का सपना देखते हैं."
प्रधानमंत्री साफ-साफ कांग्रेस की अगुआई वाले इंडिया ब्लॉक पर कटाक्ष कर रहे थे, जिसकी लोकसभा चुनाव में हासिल अधिक सीटें अपवाद थीं, जैसा कि महाराष्ट्र के विधानसभा नतीजों से पता चलता है. कांग्रेस को कामयाबी से ज्यादा कुछ भी नाकाम नहीं करता. लोकसभा चुनाव में उसकी सीटें लगभग दोगुनी होकर 99 हो गईं, तो पार्टी में एक तरह की ताकत और आत्मसंतुष्टि की भावना घर कर गई.
शायद इसीलिए महाराष्ट्र में उसे शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा. वह महज 16 सीटों पर सिमट गई, जो राज्य में उसकी अब तक की सबसे कम सीटें हैं. हरियाणा में भी उसे पहले ही करारी हार का सामना करना पड़ा, जहां उसकी जीत की उम्मीद चौतरफा थी.
ये कामयाबियां मोदी और भाजपा के लिए काफी चुनौतियों और अपार अवसरों के साथ आई हैं. देश के जी-20 शेरपा तथा नीति आयोग के पूर्व सीईओ अमिताभ कांत का मानना है कि प्रधानमंत्री को अब आर्थिक विकास पर पूरा ध्यान देना चाहिए. वे कहते हैं, "यह जनादेश डबल इंजन वाली वृद्धि, समृद्धि और रोजगार सृजन के लिए है."
इस वित्त वर्ष के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि 6.5-7 फीसद रहने का अनुमान है, लेकिन कांत का मानना है कि देश को 8-9 फीसद विकास दर का लक्ष्य रखना चाहिए ताकि इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च में कटौती किए बिना और राजकोषीय संतुलन को दुरुस्ती रखकर नई कल्याणकारी योजनाओं के लिए पर्याप्त धन जुटाया जा सके.

'रेवड़ी' राजनीति के खतरे
इस साल लोकसभा चुनाव और चार विधानसभा चुनावों में मतदाताओं को लुभाने के लिए रियायतें, खासकर सीधे नकद हस्तांतरण पर जोर का नकारात्मक रुझान देखा गया है. महाराष्ट्र में, एनडीए के सहयोगी दलों की महायुति सरकार ने लोकसभा चुनाव के फौरन बाद मुख्यमंत्री माझी लाड़की बहिन योजना के तहत आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों की 2.3 करोड़ महिलाओं को 1,500 रुपए की मासिक रकम देना शुरू किया.
इसके अलावा सत्तारूढ़ गठबंधन ने किसानों और युवाओं के लिए योजनाओं की घोषणा की, जिससे सरकारी खजाने पर सालाना 90,000 करोड़ रुपए का बोझ बढ़ सकता है. यह चुनावी कामयाबी का भारी बोझ है जिसे महायुति की नई सरकार को उठाना होगा.
हालांकि, एकनाथ शिंदे के चुनाव अभियान के रणनीतिकार रॉबिन शर्मा का मानना है कि लाड़की बहिन योजना महायुति के साथ-साथ राज्य की महिलाओं के लिए भी गेम चेंजर साबित हुई है, क्योंकि उनके हाथों में पैसा आने से उनके जीवन में सामाजिक-आर्थिक बदलाव आएगा.
शिंदे के लिए शर्मा की जीत की रणनीति में शिवसेना नेता की साधारण पृष्ठभूमि और गरीबों के लिए उनके मन में हमदर्दी के अलावा प्रतिद्वंद्वी शिवसेना नेता उद्धव ठाकरे के एकांतप्रिय व्यवहार के मुकाबले सबके लिए उनकी सुलभता को प्रचारित करना भी शामिल था. शर्मा का मानना है कि उनकी कल्याणकारी योजनाओं ने शिंदे को गद्दार करार देने की उद्धव की रणनीति को बेअसर कर दिया और उन्हें मुख्यमंत्री की लोकप्रियता के मामले में ठाकरे से आगे निकलने में मदद की.
महाराष्ट्र में शिंदे की ही तरह, झारखंड में हेमंत सोरेन ने मंइयां सम्मान योजना की घोषणा की, जिसके तहत राज्य की 50 लाख गरीब महिलाओं को 1,500 रुपए मासिक वजीफा देने का प्रावधान है. जैसे ही भाजपा ने अपने घोषणापत्र में इस मद में 2,100 रुपए देने का वादा किया, झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) नेता की अगुआई वाले इंडिया ब्लॉक ने इसे बढ़ाकर 2,500 रुपए कर दिया.
इससे नकदी संकट से जूझ रहे झारखंड के खजाने को सालाना 15,000 करोड़ रुपए की चपत लगेगी और इसका असर विकास कार्यक्रमों के मद में होगा. यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कभी नकद रकम मुहैया कराने के विचार के सख्त खिलाफ थे और विपक्ष की 'रेवड़ी संस्कृति' का मजाक उड़ाया करते थे, आखिरकार वे भी इसी राह चल पड़े. भाजपा ने लोकसभा चुनाव के दौरान कई कल्याणकारी योजनाओं की घोषणा की, जिसे प्रधानमंत्री ने अपने चुनाव अभियान में 'मोदी की गारंटी' कहकर प्रचारित किया.
एनडीए के चुनाव अभियान में इन कल्याणकारी योजनाओं की अहम भूमिका रही, क्योंकि उसे जाति और वर्ग संबंधी गैर-बराबरी और संसाधनों के पुनर्वितरण संबंधी न्याय की मांग के इंडिया ब्लॉक के नारे को बेअसर करने में उनकी उपयोगिता थी. महाराष्ट्र एनडीए प्रयोगशाला के लिए अग्निपरीक्षा जैसा था, क्योंकि वहां कई तरह के सामाजिक टकरावों को संतुलित करना था.
मसलन, आरक्षण में हिस्सेदारी के लिए मराठों और ओबीसी में टकराव, अनुसूचित जाति आरक्षण में उप-वर्गीकरण की मांग करने वाले दलितों तथा उसका विरोध करने वाले अन्य एससी समुदायों के बीच मतभेद या अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण का लाभ उठाने के लिए धनगर (चरवाहा) समुदाय की आदिवासी के रूप में वर्गीकृत किए जाने की मांग, जिसका अन्य आदिवासी समुदाय विरोध कर रहे हैं.
अजित पवार की राकांपा के चुनाव अभियान की कामयाब रणनीति तैयार करने वाले डिजाइन बॉक्स्ड के प्रमुख नरेश अरोड़ा बताते हैं, "लग रहा था कि महाराष्ट्र में जातिगत गोलबंदी का बोलबाला रहेगा, लेकिन लोगों ने जातिगत विभाजनों से ऊपर उठकर मतदान किया जैसा कि महायुति की भारी जीत से स्पष्ट है. उसे हर जाति समूह और क्षेत्र में समर्थन मिला."
अलबत्ता, इस दौर के चुनावों में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के अभियानों के असर का मामला तय नहीं हो पाया है. यह भाजपा के शस्त्रागार में सबसे ताकतवर हथियार बना हुआ है. उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने महाराष्ट्र में चुनाव प्रचार के दौरान खुलेआम विभाजनकारी नारा, "बटेंगे तो कटेंगे" उछाला. राकांपा अजित गुट ने विरोध जताया तो मोदी ने 'एक हैं तो सेफ हैं' नारा उछालकर उस हो-हल्ले को शांत किया.
भाजपा के मुताबिक, इस नारे से महाराष्ट्र में उसके मूल समर्थकों में जोश आया. बेशक, झारखंड में भाजपा का विभाजनकारी अभियान काम नहीं आया, जहां असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सरमा ने अपने राज्य के बांग्लादेशी घुसपैठियों के हौवे को दोहराने की कोशिश की. चुनाव आयोग ने भी मुसलमानों पर आपत्तिजनक वीडियो पर रोक लगा दी. उधर, हेमंत सोरेन ने भाजपा के जाल में फंसने के बजाए भगवा खेमे पर पलटवार किया कि घुसपैठ को रोकना केंद्रीय गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी है और पूछा कि वह अब तक इन अवैध आप्रवासियों में से किसी को पकड़ने में नाकाम क्यों रहा.
आगे का एजेंडा
कुल मिलाकर, चुनावों के इस दौर से बड़ा संदेश यह निकलता लगता है कि जनादेश कल्याणकारी उपायों, विकास और रोजगार-नौकरियों के सृजन के लिए है, और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशों से होने वाला लाभ बेहद मामूली है. विशेषज्ञों की राय है कि मोदी 3.0 को अब लोगों के लिए जिंदगी की सहूलतें बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. उनके मुताबिक, रियायतों की राजनीति बताती है कि कैसे बड़ा गरीब तबका अभी भी सरकारी मदद पर निर्भर है, जबकि देश में कोविड के बाद जीडीपी विकास दर तेज हुई है.
हालांकि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने पिछले दो कार्यकाल में कई ऐतिहासिक पहलों की घोषणा की है, लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि समयबद्ध और लक्षित कार्यान्वयन सहित आमूलचूल सुधार की आवश्यकता है. मसलन, टेलीमेडिसिन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में प्रशिक्षित चिकित्सा कर्मियों की कमी को दूर करने का एक तरीका हो सकता है. अन्य विशेषज्ञ चाहते हैं कि प्रधानमंत्री कल्याणकारी उपायों या सेवाओं को लोगों तक बेझंझट पहुंचाने के लिए तालुका और जिला स्तर पर भ्रष्टाचार को खत्म करने का अभियान शुरू करें.
मोदी 3.0 को कृषि में आमदनी और उत्पादकता बढ़ाने के अधूरे एजेंडे पर फिर से विचार करने की जरूरत है. पूर्व केंद्रीय कृषि सचिव डॉ. सिराज हुसैन का कहना है कि कृषि में बुनियादी ढांचे पर खर्च में काफी कमी आई है, जिसमें उपज के भंडारण पर होने वाला खर्च भी शामिल है. किसानों को अधिक आकर्षक बागवानी फसलों की ओर बढ़ने के लिए भी पर्याप्त प्रोत्साहन नहीं दिया गया है, चुनावी घोषणाएं अभी भी धान और गेहूं के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने पर केंद्रित हैं.
उत्पादन क्षेत्र पर भी ध्यान देने की जरूरत है; कांत चाहते हैं कि केंद्र सरकार निजी क्षेत्र को रोजगार सृजन के लिए सुविधा प्रदान करे. उन्होंने कहा कि अनुसंधान और विकास के लिए सरकारी निधि बढ़ाने की योजना अभी तक शुरू नहीं हुई है. निर्यात अवसर के एक अन्य क्षेत्र के रूप में उभर सकता है क्योंकि डोनाल्ड ट्रंप की विघटनकारी संरक्षणवादी नीतियां भारत के लिए आपूर्ति शृंखला में एक विकल्प के रूप में उभरने का मौका मुहैया करा सकती हैं, जिसमें चीन के खिलाफ टैरिफ बढ़ाना भी शामिल है. सरकार को अपने निजीकरण अभियान पर भी जोर देना चाहिए और अपनी विकास परियोजनाओं के लिए अधिक धन जुटाना चाहिए.