
अहमदाबाद की 39 वर्षीया गृहिणी अदिति थॉमस उस खौफनाक अनुभव को याद कर आज भी कांप उठती हैं. वे पति के साथ अपनी इनोवा में एनएच 48 पर दिल्ली से जयपुर जा रही थीं. मुख्य हाईवे के जाम होने पर उन्होंने दूसरा रास्ता लिया और ठीक उस वक्त जब वे फिर हाईवे पर आने वाले थे, सामने से तेज रफ्तार से उलटे आ रही एक कार ने उनकी गाड़ी में ड्राइवर की तरफ टक्कर मार दी.
साइड बैग तो खुल और फूल गए, पर गाड़ी चला रहे उनके पति के शरीर पर चोटों और मोच के निशान अब भी हैं. अदिति याद करती हैं, "यह मेरी जिंदगी का सबसे डरावना अनुभव था. मेरा पैर टूट गया. खून बह रहा था. मुझे पता तक नहीं था कि मदद के लिए किस नंबर पर डायल करूं."
वे सड़क किनारे बने अस्पतालों का जोखिम उठाने को तैयार नहीं थीं. आसपास कोई स्पेशलाइज्ड ट्रॉमा सेंटर भी नहीं था. वे जयपुर से महज 60 किमी दूर थे. अदिति ने जोर दिया कि उन्हें जयपुर के अस्पताल ले जाया जाए. राहगीरों की मदद से एंबुलेंस का नंबर खोजने में उन्हें 15 मिनट लगे. एंबुलेंस और पुलिस के आने में और 45 मिनट लग गए. पुलिस ने पहले कागजी कार्रवाई करने पर जोर दिया, जिसमें और 20 मिनट लगे. आखिरकार घंटे भर के तकलीफदेह सफर के बाद दंपती जयपुर के सवाई माधो सिंह अस्पताल पहुंच पाए.
अदिति ईश्वर का एहसान मानती हैं कि दोनों जिंदा बच गए. भारतीय राजमार्गों पर हर साल 1,00,000 के करीब लोग हादसों में मारे जाते हैं. यानी रोज 274 या हर घंटे 11 मौतें. राष्ट्रीय राजमार्ग हालांकि देश भर में बिछी 63 लाख किलोमीटर लंबी सड़कों का बमुश्किल 2.1 फीसद हैं, पर वे सड़क हादसों में होने वाली 36 फीसद मौतों और औसतन 4,35,000 में से एक-तिहाई गंभीर घायलों के लिए जिम्मेदार हैं.
इनमें प्रादेशिक राजमार्गों को भी जोड़ लें तो सड़कों की कुल लंबाई का आंकड़ा 5 फीसद और सड़क हादसों का आंकड़ा 60 फीसद से भी ऊपर पहुंच जाता है. केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने इंडिया टुडे को बताया, "समस्या बहुत ही गंभीर है. यहां तक कि उग्रवादियों से लड़ते वक्त या युद्ध में होने वाली मौतों की संख्या इसके मुकाबले काफी कम है. सड़क हादसों में होने वाली मौत भीषण बीमारियों के साथ देश में सबसे अधिक जान लेती हैं."
आईआईटी दिल्ली के 2020 के अध्ययन 'भारत में सड़क दुर्घटनाओं की सामाजिक-आर्थिक कीमत' ने अनुमान जाहिर किया था कि सड़क हादसों की वजह से भारत को जीडीपी के करीब 3.14 फीसद का नुक्सान उठाना पड़ता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि सड़क हादसों के ज्यादातर शिकार लोग 18-60 वर्ष की कामकाजी आयु समूह के होते हैं और उनके मरने या घायल होने से उत्पादकता का नुक्सान होता है; इलाज और दवा के अलावा जेब से जो खर्च होता है, सो अलग.
जून में सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्री के रूप में काम संभालने के बाद बड़े अफसरों के साथ बैठक में गडकरी ने सड़क हादसों में होने वाली मौतों में 2030 तक 50 फीसद की कमी लाने की प्रतिबद्धता दोहराई. हालांकि वे यह स्वीकार करने वाले पहले मंत्री हैं कि उन्हें इस क्षेत्र में अपने तय किए लक्ष्य पूरे करना मुश्किल लगता है, क्योंकि वे कहते हैं, "भारत में एक ऐसी समस्या है जो दूसरे देशों में नहीं है, न तो कानून के प्रति कोई सम्मान है और न सड़कों के प्रति, और न ही कानून का डर है."
देश के राजमार्ग असुरक्षित क्यों
अंधाधुंध ड्राइविंग हो, ट्रैफिक नियम लागू करने में ढिलाई, सड़कों की खराब डिजाइन या नाकाफी ट्रॉमा केयर, भारतीय सड़कों पर दुर्घटनाएं घटने का इंतजार करती रहती हैं. आंकड़ों के नवीनतम उपलब्ध स्रोत सड़क हादसों पर परिवहन मंत्रालय की 2022 की रिपोर्ट के मुताबिक, राष्ट्रीय राजमार्गों पर हादसों में गंवाई गई 70 फीसद जिंदगियों के लिए अकेले ओवरस्पीडिंग यानी बहुत ज्यादा तेज रफ्तार जिम्मेदार थी.

हालांकि, जैसा कि पिछले 15 साल से सड़क सुरक्षा पर काम कर रहे एनजीओ सेवलाइफ फाउंडेशन के सह-संस्थापक पीयूष तिवारी का कहना है, रफ्तार वह दैत्य है जो दूसरी वजहों-तेज रफ्तार वाहन के साथ मानवीय चूक की ज्यादा आशंका, राजमार्ग पर रुकावटें, या ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करता दूसरा वाहन वगैरह से जुड़कर भयावह हो जाता है. वे कहते हैं, "हादसे की वैज्ञानिक और फॉरेंसिक जांच के बिना आपको दूसरी वजहों का अंदाजा नहीं होता. ज्यादातर मामलों में बड़े वाहन को ही गलत मान लिया जाता है."
नई रिसर्च से पता चलता है कि सड़क हादसों और मौतों के लिए दरअसल पांच बड़ी वजहें जिम्मेदार होती हैं. ये हैं:
● खराब सड़क इंजीनियरिंग, जैसे खुले कंक्रीट के ढांचे, नालियों की दीवारों का बाहर निकला होना, क्रैश बैरियर या टक्कर अवरोधकों का न होना, मोड़ों की खराब डिजाइन और दूसरी रुकावटें.
● ड्राइवरों का निहायत खराब सड़क बोध, जो तेज रफ्तार से गाड़ी चलाते हैं, गलत दिशा में चलाते हैं और दूसरे उल्लंघन करते हैं.
● लाइसेंस देते समय और उल्लंघनों के लिए भारी जुर्माना वसूल करते वक्त नियम-कायदे लागू करने का अभाव.
● वाहन सुरक्षा के नाकाफी उपाय, चाहे एयरबैग का न होना हो या टक्कर का असर कम करने के लिए वाहन की बॉडी की इंजीनियरिंग का मुकम्मल न होना हो.
● हादसे के शिकार लोगों को इलाज की तेजी से सुलभता का दुखद अभाव और नाकाफी ट्रॉमा केयर.
सड़क इंजीनियरिंग के खतरे
खराब और बेपरवाह सड़क इंजीनियरिंग को देश में सड़क दुर्घटनाओं के एक प्रमुख कारण होने पर ज्यादा जोर नहीं जाता है. जब सेवलाइफ ने हादसों की जांच करने और इंजीनियरिंग की चिंताओं को दूर करने के लिए केंद्र और कई राज्य सरकारों के साथ काम शुरू किया, तो उसके लोग कई प्रमुख राजमार्गों में इंजीनियरिंग के ढेरों दोष देखकर चौंक गए.
मसलन, पुराने मुंबई-पुणे हाईवे के सुरक्षा ऑडिट के दौरान उन्हें ड्राइवर की नजर में बाधा डालने वाली 37 रुकावटें, सड़क किनारे लगे 21 पेड़, 67 फुटपाथ के पत्थर, 162 तीखे मोड़, सड़क पर 275 कंक्रीट के ढांचे और लेन के अनुशासन से रहित 218 किमी लंबी संकरी पट्टियां मिलीं.
2004 में खुद राजमार्ग पर सड़क दुर्घटना का शिकार हुए और कई हड्डियां तुड़वा बैठे गडकरी ने जब 2014 में परिवहन मंत्रालय का जिम्मा संभाला, उन्होंने सभी राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजमार्गों का सुरक्षा ऑडिट करवाना अनिवार्य कर दिया. उन्होंने राष्ट्रीय राजमार्गों का विकास, साज-संभाल और रखरखाव करने वाली केंद्र सरकार की शीर्ष एजेंसी भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण (एनएचएआई) को हादसों के ब्लैकस्पॉट की पहचान करने और उन्हें समयबद्ध तरीके से दुरुस्त करने का काम सौंपा.
नतीजे आंख खोलने वाले थे. एनएचएआई 2021 तक 5,352 ब्लैकस्पॉट की पहचान कर चुका था, जो 2016 से 2018 तक की दुर्घटनाओं और मौतों के डेटा पर आधारित थे. इनमें से 4,005 ब्लैकस्पॉट हमेशा के लिए दुरुस्त कर दिए गए हैं और बाकी 1,300 पर काम चल रहा है.
एनएचएआई ने ब्लैकस्पॉटों में पहचानी गई इंजीनियरिंग की खामियों को दूर करने के लिए 15,700 करोड़ रुपए खर्च किए. दुरुस्त करने के इन कामों में रात में चमकने वाले पेंट से नियमित दूरी पर गति सीमा के एक समान संकेत चिन्ह लगाने सरीखे छोटे वक्त के बुनियादी उपायों से लेकर टक्कर अवरोधक और रोड स्टड के साथ लेन के चमकीले निशान लगाना शामिल था.
अंतरिम उपायों में ब्लैकस्पॉट की जगहों पर मोड़ों को ज्यादा चौड़ा करने, संकेत चिह्न लगाने और रुकावटों को हटाने पर ध्यान दिया गया. लंबे वक्त के उपायों में पैदल यात्री अंडरपास और फुट ओवरब्रिज के अलावा बाइपास, सर्विस रोड और ग्रेड-सेपरेटेड इंटरचेंज बनाना शामिल था. इस बीच यह भी अनिवार्य कर दिया गया कि सभी नए राजमार्गों को विस्तृत परियोजना रिपोर्ट के लिए मंजूरी लेने से पहले डिजाइन के चरण में ही सड़क सुरक्षा स्वीकृति लेनी होगी.
भारत दूसरे मामलों में भी अनोखा है. मसलन, कुल जानलेवा सड़क हादसों के 5-10 फीसद मामलों में बसें शामिल होती हैं, जबकि विकसित देशों में यह आंकड़ा 0.5-1.6 फीसद है. यही नहीं, ज्यादातर देशों के विपरीत भारतीय राजमार्ग शहरी बसावटों को काटते हुए गुजरते हैं. रोज आने-जाने वाले स्थानीय लोगों, पैदल चलने वालों और तेज रफ्तार वाहनों का मिला-जुला रेवड़ उन जगहों पर टक्कर या हादसे की संभावना बढ़ा देता है जहां सर्विस लेन का अतिक्रमण किया गया है या जहां पर्याप्त अंडरपास या ओवरब्रिज नहीं हैं.
गडकरी ने ऐसे इलाकों में पहुंच मार्ग पर उभार, चेतावनी संकेतों, विभेदक लकीरों और बार मार्किंग सरीखे यातायात को धीमा करने वाले उपायों पर जोर दिया. राजमार्गों पर पैदल चलने वालों की मौत को कम करने के लिए एनएचएआई के क्षेत्रीय अधिकारियों को पैदल अंडरपास और सबवे बनाने के लिए 25 करोड़ रुपए तक और फुट ओवरब्रिज बनाने के लिए 1.25 करोड़ रुपए तक खर्च करने की इजाजत दी गई.
वाहन डिजाइन के सख्त नियम
भारतीय राजमार्गों पर हादसों की एक और प्रमुख वजह वाहनों और खासकर ट्रकों, बसों तथा कारों की फिटनेस का समुचित प्रमाणन और निगरानी न होना है. इसीलिए टायर फटने, ब्रेक फेल होने और स्टीयरिंग पर नियंत्रण खोने की वजह से दुर्घटनाएं होती हैं. परिवहन समवर्ती सूची में है, इसलिए राज्य सरकारों के परिवहन अफसर फिटनेस प्रमाणपत्र जारी करते हैं.
मगर नए वाहनों के लिए एक बार यह प्रमाणपत्र जारी होने के बाद, प्रदूषण जांच को छोड़कर, वाहन के रखरखाव के लिए बमुश्किल ही कोई फॉलोअप कार्रवाई की जाती है. मैन्युफैक्चरर भी वाहनों को चुनिंदा ढंग से उच्च सुरक्षा उपायों से लैस करते हैं, जिनमें एयरबैग लगाने या आग प्रतिरोधी सामग्री का इस्तेमाल करने सहित टक्कर का असर कम करने के हिसाब से वाहन की बॉडी डिजाइन करने सरीखे उपाय शामिल हैं.
गडकरी पिछले कुछ साल में वाहनों की सुरक्षा में सुधार को आश्वस्त करने के लिए कई कदम उठाते रहे हैं. उनके मंत्रालय ने 2021 में ऐलान किया कि ट्रक, बस और टैक्सी सरीखे सारे व्यावसायिक वाहनों को 15 साल पूरे करने पर और निजी वाहनों को 20 साल पूरे करने पर स्क्रैप करना होगा. 'वाहन के जीवन की समाप्ति’ की यह नीति पुराने और अनफिट वाहनों को सड़कों और खासकर राजमार्गों से हटाने के लिए थी.
वाहनों से होने वाले प्रदूषण को कम करना और मैन्युफैक्चरर को कम प्रदूषण करने वाले इंजनों का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित करना भी इसका मकसद था. राज्य सरकारों से इन्हें अनिवार्य बनाने के लिए कहा गया. प्रक्रिया सरकारी वाहनों से शुरू हुई और फिर निजी वाहनों को इसके दायरे में लाया गया. अभी तक 17 राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों ने इन नियमों को लागू किया है, जहां करीब 60 पंजीकृत वाहन स्क्रैपिंग केंद्र बनाए गए हैं और इनमें से 12 में 75 ऑटोमेटेड टेस्टिंग सेंटर हैं.
सामने और बगल से टक्कर लगने की स्थिति में वाहन में बैठे लोगों की हिफाजत के लिए केंद्रीय सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने वाहन निर्माताओं पर सख्त नियम लागू किए हैं. सभी वाहनों में ड्राइवरों के लिए फ्रंट एयरबैग लगाना 2019 से और आगे की सीट पर बैठी सवारी के लिए एयरबैग लगाना 2021 से अनिवार्य किया गया. गडकरी ने पिछली सीट पर बैठी सवारियों की सुरक्षा के लिए भी कारों में छह एयरबैग लगाने पर जोर दिया, हालांकि मैन्युफैक्चरर अनिच्छुक हैं क्योंकि इससे लागत बढ़ जाएगी.
इस बीच सभी चौपहिया वाहनों में ऐंटी-लॉक ब्रेकिंग सिस्टम सहित सुरक्षा टेक्नोलॉजी लगाना और उसके अलावा ड्राइवर और सह-ड्राइवर के लिए सीटबेल्ट रिमाइंडर, ओवरस्पीड चेतावनी प्रणाली, रिवर्स पार्किंग सेंसर और दरवाजों की सेंट्रल पार्किंग के लिए मैन्युअल ओवरराइड लगाना अनिवार्य किया गया है. राजमार्गों पर व्यावसायिक वाहनों को ओवरस्पीडिंग से रोकने के लिए मंत्रालय ने सभी ट्रांसपोर्ट वाहनों में गति सीमित रखने वाले उपकरण लगाना अनिवार्य कर दिया है.
मंत्रालय ने अक्तूबर 2023 से भारत न्यू कार असेसमेंट प्रोग्राम (बीएनसीएपी) भी शुरू किया, जिसमें आठ या उससे कम सीट वाले वाहनों को वयस्क और बाल सुरक्षा सहायता टेक्नोलॉजी के लिए स्टार रेटिंग दी जाती है, ताकि ग्राहकों को यह तय करने में मदद मिले कि किस कार में सबसे अच्छी सुरक्षा खूबियां हैं. 22 सवारियों की क्षमता वाली बसों को फायर डिटेक्शन अलार्म और सप्रेशन सिस्टम लगाने का अनुपालन करना होता है. बसों, ट्रकों और ट्रेलरों को आगे, पीछे और अगल-बगल रिफ्लेक्टिव टेप अनिर्वाय रूप से लगाना होता है ताकि रात में ज्यादा साफ दिखाई दे.
कड़ाई से लागू राजमार्ग के नियम
ये सब अलबत्ता तब तक किसी काम के नहीं जब तक राजमार्गों पर ट्रैफिक की सुरक्षा के नियमों को नियमित लागू न किया जाए. 10,000 किमी ऑन द इंडियन हाइवेज के लेखक रमेश कुमार कहते हैं, "हाईवे पर लेन ड्राइविंग का पालन करती कारें बमुश्किल ही दिखती हैं. मुझे लगता है कि ज्यादातर लोगों को पता तक नहीं होता कि हाईवे ड्राइविंग के नियम क्या हैं."
विशेषज्ञों का कहना है कि स्पीड मॉनिटर ज्यादा जगहों पर लगाकर सख्त निगरानी की जानी चाहिए, और ओवरस्पीडिंग के लिए ही नहीं, बल्कि गलत दिशा में गाड़ी चलाने, कम स्पीड से गाड़ी चलाने या गलत ढंग से ओवरटेक करने के लिए भी भारी जुर्माना वसूलना चाहिए. नीदरलैंड, सिंगापुर और नॉर्वे सरीखे दुनिया के कुछ सबसे सुरक्षित हाईवे पर इसी तरह नियम लागू किए जाते हैं.
भारत भी कोशिश कर रहा है. 1988 के मोटर वाहन अधिनियम को ज्यादा कड़े जुर्माने सहित नियमों को सख्त बनाने के लिए 2019 से बार-बार संशोधित किया जाता रहा है. नशे में गाड़ी चलाने के लिए जुर्माना 2,000 रुपए से बढ़ाकर 10,000 रुपए करने के अलावा लाइसेंस पर रोक है. ओवरस्पीडिंग सहित खतरनाक ढंग से गाड़ी चलाने वालों के लाइसेंस भी जब्त या निलंबित किए जाते हैं.
यातायात के प्रवाह की इलेक्ट्रॉनिक निगरानी करने और उल्लंघन के लिए जुर्माना लगाने या सजा देने के लिए सारे राजमार्गों पर नवीनतम उपकरण लगाए जा रहे हैं. ड्राइविंग लाइसेंस के मोर्चे पर कुछ हलचल है. केंद्र ने राज्यों के लिए सिफ्यूलेटर से लैस अधिकृत ड्राइविंग सेंटर और समर्पित टेस्ट ड्राइविंग सेंटर स्थापित करने के नियम जारी किए हैं, जिनकी सख्ती से निगरानी की जाएगी. इन्हें तेजी से लागू करने की जरूरत है.
इस बीच भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की जगह लेने वाली नई भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) 1 जुलाई से सड़क हादसों में होने वाली मौतों के लिए ज्यादा कड़े प्रावधान लेकर आई. मसलन, त्रिपुरा के उनाकोटी जिले में एक ट्रक ड्राइवर को नए कानून के तहत मामला दर्ज करके गिरफ्तार किया गया. उसने 71 साल के एक बुजुर्ग को कथित तौर पर टक्कर मारकर मार डाला, जिससे उसके खिलाफ धारा 106 के तहत लापरवाही से मार डालने और 281 के तहत लापरवाही से गाड़ी चलाने के आरोप लगाए गए.
आईपीसी की धारा 304ए की जगह आने वाली बीएनएस की धारा 106 में पांच साल तक की कैद का प्रावधान है, जबकि आइपीसी में सिर्फ दो साल की सजा का प्रावधान था. देश भर के ट्रांसपोर्टरों के विरोध और विपक्ष के आवाज उठाने के बाद हालांकि सरकार ने 'हिट और रन' मामलों में 10 साल तक की कैद के एक और विशेष प्रावधान फिलहाल ठंडे बस्ते में डालने का फैसला किया है, फिर भी इसे भारतीय ट्रैफिक कानून को लागू करने के नए युग की शुरुआत तो कहा ही जा सकता है. इन तमाम उपायों का फर्क बेशक धीरे-धीरे ही दिख सकता है, लेकिन इन पर कदम पीछे नहीं खींचा जाना चाहिए.
हादसे के शिकारों के लिए गोल्डन ऑवर
हादसे के अमूमन तीन नतीजे निकलते हैं - पीड़ित की मौके पर ही मौत हो जाती है, उसे सीपीआर या प्राथमिक उपचार जैसी समान्य मदद, या जान बचाने के लिए जटिल प्रक्रियाओं की जरूरत होती है. बेंगलूरू के बन्नेरघट्टा रोड स्थित फोर्टिस अस्पताल में आपातकालीन चिकित्सा विभाग के प्रमुख डॉ. कुमारस्वामी ई. कहते हैं, "भिड़ंत के वक्त झटके की वजह से घायल होने वाला पहला अंग सर्वाइकल स्पाइन होता है. तेजी से टकराने के मामले में, स्पलीन या तिल्ली, लिवर, आंतों और पैंक्रियाज में आंतरिक चोटें लग सकती हैं. छाती की दीवार पर ज्यादा दबाव से पसलियों में फ्रैक्चर भी हो सकता है."
अगर वक्त रहते इलाज न किया जाए तो ये चोटें जानलेवा साबित हो सकती हैं. इसलिए 'गोल्डन ऑवर' यानी हादसे में चोट के बाद पहले घंटे की बड़ी अहमियत है, जब फौरन इलाज से जान बचने की सबसे अधिक संभावना होती है. गुरुग्राम के मेदांता में इंस्टीट्यूट ऑफ क्रिटिकल केयर ऐंड एनेस्थिसियोलॉजी के चेयरमैन डॉ. यतिन मेहता कहते हैं, "लेकिन सुनहरे घंटे का मतलब यह नहीं है कि आप 59 मिनट में अस्पताल पहुंच जाएं तो आप ठीक हो जाएंगे. ट्रॉमा के बाद, हर मिनट महत्वपूर्ण होता है; लिहजा, आप जितनी जल्दी पहुंचेंगे, नतीजा उतना ही बेहतर होगा."
लेकिन हादसे के बाद इसके ठीक उलट होता है. और इसकी कई वजहें हैं - हेल्पलाइन नंबरों की बहुलता, एंबुलेंस का देर से पहुंचना, उनमें जरूरी उपकरणों की कमी, अस्पतालों में ट्रॉमा केयर सुविधाओं की कमी, यहां तक कि राहगीरों की उदासीनता. तिवारी पूछते हैं, "राजमार्गों के साथ समस्या यह है कि हादसे के बाद जान बचाने के उपायों की कोई शृंखला नहीं होती. क्या इस बारे में साफ जानकारी है कि मदद के लिए किसे कॉल करना है?"
भारत में दुर्घटना पीड़ितों के लिए कोई सार्वभौमिक हेल्पलाइन नंबर नहीं है; यह राज्य दर राज्य और राजमार्ग दर राजमार्ग अलग-अलग है. मिसाल के तौर पर, 102 नि:शुल्क एंबुलेंस सेवा का उपयोग मुख्य रूप से गर्भवती महिलाओं और शिशुओं को अस्पताल पहुंचाने के लिए किया जाता है.
यह राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन (एनएचएम) की राष्ट्रीय एंबुलेंस सेवा (एनएएस) का हिस्सा है, जो अन्य चिकित्सा आपात स्थितियों का जवाब देने के लिए '108' हेल्पलाइन भी संचालित करती है. विभिन्न आपातकालीन प्रतिक्रिया सेवाओं को एकीकृत करने के लिए, डायल 112 को अखिल भारतीय एकल नंबर के रूप में स्थापित किया गया था, लेकिन अभी तक अधिकांश राज्यों में केवल पुलिस विभाग ही इससे जुड़ा है.
भारत में, एनएएस के अलावा - जो 108 सेवा के तहत 11,000-मजबूत बेड़े और 102 के लिए 10,000 के साथ एंबुलेंस का सबसे बड़ा नेटवर्क है—कई अस्पताल, धर्मार्थ और निजी कंपनियां एंबुलेंस चलाती हैं.
हालांकि ये संख्याएं पर्याप्त लगती हैं, एंबुलेंस को भेजने से लेकर मौके पर पहुंचने तक लगने वाला समय इसके सभी तरह के फायदे को घटा देता है. राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन सामान्य तौर पर, शहरी क्षेत्रों के लिए 20 मिनट और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए 30 मिनट और हृदय, श्वसन और स्ट्रोक के मामलों के लिए 10 मिनट से कम में एंबुलेंस पहुंचने या प्राथमिक उपचार शुरू होने की मोहलत निर्धारित करता है.
अपने शून्य मृत्यु गलियारा परियोजना के तहत 16 राज्यों में 21 राजमार्गों के सेवलाइफ ऑडिट में पाया गया कि हादसे के मौके पर एंबुलेंस के पहुंचने का औसत समय 28.7 मिनट है. तिवारी कहते हैं, "ज्यादातर मामलों में हादसे के शिकार व्यक्ति को एंबुलेंस में डालकर अस्पताल ले जाया जाता है और रास्ते में कोई इलाज संबंधी मदद नहीं दी जाती."
कई बार तो अस्पताल में पैरा-मेडिकल स्टाफ चोट की प्रकृति को ही नहीं समझ पाता. इसलिए, वे कहते हैं, "आपातकालीन कॉल के बाद रेफरल नेटवर्क स्पष्ट होना चाहिए." एंबुलेंस के लिए एक अधिसूचना प्रणाली भी होनी चाहिए, ताकि एंबुलेंस की व्यवस्था फौरन हो सके. नीति आयोग के एक अध्ययन में पाया गया कि अधिकांश सुविधाओं में यह प्री-हॉस्पिटल आगमन अधिसूचना प्रणाली गायब है.
एक और समस्या यह है कि अगर कार या बस से कोई दुर्घटना होती है और वाहन ऐसी स्थिति में होता है कि उसे काटने की जरूरत होती है, तो उसके लिए कोई उपकरण उपलब्ध नहीं होता. गडकरी कहते हैं, "इसलिए, हमने एंबुलेंस कोड बदलने का फैसला किया है. नया कोड यह तय करेगा कि एंबुलेंस वेंटिलेटर, अन्य आवश्यक चिकित्सा उपकरण और एक प्रशिक्षित कंपाउंडर से लैस हों."
अधिक ट्रॉमा केयर सेंटर की जरूरत
भारत में 1,46,145 किलोमीटर राष्ट्रीय राजमार्ग और 1,79,535 किलोमीटर राज्य राजमार्ग हैं. सरकारी अस्पतालों में अखिल भारतीय ट्रॉमा केयर नेटवर्क बनाने के लिए 2007 में एक राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया गया था ताकि यह तय किया जा सके कि किसी भी सड़क दुर्घटना के शिकार व्यक्ति को 50 किलोमीटर से ज्यादा दूर न ले जाया जाए. इसके लिए हर 100 किलोमीटर पर एक ट्रॉमा सेंटर नामित किया जाना था.
अगले दशक में राष्ट्रीय और राज्य राजमार्गों के पास जिला अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों में 196 ऐसी सुविधाओं को मंजूरी दी गई, लेकिन 2017 के बाद नए ट्रॉमा सेंटरों की पहचान करने और उन्हें वित्त पोषित करने के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया. रमेश कुमार कहते हैं, "सड़कों के निजीकरण और एनएचएआई द्वारा टोल सड़कों के हिस्सों को पट्टे पर देने के साथ, अब कई खिलाड़ी हैं जिनके लिए अपने-अपने हिस्सों पर एंबुलेंस और चिकित्सा सुविधाएं रखना अनिवार्य है. लेकिन अनुपालन आश्वस्त करने के लिए शायद ही कोई निगरानी है."
यह संकट यहीं खत्म नहीं होता. जो लोग समय पर अस्पताल पहुंचते हैं, वे उचित उपचार के बारे में आश्वस्त नहीं हो पाते. हैदराबाद के यशोदा हॉस्पिटल्स के क्लिनिकल डायरेक्टर डॉ. वेंकट रमन कोला कहते हैं, "देश में आपातकालीन इलाज के उपकरणों की गुणवत्ता और उपलब्धता में भारी विसंगति है."
सर्वेक्षणों से पता चला कि 45-60 फीसद अस्पतालों में जान बचाने के लिए जरूरी उपकरण नहीं थे और 50 फीसद अस्पतालों में अपना कोई बल्ड बैंक नहीं था. कई विशेषज्ञों को भारत में आपातकालीन इलाज और दुर्घटना सेवा के लिए एक विधायी अधिनियम के माध्यम से निर्धारित न्यूनतम मानकों और प्रोटोकॉल की जरूरत महसूस होती है. ऑस्ट्रेलिया, ब्राजील, जर्मनी, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका, ब्रिटेन, अमेरिका और यहां तक कि पाकिस्तान में आपातकालीन स्वास्थ्य के गारंटीयुक्त अधिकार के लिए कानून हैं.
भारत में ऐसे कानून का अभी इंतजार है, अन्य मोर्चों पर कुछ सकारात्मक विकास हुए हैं. मसलन, गुड सेमेरिटन कानून. सड़क दुर्घटना के मामलों में राहगीरों की मदद सबसे महत्वपूर्ण है. डॉ. कोला कहते हैं, "समय बीतने के साथ, अगर कोई भी हादसे के शिकार की मदद के लिए आगे नहीं आता, तो इलाज से फर्क पड़ने की संभावना कम हो जाएगी."
2016 में अपने ऐतिहासिक फैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने गुड सेमेरिटन यानी पीड़ित की तत्काल मदद को आगे आने वालों की सुरक्षा के लिए दिशानिर्देश जारी किए. केंद्र ने भी 2019 में संशोधित मोटर वाहन कानून में उन्हें सुरक्षा प्रदान की है. नया कानून दुर्घटना के शिकार व्यक्ति की जान बचाने के लिए की गई कार्रवाई के कारण गुड सेमेरिटन को किसी भी उत्पीड़न या दीवानी और आपराधिक कार्रवाई से बचाता है. दुर्घटना के पीड़ितों को बचाने वालों को पुरस्कृत करने के लिए 2021 में एक गुड सेमेरिटन योजना शुरू की गई थी.
केंद्र और राज्य सरकारों के साथ-साथ निजी क्षेत्र और गैर-सरकारी संगठनों को राजमार्गों पर सुरक्षा के लिए सभी चुनौतियों को दूर करने के लिए मिलकर काम करना होगा, ताकि देश सड़क दुर्घटनाओं के मामले में दुनिया में सबसे ज्यादा कलंकित होने से बचे. सरकार, अपनी ओर से, जवाबदेही को बहुत गंभीरता से ले रही है. गडकरी कहते हैं, "हम लोगों को यह नहीं बताना चाहते कि यह हमारी गलती नहीं है; हम जिम्मेदारी स्वीकार करते है." यह स्वीकारोक्ति ही हमारे सबसे बड़े सार्वजनिक स्वास्थ्य खतरे से निबटने की दिशा में एक स्वागतयोग्य पहला कदम है.
—साथ में ब्यूरो रिपोर्ट
केस स्टडी : रोहन मिश्र, 28 वर्ष, मुंबई

क्या हुआ
हमारा परिवार 2013 में सड़क के रास्ते मुंबई से दिल्ली जा रहा था. शाम के वक्त जयपुर के नजदीक एक ट्रक लापरवाही से हमारी लेन में घुसा चला आया. मेरे पिताजी को अचानक ब्रेक लगानी पड़ी. हमारी गाड़ी का ड्राइवर की तरफ वाला हिस्सा ट्रक से जा टकराया. शारीरिक चोटें तो नहीं लगीं, पर हमें बेहद कम रोशनी वाले हाईवे पर कुछ डरावने घंटे बिताने पड़े. आखिरकार मेरे पिताजी के दोस्त जयपुर से आए और हमारी गाड़ी को टो करके रिपेयर शॉप पर ले गए.
राजमार्गों को सुरक्षित कैसे बना सकते हैं
लंबी दूरी तक नियमित ड्राइव करने के बाद मैंने कुछ लगातार कायम मसलों पर गौर किया है - ड्राइवर इंडिकेटर और स्टॉप साइन को अनदेखा करते हैं, साथ ही हाई बीम का अंधाधुंध दुरुपयोग किया जाता है. इस सबसे रात में गाड़ी चलाना खासकर जोखिम भरा हो जाता है. उन्हें हल करने से सड़क सुरक्षा बढ़ाने में काफी फायदा होगा.
केस स्टडी : विवेक पाटील, 30 वर्ष, मुंबई

क्या हुआ
मेरे साथ दो बार गंभीर हादसे हुए. पहला 2017 में हुआ जब सुबह तड़के लवासा जाते वक्त रास्ते में तीखे मोड़ से निकलने की नाकाम कोशिश में मेरी बाइक पेड़ से जा टकराई. टखना टूट गया, जिसका बाद में ऑपरेशन करवाना पड़ा. अभी हाल में 4 जुलाई को मुंबई की कोस्टल रोड पर एक किस्म के तेल रिसाव की वजह से मेरी बाइक फिसल गई. मैं तो सुरक्षित रहा, पीछे बैठे मेरे दोस्त को सिर में चोट लगी. स्थानीय लोगों ने बताया कि उस दिन उसी जगह यह आठवीं दुर्घटना थी.
राजमार्गों को सुरक्षित कैसे बना सकते हैं
इन तजुर्बों ने मुझे तमाम सड़कों पर लगातार चौकस बना दिया है. सड़क पर तीखे मोड़ या तेल छलकने सरीखी खतरनाक स्थितियों के बारे में अलर्ट की बेहद जरूरत है. हाईवे पर रोडसाइड सहायता और हादसे के बाद उचित नियम-कायदों के बारे में जानकारी भी ज्यादा आसानी से सुलभ होनी चाहिए.

बदलाव का ब्लूप्रिंट
सड़क डिजाइन में सुधार:
ब्लैकस्पॉट की पहचान और उन्हें दुरुस्त करने के लिए सभी राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजमार्गों का सुरक्षा ऑडिट करें. उपायों में बेहतर संकेत चिह्न, मोड़ों पर सड़क चौड़ी करना, ओवरब्रिज और अंडरपास बनाना शामिल है.
वाहनों की बेहतर निगरानी करें:
राज्य 2021 की स्क्रैप वेहिकल पॉलिसी पर अमल करें, ताकि पुराने अनफिट वाहन सड़कों से हटें; मैन्युफैक्चरर भी वाहन सुरक्षा उपायों को सभी तरह के वाहनों-कार, बस, ट्रक में लगाएं, न कि सिर्फ लग्जरी वाहनों में.
लाइसेंस के सख्त मानदंड:
ड्राइविंग लाइसेंस के लिए ड्राइविंग ट्रेनिंग स्कूल में हाजिरी और टेस्ट पास करना अनिवार्य बनाया जाए.
नियम ज्यादा कड़ाई से लागू करें:
यातायात के नियमों के उल्लंघन पर कोई रियायत न दी जाए, डर पैदा करने के लिए सख्त जुर्माना वसूला जाए.
दुर्घटना के बाद के उपाय:
हादसों के शिकार लोगों के लिए सार्वभौम हेल्पलाइन नंबर स्थापित करें; एंबुलेंस के आने के समय में सुधार लाएं और उन्हें बेहतर सुविधाओं से लैस करें.
ट्रॉमा केयर सेंटर नेटवर्क को सुधार:
आश्वस्त करें कि टोल सड़कों के आयुक्त आदेश के मुताबिक एंबुलेंस और चिकित्सा सुविधाएं स्थापित करें; और सभी अस्पतालों को आपातकालीन स्वास्थ्य सुविधाओं से लैस करें.
सावर्जनिक शिक्षा:
सड़क सुरक्षा शिक्षा को स्कूल पाठ्यक्रमों में शामिल करके और जन जागरूकता अभियानों को जारी रखकर ट्रैफिक नियमों के अनुपालन को बढ़ावा दें.

