
कश्मीर में यह खुशहाली का मौसम है. धान के लहलहाते सुनहरे खेत, कटाई के लिए तैयार पकी फसलें, बीच-बीच में साफ-सुथरी कतारों में पसरी केसर की गांठें. श्रीनगर से पुलवामा जिले तक के 50 किमी लंबे राजमार्ग के किनारे-किनारे फलों से लदे सेब के बगीचे. हिमालय के शांत और धूसर पहाड़ों से घिरे रंग-बिरंगे खूबसूरत नजारे, चमचमाता नीला आसमान और उसके नीचे तैरते झक-सफेद बादलों के गुच्छे.
सिर्फ कुदरत ही नहीं है जिसने घाटी में उम्मीदों और संभावनाओं के रंग घोल दिए हैं. लोकतांत्रिक और राजनैतिक बदलाव की बयार ने भी फिलहाल जम्मू-कश्मीर को अपने आगोश में ले लिया है. दस साल के लंबे अतंराल के बाद यहां चुनाव जो हो रहे हैं. जम्मू की 43 और कश्मीर की 47 यानी कुल 90 सीटों की विधानसभा के लिए चुनाव 18 सितंबर से 1 अक्तूबर तक तीन चरणों में करवाए जा रहे हैं. नतीजे 8 अक्तूबर को हरियाणा विधानसभा चुनाव के नतीजों के साथ आएंगे.
त्राल में भविष्य का फैसला अब खून-खराबा और बंदूकें नहीं बल्कि मतपेटियां और सियासतदां करेंगे, जो गहरी दिमागी माथापच्ची में उलझे हैं. यह वही त्राल है जो अलगाववादी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन के प्रमुख और जवानी में मौत के मुंह में चले गए बुरहान वानी का गृहनगर है. 2016 में सुरक्षा बलों के साथ गोलीबारी में वानी की मौत से उग्रवाद का भीषण दौर शुरू हुआ था, जिसमें 90 लोगों की जान गई थी. उस अशांत दौर में तत्कालीन राज्य की कमान मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के हाथ में थी, जिनकी सरकार 2018 में गिर गई.
काफी नरम पड़ चुकी वही महबूबा अब त्राल के मुख्य बस अड्डे पर रैली कर रही हैं, जो सवारियों के लिए हल्ला मचाती सफेद टैक्सियों से ठसाठस भरा है. महबूबा पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्ष हैं, जिसने 2014 के विधानसभा चुनाव के बाद भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ गठबंधन किया था और जिसका अंत चार साल बाद कटुता के साथ रिश्ते टूटने में हुआ.

त्राल की उनकी जनसभा में मशीनगन से लैस सरकारी सुरक्षा बल के जवान चारों तरफ तैनात हैं. यहां तक कि वे सभास्थल के ऐन सामने शाही दरबार ढाबे की छत से भी नजरें गड़ाए हैं. मंच के पीछे खड़े बुलेट-प्रूफ दंगा नियंत्रण ट्रक के अलावा मेटल डिटेक्टरों से लैस कर्मी हर उस शख्स की गहन छानबीन कर रहे हैं जो सभा में शामिल होना चाहता है. सभास्थल को चारों तरफ से घेरे कॉन्सर्टिना तारों की कतारों और चौतरफा फैले सशस्त्र गार्डों की तरफ इशारा करते हुए महबूबा कहती हैं, "इतने सारे सुरक्षा उपायों का मतलब है कि कश्मीर का मुद्दा उच्च प्राथमिकता का मुद्दा बना हुआ है और फौरन इसका हल निकालने की जरूरत है. इसके अलावा जबरदस्त बेरोजगारी, महंगाई, नशाखोरी और पर्यावरण के नुक्सान सरीखे मुद्दे तो हैं ही."
यह चुनाव क्यों है इतना अहम
पूर्व मुख्यमंत्री और जम्मू-कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला कहते हैं, "यह चुनाव केंद्र सरकार की तरफ से खासी मारामारी और चिल्ल-पों के बाद हो रहे हैं. सरकार तो यह चुनाव करवाना ही नहीं चाहती थी और तभी करवाए जब सुप्रीम कोर्ट ने सितंबर की 30 तारीख से पहले चुनाव करवाने का आदेश दिया."
फिर भी ये एकाधिक वजहों से निर्णायक चुनाव होंगे. एक तो यह 5 अगस्त, 2019 को मोदी सरकार की ओर से अनुच्छेद 370 खत्म किए जाने, जम्मू-कश्मीर से उसे हासिल विशेष स्वायत्त दर्जा छीन लिए जाने और लद्दाख को अलग करते हुए उसका दर्जा घटाकर केंद्र शासित प्रदेश बना दिए जाने के बाद पहला विधानसभा चुनाव है.
पहली बार होने वाली दूसरी बात यह है कि आगामी विधानसभा का कार्यकाल पहले के छह साल के बजाए पांच साल होगा और इसमें पहले की 87 के बजाए 90 सीटें होंगी, और लद्दाख इसका हिस्सा नहीं होगा. तीन दशकों में यह भी पहली बार है कि अलगाववादी ताकतों ने चुनाव के बहिष्कार की अपील नहीं की है, बल्कि इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही हैं. यहां तक कि प्रतिबंधित जमात-ए-इस्लामी कश्मीर ने भी अपनी तरफ से लड़ने के लिए एवजी उम्मीदवारों को खड़ा किया है.
बदलाव की एक झलक तभी मिल गई थी जब मई 2024 में हुए लोकसभा चुनावों में भारी तादाद में वोट पड़े थे. तब जेऐंडके में रिकॉर्ड 58.4 फीसद मतदान हुआ था, जो 2019 के मुकाबले 30 फीसद अंकों की उछाल थी. विधानसभा चुनाव के पहले चरण में तो उससे भी ज्यादा मतदान हुआ. खासकर दक्षिण कश्मीर के आतंकवाद प्रभावित चार जिलों—कुलगाम, अनंतनाग, शोपियां और पुलवामा—में भी करीब 59 फीसद वोट पड़े.
आतंक के गढ़ कुलगाम में सुरक्षा बलों ने अभी बीती जुलाई में ही हिज्बुल के चार उग्रवादियों को मार गिराया था. उमर अब्दुल्ला वहीं के दूरदराज के निर्वाचन क्षेत्र दमहाल हंजीपोरा में जोरदार रैली कर रहे थे. सफेद लहराता कश्मीरी दस्तार (साफा) बांधे उमर ने मंच को तिलांजलि दे दी ताकि लोगों से सीधे जुड़ सकें. जोशो-खरोश से 'आया, आया, शेर आया' चिल्लाती महिलाओं के बीच उमर सभा में जुटे लोगों से कहते हैं, "हमारी पहचान, सम्मान, गरिमा, हमारा सब कुछ हमसे छीन लिया गया है. 2014 में पिछली बार जब मैंने यहां चुनावी रैली को संबोधित किया था, उसके बाद हम अपना राज्य का दर्जा तक गंवा चुके हैं."
वे यह भी कहते हैं, "हम विधानसभा के लिए वोट मांग रहे हैं, हालांकि उसके पास वह ताकत नहीं होगी जिसकी हमें जरूरत है. मगर नेशनल कॉन्फ्रेंस और गठबंधन के उसके साथी विधानसभा को, इंशा अल्लाह, फिर ताकतवर बनाएंगे." उमर अपनी जनसभाओं में भाजपा और महबूबा की पीडीपी दोनों पर निशाना साध रहे हैं. भाजपा को वे "जम्मू में जनादेश को मजबूत करते हुए घाटी में जनादेश को खंडित करने की कोशिश करने" का दोषी ठहरा रहे हैं.

भाजपा की तिहरी योजना
जम्मू के कठुआ जिले में, जो पंजाब की सीमा से सटा है, भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री और जम्मू-कश्मीर के प्रभारी तरुण चुघ सरकार बनाने और पहली बार अपना मुख्यमंत्री लाने का लक्ष्य हासिल करने के लिए जी-जान से जुटे हैं. पार्टी ने यहां अपनी संगठनात्मक ताकत को तो मजबूत किया ही है, दूसरे राज्यों की तरह वह यहां भी अपनी कमियों को पाटने के लिए अन्य क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पार्टियों के नेताओं को दलबदल करवाकर भी लाई है. कठुआ के उम्मीदवार राजीव जसरोटिया का नामांकन परचा दाखिल करवाने के बाद भगवा साफा बांधे चुघ ने कस्बे के बाहरी छोर पर सुनियोजित रैली को संबोधित किया.
एनसी और पीडीपी कह रहे हैं कि मोदी सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाकर और राज्य को केंद्र शासित प्रदेश में बदलकर किस तरह अपमानित किया, वहीं चुघ राष्ट्रवादी भावनाएं जगाने पर ध्यान दे रहे हैं और बता रहे हैं कि मोदी सरकार ने किस तरह घाटी में आतंक पर काबू पाया और कश्मीर के दर्जे को लेकर अस्पष्टता खत्म की. फिर वे विकास का कार्ड खेलते हैं, यह कहकर कि भाजपा ने किस तरह सड़कों के जरिए कनेक्टिविटी में सुधार लाकर और सांभा में एम्स समेत अस्पताल बनवाकर यह पक्का किया कि जम्मू बेचारा सौतेला भाई न रहे.
अब भाजपा इस इलाके को बड़े औद्योगिक और पर्यटन केंद्र में बदलने का मंसूबा बना रही है. रैली में वे लोगों से कहते हैं, "हम जम्मू-कश्मीर को दुनिया का पर्यटन केंद्र बनाएंगे. यह चुनाव साबित करेगा कि भारत जीत गया है और पाकिस्तान समर्थित राष्ट्रविरोधी ताकतें हार गई हैं."
मोदी सरकार और भाजपा के लिए यह चुनाव लेखा-जोखा लेने की घड़ी है. अनुच्छेद 370 को रद्द करना 1952 में इसे अंगीकार किए जाने के बाद जम्मू-कश्मीर में किसी भी सरकार की तरफ से उठाया गया सबसे बड़ा कदम है. यह ऐसी राजनैतिक जीत थी जो अपने दम पर सरकार बनाने में उनकी मदद कर सकती है और ऐसा हुआ तो यह उनके इस कदम की निर्णायक तस्दीक होगी.
जम्मू से एनसी के प्रमुख नेता और अक्तूबर 2021 में भाजपा में आए देवेंद्र राणा कहते हैं, "भाजपा की रणनीति एनसी और पीडीपी के बिना सरकार बनाने की है. इन दोनों पार्टियों ने दर्जे में आए बदलाव को अब भी स्वीकार नहीं किया है. घड़ी की सूई लौटकर 370 की उस स्थिति पर नहीं जा सकती जहां हमारे दो संविधान और दो झंडे हुआ करते थे. यह चुनाव तय करेगा कि क्या हम एक ऐसी सरकार के पक्ष में मतदान करेंगे जो पिछले पांच साल में शुरू किए गए कामों और प्रगति को मजबूत करेगी और टिकाऊ शांति तथा समतामूलक विकास सुनिश्चित करेगी."
इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए मोदी सरकार और भाजपा बीते पांच साल से तिहरी रणनीति अपनाते आ रहे हैं. सबसे पहले अलगाववादी धड़ों और उग्रवादियों पर कड़ाई से धावा बोलकर कानून और व्यवस्था बहाल की गई और यह पक्का किया गया कि पत्थरबाजी सहित हिंसा की घटनाएं न हों. दूसरे, राज्य भर में विकास और खासकर सड़कों, पुलों समेत बुनियादी ढांचे के निर्माण पर जोर दिया गया. तीसरे, घाटी में ऐसा वैकल्पिक राजनैतिक नेतृत्व खड़ा करने पर ध्यान दिया गया जो 70 से ज्यादा साल से जम्मू-कश्मीर की राजनीति पर हावी अब्दुल्लाओं, मुफ्तियों, नेहरू-गांधियों के परिवारवाद से अलग और हटकर हो.

आतंक के स्रोतों का खात्मा
भाजपा ने अपने घोषणापत्र में दावा किया है कि उसकी 'आतंकवाद के खिलाफ शून्य सहनशीलता' की नीति की बदौलत संगठित पत्थरबाजी की घटनाएं और हड़तालें 2018 में 1,328 से घटकर पिछले साल तकरीबन शून्य पर आ गईं. राज्य पुलिस ने उग्रवादियों, उनके परिवारों और संगी-साथियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की, कइयों को जेल में डाल दिया और उन सरकारी कर्मचारियों की सेवाएं तक समाप्त कर दीं जिन पर उनकी मदद करने का संदेह था.
राज्य पुलिस के एक बड़े अफसर कहते हैं, "ऐसा करके हम बंदूक के डर का सफाया करने और पाकिस्तान समर्थित एजेंडे पर तमाम पार्टियों की सर्वानुमति हासिल करके चुनावों के बहिष्कार की अलगाववादियों की रणनीति को खत्म करने में कामयाब रहे."
जम्मू-कश्मीर पुलिस के आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि 2019 के बाद 818 आतंकवादियों को रास्ते से हटाया गया. 2023 में 73 किनारे किए गए, जो एक दशक में सबसे कम संख्या थी. इसी तरह मुठभेड़ों में 53 फीसद की कमी आई और सुरक्षा बलों के बीच हताहतों की संख्या 30 पर सिमट गई, जो 10 साल में सबसे कम थी. मुठभेड़ों या आतंकी हमलों में मारे गए नागरिकों की संख्या में पिछले पांच साल में 68 फीसद की तीव्र गिरावट दर्ज की गई.
वैसे यह भले सच हो कि भारतीय सुरक्षा बल कई आतंकवादियों और उनके सरपरस्तों को खत्म करने और घाटी में हमलों की संख्या कम करने में सफल रहे, पर पाकिस्तान समर्थित संगठनों ने भी रणनीति बदलकर जम्मू को अपने हमलों का अखाड़ा बना लिया, जहां पहले उन्होंने विरले ही कभी हमले किए थे. अक्तूबर 2021 से सुरक्षा बलों के 54 लोग हताहत हुए. इनमें 13 सितंबर को किश्तवाड़ में दो सैनिकों की शहादत शामिल है. पड़ोस के डोडा जिले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली के एक दिन पहले ही यह हमला हुआ था.
दूसरे मोर्चों पर भी भाजपा अपनी कामयाबी दिखा रही है. उपराज्यपाल मनोज सिन्हा बताते हैं कि कभी आतंकी हमलों और पत्थरबाजों का केंद्र रहा लाल चौक सैलानियों की चहल-पहल से गुंजार है, जो आधी रात को बिना किसी पाबंदी के वहां खाना खाने आ सकते हैं. वे बताते हैं कि पिछले साल रिकॉर्ड 2.1 करोड़ सैलानी इस केंद्र शासित प्रदेश की यात्रा पर आए. वहीं आलोचकों का कहना है कि इनमें से दो-तिहाई तीर्थयात्री रहे होंगे. छुट्टी मनाने के लिए सैलानियों के आने को प्रोत्साहित करने के वास्ते ज्यादा कुछ नहीं किया गया है.

विकास के मोर्चे पर भाजपा जम्मू और कश्मीर दोनों को सड़कों के अलावा रेल के जरिए जोड़ने में हुई शानदार तरक्की का हवाला देती है. इनमें 14,000 करोड़ रुपए से बना चिनाब रेलवे ब्रिज, 3,100 करोड़ रुपए से बनी बनिहाल-काजीगुंड सुरंग, 6,809 करोड़ रुपए से बनी जोजिला सुरंग और उसके अलावा 40,000 करोड़ रुपए की लागत से बना दिल्ली-कटरा ग्रीनफील्ड एक्सप्रेसवे शामिल हैं.
जहां तक कारोबार की बात है, भाजपा का दावा है कि उसकी नई औद्योगिक नीति की बदौलत राज्य को 1.26 लाख करोड़ रुपए के निवेश प्रस्ताव मिले, जिनमें से 6,624 करोड़ रुपए के निवेश हो चुके हैं और जिसके नतीजतन 5,50,000 नौकरियों का सृजन हुआ है.
विपक्षी पार्टियां बेशक इन दावों को हंसी में उड़ा देती हैं. अपनी पार्टी के अध्यक्ष अल्ताफ बुखारी, जिनकी पीठ पर कभी भाजपा का हाथ देखा जा रहा था, कहते हैं, "विकास में कोई क्रांति नहीं हुई. बुनियादी ढांचे की इनमें से ज्यादातर परियोजनाएं पहले की सरकारों ने शुरू की थीं. केंद्र ने उन्हें पूरा भर किया है. कश्मीर की माली हालत गड़बड़ है. न कारोबार हैं, न पैसा है और न नौकरियां. जमीन की कीमतें 50 फीसद गिर गई हैं. हमारे यहां 16 लाख युवा और पोस्टग्रेजुएट बेरोजगार हैं."
जम्मू पर टिका जीत का दारोमदार
हिंदू बहुल जम्मू भाजपा की सबसे बड़ी ताकत है. भाजपा 2014 में इस क्षेत्र की 25 सीटें जीतकर ही पीडीपी के साथ गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में पहुंची थी. इस बार, भगवा पार्टी अगर अपने दम पर सरकार बनाना चाहती है तो उसे जम्मू की 43 सीटों में से कम से कम 30-35 पर जीत हासिल करनी होगी. मई में संपन्न लोकसभा चुनाव में जम्मू-कश्मीर की कुल पांच सीटों में से जम्मू क्षेत्र की दो सीटों पर भाजपा जीती जबकि घाटी की तीन में से दो सीटों पर नेशनल कॉन्फ्रेंस ने जीत दर्ज की.
हालांकि, बारामूला में अवामी इत्तेहाद पार्टी (एआईपी) उम्मीदवार और जेल में बंद अलगाववादी नेता इंजीनियर रशीद की भारी बहुमत से जीत ने सबसे ज्यादा चौंकाया. रशीद ने उमर अब्दुल्ला और पीपल्स कॉन्फ्रेंस नेता सज्जाद लोन दोनों को हराया. वोट शेयर की बात करें तो भाजपा ने 24 फीसद, नेशनल कॉन्फ्रेंस ने 22.3 फीसद, कांग्रेस ने 19.4 फीसद और पीडीपी ने 8.5 फीसद वोट हासिल किए.
वैसे तो जम्मू और उधमपुर लोकसभा सीटों के 37 विधानसभा क्षेत्रों में से 29 पर भाजपा ने बढ़त बनाई. हालांकि, दूसरे दलों की तुलना में बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद पार्टी 2019 के लोकसभा चुनाव के वोट शेयर 46.7 फीसद से काफी पीछे रही. यह दर्शाता है कि भगवा पार्टी खुद भी कई चुनौतियों से जूझ रही है और उसे इससे उबरना होगा.
वैसे, क्षेत्र में चुनावी परिदृश्य को बदलने के लिए चतुर रणनीति अपनाने मंष कोई कसर नहीं छोड़ी गई. घाटी की तुलना में जम्मू क्षेत्र की सीटों की अहमियत बढ़ाने के इरादे से भाजपा ने परिसीमन आयोग का इस्तेमाल कर जम्मू को छह और विधानसभा सीटें दिला दीं. इससे वहां कुल सीटों की संख्या 37 से बढ़कर 43 हो गई, जबकि कश्मीर की मौजूदा 46 सीटों में सिर्फ एक की वृद्धि हुई. अब, जम्मू-कश्मीर की कुल 90 सीटों में से सात अनुसूचित जाति (एससी) के लिए आरक्षित हैं, और जम्मू क्षेत्र तक ही सीमित हैं. अनुसूचित जनजातियों (एसटी) के लिए आरक्षित नौ सीटों में से छह जम्मू में और तीन कश्मीर में हैं.
ये सुरक्षित सीटें, मुख्यत: राजौरी और पुंछ के पहाड़ी जिलों में हैं, जो सियासी लड़ाई में एक नया मैदान बनेंगी. इनमें से आठ सीटों पर 50 फीसद गुज्जर और ऊंची जाति के पहाड़ी लोगों का वर्चस्व है और भाजपा इन्हें सरकार के गठन के लिए चुनावी लिहाज से बेहद अहम मान रही है.
मोदी सरकार ने लोगों को लुभाने के लिए पहाड़ियों को एसटी आरक्षण की श्रेणी में ला दिया, जिससे वे आदिवासी गुज्जर और बकरवाल समुदायों की बराबरी पर आ गए. इस कदम ने समुदाय के कई प्रमुख नेताओं को भाजपा का दामन थामने के लिए प्रेरित किया, जिससे इन सीटों पर पार्टी की संभावनाएं बेहतर ही हुईं. भाजपा को चौधरी जुल्फिकार अली जैसे प्रमुख गुज्जर नेता का साथ मिला, जिन्होंने 2014 में पीडीपी के टिकट पर राजौरी के दरहाल निर्वाचन क्षेत्र में जीत दर्ज की थी.
पार्टी वाल्मीकि और पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों के बीच अपनी पैठ मजबूत करने के लिए भी कड़ी मेहनत कर रही है, जिन्हें जुलाई 2024 में संपत्ति के अधिकार मिले और विधानसभा चुनावों में मतदान के लिए अधिवास अधिकार भी प्रदान किया गया. वाल्मीकि को एससी सूची में शामिल किया गया और अब उन्हें नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण का लाभ मिल सकता है. ऐसे कदमों से भाजपा को 13 सीटों पर अपना प्रभाव बढ़ाने में मदद मिलेगी, जो जम्मू क्षेत्र में पड़ती हैं और सरकार बनाने के लिहाज से काफी मायने रखती हैं.
हालांकि, सब कुछ इतना आसान नहीं रहने वाला. जम्मू के साथ-साथ कश्मीर में भी भाजपा प्रदर्शन से जुड़े मुद्दों के अलावा टिकट बंटवारे को लेकर आंतरिक कलह से जूझ रही है. जम्मू में कई पुराने नेता इससे खासे नाराज हैं कि पाला बदलकर आए लोगों को टिकट दे दिया गया जबकि उन्हें इससे वंचित कर दिया गया. पार्टी बढ़ती बेरोजगारी, मोदी सरकार की तरफ से छह माह पर दरबार मूव (राजधानी बदलने) पर लगाई गई रोक के आर्थिक प्रभाव, और बिजली-पानी के बढ़ते बिल जैसे स्थानीय मुद्दों के कारण भी दबावों से गुजर रही है.

जैसा कि एक राजनैतिक विशेषज्ञ कहते हैं, "लोग पिछले छह वर्षों के दौरान केंद्रीय शासन के तहत गैर-निर्वाचित नेताओं और नौकरशाहों का हुकुम चलने से तंग आ चुके हैं. इससे ऐसी धारणा भी बनी है कि प्रशासन को उनकी कोई फिक्र नहीं है और एक राजनैतिक शून्यता उभर आई है. यही नहीं, विकास के एजेंडे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जा रहा है, जो दिखावटी ज्यादा है. औद्योगिक विकास के मामले में जम्मू-कश्मीर अपनी क्षमता से कम प्रदर्शन कर पाया है."
भाजपा को इस बात का थोड़ा फायदा जरूर मिल सकता है कि जम्मू में उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस अभी पूरी तरह एकजुट होकर उसे टक्कर देने की स्थिति में नहीं आ पाई है. लेकिन, भाजपा के खिलाफ व्यापक सत्ता विरोधी लहर का कांग्रेस को फायदा मिलने की संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता.
घाटी में फूट डालो और राज करो
मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी में हार की आशंका को देखते हुए भाजपा ने आम चुनाव में यहां कोई उम्मीदवार नहीं उतारा था. पिछले एक दशक में अपना संगठनात्मक ढांचा मजबूत करने और सदस्यता को 7,00,000 के पार पहुंचा देने का दावा करने के बावजूद भाजपा अब तक घाटी में खाता नहीं खोल पाई है. अब तक भाजपा नई दिल्ली के करीबी माने जाने वाले जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी और पीपल्स कॉन्फ्रेंस जैसे दलों पर ही भरोसा करती रही है.
हालांकि, दोनों पार्टियों ने खराब प्रदर्शन किया और महज सात फीसद वोट ही हासिल कर पाई. इससे आंतरिक उथल-पुथल भी शुरू हो गई. यही वजह है कि भाजपा की बी टीम वाली अपनी छवि से बाहर आने के लिए दोनों ही दलों ने इस बार किसी भी गठबंधन का हिस्सा न बनने का फैसला किया है. हालांकि, उन्हें अच्छी तरह पता है कि इससे उनका जड़ से भी सफाया हो सकता है.
निश्चित तौर पर, सीमावर्ती कुपवाड़ा जिले के लंगेट निर्वाचन क्षेत्र से एआईपी प्रमुख और दो बार के विधायक इंजीनियर रशीद की 4,72,481 वोटों से जीत सबसे ज्यादा चौंकाने वाली थी. विशेषज्ञों की राय में, रशीद की जीत प्रमुख राजनैतिक दलों के खिलाफ मतदाताओं की हताशा और नई दिल्ली के खिलाफ नाराजगी को जाहिर करती है. विधानसभा चुनाव में प्रचार के लिए 11 सितंबर को जमानत पाने वाले रशीद ने 21 से अधिक उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है.
इस पर नेशनल कॉन्फ्रेंस की तरफ से सवाल उठाया जा रहा है कि उन्हें अपने अभियान के लिए पैसे कहां से मिल रहे हैं. रशीद के 'तिहाड़ का बदला वोट से' वाले नारे ने तमाम अलगाववादियों को चुनाव मैदान में किस्मत आजमाने के लिए प्रेरित किया है, और इसी का नतीजा है कि रैलियों में लोगों को अच्छी-खासी भीड़ जुट रही है और नामांकन कराने वाले उम्मीदवारों की संख्या भी काफी बढ़ी है. 50 विधानसभा क्षेत्रों के लिए चुनाव के पहले दो चरणों के लिए करीब 450 उम्मीदवार मैदान में हैं.
इनमें जमात-ए-इस्लामी सदस्य भी शामिल हैं जो निर्दलीय के तौर पर चुनाव मैदान में हैं. आतंकवाद के वित्तपोषण के लिए गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम के तहत 2019 से प्रतिबंधित करीब 5,000 सदस्यों वाला कैडर-आधारित संगठन जमात पूर्व में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का एक घटक था और 1987 से चुनावों के बहिष्कार के आह्वान का समर्थन करता रहा है.
हालांकि, खुले तौर पर यह संगठन चुनावी प्रक्रिया से दूर रहा लेकिन इसे पीडीपी के मुख्य आधार के तौर पर देखा जाता रहा है. इस पर पिछले चुनावों में पार्टी को मौन समर्थन देने के आरोप भी लगे. इसकी एक बड़ी वजह यह भी रही है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस के साथ इसकी प्रतिद्वंद्विता दशकों पुरानी है, खासकर 1987 में कथित धांधली के कारण, जिसमें जमात समेत कई कट्टरपंथी दलों के समूह मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) की हार हुई थी. इनमें अधिकांश पार्टियां 1993 में हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का हिस्सा बन गई थीं.

अब, 37 साल बाद भाजपा जमात पर प्रतिबंध न हटाकर उस पर दबाव बनाए रखने के बावजूद अलगाववादियों को चुनाव लड़ने की इजाजत देकर अतीत की चूक सुधारने की कोशिश कर रही है. चुनाव में अलगाववादियों की भागीदारी से ग्रामीण और शहरी कश्मीर के बड़े हिस्से में दहशत का माहौल खत्म हुआ है और प्रमुख राजनैतिक दलों को भी दक्षिण और उत्तर कश्मीर या श्रीनगर के संवेदनशील क्षेत्रों तक दस्तक देने में आसानी हो रही है. आतंकवादियों या अलगाववादियों से विरोध को लेकर किसी तरह के डर के बिना हर गली-मोहल्ले में रोजाना डोर-टू-डोर अभियान चल रहे हैं और बेधड़क रोड शो और चुनावी रैलियां हो रही हैं.
पहचान का सवाल
हालांकि, भाजपा अनुच्छेद 370 खत्म करने को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानती है. लेकिन नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी जैसे विरोधी दलों के अलावा भाजपा की सहयोगी रह चुकी सज्जाद लोन की पार्टी पीपल्स कॉन्फ्रेंस ने भी घोषणापत्रों में जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा बहाल करने पर जोर दिया है. उमर अब्दुल्ला ने 19 अगस्त को श्रीनगर में नेशनल कॉन्फ्रेंस का घोषणापत्र 'गरिमा, पहचान और विकास’ जारी किया, जिसमें अगस्त 2019 से पूर्व की स्थिति बहाल करने के प्रयासों का वादा किया गया.
हालांकि, केंद्र शासित प्रदेश में चुनाव न लड़ने की कसमें खाने वाले उमर इस बार दो सीटों बडग़ाम और अपने परिवार के गढ़ रहे गंदरबल से चुनाव लड़ रहे हैं. गंदरबल से अब्दुल्ला परिवार की तीन पीढ़ियां चुनाव लड़ चुकी हैं, और उमर का कहना है कि जेल में बंद व्यक्ति को यहां उनके खिलाफ उतारने के पीछे भाजपा का हाथ है.
उमर ने 6 सितंबर को एक रैली में कहा, "भाजपा को यह पसंद नहीं है, इसीलिए मेरे खिलाफ एक के बाद एक साजिश रची जा रही है. यह साजिश एक बार कामयाब हो गई थी. लेकिन इस बार मुझे गंदरबल के लोगों पर पूरा भरोसा है कि वे सोच-समझकर वोट देंगे." जम्मू में कुछ सीटें कब्जाने और भाजपा के वोटबैंक में सेंध लगाने की उम्मीदों के साथ नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया है.
इस बीच, कुछ नेताओं की पार्टी में वापसी के साथ पीडीपी में थोड़ा-बहुत बदलाव नजर आ रहा है. हालांकि, लोकसभा चुनावों में कश्मीर के 54 में से केवल पांच विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी की बढ़त को देखते हुए इसकी जीत की संभावना कम ही लगती है. दो सीटों के अलावा खुद पार्टी अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती को अपने पारिवारिक गढ़ अनंतनाग-राजौरी से हार का सामना करना पड़ा था. इस बार वे खुद चुनाव मैदान में नहीं उतरी हैं लेकिन अपनी बेटी इल्तिजा को उन्होंने उसी निर्वाचन क्षेत्र बिजबेहारा-श्रीगुफवारा से मैदान में उतारा है, जहां से उन्होंने 1996 में चुनावी शुरुआत की थी.
हालांकि, युवा नेताओं के पार्टी टिकट पर मैदान में उतरने से किनारा करने को देखते हुए पीडीपी की चुनावी संभावनाओं को और नुक्सान पहुंचने के आसार हैं. लेकिन पहली बार चुनाव लड़ रहीं इल्तिजा का मानना है कि किसी अन्य बात से ज्यादा "कश्मीर में अधिकार-विहीन होने की भावना तीव्र होती जा रही है, खासकर युवाओं में. हमारे राष्ट्र ध्वज लेकर भारत समर्थक होने की भावना दर्शाने की गुंजाइश घटी है. सरकार मध्यमार्ग खत्म करने की कोशिश कर रही है."
वहीं, सज्जाद लोन समेत कई नेता आरोप लगा रहे हैं कि भाजपा निर्दलीयों को बढ़ावा देकर बहुमत हासिल करने की कोशिश कर रही है. साथ ही आगाह करते हैं कि मध्यमार्गी नेताओं की कीमत पर अलगाववादियों के पक्ष में मतदान के लिए प्रोत्साहित किए जाने के गंभीर नतीजे सामने आ सकते हैं. जमात प्रतिनिधियों के साथ गठबंधन की कोशिश का ऐलान कर चुके रशीद को सरकार के दोहरे मानदंडों की मिसाल करार दिया जा रहा है. अल्ताफ बुखारी कहते हैं कि ऐसे समय में जब सरकार विरोधी फेसबुक पोस्ट पर भी गंभीर नतीजे भुगतने पड़ सकते हैं, खुलेआम आजादी की भावनाओं को भड़काने वाले रशीद जैसे लोगों को प्रोत्साहित किया जा रहा है.
नेशनल कॉन्फ्रेंस इसे अपने पक्ष वाले भावनात्मक वोटों में सेंध लगाने की चाल के तौर पर देखती है, ताकि उसकी सीटें घटाई जा सकें. राणा का मानना है कि मुख्यधारा की सभी पार्टियां पहले भी भाजपा के साथ गलबहियां कर चुकी हैं, इसलिए उनके शिकायत करने का कोई कारण नहीं है. चुघ ने भाजपा पर ऐसे तत्वों के समर्थन करने को लेकर लग रहे आरोपों को इस मुहावरे के जरिए खारिज करने की कोशिश की, "बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय."
स्क्विड गेम देखने की शौकीन इल्तिजा को लगता है कि चुनाव का नतीजा कोरियाई सीरीज के अंत जैसा होगा, जिसमें विजेता नहीं होता, बल्कि वही बच पाता है जो अपना अस्तित्व बचाने में सक्षम हो.
वे भावुकता के साथ कहती हैं, "कश्मीर भारत की आत्मा—इसके लोकतंत्र, लोकाचार और इसके बहुलतावाद—का अभिन्न हिस्सा है. एकजुटता के लिए दिलो-दिमाग और भावनात्मक स्तर पर जुड़ाव की जरूरत है. कश्मीर कोई अर्थशास्त्र या वित्तीय अथवा सियासी मुद्दा नहीं है. यह एक बेहद मानवीय मुद्दा है. हमारी आत्माएं बिखर गई हैं, हमारे दिल टूट गए हैं. हम समाधान, सुलह और एक बेहतर जिंदगी चाहते हैं."
बहुत संभव है कि यह चुनाव कश्मीर मसले का पूर्ण समाधान न साबित हो, लेकिन इतना तो तय है कि यह इस दिशा में बढ़ने की राह में एक बड़ा कदम होगा.
——साथ में मोअज्जम मोहम्मद, जम्मू-कश्मीर में