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भगवा मंथन : अपनी कमजोरियां दूर करने के लिए भाजपा-संघ क्या कर रहे हैं?

लोकसभा चुनाव में कमजोर प्रदर्शन के बाद भाजपा और संघ परिवार अपना दमखम वापस पाने के लिए नए सिरे से रणनीतियां बनाने में जुटे

सांकेतिक तस्वीर
सांकेतिक तस्वीर
अपडेटेड 17 सितंबर , 2024

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने 2 सितंबर को जब अपनी अखिल भारतीय समन्वय बैठक यानी संबद्ध संगठनों का तीन दिवसीय राष्ट्रीय समागम खत्म किया, तो सारी नजरें प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर की प्रेस कॉन्फ्रेंस पर थीं. उन्होंने निराश भी नहीं किया और उसमें शामिल एक शख्स के शब्दों में, "दो-एक बम गिरा" ही दिए.

एक तो उन्होंने स्पष्ट किया कि संघ विवादास्पद राष्ट्रीय जाति जनगणना के पक्ष में (बेशक कुछ शर्तों के साथ) है और दूसरे उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि आरएसएस और उसकी वैचारिक संतति यानी केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच कुछ अनसुलझे "मुद्दे" हैं.

आंबेकर ने यह भी कहा कि यह "पारिवारिक मामला" है जिसे "बातचीत" से सुलझा लिया जाएगा, पर वे इतना कुछ तो कह ही चुके थे जो अगले दिन की सुर्खियों के लिए काफी था. जाति जनगणना वैसे तो जाहिरा तौर पर समाज के हाशिए पर पड़े लोगों के हित में कल्याणकारी उपायों का दायरा बढ़ाने के लिए है, लेकिन यह विपक्ष की प्रमुख मांग रही है, जिसे सत्तारूढ़ पार्टी ने पहले "हिंदू समाज को बांटने" की कोशिश कहकर खारिज कर दिया था.

जहां तक 'पारिवारिक मामले' की बात है, भाजपा के प्रवक्ताओं ने फटाफट मौन धारण कर लिया, तो केरल के पलक्कड़ में संघ के 40 संबद्ध संगठनों की बैठक में शामिल पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने भी ठीक यही किया.

भाजपा के जानकारों का कहना है कि आंबेकर ने जो कहा, उसमें कुछ भी नया नहीं है, बस इसके कहने का वक्त चौंकाने वाला था. भगवा पार्टी मंथन के दौर से गुजर रही है, खासकर ऐसे वक्त जब आम चुनाव में अप्रत्याशित उलटफेर से वह बैकफुट पर आ गई है और बहुत लंबे वक्त बाद ढुलमुल और हिचकिचाहट से भरी दिखाई देती है.

इन कुछ महीनों में क्या फर्क आ गया: अप्रैल में वे भाजपा की शानदार जीत की बातें कर रहे थे, जिसमें 370 से ज्यादा सीटें तो पक्की थीं और "400 पार" भी पकड़ में दिख रही थी. नड्डा पार्टी के "आत्मनिर्भर" होने की बात कर रहे थे, जो अब आरएसएस के मातहत नहीं रह गई थी. यही नहीं, आला दिग्गजों की मेज पर जगह पाने को बेताब राज्यों के सहयोगी दल भी अपनी-अपनी मचानों से नीचे आ रहे थे.

कठोर और तल्ख हकीकत से पाला पड़ा 4 जून को, जब यह साफ हो गया कि मोदी 3.0 भाजपा की नहीं बल्कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनने जा रही है. इससे सत्तारूढ़ पार्टी के पैर उतनी मजबूती से जमीन पर नहीं टिके, जितने पहले दो कार्यकालों में टिके थे.

लोकसभा चुनाव के निराशाजनक नतीजों के बाद आरएसएस का नेतृत्व भी चिंतित था. आरएसएस प्रमुख सरसंघचालक मोहन भागवत बीते दो महीनों में कई बार बेलाग, बेलौस और बेरहम रहे. उन्होंने कहा कि मनुष्य "विश्वरूप का आकांक्षी" हो सकता है, पर "कोई निश्चित नहीं जानता कि आगे क्या होने वाला है" और "सच्चे सेवक को कभी अहंकारी नहीं होना चाहिए." कोई अंधेरे में नहीं था कि असली निशाना कौन है.

पलक्काड़ में 31 अगस्त को समन्वय बैठक में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और महासचिव दत्रात्रेय होसबाले

उधर, पार्टी की कई राज्य इकाइयों और खासकर हिंदी पट्टी की राज्य इकाइयों में उथल-पुथल मची है. गठबंधन राजनीति के दबाव दिखाई दे रहे हैं. प्रशासनिक सेवा में लेटरल एंट्री शुरू करने सरीखे कभी संसद में जबरन पारित करवा लिए गए विवादास्पद नीतिगत फैसले वापस लेने पड़े या टालने पड़े हैं.

इसमें विपक्ष के बढ़ते आत्मविश्वास और जल्द चुनाव में उतर रहे तीन राज्यों महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड, और केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर की मुश्किल लड़ाई को और जोड़ लीजिए. देश के विशालकाय भगवा परिवार के भीतर मंथन साफ दिखाई दे रहा है, और भाजपा पहले वाला दबदबा फिर हासिल करने की जद्दोजहद में लगी है.

भाजपा की जरूरतें

मोदी 3.0 एकाधिक मायनों में भाजपा और संघ के लिए वक्त से सामना जैसा है. आरएसएस 2025 में अपनी जन्मशती मनाएगा, तो भाजपा का यह केंद्र में अभूतपूर्व तीसरा कार्यकाल है. आम चुनाव में जिस सच्चाई से उसका साबका पड़ा, उसने पार्टी को "भविष्य की तैयारी" की कोशिश में जुटना लाजिमी बनाया.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 28 जुलाई को पार्टी के 13 मुख्यमंत्रियों, उप-मुख्यमंत्रियों और पार्टी के अन्य शीर्ष नेताओं की बैठक बुलाई. बंद कमरे में हुई बातचीत में एक तकलीफदेह विषय पर गहन चर्चा की गई—हिंदी पट्टी के राज्यों में पार्टी का कमतर प्रदर्शन. इससे पहले भाजपा ने राज्य के पदाधिकारियों की भी बैठक बुलाई थी और उनका फीडबैक लिया था. सूत्रों के मुताबिक, इसमें मतदाताओं पर प्रधानमंत्री मोदी की पकड़ को वोटों में बदलने की क्षमता पर भी सवाल उठाए गए.

पार्टी के सामने अब दोहरी चुनौती है—राज्य इकाइयों के मसलों को हल करना और पार्टी अध्यक्ष नड्डा का उत्तराधिकारी खोजना. नड्डा का कार्यकाल 30 जून को खत्म हो गया और वे बढ़ाए गए कार्यकाल में काम कर रहे हैं. अब वे केंद्रीय मंत्रिमंडल का हिस्सा भी हैं, वैसे ही जैसे सी.आर. पाटील (गुजरात इकाई के प्रमुख), जी. किशन रेड्डी (तेलंगाना) और बंडी संजय कुमार (राष्ट्रीय महासचिव) भी हैं. भाजपा में एक व्यक्ति, एक पद का अलिखित नियम है, इसलिए कई शीर्ष पद जल्द भरने होंगे.

पार्टी का पद छोड़ने से पहले नड्डा को यह पक्का करना होगा कि राज्य इकाइयों के पद भरे जाएं और गड़बड़ राज्यों के मुद्दों के अलावा आरएसएस के साथ मौजूद मुद्दे भी सुलझा लिए जाएं ताकि उत्तराधिकारी को सुचारू तरीके से पद सौंप सकें. कई राज्य इकाइयों में तत्काल हस्तक्षेप करने की जरूरत है.

उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के अलावा पश्चिम बंगाल की राज्य इकाई दलबदलुओं और तृणमूल कांग्रेस सरकार के खिलाफ नैरेटिव खड़ा करने की कूव्वत को लेकर जूझ रही है, जबकि राजस्थान सरीखे राज्यों में पार्टी क्षत्रपों को पहली बार के विधायक और नौसिखुए मुख्यमंत्री भजन लाल शर्मा के साथ राफ्ता बिठाना अभी बाकी है.

इन सबके बावजूद बीते एक दशक से सत्ता में होने के बाद भी भाजपा अभी अपने यौवनकाल में है. आम चुनाव की तमाम भूल-चूकों के बावजूद पार्टी 37 फीसद लोगों के वोट पाने में कामयाब रही. पिछले दशक में वह खासकर हिंदी पट्टी के राज्यों में हिंदुत्व की छतरी व्यापक करने, ओबीसी और दलित समुदायों को साथ लाने और लाभार्थियों का भारी समर्थन आधार तैयार करने में कामयाब रही है. मोदी में ऐसा प्रधानमंत्री भी है जो कांग्रेस के नेता राहुल गांधी सहित विपक्ष के प्रतिद्वंद्वियों से आगे है.

दिल्ली में 2 सितंबर को भाजपा सदस्यता अभियान की शुरुआत के दौरान राजनाथ सिंह, जे.पी. नड्डा और अमित शाह के साथ प्रधानमंत्री मोदी
दिल्ली में 2 सितंबर को भाजपा सदस्यता अभियान की शुरुआत के दौरान राजनाथ सिंह, जे.पी. नड्डा और अमित शाह के साथ प्रधानमंत्री मोदी

पार्टी सुधार के कदम भी उठा रही है, जो खासकर आरएसएस के साथ रिश्ते सुधारने की कोशिश के रूप में देखे जा सकते हैं. सितंबर 2022 में खासी बेरुखी से पार्टी से रुखसत हुए आरएसएस के नेता राम माधव की बेहद अहम जम्मू-कश्मीर के चुनाव प्रभारी के तौर पर (केंद्रीय मंत्री जी. किशन रेड्डी के साथ) वापसी से पहला इशारा मिला कि आरएसएस-भाजपा के समीकरण पटरी पर लौटे हैं.

आरएसएस के शीर्ष नेता ने यह बात इस तरह बयान की, "मौसम बदल रहा है." उनका इशारा भगवा खेमे में बदलते सत्ता समीकरण की तरफ था.

नए समीकरण

अगस्त के मध्य में, भाजपा की चुनावी तैयारियों पर चर्चा करने के लिए आरएसएस नेता दत्तात्रेय होसबाले और अरुण कुमार ने नड्डा, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के साथ बैठक की. आम चुनाव की निराशा (2019 के 303 सांसदों से घटकर फिलहाल 240 पर सिमट जाने) और गठबंधन सरकार के गठन के बाद, भाजपा नेतृत्व के पास संघ के साथ पैंतरेबाजी की गुंजाइश अब कम है.

विधानसभा चुनाव वाले राज्यों से भी पार्टी को उत्साहजनक खबरें नहीं मिल रही हैं. इस कारण उसे "सबसे योग्य लोगों के हाथ में ही कमान दिए जाने" का फैसला लेना पड़ा है. हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में अक्तूबर के पहले सप्ताह में चुनाव होंगे और उसके बाद महाराष्ट्र, झारखंड के साथ-साथ देश भर में 50 विधानसभा सीटों के लिए उपचुनाव की प्रक्रिया शुरू होगी.

धीरे-धीरे, संघ निर्णायक भूमिका में वापस आ रहा है. पार्टी ने वक्फ बोर्ड को नियंत्रित करने वाले कानूनों में संशोधन प्रस्ताव को पारित कराने पर जोर नहीं देने का भी फैसला संघ की सिफारिश पर ही लिया. ऐसा माना जाता है कि संघ ने भाजपा को समझाया कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों से जुड़े मुद्दों पर आक्रामकता ने पार्टी को चुनावी नुक्सान पहुंचाया है. और यह सिर्फ शुरुआत है. संघ की भूमिका और बड़ी होने की संभावना है.

नड्डा के उत्तराधिकारी के रूप में नए भाजपा अध्यक्ष की नियुक्ति, जनगणना से जुड़े मुद्दे, शिक्षा क्षेत्र में सुधारों को लागू करने, विधानसभा तथा संसदीय सीटों के परिसीमन और भाजपा तथा संघ दोनों के उत्तराधिकार की योजना जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर भाजपा को अब संघ की सहमति लेनी होगी.

जहां तक पार्टी में पुनर्गठन का प्रश्न है, संघ नड्डा के उत्तराधिकारी के चयन पर व्यापक सलाह-मशविरे पर जोर दे रहा है. नड्डा का तब तक पद पर बने रहना समय काटने जैसा है. भाजपा ने राज्यों में महासचिव (संगठन) के खाली पदों के लिए सात नाम मांगे हैं. संघ की हाल में हुई बैठक में इस पर भी चर्चा की गई कि भाजपा में उसका प्रतिनिधि कौन हो.

भाजपा की राज्य इकाइयों के प्रमुखों को बदलने के लिए उसे संघ को विश्वास में लेना होगा. पार्टी संघ की सलाह पर हरियाणा, बिहार और राजस्थान में प्रदेश अध्यक्षों को पहले ही बदल चुकी है. संभावना है कि अगले साल जनवरी तक आधी से अधिक राज्य इकाइयों में नए प्रमुख होंगे, जिनमें कर्नाटक, तेलंगाना, पंजाब, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश को प्राथमिकता दी जाएगी.

(दाएं से) मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य तथा ब्रजेश पाठक 29 जुलाई को लखनऊ में

इस बीच, 2 सितंबर को नड्डा ने प्रधानमंत्री मोदी को सदस्यता प्रमाणपत्र कार्ड सौंपा और इसके साथ ही भाजपा ने अपने देशव्यापी सदस्यता नवीनीकरण कार्यक्रम को हरी झंडी दिखाई. यह नड्डा का उत्तराधिकारी चुनने की दिशा में पहला कदम है. आलोचकों का कहना है कि भाजपा अब तक नया पार्टी प्रमुख या कार्यकारी अध्यक्ष तक नहीं चुन पाई है, जो दर्शाता है कि इस विषय पर पार्टी के भीतर कितनी उथल-पुथल चल रही है. पिछले दशक में, भाजपा ने विधानसभा चुनावों को भी मोदी बनाम अन्य की लड़ाई में बदलने में महारत हासिल कर ली.

भाजपा की सेना, जिसमें संघ के स्वयंसेवक शामिल थे, ने जमीन पर चीजों का कुशल प्रबंधन किया तो डबल-इंजन सरकार का फॉर्मूला कई जगहों पर काम कर गया. हालांकि, लोकसभा चुनाव के परिणामों ने संकेत दिया कि यह ब्रांड फीका पड़ गया है. संघ के एक नेता कहते हैं, कि दम तो है पर "जोश ठंडा पड़ गया है." अगले चुनावों में, भाजपा इसी ब्रांड को आजमाएगी क्योंकि पार्टी और संघ दोनों समझते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी सबसे अच्छा राजनैतिक दांव हैं. हालांकि संघ उम्मीदवारों की घोषणा में "व्यापक परामर्श" चाहता है.

उत्तर प्रदेश की खटपट

लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद से हिंदी पट्टी के इस प्रमुख राज्य में बागी सुर तेज ही हुए हैं. प्रमुख योजनाओं पर अमल में खामियां रह जाने को लेकर आवाजें उठने लगीं. यही नहीं, भाजपा की मजबूत चुनावी मशीनरी में अचानक मीन-मेख निकाली जाने लगीं.

उत्तर प्रदेश में कुल 80 में से भाजपा की लोकसभा सीटें 62 से घटकर 33 रह जाने के बीच उप-मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने जुलाई में एक्स पर काफी रहस्यपूर्ण और आक्रामक पोस्ट डाली, "संगठन सरकार से बड़ा है, कार्यकर्ताओं का दर्द मेरा दर्द है. संगठन से बड़ा कोई नहीं है, कार्यकर्ता ही मेरा गौरव हैं."

यह मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनके लोकसभा अभियान संचालन पर परोक्ष हमला था, यह संकेत दिया गया कि नेतृत्व ने कार्यकर्ताओं को निराश कर दिया है. दूसरे उप-मुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक भी कई बार खुलकर नाराजगी जता चुके हैं. राज्य भाजपा के कई नेता, लोकसभा चुनाव हारने वाले भी दबी जुबान ऐसा ही जाहिर करते हैं. सवाल तो यह भी उठने लगे हैं कि क्या राज्य में 'बुलडोजर बाबा' की छवि भाजपा के लिए नुक्सानदेह साबित हो रही है.

यहां तक, राम मंदिर निर्माण भी पार्टी के लिए तारणहार साबित नहीं हो पाया, क्योंकि भाजपा को न केवल फैजाबाद (जिसमें अयोध्या आता है), बल्कि पड़ोसी निर्वाचन क्षेत्रों में भी हार का सामना करना पड़ा. लोकसभा चुनाव नतीजे यह भी दर्शाते हैं कि ध्रुवीकरण की सीमाएं हैं.

दरअसल, कुछ विश्लेषकों का मानना है कि '400 पार' के नारे ने मुसलमानों और दलितों के बीच भाजपा विरोधी वोटों को लामबंद कर दिया. वजह, उन्हें डर था कि पार्टी को बहुमत मिलना उनके लिए नुक्सानदेह साबित हो सकता है. आरएसएस स्वयंसेवकों की सक्रिय हिस्सेदारी के अभाव में इस नैरेटिव की काट नहीं पेश की जा सकी. विडंबना यह है कि सीटों के इतने ज्यादा नुक्सान पर योगी समर्थकों की शिकायत है कि कई मौजूदा सांसदों के टिकट काटने की उनकी सलाह को आलाकमान ने नजरअंदाज कर दिया था.

अलबत्ता, मुख्यमंत्री की तात्कालिक चिंता 10 विधानसभा सीटों (जिनमें पांच ही भाजपा के पास थीं) पर होने वाले उपचुनाव हैं. आदित्यनाथ ने 30 मंत्रियों की टीम तैनात की है लेकिन मौर्य और पाठक  को इससे बाहर रखा है. जुलाई के अंत में मौर्य और राज्य इकाई प्रमुख भूपेंद्र चौधरी ने पार्टी अध्यक्ष नड्डा के साथ अलग-अलग बैठकें कीं, जो घंटेभर से ज्यादा चलीं.

जाहिर है, दिल्ली में भाजपा शीर्ष नेतृत्व के लिए यह कोई सुखद स्थिति नहीं है, और वह भी ऐसे राज्य में, जो मूलत: हिंदुत्व की प्रयोगशाला है. संघ अब भी यही मान रहा है कि यूपी में योगी पर दांव लगाने से बेहतर कुछ नहीं हो सकता क्योंकि अपनी हिंदुत्ववादी छवि के साथ वे देशभर में अपील रखते हैं. सूत्रों के मुताबिक, फिलहाल उपचुनाव होने तक आपसी कलह को विराम देने को कहा गया है.

विधानसभा चुनाव की चिंता

चुनावी राज्यों महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में भाजपा को कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में भाजपा का महायुति गठबंधन काफी कमजोर स्थिति में नजर आया, जब विपक्षी गठबंधन महाविकास अघाड़ी (एमवीए) ने 48 में से 31 सीटें झटक लीं.

दो बड़े क्षेत्रीय दल रहे शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) को दो-फाड़ करके विभाजित धड़ों के साथ महायुति गठबंधन सरकार बनाना मास्टरस्ट्रोक की तरह लगा था लेकिन अब यही भाजपा के उप-मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के लिए बड़ी मुसीबत बन गया है.

31 अगस्त को एक सरकारी योजना की शुरुआत के कार्यक्रम में नितिन गडकरी, अजित पवार, एकनाथ शिंदे, देवेंद्र फडणवीस

फडणवीस अब मराठा आरक्षण आंदोलन को लेकर आलोचनाओं में घिरे नजर आ रहे हैं, जबकि कुछ हलकों में कहा जा रहा है कि यह आंदोलन शिवसेना के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने शुरू किया था. उप-मुख्यमंत्री के प्रति निष्ठा रखने वाले उनके बचाव में आगे न आने के लिए भाजपा के दिग्गज मराठा नेताओं से भी नाराज हैं. वे दलील देते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री ने कैसे केंद्रीय नेतृत्व की बात मानकर खुद को "बलिदान" कर दिया और जुलाई 2022 के तख्तापलट के बाद शिंदे का डिप्टी बनने में कतई संकोच नहीं किया.

उधर, आरएसएस भी तेवर दिखाने में पीछे नहीं है, जो राकांपा के अजित पवार गुट के महायुति का हिस्सा बनाए जाने से नाखुश है. जून में संघ विचारक रतन शारदा ने आरएसएस की पत्रिका ऑर्गेनाइजर में लिखे एक संपादकीय में कहा कि अजित को साथ लाने से 'भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग' का भाजपा का नारा कमजोर पड़ गया है. गौरतलब है कि भाजपा के नारायण राणे सहित महायुति के कम से कम पांच लोकसभा उम्मीदवारों के खिलाफ भ्रष्टाचार से जुड़े मामले रहे हैं. अब, ऐसे नेताओं के खिलाफ पार्टी के भीतर ही आवाजें उठने लगी हैं.

इस बीच, हरियाणा में पार्टी अपना पारंपरिक वोटबैंक मजबूत करने में जुटी है. पूर्व मुख्यमंत्री और अब केंद्रीय मंत्री मनोहर लाल खट्टर का साया अभी लंबा है. नए मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी की योग्यता यही रही है कि वे खट्टर के वफादार हैं. खट्टर का करीब एक दशक लंबा शासनकाल जबरदस्त सत्ता विरोधी लहर छोड़ गया है और आंतरिक सर्वे यह भी बताते हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री तथा कांग्रेस नेता भूपेंद्र सिंह हुड्डा की पकड़ भाजपा के पारंपरिक गैर-जाट वोटों में भी बन गई है.

पार्टी अब जमीन मजबूत करने की आखिरी कोशिश में सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं पर ध्यान केंद्रित कर रही है. भाजपा ने 4 सितंबर को राज्य में 67 उम्मीदवारों की सूची जारी की, उससे लगता है कि खट्टर का असर टूटने लगा है. उनके कई वफादारों को टिकट नहीं मिले.

सैनी ने कई प्रमुख योजनाओं में नीतिगत सुधार किए हैं और युवाओं और महिलाओं को ध्यान में रखकर कई घोषणाएं की हैं. महाराष्ट्र में भी मुख्यमंत्री शिंदे ने महिला मतदाताओं के लिए 1,500 रुपए प्रति माह की वित्तीय सहायता वाली 'लड़की बहिन योजना' शुरू की है. यह योजना भाजपा के लिए मध्य प्रदेश में दिसंबर 2023 में गेम-चेंजर साबित हुई और दो दशकों की सत्ता विरोधी लहर से पार पाने में मदद मिली.

अभी जिन तीन राज्यों में चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें लोकसभा चुनाव में भाजपा का अच्छा प्रदर्शन सिर्फ झारखंड (14 में से आठ सीटें जीतीं) में रहा था. पार्टी ने पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा समेत अपने किसी भी आदिवासी क्षत्रप को यहां 'प्रोजेक्ट' नहीं किया है. अगस्त में कई नेता दल बदलकर भाजपा में आए जिनमें पूर्व मुख्यमंत्री तथा झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के दिग्गज नेता चंपाई सोरेन शामिल हैं. इससे शीर्ष स्तर पर दावेदारी एक जटिल मसला हो सकता है.

भाजपा ने आम चुनाव से पहले ही कोयला घोटाले के आरोपी पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा की पत्नी गीता कोड़ा और मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की भाभी सीता सोरेन को अपने पाले में कर लिया था. कोड़ा की मौजूदगी ने राज्य के कई भाजपा नेताओं को असहज कर दिया है. चंपाई और अन्य नेताओं के आने से पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा की जगह घट गई है, जो राज्य की राजनीति में फिर अपनी पैठ मजबूत करने में जुटे हैं.

प्रवर्तन निदेशालय ने मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को गिरक्रतार किया और वे जमानत पर रिहा कर दिए गए. इससे झामुमो नेता सोरेन के पक्ष में उभरी सहानुभूति लहर ने राज्य में भाजपा की आदिवासी रणनीति को और कमजोर कर दिया है. 81 सदस्यीय झारखंड विधानसभा में 28 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं और आम तौर पर रुझान यही रहा है कि जो इन सीटों पर जीतता है, उसे ही राज्य में सत्ता की कमान हासिल होती है. 

भाजपा में नई जान फूंकना

भाजपा की सबसे बड़ी ताकत खुद को बदलने और नई जान फूंकने की काबिलयत है. वह भले पिछड़ गई हो पर कभी मैदान से बाहर नहीं होती. पार्टी ने यह अतीत में कर दिखाया है. लोकसभा चुनाव में मिले झटके ने पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को यह एहसास करा दिया है कि उसे आरएसएस को साथ लेकर चलना होगा, खासकर बड़े राजनैतिक, आर्थिक और समाज सुधार के मामलों में, क्योंकि वही पार्टी की रीढ़ है.

इसका मतलब यह हुआ कि नए प्रदेश अध्यक्षों, नए मुख्यमंत्रियों, प्रमुख मंत्रियों, चुनाव अभियान संचालन और दलबदलुओं (खासकर घोषित संघ-विरोधी विचारों वाले) को शामिल करने के मामलों में संघ से सलाह करनी होगी. उसे विरोधियों के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों के दुरुपयोग और दलबदल कराने की छवि से भी उबरना होगा, जिससे पार्टी का खास भला नहीं हुआ है. इस मंथन से दोबारा विचार करने और रवैए में बदलाव तो दिखने लगा है, मगर असली सबूत यह होगा कि कौन राष्ट्रीय अध्यक्ष बनता है और राष्ट्रीय टीम में संभावित फेरबदल कैसे होता है.

पिछले दशक में यह धारणा बनती गई है कि पार्टी के ज्यादातर फैसलों का केंद्रीकरण हो गया है और ये मुट्ठी भर वफादार ही लेते हैं. यही नहीं, प्रदेशों में भी, बकौल एक वरिष्ठ नेता, "दिल्ली के कुछ अफसरशाहों" की ही चलती है और राज्य का राजनैतिक नेतृत्व महज "केयरटेकर" है. इन सबका बड़ा राजनैतिक खामियाजा भुगतना पड़ा है.

अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि पार्टी को अब मुख्यमंत्री या प्रदेश अध्यक्ष जैसे स्थानीय क्षत्रपों को काम करने और मजबूत बनाने की रणनीति अपनानी होगी. भाजपा नेतृत्व पर संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति जैसी शीर्ष निर्णय लेने वाली संस्थाओं को नए सिरे से खड़ा करने का भारी दबाव है. जोर इस पर है कि फैसलों में सिर्फ वजनदार नेताओं की नहीं, बल्कि ताकतवर केंद्रीय और राज्य नेताओं की भी चलनी चाहिए और उनकी सुनी जानी चाहिए.

बेशक, पिछले एक दशक में भाजपा अपनी ब्राह्मण-बनिया पार्टी की छवि से उबरकर ऐसी छतरी बन गई है, जिसमें सभी समुदायों और उनके एजेंडों के लिए हिंदुत्व के बैनर तले जगह है.

लेकिन आरक्षण और जातिवार जनगणना के मुद्दे ने भाजपा को खासकर हिंदी पट्टी के राज्यों में बड़ा झटका दिया, जो विपक्ष के लिए रामबाण साबित हुआ. पार्टी को अब ऐसी राष्ट्रीय रणनीति तैयार करने की जरूरत है, जो ओबीसी पार्टियों और दलित पहुंच वाले उसके सतरंगी गठबंधन को पहुंची चोट से उबार सके. आरएसएस और कई अंदरूनी सूत्रों का यह भी मानना है कि पार्टी को अपने हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने के मामले में अल्पसंख्यकों के प्रति अधिक संतुलित और सोचा-समझा रवैया अपनाना चाहिए.

इसका एक तरीका तो यही है कि समान नागरिक संहिता या वक्फ बोर्ड के अधिकार सीमित करने और धार्मिक संस्थाओं में दूसरे सुधारों जैसे तमाम मामलों को लेकर अल्पसंख्यकों में मौजूद उदार तबके से ज्यादा सलाह-मशविरा किया जाए और उनकी भावनाओं का क्चयाल रखा जाए.

इस बीच, पार्टी चार राज्यों के आसन्न विधानसभा चुनावों पर अपनी ऊर्जा लगा रही है. इन राज्य चुनावों में उसके प्रदर्शन से ही साबित होगा कि पार्टी ने सबक सीखा है या अभी भी उसी चक्रव्यूह में फंसी हुई है, जिसमें वह बुरी तरह घिर गई है. 

राज्यों की उठापटक

उत्तर

हरियाणा  

अभी भी सबसे बड़े नेता खट्टर ही हैं 

- नए प्रदेश अध्यक्ष मोहन लाल बडोली भी मुख्यमंत्री नायब सिंह सैनी की तरह, खट्टर के कट्टर वफादार हैं. दोनों उनकी छाया से बाहर नहीं निकल पा रहे.

- खट्टर के राज्य से बाहर निकलने से पार्टी को पंजाबी हिंदुओं के बीच अपना समर्थन हासिल करने के लिए नई मुहिम की दरकार है.

-  जे.पी. दलाल, कैप्टन अभिमन्यु, ओ.पी. धनखड़ जैसे जाट नेताओं को चुनाव का टिकट तो मिला पर वे बड़ी जिम्मेदारी चाहते हैं.

राजस्थान

भजन का संघर्ष

- हाशिए पर धकेली गईं पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की बेचैनी साफ दिखती है. उन्होंने अपने बेटे के चुनाव क्षेत्र झालावाड़ के बाहर प्रचार नहीं किया.

- देवी सिंह भाटी, किरोड़ी लाल मीणा लोकसभा चुनावों में खराब प्रदर्शन का ठीकरा राज्य इकाई के नेताओं के सर फोड़ रहे हैं.

- मुख्यमंत्री भजनलाल और प्रदेश अध्यक्ष मदन राठौर को कद्दावर नहीं माना जा रहा है.

पश्चिम गुजरात

घर की परेशानियां

- मोदी-शाह का गृह राज्य होने के बावजूद भाजपा यहां की सभी 26 लोकसभा सीटें जीतने की हैट्रिक नहीं लगा पाई.

- प्रदेश अध्यक्ष सी.आर. पाटील केंद्र में मंत्री बन चुके हैं और पद छोड़ना चाहते हैं. उत्तराधिकारी पर सहमति नहीं बन पा रही है.

- पाटीदार नेताओं की हैसियत कम कर दी गई है. मनसुख मांडविया को अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण मंत्रालय मिला है और परषोत्तम रुपाला मोदी कैबिनेट से बाहर हो चुके हैं.

- मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल अब भी राज्य के सर्व-स्वीकार्य नेता नहीं हैं.

महाराष्ट्र

अधर में फडणवीस का भविष्य 

- मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने फडणवीस को कटघरे में खड़ा कर दिया है, खासकर मराठा आरक्षण के मुद्दे पर.

- महायुति में अजित पवार की उपस्थिति पर संघ को आपत्ति है.

- दल-बदलुओं की बाढ़ ने स्थानीय भाजपा नेताओं को असहज कर दिया है

पंजाब

पुराने बनाम दलबदलू

- पूर्व कांग्रेसी सुनील जाखड़ प्रदेश अध्यक्ष हैं, तो रवनीत बिट्टू केंद्र में मंत्री. ऐसा माना जाता है कि दोनों को दिल्ली में बैठे नेताओं के साथ 'यारी' का ईनाम मिला है; स्थानीय नेता इससे असहज हैं.

- अपनी ग्रामीण पृष्ठभूमि के बावजूद जाखड़ पंजाब में भाजपा के लिए राह तैयार करने में असफल रहे हैं.

- परंपरागत भाजपा/संघ नेताओं को लगता है कि नई व्यवस्था में उनकी भूमिका घटती जा रही है.

हिमाचल प्रदेश 

ठाकुर बनाम ठाकुर 

- पूर्व मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के करीबी कई नेताओं का मानना है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के वफादारों ने नौ सीटों पर हुए उप-चुनाव में पूरा जोर नहीं लगाया.

- अनुराग के पिता और पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल को लगता है कि मिशन लोटस इसलिए लड़खड़ा गया क्योंकि पार्टी नेतृत्व ने उन्हें लूप में नहीं रखा.

- अनुराग को मोदी 3.0 में जगह नहीं मिली, भविष्य पर भी अनिश्चितता की स्थिति है.

उत्तर प्रदेश 

वर्चस्व की जंग

- लोकसभा की हार का ठीकरा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की 'कार्यशैली’ पर फोड़ा.

- कई टिकटों में अड़ंगा के लिए उप-मुख्यमंत्री के.पी. मौर्य की आलोचना.

- योगी को विधानसभा उप-चुनावों की कमान सौंपी गई. मौर्य को शांत रहने को कहा गया.

पूरब

बिहार

नेतृत्व संकट 

- सुशील मोदी के निधन से शून्य पैदा हो गया है; लोकसभा में अपेक्षा से खराब प्रदर्शन के लिए आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है.

- अपने कोइरी समुदाय का समर्थन पाने में नाकाम रहने के लिए उप-मुख्यमंत्री सम्राट चौधरी को निशाने पर लिया जा रहा है.

- नए प्रदेश अध्यक्ष दिलीप जायसवाल को कद्दावर नेता नहीं समझा जा रहा है.

झारखंड 

आदिवासी नेताओं का जमघट

- प्रदेश अध्यक्ष बाबूलाल मरांडी आदिवासियों का भरोसा नहीं जीत पाए हैं.

- पूर्व-मुख्यमंत्री चंपाई सोरेन के आने से स्थिति और उलझ जाएगी.

- आरएसएस के पुराने कार्यकर्ता और भाजपा नेता लक्ष्मीकांत वाजपेयी और संघ के वरिष्ठ नेता आलोक कुमार को संघ के स्थानीय नेताओं का भरोसा जीतने को लगाया गया है.

- पूर्व भाजपा नेता सरयू राय की वापसी की प्रतीक्षा थी लेकिन उन्होंने जद (यू) को चुना.

- अर्जुन मुंडा की प्रदेश की राजनीति में वापसी सिरदर्द बढ़ा सकती है.

पश्चिम बंगाल

हारी हुई जंग?

- लोकसभा प्रदर्शन को लेकर पूर्व प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष और शीर्ष नेता शुभेंदु अधिकारी एक दूसरे का गला पकड़ रहे हैं.

- प्रदेश अध्यक्ष सुकांता मजूमदार प्रभावशाली नहीं है, कई जिलों के पदाधिकारियों पर चुनाव के फंड में हेरफेर के आरोप लगे हैं.

- स्थानीय भाजपा/संघ इकाई का मानना है कि शीर्ष नेतृत्व ने जिन दलबदलुओं को पार्टी में शामिल किया वे संगठन का काम नहीं कर रहे हैं.

ओडिशा

प्रदेश इकाई को मजबूत बनाने का काम 

- विपक्षी बीजद और दलबदलुओं के साथ क्या करना है, इसको लेकर स्थानीय इकाई बंटी हुई है.

- पार्टी के ज्यादातर कद्दावर नेता दिल्ली में हैं और राज्य इकाई छुटभैए नेताओं के भरोसे.

छत्तीसगढ़

सत्ता के केंद्र अनेक 

- राज्य में सत्ता के दो केंद्र बन गए हैं: मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय और उनके डिप्टी अरुणा साव.

- ओम माथुर को सिक्किम का राज्यपाल और नितिन नवीन को प्रभारी बनाने को 'संतुलन’ साधने की कोशिश माना जा रहा है
आरएसएस बनाम भाजपा: पारिवारिक कलह मतभेद.

- 1-3 सितंबर की बैठक में आरएसएस की देशव्यापी जाति जनगणना पर सशर्त सहमति ने पार्टी को दुविधा में डाल दिया. पार्टी विरोध करती रही है.

- आरएसएस नेताओं की राय में समान नागरिक संहिता, वक्फ बोर्ड संपत्ति  कानून में संशोधन के साथ हिंदुत्व के दूसरे मुद्दों पर आगे बढ़ना चाहिए, मगर उदार मुस्लिम समूहों के साथ सलाह-मशविरा करके.

- आरएसएस दलबदलुओं (खासकर संघ विरोधियों) को लेकर असहज है कि उन्हें भाजपा में शामिल करके प्रमुख पद दिए जा रहे हैं, जिससे पार्टी के वफादार नाराज हैं.

- संघ भाजपा की निर्णय प्रक्रिया में अति केंद्रीकरण के खिलाफ है, जो उसकी राय में मुट्ठी भर हाथों में है. इसलिए वह आरएसएस के अलावा दूसरे राष्ट्रीय तथा प्रदेश नेताओं की शिरकत चाहता है.

दक्षिण

कर्नाटक

येदियुरप्पा बनाम सभी

- येदियुरप्पा विरोधी खेमे ने लोकसभा चुनाव से पहले उनके बेटे बी.वाइ. विजयेंद्र को प्रदेश अध्यक्ष के रूप में स्वीकार लिया था लेकिन अब वे इस मूड में नहीं हैं.

- राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) बी.एल. संतोष पर फैसले में देरी ने येदियुरप्पा विरोधी खेमे को फिर से उनके इर्द-गिर्द एकत्र होने का मौका दे दिया है.

- येदियुरप्पा खेमे का कोई व्यक्ति केंद्रीय मंत्रिमंडल में नहीं है.

तेलंगाना

बड़ी उलझन

- गुटों के बीच लड़ाई चरम पर, पार्टी विपक्ष के रूप में अपना चुनावी नैरेटिव स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रही है.

- प्रदेश अध्यक्ष के रूप में जी. किशन रेड्डी का विकल्प नहीं नजर आ रहा.

- बीआरएस के लोगों को शामिल करने को लेकर पार्टी में गहरा अंतर्विरोध है.

तमिलनाडु

नहीं चले अन्नामलै 

- भाजपा के पुराने दिग्गज चाहते हैं कि अन्नामलै को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाया जाए और अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन किया जाए.

- लोकसभा चुनाव में पार्टी के मत प्रतिशत में वृद्धि से उत्साहित अन्नामलै के समर्थक अकेले जाने के पक्ष में हैं.

सुलह की कोशिशें

- भाजपा नेता राजनाथ सिंह और अमित शाह अब मुद्दों पर बातचीत के लिए आरएसएस नेताओं दत्तात्रेय होसबाले और सुरेश सोनी से नियमित मिलते हैं. राज्यपालों की नियुक्ति में आरएसएस की चाहत का ख्याल रखा गया.

- चुनाव वाले राज्यों जम्मू-कश्मीर में राम माधव लौटे. सरकार्यवाह अरुण कुमार (हरियाणा), अतुल लिमये (महाराष्ट्र), और आलोक कुमार (झारखंड) भी पार्टी के लिए सक्रिय.

- भाजपा ने चुनाव वाले चार राज्यों में संघ की सलाह से चुनाव मैनेजर नियुक्त किए. स्थानीय आरएसएस नेताओं से संपर्क के निर्देश दिए.

- मोदी सरकार ने सुलह के खातिर सरकारी कर्मचारियों पर आरएसएस से जुड़ने पर लगे 44 साल के प्रतिबंध को हटा लिया.

- आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत को अब विशेष एएसएल सुरक्षा कवर हासिल है. यह प्रधानमंत्री मोदी समेत सिर्फ सात के पास है.

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