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कार्यस्थल पर कैसे तय की जा सकती है स्त्री सुरक्षा, इंडिया टुडे के इस ब्लूप्रिंट से समझिए

कोलकाता में बलात्कार और हत्या की जघन्य वारदात ने एक बार फिर जाहिर किया कि देश में काम करने की जगहें महिलाओं के लिए कितनी असुरक्षित हैं, उनकी सुरक्षा के पुख्ता इंतजामात के लिए संबंधित पक्षों के लिए इंडिया टुडे पेश कर रहा है एक ठोस-सा ब्लूप्रिंट

प्रतीकात्मक तस्वीर
प्रतीकात्मक तस्वीर

अभया जिंदा है. कोलकाता के प्रमुख सरकारी अस्पताल आर.जी. कर मेडिकल सेंटर ऐंड हॉस्पिटल में 9 अगस्त को 31 वर्षीया ट्रेनी डॉक्टर के साथ क्रूर बलात्कार और हत्या को लेकर फूटा देशव्यापी आक्रोश थमने का नाम नहीं ले रहा. लगता है, थमेगा भी नहीं जब तक न सिर्फ उसे बल्कि देश भर की उन लाखों महिलाओं को न्याय नहीं मिल जाता, जो दफ्तरों, कारखानों और सेवा क्षेत्र में लगातार असुरक्षित होते जाते हालात में काम करती हैं.

कार्यस्थल पर जघन्य हमले की शिकार अभया (पहचान छिपाने के लिए डॉक्टर को दिया गया नाम) की मौत ने कार्यस्थलों पर महिलाओं की बढ़ती तादाद की सुरक्षा आश्वस्त करने को लेकर मौजूदा बेरुखी और बेपरवाही पर तेजी से ध्यान केंद्रित किया है. डर और प्रचंड गुस्सा भी कायम है. दिल्ली के एक प्रमुख अस्पताल की युवा रेजिडेंट डॉक्टर कहती हैं, ''कोलकाता में जो हुआ, वह हममें से किसी भी रेजिडेंट के साथ हो सकता है."

वे आगे कहती हैं, "नाइट शिफ्ट के दौरान हम सब खाली हॉल या क्लासरूम में बैठे-बैठे झपकियां लेते हैं. और जब टॉयलेट भी गंदे होते हैं, हम रात में कैफे या पेट्रोल पंप के पब्लिक रेस्टरूम तक चलकर जाते और उनका इस्तेमाल करते हैं."

और यह किसी एक क्षेत्र तक सीमित नहीं. उस शोर-शराबे और गुस्से की थाह लीजिए, जो मलयालम फिल्म इंडस्ट्री में अभिनेत्रियों के यौन शोषण के बारे में जस्टिस हेमा कमिटी की रिपोर्ट को लेकर चौतरफा फूटा है. यह वह #मीटू अभियान है, जिसने दिखाया कि परदे के कई भगवानों के पैर कीचड़ में सने हैं, इस्तीफे दिलवाए, और इस सबकी तरफ से आंख मूंद लेने के लिए सरकार को कठघरे में खड़ा किया. यह आक्रोश नया नहीं है. 2012 में हमने उसे दिल्ली के निर्भया बलात्कार मामले में देखा था, जिसने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया था.

इस बार भी महिलाएं "रिक्लेम द नाइट" या रातें वापस पाने के लिए कोलकाता में सड़कों पर उतरीं और पोस्ट्स तथा पोएट्री में अपना विरोध दर्ज करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया. विपक्षी दलों ने राजनैतिक हंगामा किया, तो अदालतों ने सरकार और अस्पताल के कर्ताधर्ताओं से जवाबदेही की मांग की. गुस्से की आग में इस बात ने घी का काम किया कि अपराध अस्पताल के परकोटे के भीतर हर स्तर पर सुरक्षा और सीसीटीवी कैमरों के बावजूद उस एकमात्र जगह पर हुआ जहां पीड़िता कुछ देर आराम कर सकती थी. 

बढ़ती चिंता का सबब

पीरियॉडिक श्रम बल सर्वे के आंकड़ों के मुताबिक 2022-23 में भारत की महिला श्रमिकों की भागीदारी 37 फीसद थी, जो अब भी दुनिया में सबसे कम में से एक है. हालांकि पिछले छह साल से बढ़त का रुझान दिखा है. इस हिसाब से देश में कामकाजी महिलाओं की संख्या करीब 20 करोड़ है. सबसे ज्यादा 12.8 करोड़ या 64 फीसद कृषि में हैं, तो बाकी मैन्युफैक्चरिंग, सेवा और निर्माण सहित दूसरे क्षेत्रों में कार्यरत हैं.

बढ़ती तादाद में महिलाओं को अब देर रात की पालियों में काम करना पड़ता है और ऐसा स्वास्थ्य और हॉस्पिटेलिटी क्षेत्रों में ही नहीं है. आईटी या आईटीईएस कंपनियां हों या मीडिया, कंसल्टिंग, मैन्युफैक्चरिंग, फार्मा या टेलीकॉम कंपनियां, देर शाम तक काम करना अब काफी आम बात है.

सुरक्षा के नजरिए से महिलाओं को कार्यस्थल और काम पर आने-जाने के दौरान भी खतरों का सामना करना पड़ता है. उनके खिलाफ अपराधों में हाल के वर्षों में देश भर में चिंताजनक बढ़ोतरी देखी गई है. महिलाओं को ताकतवर बनाने के लिए काम कर रहे दिल्ली स्थित संगठन उदयति फाउंडेशन की तरफ से नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध 708 कंपनियों से इकट्ठा आंकड़ों के मुताबिक, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न रोकथाम या पीओएसएच (पॉश) कानून के तहत दर्ज महिला-विरोधी अपराधों में 29 फीसद की बढ़ोतरी हुई और 2022-23 में 1,807 से बढ़कर ये 2023-24 में 2,325 पर पहुंच गए.

दिसंबर 2022 में जारी अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की रिसर्च से पता चला कि हर पांच में से एक से ज्यादा कर्मचारियों (महिला और पुरुष)—दुनिया भर में करीब 23 फीसद—ने कार्यस्थल पर हिंसा और उत्पीड़न झेला, चाहे वह शारीरिक, मनौवैज्ञानिक हो या यौन उत्पीड़न. भारत भी कोई अपवाद नहीं बताया जाता. अलबत्ता यौन उत्पीड़न भी महिलाओं के महफूज न होने का महज एक पहलू है, उन्हें दूसरे अनगिनत अपमानों का सामना भी रोज करना पड़ता है.

महिला और बाल पीड़ितों को कानूनी और सामाजिक सहायता मुहैया करने वाले मजलिस लीगल सेंटर की डायरेक्टर ऑड्रे डी’मेलो कहती हैं, "केवल सीमा लांघने वाले अपराध रिपोर्ट होते हैं. छूने, अश्लील टिप्पणियां, भद्दे चुटकुले, पोर्नोग्राफी दिखाने जैसी छोटी-छोटी रोजमर्रा की घटनाएं तो रिपोर्ट तक नहीं की जातीं."

महिलाओं को अक्सर बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित रखा जाता है, जैसे अलग शौचालय, आराम करने की जगह, या सुरक्षित घर आना-जाना. उन्हें ये सुविधाएं देना कानूनन अनिवार्य है, लेकिन उसका उल्लंघन ही ज्यादा होता है. रेडीमेड गारमेंट सेक्टर को लीजिए, जहां 1.2 करोड़ लोग काम करते हैं और जिनमें बहुतायत महिलाएं हैं. कर्नाटक के नागरिक अधिकार संगठन सिविडेप इंडिया के जनवरी 2024 के अध्ययन ने बेंगलूरू के गारमेंट उद्योग में कार्यरत महिलाओं के प्रति अनगिनत कानूनी उल्लंघनों की तरफ ध्यान दिलाया.

महानगर में ऐसी 500 इकाइयां हैं, जिनमें काम कर रहे 5,00,000 कामगारों में ज्यादातर महिलाएं हैं. अध्ययन में कहा गया, "68 फीसद कामगारों ने बताया कि उनकी फैक्ट्रियों में शौचालय जाने और समय की सीमा तय कर दी गई है, जिसे निगरानी और जुबानी बदसुलूकी के जरिए लागू किया जाता है. उन्होंने अलग-थलग करने और यौन उत्पीड़न की घटनाओं का भी जिक्र किया."

ज्यादातर कंपनियों में शिकायत निवारण समितियां हैं, पर कामगारों का असंतोष विरले ही औपचारिक शिकायतों में बयान होता है, क्योंकि उनमें से 93 फीसद ने रोजगार के किसी लिखित अनुबंध पर दस्तखत नहीं किए, जिससे उन्हें नौकरी से निकालना आसान हो जाता है.

स्त्री सुरक्षा सार्वजनिक सुविधाओं के मामले में भी होनी चाहिए

यही कहानी हिकारत की हद तक बार-बार दोहराई जाती है. डायवर्सिटी, इक्विटी और इन्क्लूजन (डीईआई) कंसल्टिंग फर्म इंटरवीव की संस्थापक निर्मला मेनन ने चेन्नै के बाहरी छोर पर एक बड़ी कंपनी की फैक्ट्री के दौरे में पाया कि वहां काम कर रही 30 महिला कर्मचारियों को तीसरे माले की छत पर बने कामचलाऊ शेड का बाथरूम की तरह इस्तेमाल करना पड़ता था, जहां रोशनी का इंतजाम तक नहीं था.

महिलाओं ने कहा कि वे दो से तीन के समूह में अंदर जाती हैं, जबकि दूसरी बाहर इंतजार करती हैं. विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के 2019 के सर्वे से पता चला कि जिला अदालतों के 665 परिसरों में से 100 में महिलाओं के लिए शौचालय था, और जिन 585 परिसरों (88 फीसद) में वॉशरूम थे भी तो उनमें से 60 फीसद पूरी तरह काम नहीं कर रहे थे. नीलगिरि अदालत की महिला वकील दो दशक से भी ज्यादा वक्त से अदालत के परिसर में शौचालय की मांग कर रही हैं.

फिर आने-जाने की सुविधा की बात. 1990 के दशक में बीपीओ इंडस्ट्री के उभार और कॉल सेंटरों के फैलाव ने रात की पालियों और कर्मचारियों को दफ्तर लाने और घर छोड़ने के चलन का सूत्रपात किया. इन कॉल सेंटरों को अपने पश्चिमी मुख्यालयों के कार्य घंटों के हिसाब से काम जो करना था. मगर ठसाठस भरी टैक्सियों और घंटों के लंबे सफर ने इसे सुविधा से ज्यादा कटु अनुभव बना दिया.

मुंबई की रेडियो जॉकी, फिल्म आलोचक और चैट शो होस्ट स्तुति घोष याद करती हैं, "(उस वक्त दिल्ली में) ग्रेवयार्ड शिफ्ट (देर रात से सुबह-सवेरे तक की पाली) का हिस्सा होने की वजह से मैं रात 9 बजे दफ्तर आती और मध्यरात्रि के बाद 2 बजे तक लाइव रहती. हमें छोड़ने के लिए एक ऑफिस कैब थी, पर यह अनोखी थी. महसूस कराया जाता कि मुझे छोड़ा जाना है और कैसे दफ्तर में और लोग भी होने चाहिए. अचानक आपको एहसास होता कि आप एक औरत हैं और आपको यहां अतिरिक्त मेहनत करनी होगी."

कानून क्यों नाकाम रहे

ऐसा नहीं है कि कानून महिलाओं की खास जरूरतों के प्रति अंधे रहे हों. कारखाना अधिनियम 1948; ठेका श्रम (विनियमन और उन्मूलन) अधिनियम 1970; अंतर-राज्य प्रवासी कर्मकार (आरईसीएस) केंद्रीय नियम 1980; और राज्यों के अपने विशिष्ट दुकान और प्रतिष्ठान अधिनियम, सभी में महिलाओं के लिए अलग शौचालय और विश्रामकक्ष, उनके बच्चों के लिए क्रेश, परिसर में कैंटीन, काम के मुनासिब घंटे, घर से लाने-ले जाने की सुविधा के सुस्पष्ट प्रावधान हैं.

पीओएसएच या पॉश अधिनियम 2013 में 10 से ज्यादा कर्मचारियों वाले संगठनों के लिए आंतरिक शिकायत समिति (आईसी) अनिवार्य कर दिया गया, जिसे साल के आखिर में रिपोर्ट नियोक्ता और जिला अधिकारी को देनी है.

तो भी एक के बाद एक प्रतिष्ठानों में ये सुविधाएं नदारद पाई जाती हैं. कॉर्पोरेट कंपनियां कम से कम इतना न्यूनतम तो करती हैं कि जिससे कानून का पालन करती दिखाई दें, लेकिन डी’मेलो कहती हैं, "एमएसएमई, सरकारी दफ्तरों, पुलिस थानों सरीखी ज्यादातर छोटी संस्थाओं और यहां तक कि अदालतों में इसे रत्ती भर लागू नहीं किया जाता और बुनियादी सुरक्षा जरूरतें तक पूरी नहीं की जातीं."

ज्यादातर विशेषज्ञ मानते हैं कि दिक्कत अनुपालन के स्वरूप में है. पॉश और श्रम कानूनों में लागू करने की जिम्मेदारी प्रतिष्ठानों पर छोड़ दी गई है, और उन पर नजर रखने वाला कोई नहीं है. जानी-मानी महिला अधिकार कार्यकर्ता कविता कृष्णन कहती हैं कि श्रम कानूनों को इस तरह बदलने की जरूरत है ताकि उनके क्रियान्वयन की निगरानी स्व-अनुपालन से हटकर या तो संबंधित सरकारी एजेंसी को सौंप दी जाए या हर जिले में प्रमाणित ऑडिट करने के लिए स्वतंत्र अधिकार समूहों को बुलाया जाए.

बदसुलूकी की शिकार महिलाओं को खराब मनोदशा से उबारने पर काम करने वाले बेंगलूरू के एनजीओ विमोचना की संस्थापक कोरीन कुमार कृष्णन की चिंताओं से इत्तेफाक रखती हैं. उनका कहना है कि सबसे ज्यादा तादाद में महिलाओं को काम देने वाले लघु, छोटे और मझोले उद्यमों (एमएसएमई) में अनिवार्य अमल का कोई तंत्र नहीं है, केवल डिजिटल स्व-अनुपालन होता है.

वे कहती हैं, "श्रम कानूनों के अनुपालन की भौतिक निगरानी के लिए जिन भी स्वतंत्र निकायों को सशक्त बनाया गया था, उन्हें बीते कुछ साल में खत्म करके ई-अनुपालन को अपना लिया गया."

जहां तक पॉश कानून की बात है, इसके लागू होने के एक दशक से ज्यादा वक्त बाद भी उदयति फाउंडेशन के सर्वे में शामिल 200 में से 59 फीसद कंपनियों में आंतरिक समिति नहीं थी. लंबित शिकायतों के समाधान में पिछले साल के मुकाबले 67 फीसद की बढ़ोतरी भी इतनी ही चिंताजनक थी, जो 2022-23 में 260 से बढ़कर 2023-24 में 435 पर पहुंच गईं. शिकायतों की जांच और उनका समाधान कानूनन उनके दाखिल होने के तीन महीनों के भीतर हो जाना चाहिए.

पिछले साल भारतीय कुश्ती संघ (डब्ल्यूएफआई) के प्रमुख बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ यौन उत्पीड़न के आरोपों की जांच के लिए प्रदर्शन कर रहे पहलवानों को एफआईआर दर्ज ही इसीलिए करवानी पड़ी क्योंकि आंतरिक समिति नहीं थी—आरोपों की जांच करने वाली एम.सी. मैरी कॉम की अध्यक्षता वाली समिति ने भी इस बेहद अहम मुद्दे की पहचान की थी.

यह समिति अगर होती भी है, तो अक्सर स्वतंत्र नहीं होती और शिकायतकर्ता के अधिकार से ज्यादा कंपनी की छवि की "रक्षा करने" को प्राथमिकता दे सकती है, खासकर जब शिकायत जूनियर कर्मचारी ने आला प्रदर्शन करने वाले सीनियर के खिलाफ की हो. महिलाओं के संसाधन केंद्र अक्षरा फाउंडेशन की नंदिता शाह, जो पोश समिति की सदस्य भी हैं और लैंगिक हिंसा की रोकथाम के लिए काम करती हैं, कहती हैं, "महिलाओं की कमजोरी की रक्षा अक्सर नहीं की जाती, जिसके चलते उन्हें नौकरी छोड़नी पड़ती है."

इस बीच समाज में गहरे धंसे पितृसत्तात्मक नियम-कायदे, पीड़िता को शर्मिंदा करना, लैंगिक रूढ़ियां और महिलाओं के शरीर पर पुरुष के आधिपत्य की भावना कायम हैं. डी’मेलो कहती हैं, "महिलाएं अक्सर शांत और विनम्र बने रहना और चुपचाप उत्पीड़न सहते रहना चुनती हैं, इस डर से कि कहीं उन्हें ट्रबलमेकर (मुश्किलें खड़ी करने वाली) न करार दे दिया जाए." यह डर भी होता है कि उनकी बातों पर भरोसा नहीं किया जाएगा, क्योंकि उत्पीड़न को साबित करना अक्सर मुश्किल होता है और महिलाएं इस बोझ से दबे रहना नहीं चाहतीं. 

यह सब कार्यस्थल पर अपराध और स्त्री-द्वेष को चिरस्थायी बना देता है. इंटरवीव की मेनन कहती हैं, "उत्पीड़न छोटी-छोटी बातों—चुटकी काटने या छूने—से शुरू होता है और जवाब न दिया जाए तो कुकर्मी की हिम्मत बढ़ जाती है. क्या आपको लगता है कि बलात्कारी पहली बार ऐसा कर रहा होता है? नहीं, वह ऐसा इसलिए कर रहा है क्योंकि पहले ऐसे कई छोटे-मोटे अपराध करके भी बचकर निकल गया."

पॉश कानून के मामले में कंपनियों के रिकॉर्ड को लेकर भी इतने ही संदेह से भरी कृष्णन कहती हैं, "प्रतिष्ठानों में जब तक यूनियनें नहीं बनतीं, पॉश समितियों में नियोक्ता के अपने लोग ही होंगे, जो नियोक्ता की मनमर्जी के मुताबिक काम करेंगे." वे यह भी मानती हैं कि झूठी शिकायत के मामले में शिकायतकर्ता को सजा देने का प्रावधान तत्काल वापस लिया जाना चाहिए क्योंकि यह शिकायतकर्ता की बाहें मरोड़ने का औजार और इसलिए इंसाफ हासिल करने में बड़ी रुकावट बन जाता है.

बलात्कारियों को मौत की सजा देने की मांग भी दोधारी तलवार है. महिलाओं और बच्चों के खिलाफ अपराधों में जुर्म साबित होने की दर 30 फीसद भी नहीं है. शाह कहती हैं, "सजा के स्तर के साथ सबूत की जरूरत भी बढ़ जाती है, जिसका मतलब है कि वह शख्स पूरी तरह बचकर निकल भी सकता है. इसलिए हमारा कहना है कि कुछ न कुछ सजा होनी चाहिए, क्योंकि वह भी पीड़ा और वेदना है."

तत्काल क्या करने की जरूरत

तेलंगाना विशेष सुरक्षा बल की पूर्व पुलिस महानिदेशक तेजदीप कौर मेनन के मुताबिक, महिलाओं के लिए एक अलग सुरक्षित और स्वच्छ शौचालय, कार्यस्थल पर पर्याप्त सुरक्षा सुविधाएं और सुरक्षित परिवहन जैसी बुनियादी सुविधाएं प्रदान करने और उनकी पर्याप्त निगरानी तय करके, इसका समाधान निकाला जा सकता है. वे कहती हैं, "इन [मानदंडों] का पालन किया जा रहा है या नहीं, श्रम विभाग को इसकी नियमित जांच करनी चाहिए." वे केंद्र और राज्य स्तर पर सीसीटीवी के लिए कानून बनाने की भी सलाह देती हैं.

वे कहती हैं, "किसी भी प्रतिष्ठान में कितने सीसीटीवी होने चाहिए, उनकी निगरानी कौन करेगा, टेप कितने समय तक संभालकर रखे जाएंगे, इन सब पर एक कानून बनाया जाना चाहिए और यह भी आश्वस्त करना चाहिए कि पर्याप्त रोशनी हो ताकि फुटेज साफ दिखाई दे." 

तेजदीप ज्यादा संख्या में महिला पुलिस अधिकारियों की भी जरूरत बताती हैं. वे कहती हैं, "हमारी पुलिस में 12 फीसद ही महिलाएं हैं. उसमें बड़ी संख्या में महिलाओं की दरकार है और काम की स्थितियों में भी सुधार किया जाना चाहिए ताकि महिलाओं को काम करने में सहूलियत हो और वे सुरक्षित महसूस करें. महिला पुलिस अधिकारियों के सामने महिला शिकायतकर्ता अपनी रिपोर्ट दर्ज कराने में अधिक सुरक्षित और भरोसेमंद महसूस करती है."

इस बीच, कोलकाता की घटना के मद्देनजर, सुप्रीम कोर्ट ने 20 अगस्त को 14 सदस्यीय राष्ट्रीय टास्क फोर्स के गठन का आदेश दिया. टास्क फोर्स में चिकित्सा पेशेवरों और सरकारी अधिकारियों को शामिल किया गया, ताकि "चिकित्सा पेशेवरों की सुरक्षा, कामकाजी परिस्थितियों से जुड़े चिंता के मुद्दों के समाधान और भलाई के लिए प्रभावी सिफारिशें तैयार की जा सकें."

इससे पहले, 17 अगस्त को, पश्चिम बंगाल सरकार ने दिशा-निर्देश जारी किए थे. इसमें महिलाओं के लिए अलग शौचालयों के साथ आराम के लिए स्थान, रात में महिला स्वयंसेवकों की तैनाती, कामकाजी महिलाओं के लिए एक ऐसा ऐप तैयार करना जिसमें मौजूद एक अलार्म स्थानीय पुलिस स्टेशनों या नियंत्रण कक्षों से जुड़ा हो और हर कामकाजी महिला उसे अपने मोबाइल में डाउनलोड करे, पूर्ण सीसीटीवी कवरेज के साथ महिलाओं के लिए सुरक्षित क्षेत्र बनाना और उसकी अनिवार्य निगरानी की बात शामिल है.

हेल्पलाइन नंबरों के व्यापक उपयोग को प्रोत्साहित किया जा रहा है, और मेडिकल कॉलेजों, सुपरस्पेशिएलिटी अस्पतालों और जिला अस्पतालों में सुरक्षा जांच के साथ-साथ इस बात की भी जांच की जाएगी कि अस्पताल में आने वाले व्यक्ति ने शराब का सेवन तो नहीं कर रखा है. अगर आंतरिक समिति नहीं है तो तुरंत बनाई जानी चाहिए. महिलाओं की सुरक्षा पर सभी सरकारी प्रतिष्ठानों को संवेदनशील बनाने और निजी प्रतिष्ठानों से भी ऐसा करने का आग्रह के साथ एक सर्वांगीण कार्यक्रम शुरू किया जाना चाहिए. 

स्वास्थ्य कर्मियों की समग्र सुरक्षा के लिए इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने प्रस्ताव दिया है कि 2019 में कोलकाता में एक डॉक्टर पर हमले के बाद उसने जो मसौदा तैयार किया था, उसे कानूनी अध्यादेश में बदल दिया जाए. उस मसौदे में, ड्यूटी पर तैनात डॉक्टरों के खिलाफ हिंसा के लिए 10 साल तक की कैद और 10 लाख रुपए तक के जुर्माने की सिफारिश की गई थी.

केंद्र ने भी कोरोना महामारी के दौरान महामारी रोग अधिनियम में एक संशोधन जोड़ा था, जो स्वास्थ्य कर्मियों के खिलाफ हिंसा को गैर-जमानती अपराध बनाता है. इसमें सात साल तक की कैद और 5 लाख रुपए तक के जुर्माने का प्रावधान है. आईएमए ने यह भी सिफारिश की है कि केरल के अस्पतालों में जो कोड ग्रे प्रोटोकॉल लागू है उसे देश के सभी अस्पतालों में लागू किया जाए. कोड ग्रे, अस्पताल के कर्मचारियों को अस्पताल में किसी खतरनाक या झगड़ालू व्यक्ति या आपराधिक गतिविधि के प्रति सचेत करता है.

इस बीच, केंद्र ने सभी सरकारी अस्पतालों से किसी भी ऑन-ड्यूटी स्वास्थ्यकर्मी के खिलाफ हिंसा की घटना के छह घंटे के भीतर अस्पताल की तरफ से एफआईआर दर्ज कराने को कहा है. इसका लाभ यह होगा कि अगर मूल शिकायतकर्ता का किसी दूसरे अस्पताल में स्थानांतरण हो जाता है तो भी उसकी जांच जारी रहेगी. कुछ अस्पताल अपने स्तर पर कार्रवाई कर भी रहे हैं. मसलन, नई दिल्ली स्थित एम्स ने 2022 में अपनी महिला कर्मचारियों के लिए एक सुरक्षा ऐप लॉन्च किया. यह संस्थान की आंतरिक समिति को जानकारी देता है. इसमें एक पैनिक बटन भी है जो अस्पताल सुरक्षा टीम को संकट के संकेत भेजता है. 

लेकिन मौजूदा हड़बड़ाहट में जो समाधान सुझाए जा रहे हैं उनमें कुछ के साथ समस्याएं भी हैं. मसलन, पश्चिम बंगाल स्वास्थ्य विभाग ने आदेश दिया है कि "किसी महिला के लिए एक बार में काम की अवधि 12 घंटे से अधिक नहीं होनी चाहिए. जहां भी संभव हो वहां महिलाओं को रात्रि ड्यूटी देने से यथासंभव बचा जाए." ॉ

महिलाओं को रात में काम करने की अनुमति न देने या उनके काम के घंटों को सीमित करने से उनके करियर के विकास में बाधा पड़ सकती है. इसके बजाए, कंपनियों को कारगर माहौल बनाना होगा जहां महिलाएं सुरक्षित महसूस करें.

टेक्नोलॉजी के जरिए शहरी स्थानों को सुरक्षित बनाने के लिए प्रयासरत सामाजिक उद्यम सेक्रटीपिन की सह-संस्थापक और सीईओ कल्पना विश्वनाथ कहती हैं, "सिर्फ महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने के लिए नहीं, बल्कि सुरक्षा का माहौल बनाने का प्रयास होना चाहिए क्योंकि इससे महिलाओं को काम करने में काफी मदद मिलेगी."

दुरुस्त तरीका क्या

तरीका बेहद आसान-सा हो सकता है. जैसे, कोई मोबाइल फोन ऐप ट्रैवल डेस्क या इमरजेंसी रिस्पॉन्स से जुड़ा हो या महिला कर्मचारियों को घर छोड़ने वाली कारों पर लगा जीपीएस ट्रैकर हो. एसएपी लैब्स इंडिया में 6 बजे शाम के बाद या 6 बजे सुबह के पहले काम करने वाली महिला कर्मचारियों को सुरक्षा गार्ड के साथ कैब मुहैया कराई जाती है. गार्ड महिला कर्मचारी के साथ उसके दरवाजे तक जाता है और तब तक इंतजार करता है जब तक वह घर में सुरक्षित प्रवेश नहीं कर लेती.

इसके अलावा, एचआर हेड श्वेता मोहंती बताती हैं कि सुरक्षा टीम का एक तय सदस्य कॉल करके आश्वस्त करता है कि वह सुरक्षित घर पहुंच गई. आईटी फर्म टेक महिंद्रा के चीफ पीपल ऑफिसर रिचर्ड लोबो भी रात की शिफ्ट में ग्रुप वर्क पर जोर देते हैं. वे कहते हैं, "सुरक्षा गार्ड मौजूद हो तो भी सहकर्मियों के साथ काम करना हमेशा सुरक्षित और अधिक कारगर होता है." वे कभी-कभी शिफ्ट का समय बदलने का भी सुझाव देते हैं, ताकि कर्मचारियों के दफ्तर आने-जाने का कोई खास पैटर्न न हो.

डीईआई कंसल्टिंग फर्म अवतार ग्रुप की संस्थापक-अध्यक्ष सौंदर्या राजेश कहती हैं कि हर संगठन की कार्य-संस्कृति में सुरक्षा का अहम स्थान होना चाहिए. वे कहती हैं, "प्रमुख लोगों को यह साफ करना होगा कि अच्छे व्यवहार से उनका मतलब क्या है." वे जोर देती हैं कि हम सभी उसी समाज के हिस्से हैं जिसमें हम पैदा हुए हैं, इसलिए यह महत्वपूर्ण है.

अगर किसी ने घर पर हिंसा देखी है, तो वह उसे सामान्य बात मानकर दफ्तर में भी वैसा ही बर्ताव कर सकता है. इसलिए, इस पर ठोस रुख अपनाना होगा कि किस तरह का व्यवहार स्वीकार्य है और किस तरह का नहीं. सो, कर्मचारियों के लगातार प्रशिक्षण और उन्हें संवेदनशील बनाने की जरूरत है. कॉन्ट्रैक्ट पर फूड सर्विस मुहैया कराने वाले कंपास ग्रुप के करीब 100 प्रमुख लोग सालाना करीब 360 'सेक्रटी वॉक' आयोजित करते हैं और उस दौरान कर्मचारियों को जागरूक बनाया जाता है.

रोकथाम के उपाय पॉश कानून का अहम हिस्सा हैं, जिसके तहत इंप्लॉयर के लिए जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करना और यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए संवाद का मंच तैयार करना जरूरी है. अनुपालन समाधान मुहैया कराने वाली फर्म कंप्लाइकरो के संस्थापक विशाल केडिया कहते हैं, "अक्सर इंप्लॉयर सालाना प्रशिक्षण आयोजित करते हैं, जबकि इसे नियमित अंतराल पर किया जाना चाहिए."

सुरक्षा के इंतजामात की दरकार कॉर्पोरेट कार्यालयों के अलावा दुकानों और दूसरी जगहों पर भी है. डेटा से पता चलता है कि वित्त वर्ष 24 में प्रति 1,000 महिलाओं के मामले में दर्ज हुईं सबसे अधिक शिकायतें शॉप फ्लोर या फील्डवर्क के क्षेत्रों से आईं. इस जानकारी के बाद कृषि व्यवसाय से जुड़े समूह डीसीएम श्रीराम ने विभिन्न पहलें की हैं. गुजरात के सुदूर गांव झागड़िया में उनके रासायनिक संयंत्र का प्रबंधन खासकर आठ महिलाएं करती हैं.

उसके मुख्य मानव संसाधन अधिकारी संदीप गिरोत्रा कहते हैं, "यह पूरी तरह से महिलाओं का क्षेत्र है, इसलिए कैमरों के जरिए 24 घंटे निगरानी की जाती है और वहां बिना अनुमति के किसी भी पुरुष को जाने की अनुमति नहीं है." इसी तरह, उत्तर प्रदेश के हरदोई में उनके शक्कर कारखाने में महिला हॉस्टल है, ताकि महिलाएं वहां नौकरी कर सकें. ऐसे ही ओडिशा के जाजपुर में जिंदल स्टेनलेस स्टील प्लांट में, बकौल कंपनी के सीएचआरओ सुशील बवेजा, महिला कर्मचारियों को रात की पाली में काम नहीं करना पड़ता और घर से लाने और ले जाने के लिए परिवहन सुविधा भी उपलब्ध है.

आज कार्यस्थल सिर्फ दफ्तर की इमारत तक सीमित नहीं रह गए हैं. सिविल सोसाइटी, सरकार और सभी को ऐसी व्यवस्था बनानी चाहिए, जिसमें शहर के बुनियादी ढांचे और सुविधाओं को स्त्री सुरक्षा को ध्यान में रखकर डिजाइन किया जाए. मसलन, मुंबई के बांद्रा-कुर्ला कॉम्प्लेक्स को असुरक्षित पाया गया क्योंकि इस बड़े व्यावसायिक क्षेत्र में शाम के समय बहुत कम लोग आते हैं. शाह कहती हैं, "हम मुंबई विकास योजना के लिए मिश्रित उपयोग का प्रस्ताव दे रहे हैं, ताकि रिहाइशी और व्यावसायिक क्षेत्र अलग न हों."

स्त्री सुरक्षा सार्वजनिक सुविधाओं के मामले में भी होनी चाहिए. मसलन, उदयति रिपोर्ट के मुताबिक, 200 कंपनियों के 44 फीसद के एचआर प्रबंधकों ने महिलाओं की भर्ती में आवागमन और सुरक्षा के मुद्दों को रुकावट बताया. कई राज्यों में मुफ्त बस सेवा की योजना का लाभ ब्ल्यू-कॉलर कर्मचारी भी उठा रही हैं. कामकाजी महिलाओं की सुरक्षा सिर्फ कंपनियों की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि सामूहिक प्रयास होना चाहिए. सभी मिलकर तय करें कि महिलाएं बिना किसी डर के काम कर सकें. वरना भारत महिलाओं के लिए कभी विकसित नहीं कहला सकेगा.

—साथ में, जुमाना शाह, सुहानी सिंह और अर्कमय दत्ता मजूमदार

महफूज करने की गाइड

देश में कार्यस्थलों पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाए गए कानूनों की फेहरिस्त

फैक्ट्री कानून, 1948,

- धारा 22(2)

चलती मशीन की सफाई, ऑयलिंग या ठीक-ठाक करने पर रोक

- धारा  34

महिलाओं के भारी वजन उठाने पर रोक

- धारा  48(1)

अगर कारखाने में 30 से ज्यादा महिला कामगार हों तो क्रेश की सुविधा का प्रावधान

- धारा  59(1)

महिला कामगार से कारखाने में 9 घंटे से ज्यादा काम लेने की इजाजत/जरूरत नहीं

- धारा 66

महिला कामगार कारखाने में सुबह 6 बजे से शाम 7 बजे तक ही काम करेंगी (रात की पाली के लिए हर राज्य में अपने कामकाजी घंटे और प्रावधान तय किए गए हैं)

*ठेका मजदूर कानून, 1970 

- धारा 18

पर्याप्त रेस्टरूम की व्यवस्था का प्रावधान, जो गोपनीयता को ध्यान में रखकर चारों तरफ से बंद, अच्छे से पार्टिशन, दरवाजों वगैरह से सुरक्षित होने चाहिए

कर्मचारी राज्य बीमा कानून, 1948 

- धारा 46

काम की वजह से होने वाली चोट/बीमारी के लिए महिला कामगार को पर्याप्त चिकित्सा सुविधा और बीमा कवरेज की उपलब्धता जरूरी होगी

**पीओएसएच एक्ट, 2013 

- धारा  4(1)

दस या उससे ज्यादा कर्मचारियों वाले कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की शिकायतों के समाधान के लिए आंतरिक समिति होनी चाहिए

- धारा  19 (सी)

कानून के प्रावधानों से समूचे स्टाफ को बाखबर और संवेदनशील रखने के लिए निश्चित अंतराल पर वर्कशॉप और जागरूकता अभियान और आंतरिक समिति के सदस्यों के लिए ओरिएंटेशन कार्यक्रम चलाए जाएं

- धारा  21

आंतरिक समिति सालाना रिपोर्ट तैयार करेगी और नियोक्ता के साथ-साथ जिला अधिकारी को सौंपेगी

*ठेका मजदूरी (नियमन और उन्मूलन) कानून; 1970 **कार्यस्थल पर महिला यौन उत्पीड़न (रोकथाम, वर्जन और समाधान) कानून, 2013; संकलन: टीमलीज रेगटेक

महिला सुरक्षा व्यवस्था में खामियां

लचर निगरानी और कानून लागू कराने में कोताही की वजह से सरकारी एजेंसियां कानून पर अमल की जवाबदेही नियोक्ताओं पर थोप देती हैं. लिहाजा, असलियत में कानून के अमल में कई खामियां बनी रहती हैं. फिर होता ये है...

-  बुनियादी सुविधाओं का अभाव: जैसे, अलग वॉशरूम, क्रेश, आराम करने की जगह वगैरह 

-  सुरक्षित आवाजाही: खासकर देर शाम के घंटों में वाहन वगैरह की सुविधा

-  आंतरिक समितियों (आईसी) का अभाव: ये होती ही नहीं हैं या होती भी हैं तो उसके सदस्य अक्सर संगठन की छवि के लिए ही फिक्रमंद रहते हैं. इससे जांच की गंभीरता प्रभावित होती है और मामले लंबित होने की दर ऊंची बनी रहती है

-  सजा की कम मिसालें: सबूत के अभाव और लंबी प्रक्रिया के चलते उत्पीड़न और हमलों के मामले में दंड की दर कमतर बनी रहती है

-  सामाजिक भेदभाव: स्त्रियों के प्रति भेदभाव, पीड़िता पर आरोप, और यौन अपराधों से जुड़ी शर्म-हया समाज में बनी हुई है

-  बदले का डर: अक्सर पीड़ित की पर्याप्त सुरक्षा प्रावधानों के अभाव में महिलाएं बदले की आशंका से डर जाती हैं 

-  नाकाफी जागरूकता अभियान: अमूमन सभी कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण और जागरूकता अभियान नियमित रूप से नहीं चलाए जाते, जिनमें ठेकेदार, गिग वर्कर, ब्ल्यू कॉलर स्टाफ शामिल हो

-  छोटे अपराधों को दर्ज न करना: अक्सर छोटे-मोटे अपराधों पर ध्यान नहीं दिया जाता

क्या किया जाना चाहिए

- प्रशासनिक अधिकारियों को नियमित निगरानी और महिला सुरक्षा उपायों पर अमल के लिए जोर देना चाहिए

- सार्वजनिक जगहों पर पर्याप्त रोशनी की व्यवस्था की जाए और नियमित अंतराल में सुरक्षा के मद्देनजर गश्त की जाए

- अपराधों की रोकथाम और निगरानी की कारगर व्यवस्था के लिए अहम जगहों पर सीसीटीवी कैमरे लगाए जाएं और उनका उचित रख-रखाव किया जाए

- नाइट शिफ्ट में काम करने वाली महिलाओं के लिए अलग शौचालय और विशेषकर उनकी अलग जगह होनी चाहिए

- एक कारगर इमरजेंसी रिस्पॉन्स व्यवस्था कायम की जाए, जिसमें तत्काल मदद मुहैया कराने के लिए कोई हेल्पलाइन नंबर हो

- खासकर देर शाम या रात के वक्त सुरक्षित और सुविधाजनक यातायात सुविधा मुहैया कराई जाए

महिला सुरक्षा पर क्या कहती हैं हस्तियां

''महिलाओं की सुरक्षा पुख्ता करने के लिए प्रशासन में खामियों को दूर करना सबसे जरूरी है और इसी के साथ अपराध न्याय प्रक्रिया के तहत ऐसी संस्कृति विकसित की जाए, जिससे सहयोग, सहकारिता और परस्पर समझ बढ़े"

— किरण बेदी, देश की पहली महिला आइपीएस अधिकारी और पूर्व उप-राज्यपाल, पुदुच्चेरी

''हमारे यहां (उत्पीड़न के खिलाफ) कड़े कानून तो हैं लेकिन चुनौतियां बनी हुई हैं. खासकर स्थानीय स्तर पर लगातार अमल कराने को लेकर और गहरी सामाजिक रूढिय़ों के मामले में"

—  रूपाली चकणकर, अध्यक्ष, महाराष्ट्र राज्य महिला आयोग

''निर्भया की घटना के करीब 12 साल बाद भी कुछ नहीं बदला क्योंकि हम नारेबाजी और प्रचार अभियानों में ही मशगूल रहे. हम व्यवस्था के स्तर पर क्या कर रहे हैं? जब तक इरादा पक्का और नेक न हो तब तक कुछ भी ठीक नहीं होगा"

—  गुल पनाग, एवियाट्रिक्स, अभिनेत्री और प्रोड्यूसर

"हर तरह के यौन उत्पीडऩ के मामलों को गंभीरता से लेने की जरूरत है. 'छेड़छाड़’,पीछा करने, छींटाकशी करने जैसी शिकायतों पर गौर न करने से शिकायत करने वाले हतोत्साहित होते हैं और अपराधियों के हौसले बुलंद होते हैं"

 —  वीणा गोपालकृष्णन, पार्टनर, एम्प्लॉयमेंट प्रैक्टिस, ट्राइलीगल

''एमएसएमई उपक्रमों में सबसे अधिक महिलाएं काम करती हैं लेकिन उनमें कानून पर अमल की अनिवार्य व्यवस्था नहीं है. वे सिर्फ डिजिटल सेल्फ-कंप्लायंस के भरोसे ही हैं"

— कोरिन कुमार, संस्थापक, विमोचना, बेंगलूरू स्थित एनजीओ

''यौन उत्पीड़न के मामलों में सजा का दर्जा बढ़ने के साथ सबूत की जरूरत भी बढ़ जाती है, जिसका मतलब है कि दोषी छूट जा सकता है. इसलिए कुछ तो दंड होना ही चाहिए, क्योंकि वह भी दर्द तो देता ही है"

—नंदिता शाह, सह-निदेशक तथा प्रबंध ट्रस्टी, अक्षरा फाउंडेशन, बेंगलूरू

''हमें अधिक महिला पुलिस अधिकारियों की जरूरत है और उनके लिए सुरक्षित तथा काम करने की सहूयिलत का माहौल बनाया जाना चाहिए. महिला पुलिस के होने से महिलाएं अमूमन शिकायत दर्ज कराने में सुरक्षित और सहज महसूस करती हैं"

—तेजदीप कौर मेनन, पूर्व डीजीपी, तेलंगाना विशेष सुरक्षा बल

''भले सुरक्षा गार्ड मौजूद हों लेकिन महिला कर्मचारी अपने सहकर्मियों के साथ काम करने में ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हैं. शिफ्ट का समय भी बदलते रहना चाहिए, ताकि नोटिस करने को घर से निकलने और लौटने का कोई पैटर्न न बनने पाए"

—रिचर्ड लोबो, चीफ पीपल ऑफिसर, टेक महिंद्रा.

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