प्रतिष्ठित लेखक सैमुअल बटलर 1903 छपे अपने उपन्यास 'द वे ऑफ ऑल फ्लेश' में लिखते हैं, "खुद ही अपनी पीठ थपथपाने या गुण गान करने का लाभ यह है कि उसे पूरे वजन के साथ बिल्कुल माकूल मौके पर फिट किया जा सकता है."
इस फरवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दस साल के आर्थिक एजेंडे की तुलना मनमोहन सिंह के कार्यकाल से करने के लिए संसद में श्वेत-पत्र पेश करते वक्त केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा, "दशक भर में ही हम (मनमोहन सिंह के कार्यकाल में) फ्रेजाइल फाइव (लड़खड़ते पांच) से शीर्ष पांच की लीग में पहुंच गए."
यह सही है कि जब नरेंद्र मोदी ने 2014 में मनमोहन सिंह के बाद सत्ता संभाली थी तब देश की अर्थव्यवस्था दुनिया की दसवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हुआ करती थी, लेकिन अब वह 37 खरब डॉलर (308 लाख करोड़ रुपए) की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के साथ पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है.
फिर, कोविड-19 महामारी के दौरान एकदम गर्त में पहुंची देश की अर्थव्यवस्था में मोदी सरकार वित्त वर्ष 2024 में 7.6 फीसद की प्रभावी वृद्धि के साथ जान फूंकने में कामयाब हुई है. इससे हम दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था बन गए हैं.
ये उपलब्धियां सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए 2024 के लोकसभा चुनाव में युद्धघोष और केंद्र में लगातार तीसरी बार बहुमत हासिल करने के खातिर मूलमंत्र बन गई हैं. प्रधानमंत्री प्रचार रैलियों में खुद के नाम पर 'मोदी की गारंटी' की बात करते हैं, और आजादी के सौ साल पूरे होने पर 2047 तक विकसित भारत के निर्माण का अपना नजरिया पेश करते हैं.
यही नहीं, वे अगले तीन साल में दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने का तात्कालिक वादा भी करते हैं. इस तरह वे बताते हैं कि उनकी सरकार और उन्हें बतौर प्रधानमंत्री लगातार तीसरा कार्यकाल मिला तो अर्थव्यवस्था में तेजी से गरीबों, युवाओं, महिलाओं और किसानों के जीवन में व्यापक सुधार होगा.
बटलर की अपनी प्रशंसा खुद करने वाली टिप्पणी दूसरों की लानत-मलामत करने के मामले में भी सही बैठती है. भाजपा के अपने आर्थिक गुणगान से मुकाबला करने के लिए देश की मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने मनमोहन सरकार के आर्थिक ट्रैक रिकॉर्ड की आलोचना के जवाब में न सिर्फ फौरन 'काला पत्र' जारी किया, बल्कि मोदी सरकार की 'नाकामियों' की फेहरिस्त भी बना डाली, जिसमें भारी बेरोजगारी दर, नोटबंदी तथा जीएसटी जैसी आर्थिक तबाही लाने वाले कदमों से अमीर-गरीब के बीच खाई चौड़ी हुई और जिसने लाखों किसानों तथा दिहाड़ी मजदूरों के भविष्य को तबाह कर दिया है.
लेकिन भाजपा का अपना प्रशंसा-गान जारी है, तो कांग्रेस ने भी मोदी सरकार की नाकामियों को अपने चुनाव अभियान का बदस्तूर हिस्सा बना लिया है. राहुल गांधी ने इसे, 'दस साल अन्याय काल के खिलाफ न्याय की लड़ाई' कहा है, और बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई और गैर-बराबरी की आर्थिकी के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया है और उन्हें पार्टी के प्रमुख आर्थिक मुद्दे बना डाला है.
आर्थिक, खासकर रोजगार तथा नौकरियों का अभाव, महंगाई और समान तथा बराबरी वाले विकास का मुद्दा दरअसल 2024 के चुनाव में बेहद अहम बनकर उभरा है. यहां तक कि जनमत सर्वेक्षणों में भी ये मुद्दे वोटरों की सबसे बड़ी चिंता की तरह दर्ज किए गए हैं.
देश में चुनाव अमूमन कई मसलों पर जीते-हारे जाते हैं, जिनमें भावनात्मक अपील, जन-धारणा, राष्ट्रीय सुरक्षा, राजनैतिक स्थिरता, परिवार और जाति संबंधी आग्रह वगैरह होते हैं, लेकिन आर्थिक मुद्दे सब पर भारी पड़ते हैं और कई मौकों पर नतीजे भी तय करते हैं.
मसलन, इमरजेंसी की हार के बाद इंदिरा गांधी 1980 में प्याज की बढ़ती कीमतों को मुख्य एजेंडा बनाकर जनता पार्टी की सरकार को हराकर सत्ता में वापस आ गई थीं. हाल के दौर में, 2009 में अर्थव्यवस्था में अब तक की सबसे अधिक औसत जीडीपी वृद्धि दर्ज होने के बाद मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री लगातार दूसरी बार सत्ता में पहुंचे थे. उस जीत में उनकी सरकार की महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून (मनरेगा) जैसे व्यापक कल्याणकारी योजनाओं का भी योगदान था. मोदी ने भी 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' के नारे के सहारे तीसरे कार्यकाल के लिए अपना दावा पेश किया है, जो विकास, समावेशी योजनाओं और भरोसे पर आधारित है.
अर्थव्यवस्था और उसकी प्रगति तथा नाकामियों के दावे और प्रति-दावे सत्तारूढ़ और विपक्षी गठबंधन दोनों के प्रचार अभियानों में बुलंद हो रहे हैं. ऐसे में इंडिया टुडे ने इन बयानबाजियों से दूर रहकर मोदी सरकार के ट्रैक रिकॉर्ड का प्रमुख मापदंडों पर वास्तिविक मूल्यांकन करने की कोशिश की. प्रधानमंत्री के दोनों कार्यकाल के दौरान कामयाबियों और नाकामियों दोनों का विश्लेषण किया गया है.
मोदी सरकार के पूर्व केंद्रीय वित्त सचिव और अब केंद्र के आलोचक माने जाने वाले सुभाष चंद्र गर्ग कहते हैं, "मोदी सरकार के तहत देश की आर्थिक प्रगति के बारे में सच्चाई सिर्फ काले या सफेद में ही नहीं है, इसमें कई धूसर इलाके हैं." गर्ग का मानना है कि अर्थव्यवस्था पर दूरगामी असर के लिए किसी भी प्रधानमंत्री को भारत जैसे विकासशील देश में नेतृत्व के मुख्य एजेंडे में तीन मुख्य बिंदु होने चाहिए.
एक, तेज आर्थिक विकास के लिए सरकार और कारोबार के साथ-साथ घरेलू और विदेशी निवेशकों के साथ संबंधों के संदर्भ में अर्थव्यवस्था की संरचना को बदलना चाहिए. दूसरे, समान और समावेशी विकास के लिए गरीबों में संसाधनों का पुनर्वितरण होना चाहिए. और तीसरी है टिकाऊ विकास के लिए पर्यावरण को ध्यान में रखकर तेजी से तकनीकी बदलावों के सहारे विकास की दिशा में आगे बढ़ने की नेता की काबिलियत.
इसके अलावा, विशेषज्ञों के मुताबिक, हर प्रधानमंत्री आर्थिक नीति के संबंध में अपना नजरिया, अपनी विचारधारा और प्रतिबद्धता लेकर आता है, जिससे तुलना करना मुश्किल हो जाता है. इसलिए, 'मनमोहनॉमिक्स' या 'मनमोहन आर्थिकी' अधिकार-आधारित अर्थशास्त्र पर केंद्रित थी जो लोगों, खासकर कमजोर वर्गों के अधिकारों को पुख्ता करने की दिशा में काम करता थी.
'मोदीनॉमिक्स' या 'मोदी आर्थिकी' का फोकस भारी निवेश आधारित विकास और कल्याण योजनाओं के साथ राजकोषीय संतुलन पर है. इसमें इस बात पर भी जोर है कि टेक्नोलॉजी की मदद से लाभार्थियों को बिचौलियों के बजाए सीधे नकदी हस्तांतरण हो सके, ताकि डिलिवरी कारगर और भ्रष्टाचार से मुक्त हो. मोदी के हर काम और योजनाओं में एक स्पष्ट सोच-समझ होती है, जो बड़े गेमप्लान का हिस्सा होती है. यह पहले जाहिर नहीं होता है लेकिन उसके सभी हिस्सों के जुड़ जाने के बाद खुलता है.
जनवरी में इंडिया टुडे के साथ बातचीत में प्रधानमंत्री ने अपने नजरिए के इसी 'क्रमवार उजागर' होने की बात की थी. उन्होंने मिसाल के तौर पर डिजिटल सार्वजनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर का जिक्र किया था, जिसकी पहल उनकी सरकार ने की. अपने पहले कार्यकाल में मोदी ने जन धन योजना के जरिए बैंकिंग सुविधा से वंचित लोगों को बैंक खाते खुलवाने का बड़ा अभियान चलाया था, जिसमें 50 करोड़ से अधिक बैंक खाते खुले.
उसके बाद उन्होंने सरकारी कल्याण योजनाओं की मद में सभी नकद हस्तांतरण के लिए सीधे इन लाभार्थी खातों को आधार कार्ड और मोबाइल नंबर से जोड़ दिया. इसे जैम या जेएएम या जन धन, आधार और मोबाइल त्रिकोण कहा जाता है. यह गेम-चेंजर साबित हुआ. इन खातों में फिलहाल 2.32 लाख करोड़ रुपए जमा राशि बताई जाती है. देश डिजिटल सार्वजनिक इन्फ्रास्ट्रक्चर में वैश्विक अगुआ के रूप में उभरा. पिछले साल ई-लेन-देन की संख्या बढ़कर 13.4 करोड़ की हो गई, जो सभी वैश्विक डिजिटल भुगतानों का 46 फीसद था.
'नीतिगत लकवा' से ग्रस्त मनमोहन सिंह सरकार के बाद 2014 में जब मोदी ने सत्ता संभाली, तो लोगों की उम्मीद यही थी कि उनकी सरकार अर्थव्यवस्था में फौरन जान डालकर लाखों रोजगार और नौकरियां पैदा करेगी, जिसकी देश को सख्त जरूरत थी. उनसे यह भी उम्मीद की गई थी कि वे तेज आर्थिक विकास की राह प्रशस्त करने के लिए कई सुधार लाएंगे.
उनसे वह भी करने की उम्मीद थी, जिसे वे कहते, 'अधिकतम शासन, न्यूनतम सरकार.' अपने पहले कार्यकाल में मोदी ने खासकर सड़क इन्फ्रास्ट्रक्चर की कई परियोजनाओं और खासकर वित्तीय क्षेत्र में कई सुधारों की शुरुआत की. गरीबों और जरूरतमंदों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए व्यापक कल्याणकारी उपाय भी शुरू किए गए, जिनमें शौचालय, सस्ता गैस कनेक्शन और घर मुहैया कराना शामिल है.
वित्तीय क्षेत्र में मोदी के दो प्रमुख संरचना संबंधी बदलाव मार्के के साबित हुए. एक, उन्होंने देश भर में कारोबारी सहूलत पैदा करने के लिए ऐतिहासिक माल और सेवा कर (जीएसटी) को आगे बढ़ाया. दूसरे, बड़े पैमाने पर एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट या गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां) या डूबत कर्ज के संकट से जूझ रहे बैंकों की मदद करने के उपायों में एक इन्सॉल्वेंसी ऐंड बैंकिंग कोड (ईबीसी) लाया गया, क्योंकि एनपीए बढ़कर 10.2 लाख करोड़ रुपए हो गया था.
हालांकि, उन्होंने 2016 में काले धन से निजात पाने के लिए नोटबंदी का चौंकाने वाला फैसला भी किया, जिससे उच्च मूल्य वाली मुद्रा रातोरात अवैध करार दे दी गई. यह काफी विवादास्पद साबित हुआ और अर्थव्यवस्था को पटरी से उतार दिया. आखिर भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने अगस्त 2018 में खुलासा किया कि कुल 15.3 लाख करोड़ रुपए की अवैध करार दी गई मुद्रा का 99.3 फीसद बैंकिंग प्रणाली में वापस आ गया है. इससे काला धन मिटाने का तर्क बेमानी होता लगा. हालांकि लोगों ने काले धन को मिटाने के व्यापक हित में आई कठिनाइयों को झेल लिया.
इसके ठीक विपरीत, गरीबों के लिए उनकी कल्याणकारी योजनाएं बहुत सफल साबित हुईं, यहां तक कि वे जाति-धर्म से परे लाभार्थियों का एक पूरा वोट बैंक बनाने में कामयाब हुए. इस लाभार्थी वर्ग ने उनकी 2019 में दोबारा चुनावी जीत में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. वे मध्यम वर्ग के घर खरीदारों को बेईमान डेवलपर्स से बचाने के लिए 2016 में रियल एस्टेट (विनियमन और विकास) अधिनियम (आरईआरए-रेरा) ले आए, जिससे इस क्षेत्र में विकास हुआ और इसे कामयाब पहल माना गया.
उनका दूसरा कार्यकाल राजनैतिक और आर्थिक मोर्चे पर बड़े पैमाने पर सुधारों के साथ शुरू हुआ. गद्दी संभालने के कुछ ही महीनों के भीतर उनकी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने का संशोधन संसद के दोनों सदनों में पारित करवा लिया. आर्थिक मोर्चे पर प्रधानमंत्री ने कारोबारी घरानों को बड़ी रियायत दी. उन्होंने कॉर्पोरेट टैक्स को 35 फीसद से घटाकर 25 फीसद और नई उत्पादन इकाइयों के लिए 25 फीसद से 15 फीसद कर दिया.
इसके साथ ही, मोदी सरकार ने कई प्रमुख सार्वजनिक क्षेत्र इकाइयों के विनिवेश पर जोर दिया. इनमें घाटे में चल रही सार्वजनिक क्षेत्र की एयरलाइन एयर इंडिया भी शामिल है, जिसे 18,000 करोड़ रुपए में टाटा घराने को बेच दिया. सार्वजनिक क्षेत्र की एक अन्य दिग्गज कंपनी भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) के शेयरों को भी लोगों के लिए खोला गया, जिसकी आरंभिक सार्वजनिक पेशकश 21,000 करोड़ रुपए थी. एक अन्य वादे में सार्वजनिक क्षेत्र की कुछ प्रमुख संपत्तियों का निजी क्षेत्र में बिक्री या मॉनेटाइजेशन शामिल था, जिसका अनुमानित आंकड़ा 6 लाख करोड़ रुपए था.
हालांकि, कोविड महामारी मोदी की बड़े सुधारों की योजनाओं के लिए झटका साबित होती. प्रधानमंत्री को श्रेय देना होगा कि वे अडिग रहे और उन्होंने अर्थव्यवस्था को महामारी की गर्त से बाहर निकालने के लिए फिजूलखर्ची के बजाए राजकोषीय संतुलन बनाए रखने का फैसला किया.
उन्होंने अन्य बातों के अलावा, देश भर में इन्फ्रास्ट्रक्चर के निर्माण में भारी निवेश करने पर जोर लगाया. रेल, सड़क और समुद्री कनेक्टिविटी को बढ़ाने और लॉजिस्टिक्स में तेजी लाने के लिए पांच वर्षों में नेशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन के लिए 2020 में 100 लाख करोड़ रुपए देने का वादा किया.
लगता है कि प्रधानमंत्री के अडिग रवैए और आश्वासन का फल मिला है, क्योंकि अर्थव्यवस्था ने मजबूती से वापसी की है, यहां तक कि विश्व नेताओं ने भी उसकी मजबूत जीडीपी वृद्धि की सराहना की है. हालांकि, राजकोषीय घाटा वित्त वर्ष 2013 में 6.4 फीसद के उच्च स्तर पर था, लेकिन उसका संतुलन कैसे बनाया जाए, इसके लिए एक स्पष्ट उपाय था.
हरित या स्वच्छ ऊर्जा पहल के लिए भी बड़े लक्ष्य निर्धारित किए गए, जिसने देश और विदेश में बड़े कॉर्पोरेट और शीर्ष निवेशकों का ध्यान खींचा. देश के शेयर बाजारों में भी उत्साह का माहौल है. इस साल अप्रैल में सेंसेक्स 75,000 अंक को पार कर गया. भारत को निवेश के लिए बेहतर माना जाने लगा, जिससे भारतीय शेयरों में विदेशी धन के प्रवाह में मदद मिल रही है.
इन उम्मीद की किरणों पर कुछ काले बादल भी हैं. एयर इंडिया और एलआईसी को छोड़कर, सरकार की पूर्ण संपत्ति बिक्री या निजीकरण की महत्वाकांक्षी योजनाएं बेहद धीमी गति से आगे बढ़ रही हैं. इसी तरह कृषि सुधार की महत्वाकांक्षा को भी किसानों के साल भर के विरोध के सामने दफन करना पड़ा. इसलिए, मोदी के दो कार्यकालों में कृषि विकास दर 4 फीसद पर स्थिर रही है और वित्त वर्ष 24 में फिसलकर 1.4 फीसद पर आ गिरी है.
जाहिर है, किसान नीतिगत बदलाव से स्पष्ट रूप से नाराज हैं. श्रम सुधार भी अधर में हैं क्योंकि 2019-20 में पारित केंद्रीय कानून रुका हुआ है. उत्पादन क्षेत्र के लिए अहम भूमि सुधार प्रक्रिया भी अधूरी है. मोदी के पहले कार्यकाल के दौरान पारित भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को जल्द ही समाप्त हो जाने दिया गया.
जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र के योगदान को 15 फीसद से से बढ़ाकर 25 फीसद करने और रोजगार सृजन का वादा सपना बनकर ही रह गया है. कौशल विकास कार्यक्रमों के साथ-साथ लॉजिस्टिक्स इन्फ्रा में पिछड़ने के कारण, चीन की जगह वैकल्पिक वैश्विक आपूर्ति शृंखला बनने की इच्छा अधूरी है. हालांकि पिछले दो वर्षों में निर्यात में वृद्धि हुई है, फिर भी प्रदर्शन क्षमता से काफी कम है.
देश में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने 2020 में उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना या पीएलआई स्कीम का ऐलान किया था और 1.97 लाख रुपए के आवंटन के साथ उसका विस्तार 14 सेक्टरों में किया. मकसद यह था कि मैन्युफैक्चरिंग चैंपियन बनाए जाएं और पांच साल में करीब साठ लाख नौकरियां पैदा की जाएं. लेकिन आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन जैसे आलोचकों का कहना है कि इस योजना ने सिर्फ मैन्युफैक्चरिंग इकाइयों पर सब्सिडी की बरसात की है और कोई गारंटी नहीं है कि ये कंपनियां सब्सिडी खत्म होने के बाद टिकी रहेंगी.
राजन का तर्क है कि यह रकम सेवा क्षेत्र में इजाफे के लिए बेहतर इस्तेमाल की जा सकती थी, जिसका देश की जीडीपी में अब योगदान 55 फीसद है और सबसे ज्यादा रोजगार पैदा हो रहे हैं, जिसमें साल-दर-साल आधार पर वृद्धि दर औसत 7 फीसद है. वित्त वर्ष 23 में सेवाओं के निर्यात में 322 अरब डॉलर का नया रिकॉर्ड स्थापित हुआ, जिसकी सालाना चक्रवृद्धि वृद्धि दर वित्त वर्ष 22 के मुकाबले 26.7 फीसद है. मसलन, पर्यटन में वृद्धि की भारी संभावना है, मगर असली सवाल मांग की पूर्ति के लिए लोगों के हुनर और प्रशिक्षण में निवेश करने का है.
इस सबके अलावा, यह देखते हुए कि हम चुनावी वर्ष में हैं, बेरोजगारी और महंगाई पर सरकार के रिकॉर्ड पर जनता की तीखी निगाह है. सत्तारूढ़ भाजपा दावा करती है कि बेरोजगारी दर घटी है और यह 2018-19 में 5.8 फीसद से कम होकर 2022-23 में 3.2 फीसद रह गई. साथ ही श्रमिकों की भागीदारी दर भी 2018-19 में 50.2 फीसद से बढ़कर 2022-23 में 57.9 फीसद तक पहुंच गई है. विशेषज्ञ इसे कड़वी सचाई को छिपाने के लिए सुविधाजनक आवरण बताकर खारिज करते हैं और कहते हैं कि वास्तविक वृद्धि स्व-रोजगार में है, जो अधूरे रोजगार का पैमाना है.
भारत के कार्यबल का 20 प्रतिशत ही औपचारिक रोजगार से जुड़ा हुआ है. इंडिया टुडे के साथ बातचीत में वित्त मंत्री सीतारमण कहती हैं कि ठोस रोजगार के आंकड़े मिलना मुश्किल हैं, जिससे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना आसान नहीं है लेकिन वे स्टार्ट-अप की वृद्धि, छोटे कारोबारियों द्वारा मुद्रा ऋण के बढ़ते उठाव, नए हरित ऊर्जा क्षेत्रों की वृद्धि और बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में बड़े निवेश का जिक्र करते हुए कहती हैं कि भारी संख्या में रोजगार का सृजन हो रहा है.
ऐसा लगता है कि महंगाई पर नियंत्रण के मामले में सरकार ने बेहतर किया है. पहले कोविड के कारण आपूर्ति शृंखला में बाधाएं और फिर पूर्वी यूरोप और पश्चिम एशिया में तनाव की लपटों, जिससे बुनियादी चीजों की वैश्विक कीमतों पर असर हुआ, के बावजूद औसत महंगाई 2014-15 से 2023-24 (नवंबर तक) महज 5.1 फीसद रही. इससे पहले मनमोहन सरकार (2004-14) के पिछले 10 वर्ष के दौरान यह 8.2 फीसद थी. हालांकि खाद्य वस्तुओं की महंगाई ऊंची बनी हुई है, खास तौर पर चुनावी वर्ष में, जुलाई 2003 के बाद से ही यह करीब 8.7 फीसद के औसत पर है.
इतना ही नहीं, जहां अर्थव्यवस्था के कुछ हिस्से बेहतर काम कर रहे हैं, अन्य हिस्से पिछड़ रहे हैं जिस कारण अर्थशास्त्री इसे 'के-आकार' की वृद्धि बताते हैं. छोटे और मझोले उद्योग इस क्षेत्र में बड़े पैमाने पर रोजगार मुहैया कराते हैं. लेकिन वे अभी तक कोविड के झटकों से उबर नहीं पाए हैं. हालांकि सरकार का दावा है कि उसने विभिन्न योजनाओं के जरिए उनकी मदद की है.
'के-आकार' की वृद्धि का एक और पहलू यह है कि जहां कंपनियों में वेतन में औसतन 10 फीसद का इजाफा हुआ है, वहीं ग्रामीण श्रमिकों, जिनमें कृषि मजदूर भी और शहरी कामगारों का एक हिस्सा भी शामिल है, की मजदूरी में पिछले एक साल में महज एक फीसद या उससे कम की बढ़ोतरी हुई है. मोदी सरकार ने परोक्ष रूप से उनकी दारुण हालत को माना है और 81 करोड़ गरीबों को मुफ्त अनाज की योजना पांच साल और बढ़ा दी है.
इस योजना को अप्रैल 2020 में कोविड के दौरान शुरू किया गया था. श्रमिकों के हाथ में अपने रोजमर्रा की जरूरतें किसी तरह पूरी करने के अलावा अधिक पैसा नहीं होने से खपत में भारी गिरावट आई है. इसकी वजह से निजी क्षेत्र की निवेश और वस्तु और सेवाओं के विस्तार की इच्छा कुंद हो गई है. गैर-भाजपा शासित राज्य, खास तौर से दक्षिण में, भी कर में हिस्सेदारी को लेकर केंद्र के रवैए से नाखुश हैं और अपने योगदान की तुलना में कम हिस्से का हवाला देते हैं.
अब जबकि देश में आम चुनाव का बुखार बढ़ता जा रहा है तो इन सब का मतदाताओं के मानस पर क्या असर होगा? विकास के चार इंजन में से केवल एक भारी सार्वजनिक खर्च अभी भी चल रहा है. निर्यात उतना अच्छा नहीं है, जितना दिखता है. निजी निवेश और खपत बढ़ने लगी है. हालांकि उनमें इससे बहुत-बहुत अच्छे प्रदर्शन की ताकत है मगर कर नहीं पा रहे हैं.
वित्त मंत्री बातचीत में कहती हैं कि अगर प्रधानमंत्री फिर से जीतकर आते हैं तो मोदी 3.0 में सभी महत्वपूर्ण आर्थिक मसलों पर बहुत तेजी से काम किया जाएगा. सभी बड़े लोकतंत्रों की तरह भारतीय मतदाता यह फैसला करेगा कि क्या प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर अच्छा काम किया है और वह तीसरे कार्यकाल के योग्य है.

