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आखिर किस तरह भारत को बदलने वाला है अयोध्या का राम मंदिर?

मोदी और भागवत दोनों को श्रेय देना होगा कि उन्होंने अपने भाषणों में जीत के हर्षोन्माद से परहेज बरता. राष्ट्रीय कर्तव्य का आह्वान करते हुए भागवत ने कहा, "हमें अच्छा आचरण बनाए रखना और विवादों को खत्म करना चाहिए"

अयोध्या में राम लला की प्राण-प्रतिष्ठा के दौरान पीएम मोदी
अयोध्या में राम लला की प्राण-प्रतिष्ठा के दौरान पीएम मोदी

अयोध्या के एकदम नए बने राम मंदिर में बालक राम की मूर्ति के प्राण प्रतिष्ठा समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के महज एक वाक्य ने इस घटना के युगांतरकारी स्वरूप के निचोड़ को बयान कर दिया. भावना में रुंधे गले से उन्होंने कहा, "हमारे राम लला अब टेंट में नहीं रहेंगे, वे अपने इस दिव्य मंदिर में रहेंगे."

इन शब्दों ने उजाड़ तंबू से लेकर भव्य मंदिर तक जो तस्वीर मन में उकेरी, उसमें हिंदू देवकुल के सबसे श्रद्धेय देवताओं में एक का जन्मस्थान मानी जाने वाली जगह पर मंदिर के निर्माण का सदियों पुराना रक्तरंजित संघर्ष समाहित था. यह उस सांस्कृतिक पुनर्जागरण का द्योतक भी था, जिसे मोदी की अगुआई वाली भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और उसका मार्गदर्शक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) आने वाले महीनों और वर्षों में देश में अपनी जमीन बढ़ाने और फैलाने की उम्मीद कर रहे हैं.

​  ​ पीएम मोदी गर्भगृह की ओर बढ़ते हुए ​  ​
​ ​ पीएम मोदी गर्भगृह की ओर बढ़ते हुए ​ ​

भारत के हिंदू बहुसंख्यकों के बीच इस घटना से उत्पन्न भावनात्मक जुड़ाव का तो जिक्र ही क्या, जो जानकारों के अनुसार, 2024 की गर्मियों में होने वाले आम चुनाव में स्पष्ट बहुमत के साथ लगातार तीसरा कार्यकाल हासिल करने की भाजपा की कोशिश में चार चांद लगा देगा.

मोदी अलबत्ता हिंदू पुनर्जागरण और पुनरुत्थान के इस शानदार प्रदर्शन के प्रस्तावक, संवाहक और मुख्य यजमान (संरक्षक) बने रहेंगे. जैसी कि उनकी फितरत है, इस लम्हे के बारे में हर चीज सर्वोत्कृष्ट ढंग से संयोजित की गई थी.

अपने पहले कार्यकाल में प्रधानमंत्री ने आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और संघ परिवार के उस जबरदस्त दबाव का प्रतिरोध किया, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार किए बिना मंदिर निर्माण की खातिर अध्यादेश जारी करने के लिए उन पर डाला जा रहा था. सुप्रीम कोर्ट 2010 से ही अयोध्या जमीन विवाद के उस मामले की सुनवाई कर रहा था, जो उसके वादियों ने दायर किया था.

इन वादियों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के उसी साल दिए गए उस फैसले के खिलाफ अपील की थी जिसने 2.77 एकड़ जमीन को तीन हिस्सों में बांट दिया था—दो हिस्से हिंदू संगठनों को और एक हिस्सा इसमें शामिल मुस्लिम संगठनों को. मगर मोदी ने आरएसएस से साफ कह दिया कि समाधान भारतीय संविधान के दायरे में ही खोजा जाएगा—यानी न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही.

तैयारी की गहमागहमी

प्रधानमंत्री की धुन और धैर्य तब रंग लाया जब उनके दूसरे कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट 9 नवंबर, 2019 को ऐतिहासिक फैसला देते हुए इस नतीजे पर पहुंचा कि बाबरी मस्जिद एक "पूर्व-इस्लामिक ढांचे" के ऊपर बनाई गई थी और उसने जमीन पर हिंदू पक्ष के दावे को स्वीकार कर लिया. अदालत ने आदेश दिया कि पूरी की पूरी विवादित 2.77 एकड़ जमीन राम जन्मभूमि मंदिर बनाने के लिए भारत सरकार की तरफ से बनाए गए ट्रस्ट को सौंप दी जाए.

अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा अनुष्ठान के पहले लोक नृत्य-संगीत

शीर्ष अदालत ने 6 दिसंबर, 1992 के दिन बाबरी मस्जिद के विध्वंस को "कानून के शासन का घोर उल्लंघन" बताते हुए उसकी भर्त्सना की और कहा कि गलत काम का सुधार किया जाना चाहिए. उसने उत्तर प्रदेश सरकार को ध्वस्त मस्जिद के बदले दूसरी मस्जिद के निर्माण के लिए मुस्लिम संगठनों को अयोध्या में ही पांच एकड़ वैकल्पिक जमीन देने का हुक्म सुनाया.

अदालत के आदेश के फौरन बाद प्रधानमंत्री ने अपने पूर्व प्रमुख सचिव तथा अपने सबसे विश्वस्त सहयोगियों में से एक नृपेंद्र मिश्र को अयोध्या धाम मंदिर निर्माण समिति का चेयरमैन नियुक्त कर दिया, जिसे उन्हीं दिनों बनाए गए श्री राम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र न्यास (एसआरजेबीटीके) के साथ समन्वय करना था.

उत्तर प्रदेश काडर के बेहद दक्ष और खरे सेवानिवृत्त आईएएस अफसर मिश्र ने कोविड की वजह से हुई देरी और झटकों के बावजूद यह तय किया कि तीन मंजिला ऊंचे और पांच शिखरों से सजे मंदिर का अधिकांश काम प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के लिए समय पर पूरा हो जाए, खासकर ग्राउंड फ्लोर जहां गर्भ गृह स्थापित होना था.

विपक्ष ने मोदी और भाजपा पर आरोप लगाया कि उन्होंने आम चुनाव में वोट बटोरने की गरज से मंदिर का निर्माण पूरा होने से पहले ही समारोह आयोजित करने की हड़बड़ी की.

मगर भाजपा के सूत्रों का कहना है कि प्राण प्रतिष्ठा समारोह की तारीख और समय एसआरजेबीटीके न्यास ने वैदिक ज्योतिषशास्त्र के आधार पर तय किया गया, जिसके अनुसार राम लला की नई गढ़ी गई मूर्ति में देवत्व की स्थापना के लिए प्राण प्रतिष्ठा समारोह की सबसे शुभ घड़ी 22 जनवरी को थी.

समारोह की तैयारी करते हुए मोदी ने 11 दिन का यम-नियम-अनुष्ठान व्रत किया, जिसमें जमीन पर सोना और यजमान के रूप में अपने कर्तव्यों का पालन करना शामिल था. इस धारणा को खत्म करने के लिए कि राम केवल उत्तर में रहने वालों की ही पुकार हैं, प्रधानमंत्री ने अयोध्या जाने से पहले पश्चिम और दक्षिण के मंदिरों की यात्राएं कीं और महाराष्ट्र, केरल, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के प्रसिद्ध मंदिरों में गए.

इरादा दूसरे देवताओं की पूजा करने वाले लोगों को भरोसा दिलाना था कि यह राम को उनके गले उतारने की चाल नहीं है—इसकी थीम 'एक देश, एक भगवान' नहीं है.

समारोह के दिन अयोध्या वेटिकन सरीखे शहर में बदल गई. मंदिर की तरफ जाने वाली सड़क के दोनों ओर देश भर से आए श्रद्धालु और कलाकार जमे थे, राम को समर्पित भजन गा रहे थे और नृत्य कर रहे थे. कारोबार, खेल, सिनेमा और मीडिया की जानी-मानी हस्तियों सहित जीवन के हर क्षेत्र से 7,000 से ज्यादा विशेष मेहमान एसयूवी के लंबे काफिले के साथ उस दिन मंदिर शहर की धरती पर उतर आए.

प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में शिरकत करते सिनेमा जगत् के सितारे
प्राण-प्रतिष्ठा समारोह में शिरकत करते सिनेमा जगत् के सितारे

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बीते चार साल में शहर के बुनियादी ढांचे का कायाकल्प करने में अच्छा-खासा वक्त लगाया. इसमें सड़कों को चौड़ा करना, हवाई अड्डे और रेलवे स्टेशन को आधुनिक बनाना और मंदिर परिसर के नजदीक से होकर बहती सरयू नदी के किनारे स्नान घाटों को साफ-सुथरा करना शामिल था.

मोदी ने पक्का किया कि समारोह में औचित्य और आराधना के बीच सही संतुलन कायम रहे. लिहाजा, दूधिया धोती और पटके के साथ सुनहरा कुर्ता पहने प्रधानमंत्री जहां सभी के आकर्षण का केंद्र बने रहे, उन्होंने यह तय किया कि आरएसएस प्रमुख भागवत, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और राज्य की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल समारोह का अभिन्न हिस्सा रहें और साथ ही मंदिर के प्रमुख पुजारी भी.

जब मोदी ने देवत्व की स्थापना के प्रतीक के तौर पर बालक राम की नई-नवेली मूर्ति की आंखों पर पड़ा आवरण खींचा, तो मंदिर के ज्यादा बड़े परिसर में एकत्र उन हस्तियों के बीच जय-जयकार की ध्वनी फूट पड़ी जो विशाल टीवी स्क्रीनों पर मंदिर के गर्भ गृह में चल रहा अनुष्ठान देख रहे थे. वायु सेना के हेलिकॉप्टरों ने उन पर पंखु‌ड़ियां बरसाईं.

फिर मोदी ने देवत्व से अधिष्ठापित मूर्ति के समक्ष दंडवत प्रणाम किया. बोलने का समय आया, तो मंच पर मोदी के साथ भागवत, आदित्यनाथ और आनंदीबेन के अलावा न्यास के अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष क्रमश: महंत नृत्य गोपाल दास और गोविंद देव गिरिजी महाराज भी मौजूद थे. दोनों को संबोधित करने का अवसर दिया गया.

राजनैतिक जानकारों ने इसे विपक्ष की उस आलोचना का जवाब देने के प्रधानमंत्री के तरीके के रूप में देखा जिसमें कहा जा रहा था कि उन्होंने पूरे आयोजन को आत्म-महिमामंडन और खुद अपनी मूर्तिपूजा के समारोह में बदल लिया है. विपक्षी नेता तब बैकफुट पर आ गए जब उन्हें प्राण प्रतिष्ठा समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया.

अगर वे स्वीकार नहीं करते, तो भाजपा की तरफ से हिंदू-विरोधी होने का आरोप लगाए जाने का जोखिम उठाते; अगर वे जाते, तो अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण में भाजपा की भूमिका पर मोहर लगाते. आखिर में कांग्रेस सहित उनमें ज्यादातर विपक्षी नेता समारोह से दूर ही रहे.

साथ ही उन्होंने मोदी पर आयोजन को राजनैतिक बनाने का आरोप लगाया और कहा कि वे उचित समय पर मंदिर में जाएंगे. ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने इससे पहले पुरी के जगन्नाथ मंदिर परिसर के संपूर्ण जीर्णोद्धार का उद्घाटन करके और खुद को आस्था के उतने ही समर्थ रक्षक के रूप मे स्थापित करके सबसे सयाना रास्ता अपनाया. 

हर्षोन्माद को तिलांजलि

मोदी और भागवत दोनों को श्रेय देना होगा कि उन्होंने अपने भाषणों में जीत के हर्षोन्माद से परहेज बरता. राष्ट्रीय कर्तव्य का आह्वान करते हुए भागवत ने कहा, "हमें अच्छा आचरण बनाए रखना और विवादों को खत्म करना चाहिए. हमें चीजों को लेकर लड़ने की आदत बंद करनी होगी और सौहार्द से रहना सीखना होगा."

उन्होंने मंदिर के निर्माण को 'एक नए भारत' के उदय के रूप में देखा और भविष्यवाणी की कि "राम राज्य आ रहा है." आरएसएस के प्रमुख ने यह भी कहा कि राष्ट्र को "सत्य, करुणा, बुद्धिमता और दयालुता के साथ आगे बढ़ते" देखा जाना चाहिए. प्रधानमंत्री मन को झकझोर देने वाले अपने भाषण में गीतात्मक हो गए.

उन्होंने कहा, "यह राष्ट्रीय चेतना का मंदिर है. राम आस्था हैं, भारत की नींव हैं, भारत का विचार हैं, भारत का कानून हैं, भारत की चेतना और भारत का वैभव हैं. राम प्रवाह भी हैं और प्रभाव भी. राम नेति (निषेध के माध्यम से विश्लेषण) भी हैं, नीति (सैद्धांतिक निर्णय) भी. राम शाश्वत हैं, पर निरंतरता भी हैं."

फिर उन्होंने राजनेता का बाना धारण करके विकसित भारत यानी 2047 तक देश को विकसित बनाने के लक्ष्य का आह्वान किया और कहा कि यही समय है जब सभी भारतीय "मजबूत, सक्षम, भव्य और दिव्य भारत के निर्माण" का संकल्प लें.

इसमें कोई शक नहीं कि मंदिर का निर्माण और राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा न केवल देश भर में हिंदू धर्म के पुनरुत्थान के भव्य प्रतीक हैं बल्कि भारत के भविष्य पर भी इसका गहरा असर पड़ेगा. विशेषज्ञ ढेरों सकारात्मक बातें और चिंता की वजहें देखते हैं.

आरएसएस के विद्वान सरकार्यवाह (महासचिव) दत्तात्रेय होसबाले राम मंदिर को राष्ट्र के इतिहास में बड़े निर्णायक मोड़ के रूप में देखते हैं. वे कहते हैं, "राम जन्मभूमि का समूचा आंदोलन राष्ट्रीय एकता और आत्मसम्मान की शक्ति से और हमारे राष्ट्र के सभ्यतागत पहलू को फिर से स्थापित करने के लिए शुरू हुआ था.

हम अपने सामने क्षितिज पर जो देख रहे हैं, वह आधुनिक काल के लिए सांस्कृतिक धरोहर पर आधारित सभ्यता का एक नया प्रतिमान है. 'राम' शब्द मात्र ही समाज के सभी स्तरों को और भारत के भीतर सभी धर्मों को एकाकार करने वाला है."

अन्य विशेषज्ञ इस बात को लेकर असहज हैं कि आध्यात्मिक और लौकिक शक्तियों के बीच की लकीरें धुंधली हो रही हैं और वे मंदिर की राजनीति के मजबूत होने को भारत के पंथनिरपेक्ष लोकाचार के लिए धक्के के रूप में देखते हैं. राजनैतिक कार्यकर्ता योगेंद्र यादव मानते हैं, "यह एक ऐसा हिंदू राजनैतिक समुदाय बनाने की बहुत जानी-बूझी कोशिश है जिसका इस देश में पहले कभी वजूद नहीं था.

ऐसा समुदाय जो एक समान या सजातीय है, जिसमें संप्रदाय कोई मायने नहीं रखते. यह जाति से होकर नहीं जाता बल्कि उन पर परदा डालता है. यह क्षेत्रीय भिन्नताओं को लगभग मिला देता है. यह आश्चर्यजनक रूप से मेधावी कोशिश है पर दुष्ट भी है. यह राज्यसत्ता और धर्म के बीच रिश्ता उलटने की पहली कोशिश है.

यह राजनैतिक सत्ता के हाथों हिंदुत्व के औपनिवेशीकरण की पहली कोशिश भी है." सामाजिक मानवविज्ञानी शिव विश्वनाथन इतना और जोड़ते हैं, "मंदिर को नए किस्म का पुनरुत्थान कहना इतिहास में नहीं बल्कि विज्ञापन में फिट बैठता है. यह किसी भी किस्म का भक्ति आंदोलन नहीं है.

यह धर्म का साधन के रूप में इस्तेमाल करने की चेष्टा है. धर्म की समन्वयकारक शक्ति, संवादप्रवणता गुम हो गई है. इस कहानी में आख्यान की बारीकी और नजाकत नहीं है. यह फरमान की तरह ज्यादा मालूम देता है."

एक नया सभ्यतागत प्रतिमान

यह बात काफी मायने रखती है कि भागवत और उनके डिप्टी होसबाले दोनों एक नए सभ्यतागत प्रतिमान यानी प्राचीन सभ्यता को एक अलग नजरिये से देखने की बात करते हैं. आरएसएस का हमेशा से यही मानना रहा है कि सांस्कृतिक आधार के बिना भारतीय राष्ट्र एक अशांत समुद्र में गोते खाती नाव की तरह होगा.

यही वजह है कि हिंदुत्व को भारत की हिंदू पहचान के पुनरुद्धार के तौर पर परिभाषित किया गया, जो आध्यात्मिक परंपराओं और मूल्यों से जुड़ी एक समृद्ध व्यवस्था पर आधारित है. इसका आशय धार्मिक परिवर्तन से है, न कि किसी धार्मिक संप्रदाय से.

मंदिर आंदोलन की उत्पत्ति भारत के एक हजार वर्षों तक मुस्लिम आक्रांताओं और ईसाई उपनिवेशवादियों के कब्जे में रहने के दौरान सांस्कृतिक दमन के मुख्य प्रतीकों से छुटकारा पाने की कोशिश का नतीजा थी.

​  मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि मंदिर और शाही ईदगाह (दाएं)
​ मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि मंदिर और शाही ईदगाह (दाएं)

अयोध्या की तत्कालीन बाबरी मस्जिद, वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की ईदगाह मस्जिद को ऐसे प्रमुख उदाहरणों के तौर पर देखा गया कि कैसे हिंदू मंदिरों को ध्वस्त कर उन्हें मुस्लिम धर्मस्थलों में तब्दील किया गया. नेहरू की धर्मनिरपेक्षता को अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण और उस वास्तविक ताकत का दमन माना गया, जिसने अतीत में भारत को महान बनाने में अहम भूमिका निभाई थी.

आरएसएस के अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख सुनील आंबेकर इसे स्मृति भ्रमित अस्तित्व (यानी इतिहास का वह हिस्सा जिसमें किसी राष्ट्र की संस्कृति और मूल्यों के बारे में विकृत या गलत धारणा बना ली गई हो) करार देते हैं और साथ ही कहते हैं, "हम सभी सामूहिक तौर पर स्मृति लोप के शिकार थे. अब सांस्कृतिक जागृति आ रही है.

हमारा मुख्य तत्व है आंतरिक एकता, और यह कि हम अपनी सांस्कृतिक जड़ों से कैसे जुड़ते हैं. जाति, पंथ, समुदाय और आर्थिक असमानता के बावजूद पूरा देश अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा में एकजुट नजर आया. प्राचीनता के बावजूद यह आधुनिक समय का एक अहम प्रतीक बन गया, और राम मंदिर आंदोलन हमारी संस्कृति को जोड़ने वाला एक अहम बिंदु साबित हुआ."

राम मंदिर के अलावा दो अन्य ऐसे प्रमुख उपाय भी थे जिन्हें आरएसएस ने देश के सांस्कृतिक पुनरुद्धार के लिहाज से आवश्यक माना—इनमें एक है अनुच्छेद 370 खत्म करना—जिसने भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुल राज्य जम्मू-कश्मीर को खास दर्जा दिया—और दूसरा समान नागरिक संहिता (यूसीसी)—जिसमें जाति या पंथ के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा.

जाहिर तौर पर मोदी को इसका श्रेय दिया जा सकता है कि अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान वह आरएसएस के तीन प्रमुख लक्ष्यों में से दो को पूरा करने में सक्षम रहे—अयोध्या में राम मंदिर निर्माण और 2019 में अनुच्छेद 370 का निरस्तीकरण.

वहीं, तीन तलाक प्रथा पर लगाम कसने वाला मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 पारित कराकर मोदी ने यूसीसी की दिशा में कदम बढ़ा दिया है. इस पर उन्हें मुस्लिम महिलाओं का समर्थन हासिल हुआ. इन तीनों लक्ष्यों को हासिल करने के लिए कानूनी तरीकों का इस्तेमाल किया गया और इन पर किसी और ने नहीं, बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगाई है.

आंबेकर इस पर एकदम स्पष्ट हैं कि आरएसएस मथुरा और काशी को लेकर आंदोलनों का हिस्सा नहीं बनेगा जैसा कि उसने राम मंदिर के लिए किया. उनका कहना है, "ऐसे मसलों के समाधान के लिए 'नियमित कानूनी प्रक्रिया' है."

वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद (बाएं)
वाराणसी में काशी विश्वनाथ मंदिर और ज्ञानवापी मस्जिद (बाएं)

मोदी और भारत की आत्मा

पीएम मोदी ने जहां संघ परिवार के काफी समय से लंबित एजेंडे को साधा है, वहीं गरीबों के लिए कई कल्याणकारी योजनाएं लागू करने के साथ देश की आर्थिक वृद्धि पर भी पूरा ध्यान दे रहे हैं. पहले कार्यकाल के दौरान बतौर प्रमुख सचिव मोदी के साथ काम करने वाले नृपेंद्र मिश्र का मानना है कि प्रधानमंत्री ने अपने दूसरे कार्यकाल में संस्कृति और विकास के बीच मजबूत संबंध स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित किया है.

उनके मुताबिक, मोदी का मानना है कि भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को न मान्यता दी गई, न संरक्षित किया गया और न ही इसे विकसित करने पर कोई ध्यान दिया गया और अब वह इसी कमी को दूर करना चाहते हैं. वे कहते हैं, "प्रधानमंत्री पूरी दृढ़ता के साथ राष्ट्र की आत्मा को पुनर्जीवित करने में लगे हैं. वे शासन की अवधारण, विकास, सामाजिक समानता और समाज की आत्मा मजबूत कर रहे हैं."

सांस्कृतिक पुनर्जागरण के साथ विकसित भारत का वादा मोदी के नैरेटिव में एकदम सटीक बैठता है. केंद्रीय रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव की राय है कि संस्कृति और इसके सभी आयामों को पहचानने की भावना देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. वे कहते हैं, "मोदीजी के नेतृत्व में हम ऐसे देश में तब्दील हो चुके हैं जो खुद को असहाय महसूस नहीं करता, बल्कि सब कुछ हासिल करने के प्रति पूरी तरह आश्वस्त है.

नवाचार में अग्रणी और बेहतर देश बनने की तरफ बढ़ने के साथ एक अच्छे समाज के सभी संकेतक सामने दिख रहे हैं." दशकों तक मोदी के साथ काम कर चुके राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के महासचिव भरत लाल यही बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, "प्रधानमंत्री ने दिखा दिया कि भारत में ऐतिहासिक गलतियां सुधारने की क्षमता है. उन्होंने तय किया कि न्याय हो.

यह परिपक्व और सांस्कृतिक दृढ़ता है जिसमें सशक्त भावनाओं और संवेदनाओं का सम्मान किया जाता है और सुचारु ढंग से अमल के लिए सभी को साथ लेकर चला जाता है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसने विवादास्पद मुद्दों को शांतिपूर्ण तरीके से सुलझाने की पीएम की क्षमता को दर्शाया है."

मोदी और आरएसएस के हिंदुत्व एजेंडे पर आगे बढ़ने को बाकी दुनिया काफी गौर से देख रही है. पिछले दशक में भाजपा के उदय के साथ हिंदू पुनरुत्थान को भांप लेने के बावजूद विदेश नीति विशेषज्ञ अब तक नहीं जानते कि अमेरिका और पश्चिमी देश भारत की विदेश नीति को निर्देशित करने वाली राष्ट्रवाद की नई भावना के साथ कैसे तालमेल बैठाएंगे.

अपने कार्यकाल के आखिर में रूस में तैनात रहे एक पूर्व राजनयिक डी.बी. वेंकटेश वर्मा की राय है कि निश्चित तौर पर सांस्कृतिक और धार्मिक भावना अब भारत के भीतर के साथ बाहर भी राजनैतिक मुखरता के साथ नजर आएगी. वे कहते हैं, "भारत की विदेश नीति का मूल्यांकन इस नए विमर्श के आधार पर किया जाना तेजी से बढ़ेगा.

भारत महज एक राष्ट्र भर नहीं है बल्कि एक भरी-पूरी सभ्यता है जो अब वैश्विक व्यवस्था में अपना स्थान बना रही है. विदेश, खासकर पश्चिम में इसे गंभीरता से लिया जाएगा. भले ही भारत का बदला हुआ स्वरूप उन्हें पसंद न आए लेकिन उन्हें इसे स्वीकार करना सीखना होगा."

राजनैतिक निहितार्थ

घरेलू राजनीति की बात करें तो अधिकांश जानकारों को इसमें कोई संदेह नहीं कि राम मंदिर मोदी के तीसरे कार्यकाल के लिए पहले से ही मजबूत संभावनाओं को बढ़ा देगा. हालांकि, जाने-माने राजनैतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर जैसे कुछ लोगों की राय इससे जुदा है. प्रशांत किशोर कहते हैं, "ये सारी बातें बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित की जा रही हैं.

अगर बहुत हुआ तो इससे भाजपा समर्थकों का उत्साह कुछ बढ़ेगा. हो-हल्ला चाहे जितना भी होता रहे लेकिन सिर्फ इसके नाम पर भाजपा की झोली में वोट नहीं बढ़ेंगे. ऐसा इसलिए क्योंकि इससे लोग अपना मन बदलकर भाजपा के लिए वोट नहीं करने जा रहे. यह जरूर हो सकता है कि यह भाजपा काडर को बूथ तक खींचने में सफल रहे, जिससे पार्टी को अपना वोट फीसद बढ़ाने में मदद मिल जाए."

तो, 2024 के चुनाव नतीजे किस पर निर्भर होंगे? इस पर किशोर को कोई संदेह नहीं है. वह तो ब्रांड मोदी है, जिसने सब कुछ खुद में समाहित कर लिया है. वे कहते हैं, "लोग मोदी को वोट दे रहे हैं. उन्हें केवल राष्ट्रवादी गौरव को जागृत करने वाले हिंदू हृदय सम्राट के तौर पर ही नहीं देखा जाता बल्कि ऐसे व्यक्ति के तौर पर भी देखा जाता है, जिसने विदेश नीति के जरिये भारत का मान बढ़ाया और अपनी कल्याणकारी योजनाओं से गरीबों का भी भला कर रहे हैं."

किशोर कहते हैं कि हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, लाभार्थी और आक्रामक काडर ब्रांड मोदी के लिए तुरुप के पत्ते से कम नहीं हैं. नाम न छापने की शर्त पर एक अन्य चुनाव विशेषज्ञ ने कहा कि मंदिर निर्माण पिछले साल भारत के चंद्रमा पर कदम रखने जैसी ही उपलब्धि है. हालांकि, वे कहते हैं, "लोग शुरू में तो सराहना करेंगे लेकिन जल्द ही सब भूल जाएंगे और फिर पूछेंगे कि अब आगे क्या. जब मंदिर को लेकर कायम उत्साह ठंडा पड़ेगा तो पूछेंगे कि पूजा-अर्चना के अलावा मुझे इससे क्या मिला? क्या मुझे खाना या नौकरी मिली?"

भाजपा मतदाताओं का मूड पहले ही भांप चुकी है, और 2024 के चुनाव में उसकी कोशिश मंदिर से कहीं ज्यादा मोदी और उनकी उपलब्धियों को भुनाने की होगी. केंद्रीय संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी कहते हैं कि राम मंदिर एक उपलब्धि है लेकिन भाजपा का पूरा एजेंडा सिर्फ इसी पर केंद्रित नहीं है.

वे कहते हैं, "भाजपा का फोकस विकास, पीएम मोदी के नेतृत्व, भारत की बदलती छवि, 25 करोड़ से अधिक लोगों को गरीबी से उबारने, सुशासन और भ्रष्टाचार मुक्त स्थिर सरकार पर है." हालांकि, जेएनयू स्थित सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज के अध्यक्ष प्रोफेसर नरेंद्र कुमार का मानना है कि भाजपा के नेतृत्व में भारत संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता से परे हट गया है और इसके नतीजे गंभीर हो सकते हैं.

वे कहते हैं, "लगता है कि अल्पसंख्यकों ने मौजूदा स्थिति को स्वीकार कर लिया है, क्योंकि वे हिंसक टकराव की आशंका से बचना चाहते हैं." प्रो. कुमार के मुताबिक राम मंदिर का उत्साह टिकाऊ साबित होने वाला नहीं है. उनका कहना है, "धर्म रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों का हल नहीं हो सकता."

राम राज्य का सवाल

प्रो. कुमार की राय कुछ हद तक सही भी है, क्योंकि न तो धर्म से अपने-आप किसी का खाली पेट भर सकता है और न ही यह ऐसा कोई मजबूत धागा बन सकता है जो राष्ट्र को एक सूत्र में बांधकर उसकी प्रगति को धार देने में सहायक साबित हो.

भारत को तो ज्यादा दूर जाने की जरूरत भी नहीं, अपने आसपास नजर उठाकर देखे तो पाकिस्तान का उदाहरण सामने है. उसका पूरा अस्तित्व धार्मिक सिद्धांतों पर टिका था, और दो दशक के भीतर ही राजनैतिक असंगति और विभाजन के कारण उसे पूर्वी बंगाल से हाथ धोना पड़ा. इसके अलावा, राम राज्य एक आदर्श उपलब्धि के तौर पर तो प्रभावशाली लगता है, लेकिन इसकी परिभाषाएं अलग-अलग हैं.

ऐसे में एक अस्पष्ट वादा मतदाताओं को आगे चलकर असंतुष्ट कर सकता है. भारतीय पौराणिक गाथाओं के विद्वान और लेखक अमीश त्रिपाठी की नजर में राम राज्य एक ऐसा राज्य है, "जिसमें सभी को समान समझा जाए, कमजोरों की रक्षा की जाए और जहां धर्म और न्याय परायणता सर्वोपरि हो."

लेकिन जब आरएसएस के विशेषज्ञ भारतीय सांस्कृतिक विरासत को पुनर्स्थापित करने की बात करते हैं, तो उनका आशय पहले मुसलमानों और फिर अंग्रेजों के अधीन रहने से ठीक पहले वाले भारत से होता है.

हालांकि, इतिहास दर्शाता है कि विदेशी आक्रमणकारियों के भारत आने से काफी पहले ही अंतर्विरोधों के निशान साफ नजर आने लगे थे, जिसमें एक जटिल और दमनकारी जाति व्यवस्था, अंध-भक्ति के साथ मूर्तिपूजा और जन्म के आधार पर कुछ ही लोगों को देवी-देवताओं के पूजा-अनुष्ठान करने का विशेषाधिकार मिलना आदि शामिल था.

यही आगे चलकर हिंदू धर्म के पतन का कारण बना. बौद्ध धर्म ने तो करीब एक हजार वर्षों तक हिंदू धर्म के लिए भारत का प्रमुख धर्म होने का दर्जा हासिल करना मुश्किल बनाए रखा, क्योंकि इसमें एक तो किसी भी तरह का भय नहीं पैदा किया जाता था और दूसरे यह ज्ञान का अधिक समावेशी रास्ता दिखाता था. फिर आठवीं शताब्दी में शंकराचार्य ने भारत के प्राचीन धर्म को पुनर्जीवित कर एक उल्लेखनीय सफलता हासिल की.

भारत में जाति व्यवस्था ने अभी भी गहरी जड़ें जमा रखी हैं और अत्यधिक राजनीतिकरण की शिकार है, ऐसे में तमाम सुधार बस 'कार्य प्रगति पर है' वाली स्थिति में हैं. हिंदू धर्म एकेश्वरवादी नहीं है, बल्कि इसमें सैकड़ों देवी-देवताओं की आराधना की जाती है, जो धर्म को अधिक समावेशी और विशिष्ट बनाता है.

नेहरू ने बड़े बांधों को आधुनिक भारत के मंदिरों के तौर पर देखा तो इसकी एक बड़ी वजह यही थी कि उन्हें एहसास था कि संस्कृति को प्रौद्योगिकी के साथ कदमताल करना चाहिए. एक विशेषज्ञ कहते हैं, "आप धनुष-बाण के साथ पाकिस्तान या चीन के साथ नहीं लड़ सकते. आपके पास आधुनिक तकनीकी ताकत होनी जरूरी है."

वास्तविकता यही है कि मोदी ने भारत को प्रौद्योगिकी स्तर पर उन्नत राष्ट्र बनाने पर ध्यान केंद्रित किया है, जो भारत के लोकाचार के विपरीत नहीं है. विद्वानों की राय में, भारत में आध्यात्मवाद को दैवीय शक्ति से जुड़कर मोक्ष या आत्मज्ञान का प्राप्ति की राह के तौर पर देखा जाता है, जिसे निराकार और अगम माना जाता है.

इसमें यह बात खास मायने नहीं रखती है कि कौन-सा मार्ग या किस देवता को चुना गया. यह सांस्कृतिक एकता की सीमित अवधारणा के बजाय एकेश्वरवाद की कहीं अधिक व्यापक परिभाषा को रेखांकित करता है. फिर, आरएसएस जिस राम राज्य की परिकल्पना को साकार करना चाहता है, उसकी राह काफी कठिन है.

होसबाले का यह कथन इसकी स्वीकारोक्ति ही है, "इतने प्राचीन और विशाल राष्ट्र में राम-राज्य रातोरात नहीं आ सकता. इसमें कुछ साल या शायद एक पूरी पीढ़ी ही लग जाएगी. लेकिन हम आगे बढ़ रहे हैं." इसमें कोई दो-राय नहीं कि राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा इस प्रक्रिया को तेजी से आगे बढ़ाने की दिशा में एक अहम कदम साबित होगी.

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