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मुख्यमंत्री पद के लिए नए चेहरों पर दांव, क्या है भाजपा-कांग्रेस की रणनीति?

भविष्य पर नजर के साथ कांग्रेस के तेलंगाना की तरह ही भाजपा ने तीन राज्यों में पीढ़ीगत नेतृत्व बदलाव की ओर कदम बढ़ाया

आवरण कथाः नए मुख्यमंत्री
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव के साथ शिवराज सिंह चौहान और मनोहरलाल खट्टर

अगले लोकसभा चुनावों के ऐन पहले राजनैतिक पार्टियां बदलाव के चौखटे पर कदम बढ़ाती दिख रही हैं, कम से कम नए राज्य विधानसभा चुनावों के बाद मुख्यमंत्री के चयन के मामले में. भाजपा ने पचासेक वर्ष की उम्र के तीन नेताओं को विविध तबकों से चुनकर पीढ़ीगत बदलाव की अगुआई की है.

राजस्थान में पहली बार विधायक बने 56 वर्षीय भजनलाल शर्मा नए मुख्यमंत्री हैं, जो ब्राह्मण हैं. ऐसा ही चौंकाने वाला चयन मध्य प्रदेश में चार बार के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की जगह 58 वर्षीय मोहन यादव हैं, जो ओबीसी हैं. इससे पहले, छत्तीसगढ़ में भगवा पार्टी ने नए चेहरे 59 वर्षीय विष्णु देव साय को कुर्सी थमा दी, जो अनुसूचित जनजाति से हैं. 

यह एक मायने में राजनैतिक परिदृश्य में आमूलचूल बदलाव जैसा है, जो तीन उत्तरी राज्यों में भगवा पताका लहराने के ऐलान के एक हफ्ते बाद, तीन दिनों में सामने आए. यह फैसला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के साथ टिकाऊ गोलबंदी और मजबूती की अनिवार्यताओं के मद्देनजर किया. हालांकि फैसला तो नतीजों के अगले दिन 4 दिसंबर को ही किया जा चुका था, मगर इस तिकड़ी ने क्रमवार नामों के ऐलान से पहले हफ्ते भर तक इंतजार किया.

ऐसे चैन की मोहलत कांग्रेस को देश के सबसे नए राज्य तेलंगाना के मामले में नसीब नहीं थी, जहां उसने सत्तारूढ़ भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) से मामूली बहुमत के साथ सत्ता छीन ली. युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाने में पीछे न रह जाएं, शायद इसलिए देश की सबसे पुरानी पार्टी ने भी तेजतर्रार 54 वर्षीय अनुमुला रेवंत रेड्डी को मुख्यमंत्री बनाया, जो 2017 में ही कांग्रेस में शामिल हुए थे.

भाजपा की शीर्ष तिकड़ी 7 दिसंबर को प्रधानमंत्री मोदी के साथ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा

 

सियासी दलील

भाजपा के नए मुख्यमंत्रियों के चयन का तर्क समझाने की कोशिश में भाजपा के एक शीर्ष नेता ने कहा, "भाजपा में संगठन पहले आता है, फिर व्यक्ति. फैसले समाज और पार्टी की व्यापक भलाई के मद्देनजर किए जाते हैं. मुख्यमंत्रियों का चयन इसे ही जाहिर करता है." चुनावों के ताजा दौर में भाजपा की यह जीत वोटरों पर मोदी के जादू के साथ पार्टी की मजबूत संगठनात्मक ताकत और चुनावी मशीनरी की है.

भाजपा नेता यह भी कहते हैं, "इससे राज्य में स्थानीय नेताओं की लोकप्रियता भी जाहिर होती है." पार्टी अपने वर्तमान के प्रति आश्वस्त है और भविष्य की घेराबंदी मजबूत करना चाहती है. इसी मकसद से वह युवा नेतृत्व तैयार कर रही है और उन्हें आगे बढ़ने के मौके दे रही है.

नई असलियत का इजहार भला इससे बेहतर क्या हो सकता था कि राजस्थान में बतौर विधायक दल नेता शर्मा के चुनाव के लिए पार्टी पर्यवेक्षक के रूप में राजनाथ सिंह जयपुर पहुंचे, जो अटल बिहारी वाजपेयी के दौर के लुप्तप्राय नेताओं की बिरादरी की आखिरी कड़ियों में एक हैं. यही हाल ताकतवर क्षत्रपों—दो बार की मुख्यमंत्री 70 वर्षीया वसुंधरा राजे सिंधिया, चार बार के मुख्यमंत्री 67 वर्षीय शिवराज सिंह चौहान, और तीन बार के मुख्यमंत्री 71 वर्षीय रमन सिंह का हुआ, जिन्हें सिंहासन खाली करने और युवा नेताओं की पांत को आगे आने और फलने-फूलने देने को कहा गया. 

सियासी फलक पर इस बड़े पैमाने के बदलाव को लेकर राय अलग-अलग है. कुछ शंकालुओं को संसदीय चुनावों से पहले इस प्रयोग में जोखिम दिखता है. हालांकि ज्यादातर का मानना है कि नए चेहरे ताजा हवा के झोंके से अधिक कुछ लेकर आएंगे. इन राज्यों में पिछले दो दशकों में नेताओं की छाया इतनी घनी हो गई कि नेतृत्व की नई पौध का विकास रुक गया. इस घेराबंदी को तोड़ने के लिए मोदी-शाह की जोड़ी ने सोशल इंजीनियरिंग में यह बारीक प्रयोग किया, ताकि विविधता को पार्टी का नया मंत्र बनाया जा सके. यह संदेश आम चुनाव की वेला में पूरी हिंदी पट्टी में पहुंचाया गया.

गौरतलब यह भी है कि तीनों मुख्यमंत्रियों में से कोई भी न अपनी जाति या समुदाय का अग्रणी नेता है, न ही भाषण-वीर है. भाजपा ने इन राज्यों में दो उप-मुख्यमंत्रियों के उत्तर प्रदेश मॉडल पर भी अमल किया. इससे जातिगत आकांक्षाओं के संतुलन में मदद मिलती है और पार्टी को शीर्ष पर किसी भी तरह के बदलाव की छूट मिल जाती है.

इस तरह पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को तीनों राज्यों में पूरा मौका मिल गया है कि वह नीतियों और नाजुक वित्तीय स्थितियों से निबटने में अनुभवहीन नेतृत्व का मार्गदर्शन कर सके. इससे नए नेताओं को चुनौतियों का सामना करने की ताकत मिलेगी और पार्टी को मजबूत करने तथा अपने राज्यों में 'डबल इंजन सरकार' का लाभ पहुंचाने का समय भी मिलेगा. और यह सब काम क्षत्रपों से छुटकारा पाए बिना होगा.

रमन सिंह रायपुर में नई विधानसभा के अध्यक्ष होंगे, जबकि चौहान और राजे की भूमिकाओं से परदा उठने की जल्द उम्मीद है. चौहान और राजे के लिए इन फैसलों को स्वीकार करना किसी भी तरह से आसान नहीं होगा. दोनों ने प्रत्यक्ष तौर पर इस फैसले का तो स्वागत किया, लेकिन उनके चेहरे और हावभाव कुछ और ही कह रहे थे. उन लोगों ने अभी तक यह खुलासा नहीं किया है कि वे आगे क्या करने की योजना बना रहे हैं. दोनों ही पार्टी काडर और लोगों के बीच लोकप्रिय बने हुए हैं, और अपने-अपने राज्यों में चुनावों में भाजपा को जीत दिलाने में अपना पूरा योगदान किया.

नई भाजपा का निर्माण

राज्यों में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर नए चेहरे स्थापित करना इस बात का इशारा भी हो सकता है कि आने वाले आम चुनाव के उम्मीदवारों में ऐसे ही भारी बदलाव किए जाएंगे. भाजपा के 17 मौजूदा सांसद 75 बरस (पार्टी में सेवानिवृत्ति की अलिखित उम्र, जब आपको चुनावी राजनीति से हटाकर 'मार्गदर्शक मंडल' की मानद सदस्यता दे दी जाती है) से ऊपर और अन्य 42 सांसद 70 बरस से ऊपर की उम्र के हो चुके हैं.

भाजपा के एक अन्य शीर्ष नेता कहते हैं, "कई कार्यकालों के बाद लोकप्रिय और लब्ध प्रतिष्ठित सांसदों के मामले में भी थकान का एक पहलू विकसित हो ही जाता है. इसलिए बदलाव ही हकीकत है." शीर्ष पर मोदी के होने की वजह से पार्टी नेतृत्व को भरोसा है कि कायापलट से 2024 के चुनावों में एकजुटता और निरंतरता बनाए रखने में मदद मिलेगी. तीन राज्यों में विधानसभा चुनावों की जीत से पार्टी का यह भरोसा पुख्ता हुआ है कि ये बदलाव कारगर हैं और पार्टी के भले के लिए हैं.

तजुर्बे और चुनावी पराजयों ने भाजपा को सिखाया कि जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखना और अधबीच सुधार करना व्यावहारिक राजनीति की अहम कवायदें हैं. भाजपा नेतृत्व 2018 में ही सत्ता विरोधी भावना पर लगाम लगाने के लिए चार राज्यों के मुख्यमंत्रियों—चौहान, रमन सिंह और राजे के अलावा झारखंड में रघुबर दास—को बदलना चाहता था. मगर नेतृत्व के संकट की आशंका के चलते वे पीछे हट गए.

नतीजा यह हुआ कि पार्टी चारों ही राज्यों में सत्ता गंवा बैठी. कांग्रेस भी इसी कशमकश से जूझ रही थी. 2018 में वह राजस्थान और मध्य प्रदेश में युवा नेतृत्व का विकल्प चुनना चाहती थी, पर आखिरकार उसने पुराने नेताओं का विकल्प चुना. उन्होंने कीमत भी चुकाई—ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा के हाथों गंवाकर और अब राजस्थान में हार का मुंह देखकर.

भाजपा ने अलबत्ता अपनी गलतियों से सीखा. 2019 के लोकसभा चुनाव की जीत से आत्मविश्वास हासिल करके पार्टी ने रणनीति बदली. शुरुआत बिहार से हुई, जहां उन्होंने राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की जीत के बाद 25 साल के क्षत्रप सुशील कुमार मोदी को हटा लिया. पार्टी असम, उत्तराखंड, गुजरात, त्रिपुरा और कर्नाटक में मुख्यमंत्री बदलते हुए इसी निर्ममता से पेश आई, पर मध्य प्रदेश में ऐसा करते-करते रुक गई. पिछले सितंबर में संसदीय दल से हटाए जाने के बाद भी चौहान मुख्यमंत्री बने रहे.

कर्नाटक में, जहां बी.एस. येदियुरप्पा की जगह कम वजनी बासवराज बोम्मई को लाया गया, बदलाव का उलटा असर हुआ और राज्य भाजपा में नेतृत्व का संकट पैदा हो गया. अब भाजपा फिर येदियुरप्पा परिवार की शरण में चली गई है, जहां उनके बेटे बी.वाइ. विजयेंद्र को राज्य इकाई का प्रमुख बना दिया गया है और उनके चिरप्रतिद्वंद्वी बी.एल. संतोष के पर कतर दिए गए हैं. ऐसा नहीं कि इन कदमों के साथ उनसे जुड़े जोखिम नहीं होंगे, पर उनका सामना करना रणनीति में किसी भी बदलाव का अनिवार्य हिस्सा होता है.

यही कांग्रेस ने तेलंगाना में तब भी सही किया जब दूसरी जगहों पर उसने सब कुछ गलत किया और जिसकी बदौलत महज तीन राज्यों—हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक और अब तेलंगाना—में सत्ता होने की मायूसी उसके हाथ लगी. उसने रेड्डी के पीछे अपनी पूरी ताकत झोंक दी. ऐसे शख्स के पीछे, जो विपक्ष की दूसरी पार्टियों से भटक-भटकाकर 2017 में कांग्रेस में आए, उसके कार्यकारी अध्यक्ष और फिर 2021 में तेलंगाना प्रदेश कांग्रेस प्रमुख बने, और चुनावी लड़ाई में पार्टी की अगुआई की.

पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के फरमानों का पालन किया, जिसने चुनाव रणनीतिकार सुनील कनुगोलु को उम्मीदवारों की संभावनाओं के आकलन करने के बाद टिकट देने का फैसला सुनाया था. इन सारी बातों के साथ रेड्डी अपने आक्रामक तौर-तरीकों से लड़ाई को ठेठ दुश्मन के खेमे में ले गए, और अंतत: 119 सदस्यों की विधानसभा में 64 सीटों के मामूली बहुमत से फतह हासिल करने में कामयाब रहे.

तेलंगाना में पुराने भरोसेमंद नेताओं पर निर्भर करने के बजाए कांग्रेस ने अपने नारे 'मार्पू कावली, कांग्रेस रावली' (बदलाव जरूरी है, कांग्रेस आनी चाहिए) पर खरा उतरने का फैसला किया और रेड्डी को मुख्यमंत्री और अनुसूचित जातियों के बीच से मल्लू भट्टी विक्रमार्क को उनके उप-मुख्यमंत्री के रूप में चुना. काश! देश की सबसे पुरानी पार्टी पूरे देश में ऐसी ही दूरदर्शिता का परिचय दे पाती. बेशक, भाजपा के सामने लड़ने और जूझने के लिए अब भी कुछ हो सकता है.

 

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