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राजस्थान में इस बार भी कायम रहा सत्ता पलटने का रिवाज

भाजपा हाइकमान ने दिल्ली से ही राजस्थान के स्थानीय नेताओं पर लगाम रखी और सत्ता विरोधी लहर पर सवार होते हुए प्रभावी जीत हासिल की

बदलाव के अगुआ पीएम मोदी 25 सितंबर को जयपुर की एक रैली में राज्य के प्रमुख भाजपा नेताओं के साथ
अपडेटेड 19 दिसंबर , 2023

इतिहास भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में था. फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजस्थान फतह के लिए अपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं रखी, जहां जनता हर पांच साल में सरकार बदल देती है. पिछले 25 वर्षों से यही होता आ रहा है. राज्य में सत्ता की बागडोर निवर्तमान कांग्रेस मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भाजपा की वसुंधरा राजे के हाथों में बारी-बारी रही है. इसे रिवाज का असर भी कहा जाता है. उस लिहाज से तो इस बार सीएम की कुर्सी राजे की होनी चाहिए थी. लेकिन इसके बजाए राज्य में पार्टी का चेहरा और मुख्य प्रचारक खुद पीएम मोदी थे. उन्होंने रेगिस्तानी राज्य में समय और ऊर्जा दोनों का निवेश किया ताकि पक्का किया जा सके कि सरकार बदलने का 'रिवाज' बदलने में गहलोत सफल न हो सकें.

और यह तूफानी अभियान काफी पहले शुरू हो गया. इस साल 9 अक्तूबर को चुनाव की तारीखों का ऐलान होने से पहले ही, कई महीनों में प्रधानमंत्री ने दर्जन भर रैलियां कर डाली थीं. इनमें से ज्यादातर केंद्र प्रायोजित परियोजनाओं के उद्घाटन की आड़ में हुईं. तारीखें घोषित होने के बाद उन्होंने करीब 14 सभाओं को संबोधित किया और डेढ़ महीने से भी कम समय में दो रोड शो किए. वास्तव में 25 नवंबर के मतदान से पूर्व के आखिरी हफ्ते में भाजपा के केंद्रीय कमान की तिकड़ी ने ऐन वक्त पर किसी भी गड़बड़ी के अंदेशे को खत्म करने के लिए राज्य में लगभग डेरा डाल दिया था. इस तिकड़ी में मोदी के साथ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा शामिल थे. आदिवासी बहुल क्षेत्रों खासकर मेवाड़ अंचल पर ध्यान केंद्रित करने से सकारात्मक नतीजे निकले. प्रदेश संगठन के 'परिवर्तन यात्रा' जैसे आयोजनों में बहुत कम भीड़ जुटने से नेताओं की चिंता बढ़ गई थी. पर फिर प्रधानमंत्री की रैलियों में उमड़ी भारी भीड़ ने संगठन में नई जान डाल दी.

शाह शुरू में अपना अधिकांश समय मध्य प्रदेश में चुनाव प्रचार में बिता रहे थे. लेकिन राज्य में भाजपा की संभावनाओं पर नकारात्मक प्रतिक्रिया मिलने के बाद उन्होंने भी राजस्थान पर ध्यान केंद्रित किया. वे ही थे जिन्होंने कई दमदार बागियों को अपनी उम्मीदवारी वापस लेने के लिए राजी करके होने वाले नुक्सान को थामा. राजस्थान में चुनाव जीतने वाले आठ बागियों में से सात पूर्व भाजपा नेता हैं. सारे बागी डटे रहते तो नतीजे क्या हो सकते थे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है. 

लेकिन भाजपा ने जुलाई में एक बड़ा रणनीतिक बदलाव किया जिसने ऐसी परिस्थिति से बचने में पार्टी की बड़ी मदद की. किसी स्थानीय दिग्गज के बजाए उसने केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद जोशी को राजस्थान का चुनाव प्रभारी बना दिया ताकि प्रभारी की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का ज्यादा असर न हो. किनारे कर दी गईं राजे चुनाव से ठीक पहले वापस लौटीं तो इसमें जोशी की बड़ी भूमिका थी. उन्होंने राजे और भाजपा आला कमान के बीच एक पुल के रूप में काम किया. ऐसा करते हुए उन्होंने पिछले छह वर्षों से केंद्रीय नेतृत्व की आंख और कान बने राज्य भाजपा के संगठन महासचिव चंद्रशेखर के बढ़ते दबदबे को भी कम कर दिया, जिनकी राजे को किनारे करने में बड़ी भूमिका थी. राजे का आना फायदेमंद रहा. 41 उम्मीदवारों की पहली सूची जारी होने के बाद काफी नाराजगी पनपी थी. उसके बाद राजे का आकलन खासा काम आया. मतदान में दो हफ्ते रह जाने पर राजे को 49 निर्वाचन क्षेत्रों में उम्मीदवारों के लिए प्रचार करने को भी कहा गया. भाजपा ने उनमें से 36 सीटें जीतीं. 

केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के नेतृत्व में भाजपा खराब कानून व्यवस्था से लेकर केंद्रीय योजनाओं को लागू करने में अक्षमता जैसे मुद्दों पर गहलोत और उनकी सरकार को लगातार घेर रही थी जिससे सत्ता विरोधी लहर पैदा करने में मदद मिली. हालांकि, भ्रष्टाचार के लिए सीधे तौर पर गहलोत को दोषी नहीं ठहराया जा सका, लेकिन राज्यसभा सांसद किरोड़ी लाल मीणा—जो अब सवाई माधोपुर सीट से विधायक चुने गए हैं—से मिली जानकारी के आधार पर केंद्र सरकार ने केंद्रीय एजेंसियों को राज्य के विभिन्न विभागों में अनियमितताओं की जांच का काम सौंपा. अपने भाषणों में, मोदी-शाह ने गहलोत के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों का उल्लेख करने का शायद ही कोई मौका छोड़ा, जिससे इस धारणा को बल मिला कि राजस्थान की कांग्रेस सरकार भ्रष्टाचार में डूबी है.

भाजपा का हिंदुत्व का मुद्दा भी चला. पिछले साल उदयपुर में मुस्लिम कट्टरपंथियों के हाथों दर्जी कन्हैया लाल की हत्या को भाषणों में बार-बार उठाया गया. गहलोत की बहुप्रचारित कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद, उनकी सरकार के खिलाफ तुष्टीकरण की राजनीति के बार-बार आरोप ने भी कांग्रेस के अभियान को पटरी से उतार दिया. वास्तव में भाजपा के मूल वैचारिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जहां-जहां भी भाजपा के उम्मीदवारों की मदद के लिए कदम बढ़ाया, वहां-वहां पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया.

ये सब पहलू अपनी जगह पर है, पार्टी ने आरक्षित सीटों पर भी असाधारण प्रदर्शन किया. इससे साबित होता है कि मोदी के विकास के संदेश ने सभी तबकों पर असर डाला है. अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 34 सीटों में से भाजपा को 21 और कांग्रेस को 11 मिलीं. यह कांग्रेस की 2018 की 19 सीटों से आठ कम है. इसी तरह, अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 25 सीटों में से भाजपा ने 11 जीतीं, जो कांग्रेस की 10 की तुलना में एक ज्यादा है.

हालांकि, भाजपा जीती तो लेकिन क्या उसका प्रदर्शन उतना अच्छा था जितने की उसे उम्मीद थी? 199 में से 115 सीटों पर जीत राज्य इकाई की ओर से आला कमान को दिए गए 155 सीटों के आश्वासन से काफी कम है. (एक उम्मीदवार की मृत्यु के बाद करणपुर सीट का चुनाव टल गया था.)

दरअसल, विपक्ष में रहकर लड़े गए पिछले तीन चुनावों में भाजपा का यह सबसे खराब प्रदर्शन है. 2013 में इसने 200 में से 163 सीटें और 2003 में 120 सीटें जीती थीं. छोटी पार्टियों के वोटों को हथियाते हुए भाजपा अपना वोट शेयर 2018 के 38.77 प्रतिशत से बढ़ाकर 41.69 प्रतिशत तक ले आने में कामयाब रही. इसकी तुलना मध्य प्रदेश (48.55 प्रतिशत) और छत्तीसगढ़ (46.37 प्रतिशत) से करें जहां उसकी जीत की संभावना कम दिख रही थी, तो भाजपा को राजस्थान में आत्मनिरीक्षण की जरूरत होगी. 

भले ही पार्टी उन 19 सीटों में से सात सीटें जीतने में कामयाब रही, जहां उसे पिछले तीन चुनावों में लगातार हार का सामना करना पड़ा था, लेकिन उसने उन 29 'सबसे सुरक्षित' सीटों में से 10 सीटें गंवा दीं जो उसने पिछले तीन चुनावों में जीती थीं. पार्टी विशेष रूप से दो सीटों—तारानगर और आमेर में अपनी हार से स्तब्ध है. सात बार के विधायक और विपक्ष के नेता (एलओपी) राजेंद्र राठौड़ ने अपनी परंपरागत चूरू सीट की जगह तारानगर से चुनाव लड़ा था और हार गए. भाजपा का प्रमुख राजपूत चेहरा राठौड़ पार्टी के मुख्यमंत्री पद के कई उम्मीदवारों में से एक थे. विपक्ष के उप-नेता और पूर्व राज्य भाजपा प्रमुख सतीश पूनिया भी अपनी आमेर सीट बरकरार रखने में नाकाम रहे. जानकारों का कहना है कि ये दोनों लंबे समय से राजे और उनके वफादारों की संख्या कम करने का एजेंडा चला रहे थे. इस कारण उन्हें मतदाताओं तथा पार्टी कैडर के बीच मोहभंग का शिकार होना पड़ा.

हालांकि, आत्मनिरीक्षण की कहीं ज्यादा जरूरत कांग्रेस को है. गहलोत ने कड़ी टक्कर दी और 39.53 प्रतिशत वोट शेयर के साथ 69 सीटें जीतीं, लेकिन पार्टी की हार की जिम्मेदारी भी उन्हें ही उठानी होगी. उनके 30 में से 17 मंत्री हार गए. आलोचक इसके लिए पुराने चेहरों पर उनकी निर्भरता को जिम्मेदार ठहराते हैं. इसका उल्टा असर हुआ. गहलोत का दावा है कि जीतने वाले उम्मीदवारों की कमी के कारण उनके पास पुराने चेहरों के अलावा कोई अन्य विकल्प न था. यही रुख उन्होंने 2003 और 2013 में भी अपनाया था. लेकिन जिन मौजूदा कांग्रेस विधायकों को टिकट दिया गया उनमें से केवल 37 फीसद ही जीतने में कामयाब रहे. तुलनात्मक रूप से, भाजपा की ओर से ऐसे उम्मीदवारों का स्कोर 67 प्रतिशत था. लेकिन कांग्रेस ने जिन नए चेहरों को मौका दिया, उनका प्रदर्शन भी अच्छा नहीं रहा. जिन 43 नए चेहरों को मैदान में उतारा गया उनमें से केवल 10 या 23 प्रतिशत ही जीते जबकि भाजपा के 39 नए चेहरों में से 18 या 46 प्रतिशत जीते.

गहलोत के अपने पूर्व डिप्टी सचिन पायलट के साथ लंबे समय से चल रहे झगड़े ने भी कांग्रेस का खेल बिगाड़ा. पायलट को बहुत देर से चुनाव अभियान में शामिल किया गया. पायलट गुर्जर समुदाय के एक प्रमुख और लोकप्रिय नेता हैं और उनके साथ किए गए व्यवहार से गुर्जरों का मोहभंग हुआ जो समुदाय के कुछ वोटों के कांग्रेस से छिटककर भाजपा की ओर जाने से स्पष्ट है.

जाति जनगणना, ओल्ड पेंशन स्कीम और 17 नए जिले बनाने की कवायद से भी कांग्रेस को खास लाभ नहीं हुआ. नतीजों से साफ है कि राज्य कर्मचारी पेंशन स्कीम से बहुत प्रभावित नहीं हुए.  

निवर्तमान गहलोत सरकार अपने उत्तराधिकारी के लिए पर्याप्त चुनौतियां छोड़ गई है. उनमें से सबसे बड़ी चुनौती राज्य पर 5 लाख करोड़ रुपए के कर्ज की है. इससे न केवल भाजपा के लिए मौजूदा लोकलुभावन योजनाओं को जारी रखना मुश्किल हो जाएगा, बल्कि ईंधन पर वैट कम करना और किसानों को वार्षिक सहायता दोगुनी करके 12,000 रुपए करने के अपने चुनावी वादे को निभाना भी मुश्किल हो जाएगा.

विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखते हुए कहा जा सकता है कि मोदी का जादू शायद पार्टी को लोकसभा चुनाव में फायदा पहुंचाएगा. लेकिन आंतरिक मतभेद राजस्थान में लोकसभा चुनावों में लगातार तीसरी बार क्लीन स्वीप की भाजपा की योजना को खराब कर सकता है.

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