
दो बार मुख्यमंत्री रहे केसीआर और उनकी पार्टी के नेताओं के खिलाफ जोरदार सत्ता विरोधी लहर पर सवार होकर कांग्रेस पूरी आक्रामकता के साथ विजयी हुई. यह चुनावी रणनीतिकार और अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के नवनियुक्त सदस्य सुनील कनुगोलू के अभियान का ही नतीजा था कि बीआरएस विधायकों, केसीआर और उनके परिवार के खिलाफ उभरता असंतोष ग्रामीण क्षेत्रों में बदलाव की एक व्यापक लहर में तब्दील हो गया. इस पहलू को गहराई से समझने से पहले तक यही लग रहा था कि केसीआर की नई विकासात्मक योजनाओं के वादे और राज्य गठन के पुराने भावनात्मक मुद्दे की कोई काट नहीं है. तेजतर्रार राज्य इकाई प्रमुख अनुमुला रेवंत रेड्डी की अगुआई और कनुगोलू की कुशल रणनीति का साथ पाकर कांग्रेस ने संगठनात्मक बदलावों को लागू करने में कोई झिझक नहीं दिखाई. कुछ दिग्गजों को दरकिनार किया गया, नई स्थानीय प्रतिभाओं को तलाशा गया और उन्हें उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतारने के साथ अंदरूनी लड़ाई पर भी सख्ती से अंकुश लगाया गया. मई में कर्नाटक में पार्टी की जीत से उत्साहित रेड्डी और कनुगोलू ने प्रचार के दौरान कर्नाटक मॉडल को अपनाया, और रणनीति को दो प्रमुख बिंदुओं पर केंद्रित रखा—'छह गारंटियों' के माध्यम से कल्याण और कथित तौर पर भ्रष्ट बीआरएस शासन को घेरना. राजस्थान और मध्य प्रदेश में तो अशोक गहलोत और कमलनाथ ने कनुगोलू की सेवाएं लेने की कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व के परामर्श को नजरअंदाज कर दिया था. और जैसा कि नतीजे दर्शाते हैं, उन्हें इसकी सख्त जरूरत थी. और, 7 दिसंबर को रेड्डी तेलंगाना के पहले कांग्रेसी मुख्यमंत्री बन गए.
तेलंगाना में कांग्रेस को मिली बड़ी सफलता के बावजूद वोट शेयर में बहुत कम अंतर रहा है. कांग्रेस ने 39.48 फीसद वोट शेयर के साथ 64 सीटें जीती हैं जो 119 सदस्यीय में 2018 के उसके प्रदर्शन से 41 अधिक है. यह बीआरएस के वोट शेयर से बमुश्किल 2.09 फीसद ही अधिक है. लेकिन वोट शेयर का यह मामूली अंतर केसीआर को विधानसभा चुनाव में जीत की 'हैट्रिक' से वंचित करने के लिए काफी था. कांग्रेस के वोट शेयर में 10 फीसद का बड़ा उछाल आया है (2018 में उसने 28.4 फीसद वोट शेयर के साथ महज 19 सीटें जीती थीं). भाजपा पिछले चुनाव के मुकाबले अपना वोट शेयर दोगुना कर 14 फीसद पर पहुंचाने में सफल रही और 2018 की एक सीट की तुलना में आठ पर जीत हासिल की.
बीआरएस ने अपनी हार को स्वीकार किया है. बीआरएस के कार्यकारी अध्यक्ष और केसीआर के बेटे के.टी. रामाराव मानते हैं, "पार्टी को अपनी रणनीतियों पर नए सिरे से मंथन करना होगा."
बीआरएस के खिलाफ काफी समय से सत्ता विरोधी लहर बन रही थी. जनता के बीच विधायकों की अहंकारी और भ्रष्टाचार वाली छवि गहराने के बावजूद केसीआर बड़े पैमाने पर अपने मौजूदा विधायकों को ही मैदान में उतारने पर अडिग रहे. दरअसल, बीआरएस किसानों के लिए रायथु बंधु निवेश सहायता योजना और रायथु बीमा कृषि बीमा योजना, वंचित तबके के लिए दलित और पिछड़ा वर्ग बंधु योजना और गरीबों को आवास के लिए गृह लक्ष्मी योजना जैसे अपने लोकप्रिय कल्याणकारी कदमों की बदौलत जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त थी. हालांकि, 2-बीएचके आवास और दलित बंधु जैसी महत्वाकांक्षी योजनाओं पर अमल में रही खामियों ने लाभ पाने वाले और न पाने वालों की एक नई खाई तैयार कर दी. इससे लाखों लोगों की नाराजगी बढ़ी.
कई मतदाता केसीआर के कथित तौर पर करीबियों से ही घिरे रहने और सत्तावादी अहंकार से भी नाराज थे. हालांकि, कांग्रेस ने बढ़त काफी हद तक ग्रामीण क्षेत्रों के समर्थन की बदौलत हासिल की है. एक अहम तथ्य यह है कि अपेक्षाकृत बेहद संपन्न माने जाने ग्रेटर हैदराबाद ने अपने 24 निर्वाचन क्षेत्रों में से किसी पर भी कांग्रेस उम्मीदवार को नहीं जिताया है. बीआरएस ने यहां 16 सीटें जीतीं, जबकि ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआइएमआइएम) चौथी बार अपने गढ़ पुराने शहर में सात सीटों पर काबिज रही. भाजपा ने गोशामहल की अपनी एकमात्र सीट बरकरार रखी. अगर शहरी क्षेत्र में ऐसा प्रभावशाली प्रदर्शन न होता तो बीआरएस और भी खराब स्थिति में होती.
बदलाव के लिए वोट
बीआरएस की हार के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार खुद केसीआर हैं. अपनी कुशल और पुख्ता चुनावी रणनीति के लिए ख्यात रहे पूर्व सीएम इस बार अपनी हठधर्मिता के शिकार हो गए. मुट्ठी भर मौजूदा विधायकों को छोड़कर लगभग सभी को मैदान में उतारा. यही नहीं, उम्मीदवारों की सूची भी अगस्त के शुरू में ही घोषित कर दी थी.

यह स्थिति तब थी जब उनकी पार्टी का आंतरिक सर्वे दर्शा रहा था कि लगभग 35 विधायक बेहद अलोकप्रिय हैं. जाहिर है, केसीआर को कहीं न कहीं यह आशंका सता रही थी कि टिकट न मिलने पर विधायक बागी तेवर अपना सकते हैं. इसने कांग्रेस के लिए बीआरएस के कुशासन पर निशाना साधना आसान बना दिया. गौरतलब है कि बीआरएस ने जिन 14 निर्वाचन क्षेत्रों में नए उम्मीदवार उतारे, उनमें से 11 में उसे बड़ी जीत हासिल हुई.
बीआरएस पर पूरी तरह केसीआर परिवार के दबदबे के विपक्ष के आरोपों ने भी अपना रंग दिखाया—बेटे के.टी. रामाराव और भतीजे टी. हरीश राव राज्य में मंत्री थे, जबकि बेटी के. कविता एमएलसी हैं. दिल्ली में शराब नीति से जुड़े भ्रष्टाचार के मामले में कविता की कथित संलिप्तता ने भी नकारात्मक असर डाला. कांग्रेस आराम से इन मुद्दों के सहारे अपने पक्ष में माहौल बनाने में सफल रही.
हैदराबाद से बाहर के मुसलमान कांग्रेस के पक्ष में लामबंद हुए तो अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और प्रभावशाली रेड्डी ने भी इस पार्टी को वोट दिया. राज्य की 45 सीटों में अच्छी-खासी हिस्सेदारी रखने वाले मुस्लिम कांग्रेस के परंपरागत वोटर रहे हैं लेकिन 2014 और 2018 में वे बीआरएस के खेमे में चले गए थे. पिछले कुछ महीनों के दौरान उन्हें साथ जोड़ने की व्यापक कोशिशों ने जनाधार मजबूत करने में मदद की. कांग्रेस ने सत्ता विरोधी लहर के भरोसे बैठने के बजाए पूरी सावधानी के साथ अपनी रणनीति बनाई. इसे जमीनी स्तर तक पहुंचाने का श्रेय ए. रेवंत रेड्डी को जाता है.
कांग्रेस की तात्कालिक चुनौती यही है कि तेलंगाना के लोगों को दी गईं 'छह गारंटी' पर जल्द से जल्द अमल हो. साथ ही जितनी जल्दी संभव हो सके, पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण बढ़ाने के वादे के अनुरूप जाति सर्वेक्षण कराया जाए. लेकिन राज्य का खाली खजाना और भारी कर्ज उसके लिए बड़ी चुनौती होगी.
कांग्रेस के तारणहार रेवंत रेड्डी
तीन दिसंबर को जैसे ही यह स्पष्ट हो गया कि कांग्रेस तेलंगाना में सत्ता हासिल करने वाली है, प्रदेश कांग्रेस प्रमुख ए. रेवंत रेड्डी ने घोषणा की कि अब राज्य सचिवालय में आम लोग बिना किसी रुकावट के पहुंच सकेंगे. गौरतलब है, पूर्व मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने वहां लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया था. रेड्डी को तेलंगाना में कांग्रेस को जीत दिलाने का श्रेय दिया जा रहा है, वे करिशमाई व्यक्तित्व वाले नेता हैं और उनका अलग ही राजनैतिक जलवा है. यह, उनकी निर्णायक आक्रामकता के साथ, एक दिलचस्प राजनैतिक व्यक्तित्व को दर्शाता है. जब केसीआर ने घोषणा की कि वे दूसरे निर्वाचन क्षेत्र, कामारेड्डी से चुनाव लड़ेंगे तो रेवंत ने कोडंगल से चुनाव लड़ने का फैसला किया. यह एक अलग कहानी है कि तब ये दोनों भाजपा के एक नए नेता से हार गए.
राहुल गांधी के कहने पर 7 जुलाई, 2021 को टीपीसीसी प्रमुख के रूप में कार्यभार संभालने के बाद से इस 54 वर्षीय तेजतर्रार नेता ने देश की सबसे पुरानी पार्टी में युवा आक्रामकता का संचार किया है. रेड्डी 2017 में कांग्रेस में शामिल हुए थे और 2019 में मलकाजगिरी निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा के लिए चुने जाने वाले तीन कांग्रेस नेताओं में से एक थे. जून 2019 में, कांग्रेस के 19 में से 12 विधायक सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति में शामिल हो गए. अपेक्षाकृत नए चेहरे रेड्डी ने पार्टी के गिरते मनोबल को फिर खड़ा किया और गुटों पर जीत हासिल की.
रेड्डी के आलोचकों ने उन्हें 'पार्टी-हॉपर' करार दिया है. आरएसएस की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ता के रूप में शुरुआत करने वाले रेड्डी का करियर 2003 में टीआरएस में शामिल होने के बाद आगे बढ़ा. 2004 के विधानसभा चुनाव में टिकट नहीं मिलने पर उन्होंने 2005 में पार्टी छोड़ दी और निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में 2006 में जिला परिषद क्षेत्रीय समिति के सदस्य और 2008 में एमएलसी बने.
इसके बाद, वे तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) में शामिल हो गए और कोडंगल से 2009 और 2014 में विधायक के रूप में चुने गए. जब 2014 में तेलंगाना राज्य की स्थापना हुई तो रेड्डी को पार्टी की राज्य इकाई के प्रमुख के रूप में नियुक्त किया गया. 2015 में, राज्य के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने उन पर तेलंगाना विधान परिषद चुनावों में वोट खरीदने की कोशिश करने का आरोप लगाया था. यह मामला अभी कोर्ट में लंबित है. इस बीच, तेलंगाना में टीडीपी की संभावनाओं को धूमिल बताते हुए रेड्डी कांग्रेस में शामिल हो गए.
कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में वे 2018 में कोडंगल में हार गए, छह महीने बाद, उन्होंने मलकाजगिरी से जीत हासिल की. सोशल मीडिया पर रेड्डी की जुझारूपन और जीवंत उपस्थिति ने यह सुनिश्चित किया कि कांग्रेस बीआरएस के एक शक्तिशाली प्रतिद्वंद्वी के रूप में उभर रही थी. कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद उन्होंने तेलंगाना में कांग्रेस की लहर को दिशा दी. उन्होंने टीपीसीसी प्रमुख के रूप में 87 चुनावी रैलियों में भाग लिया.
रेड्डी महबूबनगर के कलवाकुर्थी गांव के किसान परिवार से हैं. हैदराबाद के ए.वी. कॉलेज से ललित कला में स्नातक करने वाले रेड्डी, पूर्णकालिक राजनेता होने से पहले एक विज्ञापन और प्रिंटिंग एजेंसी चलाते थे.