
साल 1925 की बात है. गुजरात के सोजित्र गांव में महिला सम्मेलन को संबोधित करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था: ''जब तक देश की स्त्रियां सार्वजनिक जीवन में भाग नहीं लेतीं, देश का उद्धार नहीं हो सकता.’’ करीब एक सदी बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने नारी शक्ति वंदन अधिनियम लाकर सर्वोच्च स्तर पर सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी को सांस्थानिक रूप देने की कोशिश की है. यह अधिनियम लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटें आरक्षित करेगा.
इस साल पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं और अगले साल आम चुनाव होंगे, ऐसे में यह विधेयक माकूल वक्त पर महिला मतदाताओं को सीधे लुभाने के लिए लाया गया है जो बीते दशक में भाजपा की चुनावी कामयाबी की रीढ़ रही हैं. अपनी शैली के अनुरूप प्रधानमंत्री ने विपक्षी पार्टियों को हैरत में डाल दिया और बेमन से चीयरलीडर बनने को मजबूर कर दिया, और भाजपा उस कानून का सारा श्रेय बटोरने के लिए निकल पड़ी, जिसे चुनावी राजनीति में गेमचेंजर बनाने के मकसद से लाया गया है.
देश की संसद और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं की नुमाइंदगी के निराशाजनक ढंग से खराब रिकॉर्ड के साथ यह विधेयक तीन दशकों से वजूद में आने की बाट जोह रहा था. वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम के ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स यानी वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक में (जो तमाम देशों में स्त्री-पुरुष गैर-बराबरी की नाप-जोख चार आयामों—आर्थिक अवसर, शिक्षा, स्वास्थ्य और राजनैतिक नेतृत्व—पर करता है) भारत करीब 150 देशों में लगातार 100 से निचली पायदान पर रहा.
मैकिंजी ग्लोबल इंस्टीट्यूट की अप्रैल 2023 की रिपोर्ट में अनुमान जाहिर किया गया कि अगर देश महिलाओं को समान अवसर दे दे, तो 2025 तक उसकी जीडीपी में 770 अरब डॉलर या 18 फीसद का इजाफा हो सकता है. भारत के श्रमबल में सिर्फ 25 फीसद महिलाओं के साथ देश के जीडीपी में महिलाओं का योगदान फिलहाल महज 18 फीसद है, जो दुनिया में सबसे कम है.

हालांकि लोकसभा में महिला सांसदों की हिस्सेदारी 1952 में 4 फीसद से बढ़कर 2019 में करीब 15 फीसद पर पहुंच गई, पर यह 26 फीसद के वैश्विक औसत से अब भी बहुत कम है. उच्च सदन में भी उनकी इतनी ही हिस्सेदारी है, पर 19 राज्यों में तो यह घटकर 10 फीसद से भी नीचे चली जाती है.
1993 में पंचायती राज संस्थाओं में 33 फीसद आरक्षण की व्यवस्था की बदौलत महिलाओं के बीच राजनैतिक जागरूकता में तीव्र बढ़ोतरी के बावजूद ऐसा है. यह हिस्सेदारी 21 राज्यों में 50 फीसद तक पहुंच जाती है. महिला आरक्षण विधेयक के साथ भारत पड़ोसी पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और चीन सहित करीब 40 देशों के चुनिंदा क्लब में शामिल हो जाएगा जिन्होंने विधायी निकायों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की हैं.
विधेयक के असर का अंदाजा एक सीधी-सादी काल्पनिक गिनती से लगाया जा सकता है: अगर आज लागू कर दिया जाए, तो लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या मौजूदा 82 से छलांग लगाकर कम से कम 180 पर पहुंच जाएगी. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) एस.वाइ. कुरैशी कहते हैं, ''याद रखें कि वैश्विक लोकतंत्र सूचकांकों में भारत को बार-बार दोषपूर्ण लोकतंत्र के रूप में वर्गीकृत किया जाता है और महिलाओं की निराशाजनक भागीदारी इसकी मुख्य वजहों में से एक रही है. महिला आरक्षण विधेयक सही दिशा में उठाया गया कदम है.’’
लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में एक-तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित करने के अलावा विधेयक यह भी अनिवार्य बनाता है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षित सीटों में से एक-तिहाई सीटें इन्हीं वर्गों की महिलाओं के लिए अलग रखी जाएंगी. अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) का कोटा अलबत्ता छोड़ दिया गया है.
न ही यह कोटा केंद्र और राज्य स्तरों पर उच्च सदन पर लागू होगा. यह आरक्षण अधिनियम के लागू होने की तारीख से 15 साल तक जारी रहेगा और इसे आगे बढ़ाने का अधिकार संसद को होगा. महिलाओं के लिए आरक्षित सीटें हर बार परिसीमन की कवायद के बाद बारी-बारी से बदलेंगी, जो संसद के कानून से तय होगा.
केंद्रीय कानून और न्याय मंत्री अर्जुन राम मेघवाल के हाथों प्रस्तुत यह संविधान (128वां संशोधन) विधेयक 2023 (बाद में इसे सुधारकर 106 संशोधन कहा गया) नए संसद परिसर में पटल पर रखा गया पहला कानून भी है. यह संविधान संशोधन विधेयक है, इसे संसद के दोनों सदनों में ''विशेष बहुमत’’—यानी प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों के बहुमत और साथ ही सदन में मौजूद और वोट देने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत—से पारित करने की जरूरत है.
लोकसभा में अपने भाषण के दौरान प्रधानमंत्री ने अपने को ''महिलाओं को अधिकार देने और उन्हें सशक्त बनाने के इस पवित्र काम के लिए चुना हुआ’’ शख्स बताया, जिसके लिए उन्होंने संसद का पांच दिवसीय विशेष सत्र बुलाया. तकरीबन सभी पार्टियों को इसका पूरी तरह विरोध कर पाना मुश्किल लग रहा था, लोकसभा में इसके पक्ष में 454 वोट पड़े. सिर्फ दो सदस्यों ने विरोध में मत दिया, जो दोनों ही असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआइएमआइएम या मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के थे. यह विधेयक राज्यसभा में 21 सितंबर को 11 घंटे की चर्चा के बाद 214 वोटों से पारित कर दिया गया.
परिसीमन की सीमा
मौजूदा कानून मार्च 2010 में कांग्रेस की अगुआई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार के तहत राज्यसभा में पारित विधेयक से काफी कुछ मिलता-जुलता है—बस एक अहम फर्क है. इस विधेयक में महिलाओं को दिया गया आरक्षण इसके पारित होने के बाद होने वाली पहली जनगणना के आधार पर परिसीमन की कवायद के बाद शुरू होगा.
संविधान के अनुच्छेद 170 और जन प्रतिनिधित्व कानून 1950 के तहत जरूरी परिसीमन की कवायद में विधायी निर्वाचन क्षेत्रों की सीमाओं को इस तरह नए सिरे से तय किया जाता है जिससे उनमें आबादी के बदलावों की झलक मिले. इसमें संविधान के अनुच्छेद 330 और 332 के प्रावधान के मुताबिक तय एससी/एसटी की आरक्षित सीटें भी नए सिरे से तय की जाती हैं.
संविधान कहता है कि परिसीमन हर जनगणना के बाद किया जाए.1976 तक चार बार परिसीमन किया गया था. मगर जनसंख्या आधारित परिसीमन का मतलब यह था कि जिन राज्यों में जनसंख्या की अच्छी-खासी बढ़ोतरी हुई, जो ज्यादातर उत्तर भारत के हैं, उन्हें संसद में ज्यादा संख्या में सीटें मिल गईं.
विकसित राज्यों ने असमान राजनैतिक प्रतिनिधित्व की शिकायत की और उनके डर को दूर करने के लिए 1976 में संविधान में संशोधन करके परिसीमन की कवायद 2001 तक स्थगित कर दी गई. 2001 में एक और संशोधन करके इसे 25 साल तक के लिए टाल दिया गया, जिसे अब 2026 के बाद पहली जनगणना के आधार पर किया जाना है.
2026 के बाद वह पहली जनगणना 2031 में की जानी है. मगर कोविड-19 की वजह से 2021 की जनगणना अचानक रोकनी पड़ी, इसलिए केंद्र सरकार 2026 में आबादी की गिनती करने का फैसला कर सकती है और उसके आधर पर परिसीमन उसके बाद किया जा सकता है. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने भाषण में इसका संकेत भी दिया कि 2024 के आम चुनाव के बाद नई सरकार जनगणना और परिसीमन कराएगी, उम्मीद है कि ये दोनों कवायदें 2029 तक पूरी हो जाएंगी.
इससे 2029 तक महिला आरक्षण विधेयक पर अमल संभव हो सकेगा. राजनैतिक पर्यवेक्षक अलबत्ता आगाह करते हैं कि यह कहना आसान है पर करना नहीं. 2002 में जब 2001 की जनगणना के आधार पर संसदीय/विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों की मौजूदा संख्या को फिर से तय करने के लिए नया परिसीमन अधिनियम पारित किया गया था, तब इस कवायद को अंजाम देने वाले परिसीमन आयोग को परिसीमन का डेटा उपलब्ध करवाने में करीब ढाई साल लगे थे.
2026 के बाद परिसीमन की कवायद को कानूनी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है, खासकर दक्षिणी राज्यों की ओर से, जो जनसंख्या के आधार पर परिसीमन कवायद में कुछ सीटें गंवा सकते हैं. यह आशंका है कि कम आबादी वाले दक्षिणी राज्यों को उत्तरी राज्यों के मुकाबले कम सीटें मिलेंगी, जहां आबादी वृद्धि दर काफी ज्यादा है. राजनैतिक कार्यकर्ता तथा स्वराज इंडिया के संस्थापक योगेंद्र यादव कहते हैं, ''इन वजहों से परिसीमन की कवायद में देरी हो सकती है और आखिरकार महिला आरक्षण विधेयक 2034 के चुनावों में ही लागू हो सकता है.’’
यही वजह है कि विपक्षी पार्टियां नारी शक्ति वंदन अधिनियम को और कुछ नहीं बल्कि महज राजनैतिक 'जुमला’ और चुनाव से प्रेरित कदम कह रही हैं जिसके अमल की कोई निश्चित समय सीमा नहीं है. वे सरकार पर 'लोगों को बेवकूफ बनाने’ और आरक्षण तुरंत नहीं देने बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर यह विधेयक लाने का आरोप लगा रही हैं.
राजनीति विज्ञानी भी ऐसे ही नतीजों पर पहुंचते हैं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में मानद प्रोफेसर जोया हसन कहती हैं, ''सरकार महिला आरक्षण को लेकर गंभीर नहीं है. अगर वह होती, तो लोकसभा में उसके बहुमत को देखते हुए वह इसे 2019 में ही पारित करवा लेती. यह समझना कोई रॉकेट साइंस नहीं है कि महिला आरक्षण विधेयक चुनावी फायदों को ध्यान में रखते हुए और हकीकत में आरक्षण लागू किए बिना मुद्दे को जिंदा रखने के लिए संसदीय चुनावों से छह महीने पहले लाया गया है.’’
भाजपा की दलील
भाजपा के अंदरूनी सूत्र अलबत्ता जोर देकर कहते हैं कि दूसरों को जो प्रतीकात्मक मालूम देता है, उसमें भी सकारात्मक व्यावहारिक तरीका है. अगले परिसीमन से न केवल पुनर्गठन होगा बल्कि निर्वाचन क्षेत्रों की संख्या भी बढ़ जाएगी, लेकिन परिसीमन अभी तीन साल दूर है, इसलिए 2024 के चुनाव के लिए इसे लागू करने का कोई मतलब नहीं है.
अलबत्ता कानून बना देने से भाजपा सहित सभी राजनैतिक पार्टियां भावी चुनावों के लिए संभावित महिला उम्मीदवारों को तैयार करने के लिए प्रेरित होंगी. दूसरों का कहना है कि तत्काल आरक्षण की शुरुआत से कई दिग्गजों को अपनी सीट गंवाने का डर सताने लगता और आंतरिक विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो जाती. संविधान विशेषज्ञ तथा 14वीं और 15वीं लोकसभा के सेक्रेटरी-जनरल पी.डी.टी. आचारी कहते हैं, ''इसकी वजह यह है कि बरसों से अपनी सीट को पालते-पोसते आ रहे पुरुष बड़ी संख्या में अंतत: वह सीट गंवा सकते हैं. वे अचानक किए जा रहे ऐसे बदलाव को स्वीकार नहीं कर पाएंगे, जो उन्हें हाथ मलता छोड़ देगा. हरेक राजनैतिक पार्टी इस परेशानी का सामना करने जा रही है.’’
राष्ट्रीय सार्वजनिक वित्त और नीति संस्थान की प्रोफेसर लेखा चक्रबर्ती के लिए लंबे वक्त से टलते आ रहे इस फैसले के ऐतिहासिक स्वरूप को देखते हुए देरी की कोई अहमियत नहीं है. वे कहती हैं, ''विविधता, प्रतिभा और अंतदृष्टि लाने के लिए राजकाज का महिलाकरण बेहद अहम है. संसद में जेंडर बजटिंग सरीखे जन नीति के नवाचारों पर ज्यादा जानकार बहस के लिए वहां ज्यादा महिलाओं के होने की जरूरत है.’’
इन बहुत-सी आलोचनाओं के बावजूद चुनावी मौसम की पूर्वसंध्या पर यह कानून लाकर भाजपा ने सामाजिक कल्याण और सशक्तीकरण योजनाओं के जरिए महिला मतदाताओं को रिझाने की अपने लगातार जारी कोशिशों में नया अध्याय जोड़ दिया है. पिछले ही महीने सरकार ने रसोई गैस के सिलिंडर की कीमत कम की थी. ईंधन के लिए पहले जलावन और कोयले का इस्तेमाल करने वाले वंचित घरों को रसोई गैस मुहैया करने के लिए 2016 में लाई गई प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना को और 75 लाख घरों तक बढ़ा दिया गया है.
स्वच्छ भारत अभियान, जल जीवन मिशन, सुकन्या समृद्धि योजना, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ और प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना सरीखी दूसरी योजनाओं का भी यह कहकर बखान किया जा रहा है कि इनसे महिलाओं को गरिमा, जीवनयापन में आसानी, वित्तीय शक्ति और समावेशन, आर्थिक सहायता और स्वास्थ्य लाभ हासिल हो रहे हैं.
बाल विवाह निषेध संशोधन विधेयक 2021 को भी, जो महिलाओं के विवाह की न्यूनतम उम्र बढ़ाकर 21 वर्ष करने की पेशकश करता है, महिलाओं को ताकतवर बनाने के एक और उपाय की तरह पेश किया जा रहा है. संसद की स्थायी समिति फिलहाल इस विधेयक की पड़ताल कर रही है. भाजपा के नेता यह बताने में भी जरा कोताही नहीं करते कि मोदी के मंत्रिमंडल में 11 महिला मंत्री हैं, जो आजादी के बाद किसी भी केंद्र सरकार में सबसे ज्यादा हैं.
भगवा संगठन को यह भी उम्मीद है कि महिला आरक्षण विधेयक से उसे इसी साल महिला पहलवानों के उस विरोध प्रदर्शन से कथित तौर पर गलत ढंग से निबटने से पैदा प्रतिकूल प्रचार को उलटने में भी मदद मिलेगी, जो उन्होंने भाजपा सांसद और तब भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृज भूषण शरण सिंह पर उनमें से कुछ के साथ यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ किया था.
ज्यादा अहम यह कि पार्टी आर्थिक परेशानियों और उनसे पैदा नाराजगी से मतदाताओं का ध्यान भटकाने के लिए कुछ नाटकीय करना चाहती थी. चुनाव विशेषज्ञ यशवंत देशमुख कहते हैं, ''भाजपा महंगाई सरीखे आर्थिक मुद्दों को लेकर चिंतित थी, जिनका असर महिला मतदाताओं पर उनकी पकड़ पर पड़ रहा था. इस विधेयक से महिला मतदाताओं के बीच भाजपा के पक्ष में सद्भावना की अच्छी खुराक पैदा होने की संभावना है.’’ राजनैतिक पर्यवेक्षक अलबत्ता आगाह करते हैं कि अमल में देरी से भाजपा को मिलने वाला संभावित चुनावी फायदा कम हो सकता है.
जेएनयू में राजनैतिक अध्ययन केंद्र के चेयरपर्सन प्रोफेसर नरेंद्र कुमार कहते हैं, ''अगर विपक्षी दल मतदाताओं को असरदार ढंग से यह बता पाते हैं कि महिला आरक्षण विधेयक निकट भविष्य में लागू नहीं होगा, तो भाजपा को उतना फायदा शायद न मिले जितना वह उम्मीद कर रही है.’’ हालांकि चुनाव विशेषज्ञ प्रदीप गुप्ता इस बात से तो सहमत हैं कि इसका असर कम हो सकता है, पर वे मोदी की ब्रांड वैल्यू पर दांव लगाते हैं. वे कहते हैं, ''कानून और अमल के बीच फासले से भाजपा का चुनावी फायदा 50 फीसद कम हो जाएगा, पर जो चीज भाजपा के पक्ष में काम करेगी, वह है मोदी फैक्टर. अगर इस वक्त यह महज चुनावी वादा भर हो, तब भी अंजाम देने का प्रधानमंत्री का ट्रैक रिकॉर्ड इस वादे की विश्वसनीयता बढ़ा देता है.’’
महिला वोट बैंक
महिला मतदाताओं पर भाजपा का जोर बमुश्किल ही हैरत पैदा करता है. महिला मतदाता 1962 से ही ज्यादा से ज्यादा तादाद में वोट देने के लिए आ रही हैं. तब 62 फीसद पुरुषों और महज 46.6 फीसद महिलाओं ने लोकसभा चुनाव में वोट दिया था. 2019 में 67.2 फीसद महिलाओं ने चुनावों में वोट दिया, जो पुरुषों की 67 फीसद हिस्सेदारी से कुछ ज्यादा थी.

हालांकि, दिल्ली के विकासशील समाज अध्ययन केंद्र के एक अध्ययन के मुताबिक, 2019 तक देश भर में ज्यादा महिलाएं कांग्रेस के पक्ष में वोट देती थीं, वहीं उस साल के बाद भाजपा पहली बार महिला मतदाताओं का सबसे ज्यादा हिस्सा हासिल करने वाली पार्टी बन गई, फिर भले ही पुरुषों के बीच उसकी वोट हिस्सेदारी (39 फीसद) महिलाओं के बीच उसकी हिस्सेदारी (36 फीसद) के मुकाबले कुछ ज्यादा बनी रही. तीन तलाक को अपराध बनाने वाले कानून की बदौलत 2019 के आम चुनाव में भाजपा को मुसलमान महिलाओं का अच्छा-खासा समर्थन मिलना बताया जाता है.
भाजपा ही नहीं, ज्यादातर राजनैतिक पार्टियों को महिला मतदाताओं की क्षमता का एहसास हुआ है और वे भी उन्हें लुभाने की कोशिश कर रही हैं. राजनैतिक विश्लेषक इस साल कर्नाटक के चुनाव में कांग्रेस को मिली जीत का श्रेय 500 रुपए में गैस सिलिंडर और 2,000 रुपए के नकद हस्तांतरण सरीखी महिला केंद्रित योजनाओं के वादे को देते हैं. पिछले हफ्ते उसने तेलंगाना की महिलाओं को वजीफे और बस की मुफ्त सवारी का वादा किया.
पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी), दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप), तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कलगम (डीएमके) और बिहार में जनता दल-यूनाइटेड (जेडी-यू) भी कई महिला केंद्रित योजनाएं लेकर आए और एक के बाद एक चुनावों में चुनावी फसल काटी. इस सबसे भाजपा के चुनावी गुणा-भाग में इस विधेयक की अहमियत और भी ज्यादा बढ़ गई.
दिल्ली स्थित महिला विकास अध्ययन केंद्र (सीडब्ल्यूडीएस) की पूर्व डायरेक्टर प्रो. मैरी ई. जॉन कहती हैं, ''भाजपा मानती है कि उसने महिलाओं के मुद्दों को सफलता से अपना लिया है और देश में उनकी सरपरस्त बन गई है. यह महिला मतदाताओं को संकेत है जो कह रहा है कि भाजपा उनकी परवाह करती है, खासकर जब पार्टी कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद महिला मतदाताओं पर अपनी पकड़ कमजोर पड़ती महसूस कर रही है.’’
लिहाजा, उम्मीद के मुताबिक तकरीबन सभी राजनैतिक पार्टियां महिलाओं के आरक्षण विधेयक का समर्थन करने के लिए आ जुटीं, बावजूद इसके कि उन्हें इसमें कुछ निश्चित प्रावधान नहीं होने और इसके श्रेय के दावे की होड़ को लेकर कुछ एतराज थे. यह अंदाजा लगाते हुए कि सरकार संसद के विशेष सत्र में यह विधेयक ला सकती है, कांग्रेस की नेता सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर उनकी सरकार से विधायी निकायों में महिला आरक्षण लागू करने का आग्रह किया था.
विधेयक लाए जाने के दो दिन पहले हैदराबाद में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में पार्टी ने इसे लागू करने की मांग करते हुए प्रस्ताव पारित किया. विधेयक के बारे में राय पूछे जाने पर सोनिया गांधी ने संवाददाताओं से कहा, ''अपना है (यह हमारा है)" और इशारा किया कि यूपीए की सरकार ने 2010 में इसे राज्यसभा से पारित करवाया था.
कांग्रेस ने महिला आरक्षण का मुद्दा पिछले साल भी उठाया था, जब उत्तर प्रदेश विधानसभा के अपने प्रचार अभियान के दौरान प्रियंका गांधी ने महिलाओं के लिए 40 फीसद आरक्षण पर जोर दिया था. बीजू जनता दल (बीजेडी), भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के अजित पवार धड़े भी 2010 के विधेयक को जिलाने की मांग करने वाले काफिले में शामिल हो गए.
ओबीसी मामला
महिला आरक्षण विधेयक संसद में 1996, 1998, 1999, 2002, 2003 और 2010 में जब भी पेश किया गया, समाजवादी पार्टी (सपा) और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) जैसी कई जाति-आधारित पायां सबसे मुखर विरोधी साबित हुईं. ये पार्टियां उसमें दलितों और ओबीसी के लिए विशेष आरक्षण की मांग करती रही हैं. उन्हें डर है कि ओबीसी के लिए उप-कोटा के अभाव में महिला आरक्षण का अधिकतम लाभ उच्च जाति की सुविधा संपन्न महिलाएं उठा लेंगी.
इस बार, इन पार्टियों और यहां तक कि कांग्रेस ने भी एससी/एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण के भीतर आरक्षण की मांग की है. सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने 'स्त्री-पुरुष और सामाजिक न्याय के संतुलन' की मांग की और कहा है कि पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक और आदिवासी महिलाओं के लिए आरक्षण प्रतिशत स्पष्ट किया जाना चाहिए. सोनिया गांधी ने भी पहली दफा जाति जनगणना की मांग उठाई है.
दरअसल, कई गैर-भाजपा राज्यों ने जाति सर्वेक्षण शुरू किया है, ताकि सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की सही संख्या और स्थिति का पता लगाया जा सके और उसके मुताबिक कल्याणकारी उपायों की बेहतर योजना बनाई जा सके. इन सर्वेक्षणों के पीछे राजनैतिक मकसद ओबीसी वोटर समर्थन आधार तैयार करना या उसे गोलबंद करना है क्योंकि 1931 के बाद ओबीसी की गिनती नहीं हुई है.
यूं तो ओबीसी को सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 27 फीसद आरक्षण हासिल है, लेकिन आबादी में उनकी हिस्सेदारी 1931 में अनुमानित 52 फीसद से कहीं अधिक मानी जाती है. सटीक अनुमान अधिक आरक्षण की उनकी मांग को मजबूती दे सकता है. यहां तक कि 1996 के महिला आरक्षण विधेयक की समीक्षा रिपोर्ट में भी सिफारिश की गई थी कि ओबीसी आरक्षण संबंधी संविधान संशोधन के बाद ही ओबीसी महिलाओं को आरक्षण दिया जाना चाहिए. 2008 के विधेयक की समीक्षा में संसदीय प्रवर समिति ने भी यही बात दोहराई.
विपक्षी दलों को लगता है कि ओबीसी मुद्दे को हवा देकर भाजपा की धर्म के आधार पर हिंदुत्व की गोलबंदी की कोशिश को तोड़ सकते हैं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने संसद में बताया कि केंद्र सरकार में 90 नौकरशाहों में केवल तीन ओबीसी हैं. उधर, भाजपा ने 2018 में जाति जनगणना का वादा करने के बावजूद ऐसी कोई भी कवायद शुरू करने से परहेज की है.
ओबीसी महिलाओं के लिए विशेष आरक्षण की विपक्षी दलों की मांग का उद्देश्य इस मुद्दे पर भाजपा को और घेरना है. हालांकि चुनाव विशेषज्ञ गुप्ता कहते हैं, ''इससे बड़ा फर्क पड़ने की संभावना नहीं है क्योंकि अब तक संसद और विधानसभाओं में ओबीसी के लिए आरक्षण नहीं है. ओबीसी राजनीति पर आधारित सपा और राजद जैसे राजनैतिक दल चुनावी मकसद से इस मुद्दे को उठा रहे हैं, पर इससे महिला आरक्षण विधेयक से भाजपा को मिलने वाले लाभ को खत्म नहीं किया जा सकेगा.’’
क्या आरक्षण से मदद मिलेगी?
ज्यादातर राजनैतिक पंडित सहमत हैं कि महिलाओं के सशक्तीकरण में राजनैतिक आरक्षण बेहद जरूरी कदम है. उनकी दलील है कि महिला नेताओं से स्त्रियों से जुड़े मुद्दे उठाने की अधिक उम्मीद की जाती है, चाहे स्त्री-पुरुष समानता, स्त्री सुरक्षा और संरक्षा, या बच्चों और महिलाओं की स्वास्थ्य देखभाल हो. फिर, स्त्री उत्पीड़न और हिंसा के बढ़ते ग्राफ के मद्देनजर यह जरूरी है कि वे ऐसे सामाजिक खतरों के खिलाफ नीतियां बनाने में अग्रणी भूमिका निभाएं.
सीडब्ल्यूडीएस की पूर्व निदेशक प्रोफेसर इंदु अग्निहोत्री कहती हैं, ''यह महत्वपूर्ण है कि महिलाओं को सार्वजनिक नीतियां तय करने और बहस में हिस्सा लेने का मौका मिले. हालांकि महिलाएं ही अकेले महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं, लेकिन यह जरूरी है कि वे विकास नीतियों पर महत्वपूर्ण विचार-विमर्श में भागीदार बनें, जो सीधे उनके जीवन को प्रभावित करती हैं."
स्त्री विशेषज्ञ कुछ अनुभवजन्य साक्ष्य का हवाला देते हैं और यह सुझाव भी देते हैं कि आदर्श नीति-निर्माण में महिलाओं के लिए आरक्षण महत्वपूर्ण है. मसलन, 2004 में राजस्थान और पश्चिम बंगाल में राघबेंद्र चट्टोपाध्याय और एस्थर डुफ्लो के एक अध्ययन में पाया गया कि पंचायतों में महिलाओं के आरक्षण से स्थानीय निकाय की नीतियों में उल्लेखनीय बदलाव आया क्योंकि महिला नेताओं ने ऐसे फैसले किए जो ग्रामीणों से संबंधित मुद्दों को साफ तौर पर झलकाते हैं.
पूर्व सीईसी ओम प्रकाश रावत इसे और स्पष्ट करते हुए कहते हैं, ''पंचायतों में महिलाओं को बेहतर प्रतिनिधित्व मिलना शुरू हुआ, तो पहली बात यह हुई कि फैसले इन्फ्रास्ट्रक्चर केंद्रित होने के बदले आम लोगों के अनुकूल होने लगे. अनावश्यक और अव्यावहारिक इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के बदले शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाने लगा.’’
चुनौतियां
महिला आरक्षण विधेयक का सबने स्वागत किया है, लेकिन विद्वानों का कहना है कि पिछले अनुभव के अनुसार निर्णय लेने में प्रतिनिधित्व और भागीदारी में बड़ा फर्क है. मसलन, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के सामाजिक न्याय विभाग में डॉ. आंबेडकर चेयर की चेयर प्रोफेसर प्रो. नूपुर तिवारी के 2009 में एक अध्ययन के मुताबिक, पंचायतों में 94 फीसद महिला सदस्यों ने बताया कि पंचायत बैठकों में उन्हें स्वीकृति हासिल करने और मुद्दों को खुलकर उठाने में मुश्किल पेश आती है.
प्रोफेसर तिवारी कहती हैं, ''सिर्फ आरक्षण से ही सशक्तीकरण नहीं आ सकता. मुख्य चुनौती विभिन्न मामलों में जारी पितृसत्तात्मक प्रतिरोध को दूर करना है, जिससे महिलाओं के योगदान की संभावना कम हो रही है. सर्वांगीण विकास के लिए महिलाओं की निर्णय लेने की शक्ति को मजबूत करना जरूरी है. आरक्षण उस दिशा में पहला कदम है.’’
महिलाओं के लिए आरक्षण वाले विभिन्न स्थानीय निकायों में यह अक्सर देखा गया कि निर्वाचित महिला सरपंचों पर परिवार के पुरुष सदस्यों, खासकर पतियों की ही चलती है. उन्हें 'सरपंच पति’ या 'पार्षद पति’ कहा जाने लगता है और अपनी निर्वाचित पत्नियों के एवज में सारा काम वही करते हैं. हालांकि, इधर कुछ समय से इस 'प्रॉक्सी प्रतिनिधित्व’ में काफी हद तक गिरावट आई है.
चार राज्यों- हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश में ग्रामीण प्रशासन का अध्ययन करने वाले जेएनयू के प्रोफेसर कुमार कहते हैं, ''साक्षरता, सामाजिक मानदंड, संस्कृति जैसे अन्य सामाजिक-आर्थिक वजहों की भी भूमिका होती ही है. मसलन, हिमाचल में महिला साक्षरता अधिक है, तो स्थानीय निकायों में महिला सदस्य अधिक मुखर हैं. लेकिन कुछ उत्तरी राज्यों में ऐसा नहीं है.’’
आलोचकों ने यह आशंका भी जताई है कि राजनैतिक पार्टियां स्थापित राजनैतिक परिवारों, प्रमुख जातियों और आर्थिक रूप से संपन्न समूहों की महिलाओं को आरक्षित सीटों पर तरजीह दे सकते हैं. एक विश्लेषण से पता चला है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में 41 फीसद महिला उम्मीदवार किसी न किसी रसूखदार परिवार से जुड़ी थीं.
अड़चनें दूर करना
हर चुनाव में आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों के बदल जाने से पुरुष विधायक का अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए काम करने का उत्साह कम हो सकता है क्योंकि वह वहां से दोबारा चुनाव शायद न लड़ पाए. यादव कहते हैं, ''अनिवार्य क्षेत्रीय विधायी आरक्षण महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने का बेहतर तरीका नहीं है. इसके दुष्प्रभाव हैं. सीटें अगर नहीं बदली जातीं, तो उस क्षेत्र के योग्य पुरुष चुनाव नहीं लड़ पाते हैं. सीटें अदलती-बदलती रहती हैं, तो दो-तिहाई निर्वाचन क्षेत्रों में मौजूदा सांसदों को अच्छा काम करने के लिए प्रोत्साहन नहीं मिलेगा. एक-तिहाई पुरुष सांसदों को पता होगा कि वे अगली बार अपना निर्वाचन क्षेत्र खो बैठेंगे और एक-तिहाई महिला सांसदों को भी लगेगा कि उन्हें अगली बार आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा. बेहतर उपाय यह है कि राजनैतिक दलों को महिला उम्मीदवारों के लिए आरक्षण रखने के लिए बाध्य किया जाए."
विधायी निकायों में सीटों का आरक्षण भी मतदाताओं की पसंद को महिला उम्मीदवारों तक सीमित कर देता है, जिससे कुछ योग्य पुरुष उम्मीदवारों को अवसर नहीं मिलता है. इसलिए, कुछ विशेषज्ञों ने राजनैतिक दलों के भीतर टिकट आरक्षित करने जैसे वैकल्पिक तरीके सुझाए हैं.
तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एम.एस. गिल ने 2000 में कहा था कि राजनैतिक पार्टियों को विधानसभा और संसदीय चुनावों में न्यूनतम फीसद महिला उम्मीदवारों को खड़ा करना अनिवार्य बनाने के लिए राजी किया जाए और इसी शर्त के साथ उन्हें चुनाव आयोग से मान्यता मिले. 2008 के विधेयक की समीक्षा करने वाली कानून और न्याय संबंधी प्रवर समिति ने यह भी सिफारिश की कि हर पार्टी 20 फीसद टिकट महिलाओं को दे.
कई यूरोपीय देशों में राजनैतिक दलों ने यही कायदा अपनाया है, हालांकि यह काफी हद तक स्वैच्छिक है. दक्षिण अफ्रीका में पार्टियों के स्वैच्छिक कोटा में महिला विधायकों की हिस्सेदारी 1990 में 2 प्रतिशत से बढ़कर 2021 में 46.1 फीसद तक हो गई. भारत में, राजनैतिक दलों ने पारंपरिक रूप से महिला उम्मीदवारों को टिकट देने में ना-नुकूर की है. 2019 में कांग्रेस और भाजपा में केवल 12 फीसद महिला उम्मीदवार थीं.
बहरहाल, महिला आरक्षण विधेयक को महिला सशक्तीकरण की दिशा में ऐतिहासिक कदम बताया जा रहा है, लेकिन अभी लंबी दूरी तय करना है. राजनैतिक तबके ने तो सिद्धांत रूप में स्वीकार कर लिया है लेकिन अड़चन तो बारीकियों में है. यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि सीटें कैसे तय होंगी, बारी-बारी से कैसे होंगी और उन राज्यों में क्या होगा, जहां तीन लोकसभा से कम सीटें हैं. बेशक यह ऐतिहासिक विधोयक है, लेकिन जरूरी यह है कि इन अड़चनों को दूर किया जाए.

