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इंडिया जो कहा जाता है किनारों पर

'इंडिया' का जिक्र मलयालम में कुछ पुराना है, 'भारतम्' शब्द का जिक्र तो 20वीं सदी में औपचारिक हुआ, आज भी यह आम बोलचाल का हिस्सा नहीं

इलस्ट्रेशन : तन्मय चक्रवर्ती
इलस्ट्रेशन : तन्मय चक्रवर्ती
अपडेटेड 23 सितंबर , 2023

जी. अरुणिमा :

मलयालम में मैंने 'इंडिया' शब्द का सबसे पहला जिक्र 18वीं सदी के उत्तरार्ध में यात्रा वृतांत वर्तमानपुस्तकम् में देखा. यह पादरी परेमक्कल थोमा कथानार का लिखा केरल से पुर्तगाल सहित कई जगहों की मार्फत रोम तक की आठ साल की लंबी यात्रा का विस्तृत विवरण है. अचरज भरी बात यह है कि पुर्तगाल जैसे पश्चिम के देशों के साथ व्यापार करने वाला भौगोलिक क्षेत्र 'इंडिया' था, खासकर उसमें उन नियम-शर्तों को लेकर बारीक टिप्पणियां हैं जिनसे उस समय देशों के बीच संबंध और व्यावसायिक गतिविधियां चला करती थीं.

एक सदी बाद हमें ओ. चंदू मेनन के इंदुलेखा में 'इंडिया' का जिक्र कई बार मिलता है, जिसे अमूमन पहला आधुनिक मलयालम उपन्यास माना गया है. इसके विपरीत, यह जिक्र मौजूं है कि वर्तमान पुस्तकम् में 'भारत' या 'भारतम' का कोई उल्लेख नहीं है. इंदुलेखा में कुछेक जगह जब भारतम् का जिक्र है, तो वह महाभारत के संदर्भ में है, जिसे आम तौर पर मलयालम में इसी नाम से जाना जाता है. बहुत संभव है कि राष्ट्रवादी और मानवतावादी कवि वल्लतोल नारायण मेनन की 1921 की कविता पोरा पोरा में भारत का पहली बार स्पष्ट संदर्भ 'भारत देवी' के रूप में किया गया. हालांकि उसके पहले कविता मातृभूमिओडु (1917) में देश की कल्पना मां के रूप में की गई. उसके बाद मलयालम में इंडिया के लिए कभी-कभार 'भारतम्' शब्द का इस्तेमाल देखा जाता है, लेकिन आज भी इसका प्रचलन आम नहीं है.

देश में सत्तारूढ़ बिरादरी ने हाल में विवाद उठाया, तो हम फिर उस मुकाम पर लौट चले हैं जहां भाषाई शुद्धता और प्रामाणिकता को प्रामाणिक राष्ट्रीय पहचान की आधारशिला मान लिया जाता है. हालांकि भारतीय इतिहास हमें बताता है कि अपेक्षाकृत ज्यादा प्रासंगिक क्षेत्र की बात तो दूर, भाषा और राष्ट्र का मामला भी सुलझा नहीं है.

भाषाई राज्यों के गठन से भी भाषा का सवाल नहीं सुलझा या उसका पटाक्षेप नहीं हुआ. इसकी कम से कम एक वजह यह है कि भारतीय उपमहाद्वीप की जो क्षेत्रीय विशेषताएं बताई जाती हैं, वह विभिन्न राज्यों की सीमाओं में स्पष्ट रूप से नहीं समातीं. कई सीमावर्ती हिस्से एक-दूसरे में घुसे हो सकते हैं. मसलन, केरल का कासरगोड जिला सांस्कृतिक रूप से दक्षिण में तटीय कर्नाटक के कुछ हिस्सों के करीब है, जबकि पालघाट कई मायनों में तमिलनाडु के अधिक करीब है. मलयालम का आधार द्रविड़ है और उसमें प्राकृत तथा संस्कृत के जरिए इंडो-आर्य शब्द काफी समाहित हैं, जो बोलचाल में भी खूब प्रचलित हैं, लेकिन वे कभी पूरी तरह घुलमिल नहीं पाए.

दरअसल, 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही केरल में भाषा के उपयोग, उत्पत्ति और उसके रूप को लेकर बहस छिड़ गई. पहले के तर्क मलयालम की भाषाई उत्पत्ति के सवाल के करीब थे, जो अमूमन इस सवाल के इर्द-गिर्द उठाए जाते कि 'संस्कृत या तमिल?' 20वीं सदी के उत्तरार्ध तक विद्वानों के लेखन में मलयालम की जटिल संरचना को समझने के रास्ते खुल गए, और शोषित जातियों के आंदोलनों के भारी दबाव ('दलित मोझी' की मान्यता की मांग) का मतलब था कि मलयालम (और भाषा की संरचना) को आंतरिक भिन्नता और उसके मूल गुणों को समझने की आवश्यकता है, जो समय के साथ बदल गए हैं.

दरअसल, केरल को जानने वाला हर कोई जानता होगा कि बोली जाने वाली मलयालम में कई शब्द और प्रयोग एक जिले से दूसरे जिले में बदल जाते हैं, जिससे ये राज्य के अन्य हिस्सों के लोगों के लिए समझ से बाहर हो जाते हैं. इसी तरह जाति-धार्मिक समुदायों में भाषा के उपयोग में फर्क दिखता है. मौजूदा मलयालम सिनेमा में शायद भाषा का यह आंतरिक फर्क काफी खुलकर सामने आता है.

तो, असंख्य आंतरिक फर्कों वाले इस घनी आबादी के राज्य में से कौन इंडिया को भारत या भारतम् कहना पसंद करेगा? और, यह किसके लिए अहमियत रखता होगा? केरल में रह चुकी और काम कर चुकी बतौर मलयालम भाषी मैं कहूंगी कि राज्य के अधिकांश लोग 'भरतियार' की बनिस्बत 'इंडियाक्कर' (इंडिया के लोग) कहना अधिक पसंद करेंगे.

केरलवासियों ने काम के सिलसिले में लंबे समय तक राज्य और देश से बाहर यात्राएं की हैं, यह सिलसिला पिछले पचास वर्षों में बढ़ता जा रहा है. उनमें भारतीय होने की भावना देशभक्ति के उन्नत भाव से ही पैदा नहीं होती है, बल्कि भारतीय पासपोर्ट के व्यावहारिक अनुभव से भी पैदा होती है. इस मायने में अधिक संभावना है कि मलयालम में 'इंडिया' और 'इंडियन' शब्द भारत(म्) के मुकाबले अधिक स्वदेशी है.

बहरहाल, बी.आर. आंबेडकर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 1 की शुरुआत 'इंडिया, दैट इज भारत.' से करके मामला सुलझा चुके हैं. मुझे लगता है कि इससे सभी भारतीयों को संतुष्ट होना चाहिए, ताकि हम दिखावे पर समय बर्बाद करने के बजाए लाखों भारतीयों की वास्तविक समस्याओं का समाधान कर सकें! 

- जी. अरुणिमा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में महिला अध्ययन की प्रोफेसर और केरल ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद, त्रिवेंद्रम की निदेशक हैं.

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