scorecardresearch

औचित्य का सवाल

जब हमारा संवैधानिक अंग्रेजी नाम इंडिया चला आ रहा है, तो जी20 शिखर सम्मेलन में भारत का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए था

अपडेटेड 23 सितंबर , 2023

- अरविंद पी. दातार

20 शिखर सम्मेलन की शानदार कामयाबी ने भारत को गर्व की भावना से भर दिया. लेकिन 'भारत की प्रेसिडेंट' की मेजबानी में आयोजित रात्रिभोज और आमंत्रण पत्र पर (इंडिया के बजाए) भारत के इस्तेमाल ने विवाद छेड़ दिया कि क्या यह उचित था और क्या इंडिया शब्द का जल्द ही अवसान हो जाएगा. संविधान सभा में 18 सितंबर, 1949 को इस बात पर बहस हुई कि नए गणराज्य का नाम क्या होगा. अनुच्छेद 1 के शुरुआती मसौदे में कहा गया: इंडिया शैल बी अ यूनियन ऑफ स्टेट्स (इंडिया राज्यों का संघ होगा). भारत का कोई जिक्र न था.

एच.वी. कामथ और दूसरों ने सुझाव दिया कि इंडिया को भारत, भारतवर्ष, हिंद या हिंदुस्तान से बदल देना चाहिए. प्रस्ताव वोट के लिए रखा गया और नामंजूर हो गया. संशोधित और अंतिम प्रारूप में लिखा गया: इंडिया, दैट इज भारत, शैल बी द यूनियन ऑफ स्टेट्स (इंडिया, अर्थात भारत, राज्यों का संघ होगा). लंबी बहस से रुष्ट और उत्तेजित आंबेडकर ने गुजारिश की कि अब जब 'भारत’ शब्द स्वीकार कर लिया गया है, ज्यादा बड़े मुद्दों की तरफ बढ़ना चाहिए.

संविधान के अंग्रेजी संस्करण में इंडिया शब्द 550 से ज्यादा बार आया है, और इसी तरह हिंदी संस्करण में भारत शब्द 550 से ज्यादा बार आया है. अंग्रेजी संस्करण में 'भारत’ केवल एक बार आता है, और हिंदी संस्करण में 'इंडिया’ केवल एक बार आता है. तमिल और मलयालम संस्करण 'भारतम्’ शब्द का प्रयोग करते हैं. दरअसल, कुछ दक्षिणी राज्यों को छोड़कर हममें से ज्यादातर देशज भाषा में बोलते वक्त भारत का इस्तेमाल करते हैं. इसलिए अचानक भारत का प्रयोग आश्चर्यजनक और चकराने वाला था.

राष्ट्रपति के लिए 'भारत के राष्ट्रपति’ का इस्तेमाल करना और हिंदी में कार्ड भेजना पूरी तरह सही होता. मिले-जुले रूप 'रिपब्लिक ऑफ भारत’ का प्रयोग करना संवैधानिक रूप से अनुचित है. जापान 'निहोन' या 'निप्पन' का अंग्रेजी नाम है. इसी तरह जर्मनी का जर्मन नाम ड्यूशलैंड है. निप्पन के सम्राट या ड्यूशलैंड के चांसलर अगर अंग्रेजी में निमंत्रण भेजें तो यह अजीब और अनुचित होगा. दरअसल, अंतराष्ट्रीय बैठकों में या जब संप्रेषण अंग्रेजी में हो, इंडिया नाम का इस्तेमाल ही किया जाना चाहिए.

इंडिया शब्द की ऐतिहासिक और संवैधानिक उत्पत्ति का पता लगाना जरूरी है. डॉ. पी.वी. काणे की किताब हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र (स्थायी महत्व के इस काम के लिए उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया) में कहा गया है कि हिंदू या हिंदू शब्द का सबसे पहले प्रयोग डेरियस (522-486 ईसा पूर्व) और जरक्सीज (486-465 ईसा पूर्व) सरीखे फारसी शासकों ने उस भूभाग और वहां रहने वाले लोगों के लिए किया था जो सिंधु नदी के पश्चिम और पूर्व में था. काणे बताते हैं कि ऋग्वेद में सिंधु शब्द 200 से ज्यादा बार आता है.

वे बताते हैं कि पुराणों में भारतवर्ष का उल्लेख मिलता है, जिसकी सीमा वही थी जो आधुनिक भारत की है, और इस नाम की उत्पत्ति दुष्यंत और शंकुतला के पुत्र भरत से बताई गई है. अलबत्ता ग्रीक इसी इलाके के लोगों का जिक्र इंडोइ के रूप में करते हैं, जिससे इंडियन शब्द आया (देखें खंड V, भाग II, पृष्ठ 1, 613-614). इस तरह 'इंडिया’ नाम की उत्पत्ति ग्रीक है और इसका किसी भी औपनिवेशिक विरासत से कोई लेना-देना नहीं है. दरअसल, जब तक अंग्रेजों ने अपनी ताकत को एकजुट और मजबूत नहीं कर लिया, भारत में कोई एक साझा शासक नहीं हुआ जिसने इस प्रायद्वीप को भारत या इंडिया के रूप में पहचाना हो. 

संवैधानिक रूप से देखें, तो भारत सरकार अधिनियम, 1800 की उद्देशिका में कहा गया है कि ''ईस्ट इंडीज में व्यापार करने वाली यूनाइटेड कंपनी ऑफ मर्चेंट्स ऑफ इंग्लैंड का इंडिया के प्रायद्वीप में भूभागीय कब्जा इतना अधिक बढ़ गया है” कि उचित शासन और न्याय के बेहतर प्रशासन के लिए नियम बनाने की जरूरत थी. ऐसे ही अधिनियमों के सिलसिले का हश्र अंतत: भारत सरकार अधिनियम, 1935 में हुआ, जिसकी धारा 5 में घोषणा कि गई कि भारत का संयुक्त महासंघ (फेडरेशन) होगा, जो गर्वनरों के प्रांतों, चीफ कमिशनरों के प्रांतों, और महासंघ में विलीन हो चुके भारतीय (रियासतें) राज्यों से मिलकर बना होगा. यही भारत का महासंघ बाद में भारत संघ बना, जिसमें बेशक पाकिस्तान में जाने वाले भूभाग शामिल नहीं थे.

यह मुमकिन है कि भारत के संविधान में संशोधन करके 'इंडिया, दैट इज भारत’ (इंडिया, अर्थात् भारत) को बदलकर 'भारत, दैट इज इंडिया’ (भारत, अर्थात् इंडिया) कर दिया जाए. विकल्प के तौर पर हम इंडिया को पूरी तरह मिटा सकते हैं और अनुच्छेद 1 को इस तरह बदल सकते हैं: 'भारत शैल बी द यूनियन ऑफ स्टेट्स’ (भारत राज्यों का संघ होगा). जी20 शिखर सक्वमेलन में 'भारत’ लफ्ज का इस्तेमाल साफ तौर पर अनौचित्यपूर्ण था और तब तक ऐसा नहीं किया जाना चाहिए था जब तक हमारा संवैधानिक अंग्रेजी नाम इंडिया बना हुआ है.

अतीत में कई शहरों के नाम बदले गए हैं. लेकिन ये महज प्रतीकात्मक थे और वास्तविक व ठोस परिवर्तन की जगह नहीं ले सकते. अंग्रेजी नाम हटाते वक्त हमारा राष्ट्रीय जोश झलक-झलक पड़ता है, लेकिन नागरिक सुविधाओं में सुधार के मामले में यह जोश गायब हो जाता है. प्रतीकात्मकता के बढ़ते शगल का एक दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण इंडियन पीनल कोड को भारतीय न्याय संहिता विधेयक, 2023 से बदलने का प्रस्ताव है. लेकिन इससे तब तक कुछ सार्थक हासिल नहीं होगा जब तक हम भारतीय दंड संहिता में सुधार पर ध्यान नहीं देते, खासकर जब हमारे पांच लाख नागरिक विचाराधीन कैदियों के तौर पर जेलों में सड़ रहे हैं.

यह उचित ही है कि भारत आर्थिक महाशक्ति बनने का आकांक्षी है, पर अपनी पहचान बदलकर भारत अपना लेने से पचास खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने या देश के सामने मौजूद बड़ी समस्याएं सुलझाने में रत्ती भर मदद नहीं मिलेगी. इंडिया को भारत से बदलने पर बहुत भारी-भरकम लागत आएगी, जबकि उसके अनुरूप फायदा कुछ नहीं होगा. अफसोस की बात यह है कि इंडिया को भारत से बदलना एक खास किस्म के राष्ट्रवाद का प्रतीक है, जिसके राजनैतिक फायदे भले मिलें, पर देश को भारी कीमत चुकानी होगी.

-अरविंद पी. दातार सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील हैं

Advertisement
Advertisement