
उस दिन पणजी से मुंबई वंदे भारत ट्रेन लॉन्च करने के लिए केंद्रीय रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव 2 जून को रात के 9.30 बजे गोवा में उतरे, तो हवाई अड्डे पर उनकी आगवानी के लिए आए अफसरों के चेहरों पर अजीब उदासी पसरी थी. कुछ ही देर में बुरी खबर उन्हें बता दी गई कि ओडिशा में बालेश्वर के बाहानगा बाजार स्टेशन पर शालीमार-चेन्नै सेंट्रल कोरोमंडल एक्सप्रेस, मालगाड़ी और बेंगलूरू-हावड़ा सुपरफास्ट एक्सप्रेस के बीच तिहरी टक्कर हो गई है.
वैष्णव इस इलाके को अच्छी तरह जानते थे, क्योंकि 1990 के दशक के आखिरी वर्षों में वे बालेश्वर के जिला कलेक्टर रहे थे और उन्हीं दिनों 1999 में उन्होंने ओडिशा में आए महा-चक्रवात के दौरान अपने अधिकार क्षेत्र में एक भी मौत न होने देने के लिए खूब नाम कमाया था. हादसे के बारे में सुनकर जो सबसे पहले काम वैष्णव ने किए, उनमें रेलवे के मुख्यालय स्थित वॉर रूम में फोन करके बड़े अफसरों से यह पता करना भी था कि राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन टीम मौके पर भेज दी गई है या नहीं.
फिर उन्होंने बालेश्वर में अपने संपर्कों को फोन करके पक्का किया कि बचाव और राहत के काम पूरे जोर से चलें. वैष्णव ने गोवा में नई वंदे भारत ट्रेन लॉन्च करने का कार्यक्रम रद्द कर दिया और विमान की उसी उड़ान से उलटे पैर राजधानी दिल्ली लौट आए. तड़के 3.30 बजे उन्होंने ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर के लिए चार्टर्ड उड़ान पकड़ी और इंस्पेक्शन ट्रेन से तीन घंटे का सफर तय करके दुर्घटना स्थल पर पहुंच गए. उनकी यह जल्दबाजी और हड़बड़ी वाजिब थी.
जो त्रासदी उनका इंतजार कर रही थी, उसे ऐन घटनास्थल पर स्टेशन के नजदीक छोटी-सी दवाई की दुकान चलाने वाले फार्मासिस्ट 25 वर्षीय सौभाग्य रंजन सारंगी खौफ के साथ याद करते हैं, ''वह 'धमाका’ बहुत जोरों से मेरे कानों में लगा. ऐसा लगा कि बाहानगा में भूचाल आ गया है. मैं काउंटर से कूदकर बाहर आया और कई बोगियों को इधर-उधर लुढ़कते देखा.’’ भागबत प्रसाद रथ का घर भी घटनास्थल के नजदीक है. उन्होंने भी धमाका सुना और टक्कर की जगह की तरफ भागे.
वे बताते हैं, ''लोग वहां जोर-जोर से चीख-चिल्ला रहे थे. मुझे चारों तरफ फैले शवों के टुकड़ों से बच-बचाकर निकलना पड़ा. मैंने एक अमीर आदमी को मदद की गुहार लगाते देखा. मैंने उसे सहारा देकर उठाया. मेरे कंधों के सहारे वह कुछ दूर चला, पर फिर मेरी आंखों के आगे देखते ही देखते गिरा और मर गया.’’ पेशे से रसोइए 52 वर्षीय लक्ष्मी नारायण ढल बच गए.
वे आंध्र प्रदेश जा रहे थे और पटरी पर खड़ी मालगाड़ी से सीधे जा टकराई कोरोमंडल एक्सप्रेस के इंजन के ठीक पीछे वाले स्लीपर कोच में बैठे थे. पसली के पिछले हिस्से में फ्रैक्चर का इलाज करवा रहे ढल कहते हैं, ''हमारी बोगी उड़-सी रही थी. मुझे हत्थों को मजबूती से पकड़ना पड़ा क्योंकि उस खचाखच भरे डिब्बे में दूसरी सवारियां जबरदस्त जोर से मुझ पर गिर रही थीं.
मेरी किस्मत है कि मैं जिंदा हूं.’’ दूसरे इतने खुशकिस्मत नहीं थे. आखिरी गिनती तक 288 लोगों की जानें गईं और 1,200 घायल हुए, जिसने इसे भारतीय रेलवे के इतिहास के बदतरीन हादसों में से एक बना दिया और हमें एक बार फिर यह सवाल पूछने को मजबूर कर गया कि देश में रेल यात्रा कितनी सुरक्षित है? लेकिन पहले...
गड़बड़ी क्या हुई?
दुर्घटना साउथ ईस्टर्न रेलवे (एसईआर) या दक्षिण-पूर्वी रेल जोन में हुई, जो देश के व्यस्ततम रेल जोन में है और जहां रेल पटरियों का उपयोग 100 फीसद के करीब है. बाहानगा बाजार के धूल-धूसरित स्टेशन पर पटरियों का विन्यास ठेठ उन हजारों छोटे-छोटे स्टेशनों की तरह ही है जो देश के 1,28,305 किमी लंबी रेल लाइनों के विशाल नेटवर्क पर छितराया हुआ है.
बाहानगा स्टेशन पर चार पटरियां हैं—स्टेशन पर बिना रुके सीधे गुजरने वाली रेलगाड़ियों के लिए दो मुख्य लाइनें (अप और डाउन), और इन मुख्य लाइनों से हटकर रुकने वाली रेलगाड़ियों के लिए दो लूप लाइनें. उस दुखद शाम दोनों लूप लाइनों पर मालगाड़ियां खड़ी थीं और पैसेंजर ट्रेनों को केवल मुख्य लाइनों पर ही जाना था. इस मार्ग पर अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग सिस्टम (ईआइएस) लगा है, जो यातायात प्रबंधन के लिए भारतीय रेलवे की सिग्नल प्रणाली का नियंत्रण केंद्र है.
पूरी तरह सॉफ्टवेयर से संचालित ईआइएस आने वाली रेलगाड़ियों के लिए पटरियों को क्लियर करता है. इस तरह समय बचता है और तकरीबन सारे हस्तचालित प्रसारणों और इंटरकनेक्शन को खत्म करके रेलगाड़ियों की सुरक्षित आवाजाही का प्रबंध करता है. इस प्रणाली के तीन मुख्य हिस्से हैं: स्विचिंग पॉइंट जो जरूरत पड़ने पर ट्रेन को लूप लाइन पर भेजते हैं, ट्रैक ऑक्यूपेंसी सेंसिंग डिवाइस यानी पटरियों पर खड़ी ट्रेनों का पता देने वाला उपकरण, और सिग्नल जिसका इस्तेमाल गाड़ियों की आवाजाही को नियंत्रित करने और यातायात में तालमेल बनाए रखने के लिए होता है.
मुख्य रेलकर्मियों से बात करके इंडिया टुडे ने उस बदकिस्मत दिन बाहानगा बाजार स्टेशन पर घटी घटनाओं के सिलसिले का तानाबाना बुना. लगता है कुछ-कुछ ऐसा हुआ:
शाम 4.35 बजे: इस सेक्शन के सिग्नल इंस्पेक्टर, जिनका काम सिग्नलों के रखरखाव की देखभाल करना है, स्टेशन मास्टर के पास आए. उनके हाथ में हाथ से लिखा एक मेमो था, जिसमें कहा गया था कि नजदीक की रेलवे क्रॉसिंग पर बूम बैरियर बदलने का काम पूरा किया जाए. बूम बैरियर ज्यादा हल्के वजन के इलेक्ट्रिक लिफ्टिंग बैरियर (ईएलबी) में अपग्रेड किया जा रहा था.
बटन से चलने वाले ईएलबी यांत्रिक तरीके से चलने वाले उपकरण से ज्यादा कारगर होते हैं, और अपनी तमाम प्रणालियों को अपग्रेड करने की रेलवे की परियोजना का हिस्सा हैं. स्टेशन मास्टर ने 'डिस्कनेक्ट’ करने की प्रक्रिया को अधिकृत कर दिया, जिसका मतलब है बूम बैरियर की गतिविधि को सिग्नल इंटरलॉकिंग सिस्टम से अलग करना. ऐसा यह आश्वस्त करने के लिए किया जाता है कि जब बूम बैरियर की मरम्मत का काम चल रहा हो, तब भी मुख्य लाइनों पर ट्रेनें आती-जाती रहें.
शाम 6.35 बजे: अपलाइन पर चेन्नै की तरफ जा रही लौह अयस्क से भरी मालगाड़ी को लूप लाइन पर भेज दिया गया, ताकि 20 मिनट बाद आने वाली सुपरफास्ट कोरोमंडल एक्सप्रेस मुख्य लाइन से निर्बाध गुजर सके.
इससे पहले बाहानगा बाजार के स्टेशन मास्टर ने हट में तैनात बूम बैरियर गार्ड के लिए अलग से बनी फोन लाइन से कॉल किया और कहा कि वह क्रॉसिंग पर वाहनों की आवाजाही को तब तक इजाजत न दे जब तक न कहा जाए. उधर, सिग्नल इंस्पेक्टर दो-एक इलेक्ट्रिकल सिग्नल का रखरखाव करने वालों और गैंग वर्कर्स की सहायता से बैरियर लगाने के काम को अंतिम रूप दे रहे थे.
कुछ दिन पहले उन्होंने बैरियर को सहारा देने के लिए कंक्रीट का पेडस्टल तैयार किया था और इसे नजदीक ही रखे लोकेशन बॉक्स से जोड़ने के लिए नए तार बिछाए थे. लोकेशन बॉक्स में रिले पैनल की कतारें होती हैं जो इसे मुख्य सिग्नल इंटरलॉकिंग प्रणाली से जोड़ती हैं.
शाम 6.45 बजे: सिग्नल का रखरखाव करने वालों ने चमकीले लाल तारों वाले छह रिले स्विचों से पुराने काले तार काट दिए और बैरियर प्रणाली का परीक्षण किया. माना जा रहा है कि इसी मौके पर सिग्नल सिस्टम में 'हेरफेर हुई’, नतीजतन सिग्नल की कमान व्यवस्था में गड़बड़ी आ गई.
शाम 6.51 बजे: सिग्नल इंस्पेक्टर ने स्टेशन मास्टर को बता दिया कि काम पूरा हो गया है और बूम बैरियर को उन्होंने मुख्य सिग्नल इंटरलॉकिंग प्रणाली से दोबारा जोड़ दिया है. लेकिन स्टेशन मास्टर मौके पर जरूरी मुआयना करने नहीं गए कि सिग्नल ठीक से काम कर रहा है या नहीं. इसके बदले उन्होंने वह बटन दबा दिया जो स्टेशन से 2 किमी दूर स्थित डिस्टैंट सिग्नल को सक्रिय कर देता है, ताकि मुख्य लाइन पर यात्रा कर रही कोरोमंडल एक्सप्रेस को गुजरने की इजाजत देने के लिए हरी बत्ती जल जाए.
शाम 6.53 बजे: कोरोमंडल एक्सप्रेस के लोको पायलट ने सिग्नल देखा और 128 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से ट्रेन दौड़ाता रहा, जो उस 130 किमी प्रति घंटे से महज दो किमी प्रति घंटे कम थी जिसकी स्टेशन क्षेत्र में दाखिल होते वक्त इजाजत है. बताया जाता है कि स्टेशन पर लूप लाइन से महज 180 मीटर पहले होम सिग्नल में भी हरी बत्ती जली हुई थी, और इस तरह ट्रेन को इसी रफ्तार से आगे बढ़ने की इजाजत मिल गई.
लोको पायलट को रत्ती भर भनक नहीं लगी कि उसे जल्द ही लूप लाइन पर मोड़ दिया जाएगा. पता नहीं क्यों, ईआइएस ने स्विच बोर्ड के 17ए पॉइंट पर लूप लाइन की व्यवस्था को सक्रिय कर दिया, यह ऐसा संचालन है जिसे रिवर्स पोजिशन कहा जाता है. इसका नतीजा यह हुआ कि पॉइंट ब्लेड—यानी बाहरी पटरियों का रास्ता बदलने वाली पतली होती पटरियों के जोड़—को नियंत्रित करने वाली पॉइंट मशीन हरकत में आई और उसने ट्रेन को लूप लाइन पर मोड़ दिया.
शाम 6.55 बजे: कोरोमंडल एक्सप्रेस लूप लाइन पर खड़ी मालगाड़ी के पिछले डिब्बों से जा टकराई. 128 किमी प्रति घंटे की रफ्तार पर हुई इस टक्कर ने इंजन को ऊपर की तरफ उछाल दिया और 23 में से छह डिब्बे हवा में कलाबाजी खाने लगे. फिर हुआ यह कि विपरीत दिशा में जा रही और तीन घंटे देरी से चल रही यशवंतपुर-हावड़ा एक्सप्रेस के पिछले सिरे पर लगे दो डिब्बे भी इसकी चपेट में आ गए, जिससे वह ट्रेन भी पटरी से उतर गई.
एक चश्मदीद के शब्दों में रेल हादसे की जगह कुछ ऐसी दिखाई दे रही थी मानो ''परमाणु धमाके’’ ने पूरे इलाके को तहस-नहस कर दिया हो. त्रासदी इतनी विशाल थी कि दोनों ट्रेनों में सफर कर रहे 2,298 यात्रियों में से करीब 1,500 प्रभावित हुए. बहुत सारी एजेंसियां बचाव और राहत के कामों में जुट गईं, तो नागरिक विमानन मंत्रालय को रिपोर्ट करने वाले स्वायत्त निकाय रेलवे सुरक्षा आयोग (सीआरएस) ने यह पता लगाने का मुश्किल काम शुरू किया कि दुर्घटना कैसे हुई और इसके लिए कौन जिम्मेदार था.
दोषी कौन?
इस भीषण हादसे के दो दिन बाद 4 जून को दूरदर्शन से एक बातचीत में वैष्णव ने कहा, ''सीआरएस के लोग कल दुर्घटनास्थल पर थे और उन्होंने सारे लोगों के बयान लिए हैं और तेजी से आगे बढ़े हैं. मूल कारण की पहचान कर ली गई है, जिन लोगों ने यह काम किया है, उनकी भी पहचान कर ली गई है.’’ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और पहले केंद्र में रेल मंत्री रह चुकीं ममता बनर्जी ने 3 जून को घटनास्थल के दौरे के फौरन बाद कहा कि अगर ट्रेन में टक्कर-रोधी उपकरण लगा होता तो दुर्घटना से बचा जा सकता था.
इसके बारे में पूछे जाने पर वैष्णव ने कहा: ''मैं साफ कर देना चाहता हूं कि इस दुर्घटना का वास्ता टक्कर बचाने वाली प्रणाली से नहीं है. जिसने भी यह किया, उसने ऐसा एक बदलाव किया कि पॉइंट मशीन पर ट्रैक का वह कन्फिगरेशन बदल दिया, जिसके आधार पर हर चीज चलती है और जिसके कारण यह दर्दनाक हादसा हुआ है. मगर मैं स्वतंत्र एजेंसी की रिपोर्ट सौंपे जाने के बाद ही इस पर कुछ कहूंगा.’’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उसी दिन घटनास्थल का दौरा किया और दोषी पाए जाने वाले लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने का वादा किया.
अगले दिन 5 जून को रेलवे बोर्ड की सदस्य (ऑपरेशंस और बिजनेस डेवलपमेंट) जया वर्मा सिन्हा ने प्रेस के सामने खुलासा किया कि कोरोमंडल एक्सप्रेस के लोको पायलट—जिनकी हालत बाद में अत्यंत गंभीर हो गई—ने दुर्घटना के कुछ ही मिनट बाद बताया था कि बाहानगा बाजार स्टेशन पर पटरियों की मुख्य लाइन का सिग्नल हरा था. इससे संकेत मिला कि समस्या इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग सिग्नलिंग की कार्यप्रणाली में संभावित खराबी से जुड़ी थी, जो गलती का पता लगाकर ट्रेन को स्टेशन पर पहुंचने से बहुत पहले ही आगे बढ़ने से रोकने में नाकाम रही.
सिन्हा ने कहा, ''प्रणाली 99.9 फीसद त्रुटि मुक्त है, पर गलती की 0.1 फीसद संभावना हमेशा होती ही है.’’ उन्होंने भितरघात की आशंका से भी इनकार नहीं किया. अगले दिन जांच केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआइ) को सौंप दी गई, क्योंकि एक सरकारी अधिकारी ने सिग्नलिंग प्रणाली में ''जानबूझकर छेड़छाड़’’ की तरफ इशारा किया और विस्तृत जांच की जरूरत बताई थी.
अब ऐसा साफ मालूम देता है कि सिग्नलिंग की स्थिति में ही गड़बड़ी थी. सिग्नल इंस्पेक्टर और स्टेशन मास्टर की तरफ से भी नए बूम बैरियर को ठीक करने और इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग प्रणाली के साथ जोड़ने के बाद प्रक्रिया में बड़ा उल्लंघन हुआ. पहले जांच करनी चाहिए थी, जिसमें स्टेशन मास्टर को अपने कंट्रोल पैनल पर बटन दबाने के बाद सिग्नल इंस्पेक्टर से तस्दीक करनी चाहिए थी कि सब कुछ ठीक काम कर रहा है या नहीं.
यह मानक परिचालन प्रथा है, जिसमें ऐसी जांच का रिकॉर्ड रखना अनिवार्य है. सूत्रों के मुताबिक आरंभिक पड़ताल से पता चलता है कि ऐसी कोई जांच नहीं की गई. अगर ऐसा है तो स्टेशन मास्टर और सिग्नल इंस्पेक्टर दोनों ड्यूटी में लापरवाही बरतने के दोषी हैं. रेलवे अधिकारी यह देखकर भी भौचक हैं कि इलेक्ट्रॉनिक रिले प्रणाली के साथ ऐसी छेड़छाड़ कैसे की जा सकी, जिसकी वजह से गलत मैसेज गया.
नतीजतन, कोरोमंडल एक्सप्रेस को मुख्य लाइन पर आगे बढ़ते रहने के आदेश को धता बताकर उसे लूप लाइन पर डाल दिया.सारे सिग्नल भी हरे थे, जबकि उन्हें लाल होना चाहिए था. सीबीआइ जांच करेगी कि सिग्नल इंस्पेक्टर और उनकी टीम की यह हरकत सीधी-सादी निर्णयगत चूक थी या जान-बूझकर की गई थी.
सिग्नल्स और संचार के सीनियर सेक्शन इंजीनियर ए.के. महंत ने, जिनके महकमे को गलत सिग्नलिंग के लिए दोषी ठहराया जा रहा है, इसके विरोध में आवाज उठाई.
वे दुर्घटना पर रिपोर्ट सौंपने वाली पांच सदस्यीय संयुक्त निरीक्षण टीम के सदस्य थे. महंत का कहना है कि तमाम निर्देशों का रिकॉर्ड रखने वाली डेटा लॉगर से पता चलता है कि कोरोमंडल एक्सप्रेस को मुख्य लाइन पर जाने को हरी झंडी दे दी गई थी. उनके मुताबिक, गाड़ी पटरी से उतरने के बाद रिवर्स (यानी लूप लाइन पर गई) हुई होगी. इस तरह उनका इशारा था कि गलती पर लीपापोती करने के लिए त्रासदी के बाद हुई घटनाओं के रिकॉर्ड्स के साथ छेड़छाड़ हुई होगी.
इस बीच गलत सिग्नलिंग की एक और घटना का खुलासा हुआ, जब दक्षिण पश्चिम रेलवे जोन के चीफ ऑपरेटिंग मैनेजर की 9 फरवरी को लिखी एक चिट्ठी रोशनी में आई. उन्हें इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग प्रणाली में उस वक्त ''गंभीर खामियां’’ मिलीं जब संपर्क क्रांति एक्सप्रेस के रवाना होने का मार्ग बदल दिया गया और उसे गलत लाइन पर आगे बढ़ने का सिग्नल दे दिया गया. सतर्क लोको पायलट ने ट्रेन को रोककर संभावित टक्कर से बचा लिया. सूत्रों के मुताबिक, गलत सिग्नलिंग पर कोई कार्रवाई नहीं की गई.
उस घटना का जिक्र करते हुए पूर्व केंद्रीय राजस्व सचिव ई.ए.एस. सरमा ने रेल मंत्री को चिट्ठी लिखी. वे कहते हैं, ''अगर बोर्ड ने समय रहते कार्रवाई की होती, तो बाद के हादसों से शायद बचा जा सकता था... मैं हैरान हूं कि रेल मंत्रालय ने रेलवे सुरक्षा नियामक को दुर्घटना के तकनीकी पहलुओं पर विचार करने का मौका दिए बगैर हड़बड़ी में सीबीआइ जांच का आदेश दे दिया, जो भितरघात की संभावना की तरफ इशारा करता है. मुझे यह लोगों को गुमराह करने का कदम लगता है, ताकि राजकाज में रेल मंत्रालय की नाकामी के ज्यादा बड़े मुद्दों पर लोगों की नजर न जाए.’’
कई विपक्षी पार्टियों ने वैष्णव के इस्तीफे की मांग की, जैसा कि बड़े हादसों के बाद पहले के कुछ रेल मंत्रियों ने किया था. लेकिन मंत्री इस बारे में पूरी तरह साफ थे कि ऐसी मांगों के आगे वे झुकेंगे नहीं. बताया जाता है कि उन्होंने अपने करीब सहयोगियों से कहा, ''मेरे मन में साफ था कि इस वक्त ऐसा करना सही नहीं है. मेरी नैतिक जिम्मेदारी है कि मैं काम से न भागूं बल्कि जंग लड़ूं. लोग चाहते हैं कि मैं हालात को कगार पर से वापस लाने का साहस दिखाऊं.’’
वैष्णव यह पक्का करने के लिए घटनास्थल पर ही जमे रहे कि घायलों को इलाज और मृतकों के रिश्तेदारों को उन्हें खोजने और उनका उपयुक्त अंतिम संस्कार करने में सहायता मिले. मंत्री ने ट्रेनों की आवाजाही बहाल करने पर भी ध्यान दिया और रात भर रुककर 51 घंटों के भीतर रेलमार्ग का चालू होना पक्का किया, जो यकीनन काफी जल्दी है.
दुर्घटना के सबक
यह दुर्घटना चाहे मानवीय चूक या मशीन की नकामी की वजह से हुई हो, इसने भारतीय रेलवे के सुरक्षा तंत्र की एक खतरनाक खामी को उजागर कर दिया है. रेलवे ने सिग्नल संचार तंत्र की जांच के लिए 5 जून को देशव्यापी सुरक्षा अभ्यास शुरू किया था. लगभग एक दशक से रेल यात्रा को सुरक्षित बनाने के लिए उठाए जा रहे कदमों के तहत देश भर में इलेक्ट्रॉनिक इंटरलॉकिंग सिस्टम लगाया जा रहा है.
अब तक, देश के 7,325 स्टेशनों में से लगभग आधे में यह तकनीक लगाई जा चुकी है. इसी के साथ कवच सिस्टम जैसे टक्कर-रोधी उपकरण भी लगाए गए हैं. हालांकि उतनी तेजी से नहीं लगाए जा सके, जिस तेजी से होना चाहिए था. नई पटरियों, इंजनों और कोचों की डिजाइन में ही सुरक्षा के इंतजामात जुड़े हुए हैं.
कई विशेषज्ञ यह भी तर्क देते हैं कि दुनिया में सबसे बड़े नेटवर्क के नाते देखें तो भारत में रेल दुर्घटनाओं का ट्रैक रिकॉर्ड अधिकांश देशों की तुलना में बेहतर है. लगभग 68,000 किमी के रूट पर 1,07,832 किमी से अधिक चालू पटरियां हैं. पिछले एक साल में 5,200 किमी नई पटरियां बिछाई गई हैं, जो स्विट्जरलैंड के पूरे रेल नेटवर्क के बराबर है.
रेलवे अब रोजाना 13,169 यात्री ट्रेनें चलाती है और बीते साल इन ट्रेनों ने 5 अरब से अधिक यात्रियों को ढोया, जो देश की कुल आबादी का लगभग तीन गुना है. रोजाना 8,637 मालगाड़ियां भी चलती हैं. रेलवे बोर्ड के पूर्व सदस्य (यातायात) इस ट्रैक रिकॉर्ड का बचाव करते हैं, ''हमें इसके लिए श्रेय तो देना ही चाहिए कि पिछले दो दशकों में रेल दुर्घटनाओं की संख्या में भारी कमी आई है. अंतरराष्ट्रीय पैमाने के मुताबिक, प्रति दस लाख ट्रेन किमी पर दुर्घनाएं 2001 में 0.65 से घटकर 2022 में 0.03 हो गई हैं.’’
फिर भी, 1995 के बाद सबसे भीषण बाहानगा बाजार दुर्घटना ऐसे समय में रेलवे के सामने सुरक्षा और अन्य प्रणालीगत चुनौतियों की ओर इशारा करती है, जब तेज रफ्तार, अधिक आरामदायक ट्रेनें चलाने के लिए आधुनिकीकरण और विस्तार की ओर कदम बढ़ाया जा रहा है. नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (सीएजी) की दिसंबर 2022 में जारी ऑडिट रिपोर्ट से पता चला कि रेलवे अपने तय सुरक्षा बेंचमार्क से बहुत पीछे है.
पिछले चार वर्षों में रेल दुर्घटनाओं की इसकी लेखापरीक्षा से पता चला कि 69 प्रतिशत ट्रेनें ट्रैक नवीकरण और मशीनी गड़बड़ियों के कारण पटरी से उतरीं. रिपोर्ट में पटरी से उतरने के कुछ बुनियादी कारणों में पटरियां बिछाने की गड़बड़ियों, इंजीनियरिंग तथा रखरखाव की कमियों और संचालन खामियों का जिक्र किया गया है.
सीएजी की रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि रेल सुरक्षा और ट्रैक नवीनीकरण पर खर्च की गई राशि नाकाफी थी. 2017-18 से पांच साल के लिए राष्ट्रीय रेल सुरक्षा कोष में आवंटित 1 लाख करोड़ रु. में अवधि के अंत में एक-तिहाई का इस्तेमाल ही नहीं हो पाया.
लेकिन रेल मंत्रालय ने 5 जून को सीएजी रिपोर्ट के दावे का खंडन किया और कहा कि ऑडिट रिपोर्ट में 2017-18 और 2021-22 के बीच कुल खर्च पर गौर नहीं किया गया है. इस अवधि में सुरक्षा संबंधी कार्यों पर खर्च 2004-05 से 2013-14 के दौरान 70,274 करोड़ रुपए से बढ़कर 2014-15 से 2023-24 के दौरान 1.78 लाख रुपए हो गया. यानी ढाई गुना बढ़ोतरी हुई.

हालांकि इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि कर्मचारियों और रखरखाव की कमी रेलवे संचालन की सबसे कमजोर कड़ी बनी हुई है. लोको पायलट 12 या उससे अधिक घंटों तक काम करते हैं. रेलवे बोर्ड ने 17 मई को दक्षिण पूर्व मध्य रेलवे (एसईसीआर) के प्रबंधकों की इसलिए खिंचाई की कि उसके 36 प्रतिशत लोको पायलट मार्च से रोजाना 12 घंटे से ज्यादा काम कर रहे हैं.
सीएजी की ताजा रिपोर्ट में ठेके पर रखे गए कर्मचारियों की कार्यकुशलता में कमी और स्थाई कर्मचारियों की प्रशिक्षण-प्रक्रिया में खामियों का जिक्र है. उसमें अन्य बातों के अलावा यह सिफारिश की गई कि रनिंग ड्यूटी आठ घंटे और कुल ड्यूटी 11 घंटे हो और यह नियम लोको पायलट, मोटरमैन और गार्ड सहित सभी रनिंग स्टाफ पर लागू हो. 12 घंटे से अधिक की ड्यूटी खासकर स्टेशन, ट्रैक और रोलिंग स्टॉक के लिए खतरनाक है. हालांकि अनिवार्य घंटों की ड्यूटी में भी लापरवाहियां बरती जाती हैं.
इसलिए ट्रैक, सिग्नलिंग और रोलिंग स्टॉक के रखरखाव पर कतई कोताही नहीं होनी चाहिए. समय की पाबंदी और उपलब्ध समय के भीतर रखरखाव कार्यों को पूरा करने का जुनून खतरनाक जोखिम उठाने जैसा है. नाम न छापने की शर्त पर सिकंदराबाद में इंडियन रेलवे इंस्टीट्यूट ऑफ सिग्नल इंजीनियरिंग ऐंड टेलीकॉम के एक पूर्व महानिदेशक कहते हैं, ''बाहानगा बाजार दुर्घटना रेलवे के सबसे व्यस्त मार्गों में एक पर हुई, जहां लाइन क्षमता का उपयोग 100 प्रतिशत से अधिक था. इस तरह के व्यस्त मार्गों पर रखरखाव या मरम्मत करने के लिए कर्मचारियों को शायद ही समय मिलता है.’’
स्टाफ की कमी दूसरी गंभीर चिंता है, जो भारी परेशानी का सबब बनती जा रही है. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री को एक पत्र में जिक्र किया कि रेलवे में 3,00,000 पद खाली पड़े हैं. इनमें से ज्यादा सुरक्षा हलके में हैं. तेलंगाना प्लानिंग बोर्ड के वाइस-चेयरपर्सन और रेलवे की संसदीय समिति के पूर्व सदस्य बी. विनोद कुमार पुष्ट करते हैं, ''लोकोमोटिव पायलट और ट्रैक मेंटेनर जैसे कई प्रमुख पद खाली हैं.
देश भर में विद्युत सबस्टेशनों में 30,000 से अधिक रिक्तियां हैं. कुशल सुरक्षा कर्मियों की भारी कमी है.’’ कर्मियों की कमी नियमित जांच करने में आड़े आती है, लिहाजा, सुरक्षा खतरे की आशंका बनी रहती है. कर्मचारियों की कमी आपात स्थिति के दौरान फौरन कार्रवाई में भी रुकावट बनती है और अंतत: ट्रेन सेवाओं में बाधा होती है. लेकिन रेलवे के वरिष्ठ अधिकारी इससे असहमत हैं. उनके मुताबिक, पिछले नौ वर्षों में करीब पांच लाख लोगों की भर्ती की गई है और फिर बढ़ते ऑटोमेशन के कारण कर्मचारियों को कम करना है, न कि उनमें इजाफा करना है.
बहरहाल, सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए. रेलवे के एक शीर्ष विशेषज्ञ कहते हैं, ''दुर्घटना का पहला सबक है कि अपनी नाकामियों को न छिपाएं.’’ वे कहते हैं कि नाकामियों के लिए लोगों को दंडित करने की वर्तमान संस्कृति अपने आप में बुरी तो नहीं है, लेकिन इससे घटनाओं की जानकारी कम मिलने का खतरा पैदा होता है.
एक लिंक्डइन ब्लॉग में रेलवे बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष अश्विनी लोहानी लिखते हैं, ''हालांकि व्यक्तिगत चूकों पर उंगली रखना तो सही है, अगर ऐसी चूकों की संख्या चिंता का विषय बन जाती है, तो यह स्पष्ट होना चाहिए कि समस्या सिस्टम में या काम करने वालों के मनोबल और काम के माहौल से संबंधित है.’’ कोरोमंडल एक्सप्रेस हादसा इन तमाम मुद्दों को हल करने की दिशा में एक नींद तोडऩे का झटका जैसा है. जितना जल्दी नींद टूटे, बेहतर होगा.
—साथ में, प्रदीप आर. सागर
बालेश्वर के हमदर्द
पीड़ितों की तकलीफ कुछ कम करने में स्थानीय लोगों, आपदा प्रबंधन अधिकारियों और अस्पतालों ने मिलकर काबिले-तारीफ काम किया
जून की 2 तारीख को शाम करीब 7 बजे का वक्त था. 48 वर्षीय मनमथ भुयां बाहानगा बाजार रेलवे स्टेशन के नजदीक अपने पिता के बनवाए घर में आराम फरमा रहे थे. तभी उन्होंने बाहर टक्कर की तेज आवाज सुनी. वे बताते हैं, ''ऐसा लगा मानो बाहानगा पर किसी ने बम गिरा दिया हो.’’ भुयां की मां धिरोदबाला को तो ऐसा लगा कि नजदीक ही समुद्र तट पर स्थित चांदीपुर परीक्षण स्थल से कोई भटकी हुई मिसाइल उनींदी बस्ती से आ टकराई है.
उस वक्त उन्हें पता नहीं था, पर बाहानगा के यही स्थानीय लोग देश के सबसे भयंकर रेल हादसों में से एक के जवाब में उठ खड़े होने वालों में सबसे आगे थे. इस हादसे में 288 जानें गईं और 1,200 घायल हो गए. भुयां याद करते हैं, ''चारों तरफ अंधेरा था. पटरियों के इर्द-गिर्द हर जगह क्षत-विक्षत शव पड़े थे. घायलों को हम '108’ एंबुलेंस आने तक पास के स्कूल में ले गए.’’
स्टेशन के दोनों तरफ के ग्रामीण फटाफट घटनास्थल पर पहुंचे, उधर मदद भी लगभग तत्काल आ गई. सेलफोन की टॉर्च की रोशनी में उन्होंने लोगों को क्षतिग्रस्त डिब्बों से बाहर निकाला. दूसरे पलटे हुए डिब्बों के ऊपर चढ़कर अंदर चीखती हुई सवारियों को बचाने के लिए बांस की सीढ़ियां ले आए. मर्द बचाव के कामों में जुटे थे, तो औरतों ने पीने के पानी, बिस्कुट और बाद में सरकारी बचाव दल के आने तक खाना पकाने का इंतजाम किया.
बालेश्वर के कलेक्टर और जिला मजिस्ट्रेट दत्तात्रेय बी. शिंदे ग्रामीणों की तारीफ करते नहीं थकते. राष्ट्रीय आपदा मोचन बल, अग्निशमन सेवा, रेलवे सुरक्षा बल, स्थानीय संगठनों, ओडिशा आपदा त्वरित कार्रवाई बल से लेकर सेना तक कई सारी एजेंसियों के बचाव कार्यों का समन्वय करने वाले 2016 बैच के आइएएस अफसर शिंदे कहते हैं, ''स्थानीय लोगों को सलाम.
वहां पहुंचने वालों में वे सबसे पहले थे, फिर डीएचएच (जिला मुख्यालय अस्पताल), पुलिस और अग्निशमन सेवा के अधिकारी आए.’’ रतजगे से थके और उनींदे शिंदे यह भी कहते हैं, ''सभी के लिए खाना जुटाना, उन्हें निश्चित ड्यूटी सौंपना, और कटर से लेकर क्रेन व वाहन तक हर चीज का इंतजाम करना हमारी प्राथमिकता थी.’’ बालेश्वर की पुलिस अधीक्षक सागरिका नाथ भी स्थानीय लोगों की भूरि-भूरि प्रशंसा करती हैं, ''उन्होंने बरामद हुए बटुए, मोबाइल और दूसरी चीजें हमें सौंप दीं. हमने इस काम के लिए स्थानीय 'खोया और पाया’ केंद्र बनाया. 500 से ज्यादा मोबाइल फोन और 100 के करीब वॉलेट बरामद हुए थे.’’
स्थानीय पुलिस से लेकर आपदा मित्रों तक सरकारी सहायता भरसक जल्द से जल्द आ गई. शिंदे कहते हैं, ''हमें तीन घंटों में 100 एंबुलेंस मिल गईं और स्थानीय चौपहिए भी शामिल कर लिए. घायलों को हर मुमकिन तेजी से नजदीकी अस्पताल भेजा गया.’’ सुबह होते-होते पश्चिम बंगाल, ओडिशा और झारखंड के अलग-अलग हिस्सों से रिश्तेदार आने लगे.
शवों के अंबार में वे बेतहाशा अपने प्रियजनों को खोजते. बालेश्वर के जिला सार्वजनिक स्वास्थ्य अधिकारी डॉ. मृत्युंजय मिश्रा दुर्घटना स्थल पर सबसे पहले पहुंचने वाली टीम में थे. डीएचएच की आपातकालीन प्रतिक्रिया के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, ''तीन डॉक्टर—मुख्य जिला चिकित्सा अधिकारी डॉ. दुलालसेन जगतदेव, मैं खुद और एक और सर्जन—और आठ फार्मासिस्ट की एक प्राथमिक उपचार टीम आधे घंटे में घटनास्थल पर पहुंच गई.’’
दुर्घटना स्थल पर अस्थायी टेंट से दक्रतर चला रहे शिंदे कहते हैं, ''घटनास्थल के सबसे नजदीक स्थित बाहानगा हाइस्कूल में अस्थायी ऑटोप्सी केंद्र शुरू किया. शवों को सड़ने से बचाने के लिए हमने फिश प्रोसेसिंग यूनिटों से छह टन बर्फ का इंतजाम किया. जब रिश्तेदारों ने शवों की पहचान कर ली, तो उन्हें सौंपना शुरू कर दिया. अज्ञात शव भुवनेश्वर स्थित एम्स और किम्स के मुर्दाघरों में भेज दिए, जहां उनकी पहचान का काम अब भी चल रहा है.’’
पड़ोसी भद्रक जिले के कलेक्टर सिद्धेश्वर बी. बोंदर बताते हैं, ''हमारे यहां 106 घायल आए, उनमें से तीन की मौत हो चुकी थी. गंभीर मरीजों को कटक के एससीबी मेडिकल कॉलेज भेजा. अब हमारे सभी मरीजों को अस्पताल से छुट्टी मिल गई है.’’
हादसे के एक दिन बाद स्थानीय लोग और अभिनेता सोनू सूद की बालेश्वर इकाई सरीखे संगठन अस्पतालों में मरीजों और उनके रिश्तेदारों को खाना खिला रहे थे और रक्तदान कर रहे थे. बालेश्वर स्टेशन क्लब के अध्यक्ष गिरिजा शंकर दास बताते हैं, ''हमने पहले ही दिन स्थानीय संगठनों की मदद से करीब 565 लोगों को पका हुआ खाना बांटने का अभियान छेड़ दिया.’’
फिर हादसे से जिंदा बच निकले कई लोग हैं जो अब भी सदमे में हैं. बालेश्वर से सवार 29 वर्षीय जितेंद्र नायक मालगाड़ी से टकराने वाली कोरोमंडल एक्सप्रेस के इंजन से बिल्कुल पीछे वाले स्लीपर कोच में थे. वे बताते हैं, ''डिब्बा ठसाठस भरा था. मैं फर्श पर बैठा था. सफर शुरू हुए 25 मिनट ही हुए होंगे कि मुझे जोरदार झटका लगा. लगा मानो मैं कंक्रीट मिक्सर के भीतर था. मैं बेहोश हो गया... होश आया, तो बालेश्वर के अस्पताल में था.’’ उन्हें चेन्नै ग्लास फैक्टरी में सुपरवाइजर के पद पर जॉइन करना था, पर वह बैग ही खो गया है जिसमें उनके सर्टिफिकेट थे.
इस बीच, जिस तरह बड़े पैमाने पर बचाव अभियान और ट्रैक की बहाली का काम शुरू किया गया, वह दिमाग चकराने वाला है. केंद्रीय रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने मंत्रिमंडल के अपने साथी धर्मेंद्र प्रधान और बड़े अफसरों के साथ 4 जून की रात पटरियां चालू होने तक घटनास्थल पर ही डेरा डाले रखा. 500 लोगों की टीम के साथ इन कोशिशों में हाथ बंटाने वाले वाल्तेयर डिविजन के डिविजनल रेलवे मैनेजर अनूप के. सत्पथी कहते हैं, ''डाउन और अप लाइनें रिकॉर्ड समय में यातायात के लिए खोल दी गईं.’’
प्राकृतिक आपदाओं से निबटने में ओडिशा की महारत भी काम आई. मुख्यमंत्री ने 2 जून को सचिव स्तर के 10 अधिकारियों को जिम्मेदारियां सौंपी और खुद निजी तौर पर राज्य कंट्रोल रूम से स्थितियों की निगरानी करते रहे. अग्निशमन सेवा के डायरेक्टर जनरल सुधांशु सारंगी कहते हैं, ''पिछले 20 साल में ओडिशा ने आपदा से निबटने के लिए तैयार रहने में भारी निवेश किया है. इसलिए हमारे पास संसाधन थे. दूसरा कोई राज्य तो घुटने टेक देता.’’
—संग्राम पाढ़ी
स्टेशन के दोनों तरफ के ग्रामीण तुरंत दुर्घटनास्थल पर पहुंचे और उन्होंने अपने मोबाइल फोन की टॉर्च की रोशनी में घायलों को क्षतिग्रस्त डिब्बों से बाहर निकाला