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भावी समर को तैयार

कांग्रेस को उम्मीद है कि वह राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी कर्नाटक जैसा शानदार प्रदर्शन करेगी, जहां इस साल के आखिर में चुनाव होने हैं. क्या कांग्रेस ऐसा जादू फिर से चला पाएगी?

ताकतवर अभियान: (बाएं से) कांग्रेस नेता सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे
ताकतवर अभियान: (बाएं से) कांग्रेस नेता सोनिया गांधी, राहुल गांधी और मल्लिकार्जुन खड़गे

अगर आलाकमान ने उन्हें मुख्यमंत्री नहीं बनाया तो क्या वे बगावत कर देंगे? 16 मई को दिल्ली के लिए रवाना होते वक्त यह पूछे जाने पर कांग्रेस नेता डी.के. शिवकुमार ने कहा कि उनकी पहली प्राथमिकता अगले साल आम चुनावों में राज्य की 28 लोकसभा सीटों में से कम से कम 20 सीटें जीतने की है. हो सकता है कि उन्होंने यह प्रतिक्रिया मुख्यमंत्री पद की रेस को लेकर सवालों का सीधा जवाब देने से बचने के लिए दी हो, लेकिन इस तरह उन्होंने न केवल अपनी पार्टी के नेताओं के लिए बल्कि प्रतिद्वंद्वी भाजपा के लिए भी अगली बड़ी चुनौती को सटीक तरीके से रख दिया. कांग्रेस को लगता है कि वह पार्टी के पक्ष में मतदाताओं के मौजूदा मिजाज को 2024 के लोकसभा चुनावों तक बनाए रख सकेगी. वहीं, भाजपा की कोशिश यहां से सबक लेते हुए मतदाताओं को फिर से अपने पक्ष में लाने की होगी. 

कुल 224 सीटों वाली विधानसभा में 135 सीटों के साथ, कर्नाटक में कांग्रेस ने भारी जीत दर्ज की है. इस जीत ने पूरे भारत में पार्टी नेतृत्व और कार्यकर्ताओं में फिर से जोश भर दिया है. छह महीने से भी कम समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाजपा के खिलाफ कांग्रेस की यह दूसरी बड़ी जीत है. इसने दिसंबर 2022 में हिमाचल प्रदेश में भाजपा को हराकर सत्ता हासिल की थी. पार्टी के भीतर और बाहर कई लोग बताने लगे हैं कि यह कांग्रेस का पुनरुद्धार है और नरेंद्र मोदी का जादू फीका पड़ रहा है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव सहित कई अन्य विपक्षी नेता जो कांग्रेस के हाथ में विपक्ष की कमान देने को तैयार नहीं नजर आते थे, अब उन्होंने भी अपना राग बदला है और इशारों में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाकर भाजपा के खिलाफ एक बड़ा मोर्चा तैयार करने की संभावनाएं जताने लगे हैं, बशर्ते कांग्रेस उन राज्यों में नेतृत्व क्षेत्रीय दलों को करने दे जहां वे प्रमुख ताकत हैं. 

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे इस तरह के राजनीतिक निष्कर्षों पर बहुत उत्साहित होकर प्रतिक्रिया देना पसंद नहीं करते. जब पत्रकारों ने उनसे पूछा कि क्या कर्नाटक में कांग्रेस की जीत मोदी की हार है, तो खड़गे ने इस सवाल को खारिज करते हुए कहा कि यह राज्य की जीत है न कि अगले साल लोकसभा की. खड़गे राजनीति में लगभग 60 वर्षों से सक्रिय हैं और वे बखूबी समझते हैं कि 2024 की दौड़ में हावी होने के लिए उनकी पार्टी को अभी कई जंग जीतनी हैं. और, राज्यों के लिए हुए चुनावों में भाजपा के खिलाफ ऐसी जीत नई नहीं है. मई 2014 से अब तक राज्यों में हुए 57 चुनावों में से 29 में भाजपा को हार मिली है.

कांग्रेस ने 2018 में तीन राज्यों—राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़—में जीत हासिल की और सरकारें बनाईं. इन राज्यों में 65 लोकसभा सीटें हैं. फिर भी, 2019 में यह 65 में से केवल तीन लोकसभा सीटें जीत सकी. उसने 2020 में मध्य प्रदेश में अपनी सरकार भी गंवा दी, क्योंकि ज्योतिरादित्य सिंधिया 22 विधायकों को साथ लेकर भाजपा में चले गए. इन तीन राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के बीच सीधा मुकाबला होता है. इस साल के अंत में यहां चुनाव होंगे. उनमें से दो—राजस्थान और छत्तीसगढ़—में कांग्रेस सत्ता में है और अपनी सरकार बचाने के लिए जोर लगाएगी, तो मध्य प्रदेश में वह भाजपा के लिए प्रमुख चुनौती होगी. 

इन राज्यों की लड़ाई किसी भी दल के लिए आसान नहीं होगी क्योंकि वे पार्टी में आंतरिक संघर्ष, सत्ता विरोधी लहर, जातिगत समीकरणों में असंतुलन और भ्रष्टाचार के आरोपों जैसी बड़ी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. कांग्रेस पार्टी की कर्नाटक में जीत और भाजपा के निराशाजनक प्रदर्शन ने उन प्रमुख कारकों को उजागर किया है जो जीतने वाले और हारने वाले के बीच का अंतर तय करते हैं—सही नैरेटिव, मजबूत नेतृत्व, आंतरिक गुटबाजी को संभालने का कौशल, सोशल इंजीनियरिंग और मजबूत संदेश. इन कारकों पर राजनीतिक दल जितना काम करेंगे, साल के अंत में तीन राज्यों में होने वाले चुनावी समर का परिणाम उसी से तय होगा.

राजस्थान : नेतृत्व का संकट

राजस्थान में कांग्रेस और भाजपा दोनों ही नेतृत्व के मुद्दे को हल नहीं कर पाई हैं. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की अपने पूर्व डिप्टी सचिन पायलट के साथ तीखी लड़ाई जारी है. यहां तक कि जब पार्टी कर्नाटक में जीत का जश्न मना रही थी, तब पायलट अपनी ही सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार और भर्ती परीक्षा के पेपर लीक जैसे मसले पर मार्च निकाल रहे थे. पायलट का यह मार्च 16 मई को जयपुर में खत्म हुआ. उस अवसर पर पायलट के सहयोगी और राज्य में मंत्री राजेंद्र सिंह गुढा ने अपनी ही सरकार के बारे में कहा कि वह कर्नाटक की निवर्तमान भाजपा सरकार की '40 प्रतिशत कमीशनखोरी' से भी आगे निकल चुकी है. कर्नाटक में कांग्रेस ने अपने चुनाव अभियान में भाजपा सरकार के कथित भ्रष्टाचार का मुद्दा जोर-शोर से उठाया था.

वैसे गहलोत ने अधिकतर विधायकों के साथ पार्टी पर अपनी मजबूत पकड़ बना रखी है. यही एक कारण है कि सीएम बनाने की पायलट की मांग के आगे पार्टी आलाकमान अभी तक नहीं झुका है. गहलोत को अब उन कल्याणकारी योजनाओं का आसरा है जो उन्होंने राज्य में शुरू की हैं. वे नियमित रूप से उनकी प्रगति की निगरानी करते हैं. प्रदेश के सभी जाति समूहों में उनकी स्वीकार्यता है जो उन्हें सत्ता में वापसी कराने में मददगार हो सकती है. यहां 1998 से, हर पांच साल में कांग्रेस और भाजपा को बारी-बारी से सत्ता मिलती आ रही है. पिछली बार कांग्रेस ने 200 सदस्यीय सदन में 100 जबकि भाजपा ने 73 सीटें जीती थीं. अगर गहलोत राज्य में सत्ता परिवर्तन की परिपाटी को बदलना चाहते हैं, तो उन्हें पायलट के साथ मजबूती से खड़े गुर्जरों का तोड़ खोजना होगा. पायलट इसी गुर्जर समुदाय से आते हैं. राज्य के आठ गुर्जर विधायक—सभी कांग्रेस में—गहलोत और पायलट के बीच समान रूप से विभाजित हैं. अब, गहलोत माली और अनुसूचित जनजाति मीणा जैसी गुर्जर विरोधी जातियों को अपने साथ लामबंद करने के लिए जोर लगा रहे हैं. गहलोत खुद माली समुदाय से आते हैं. 

पायलट के अभियान से गहलोत बैकफुट पर हैं क्योंकि भाजपा भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा बनाने की पहले से कोशिश कर रही है. पायलट ने गहलोत पर यह भी आरोप लगाया कि उन्होंने वसुंधरा राजे के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों को नजरअंदाज किया. पायलट के इस कदम से भाजपा के कुछ नेता भी खुश हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि राजे फिर से राज्य में भाजपा का नेतृत्व करें. कहा जाता है कि अब उन्हें आरएसएस का भी समर्थन नहीं है. दरअसल, भाजपा में सीएम पद के आधा दर्जन दावेदार हैं. पर आसानी से जीत पाने के लिए केंद्रीय नेतृत्व का झुकाव धीरे-धीरे राजे की ओर हो रहा है. पार्टी ने राजे के कट्टर विरोधी और आरएसएस कार्यकर्ता सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर सी.पी. जोशी को अध्यक्ष बनाया. लेकिन अब केंद्रीय नेतृत्व के लिए चुनौती राज्य के दूसरी पंक्ति के नेताओं और राजे के बीच सुलह कराने की है. जैसा कि कांग्रेस ने कर्नाटक में किया, भाजपा को भी अपनी पार्टी को एकजुट रखने और मोदी के जादू पर आश्रित रहने के बजाय, गहलोत सरकार को स्थानीय मुद्दों पर घेरने की जरूरत है.

मध्य प्रदेश : चौहान की मुश्किल

यहां कांग्रेस के लिए इस बार नेतृत्व को लेकर उलझन नहीं है. कमलनाथ मुख्यमंत्री पद के चेहरे हैं और पूर्व सीएम दिग्विजय सिंह से उनके अच्छे संबंध हैं. दोनों एक साथ काम कर रहे हैं, और पार्टी का चुनावी अभियान मुख्य रूप से शिवराज सिंह चौहान सरकार के 'कुशासन' के इर्द-गिर्द केंद्रित रहेगा. जातीय समीकरणों को भी ध्यान में रखा जा रहा है. हर जाति के बीच वोट बैंक को मजबूत बनाने के लिए पार्टी ने पेशा आधारित विभिन्न प्रकोष्ठ बनाए हैं. कर्नाटक की जीत में बड़ी भूमिका निभाने वाले चुनावी रणनीतिकार सुनील कानूगोलू को लेकर आने से भी कांग्रेस के अभियान को गति मिलेगी. फिर भी, यह इतना आसान नहीं है. कर्नाटक, जहां हर पांच साल में सरकार बदलती है, के विपरीत मध्य प्रदेश में भाजपा 2003 और 2018 के बीच लगातार 15 साल सत्ता में रही. बेशक 2018 में कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से बाहर कर दिया था लेकिन अंतर बहुत मामूली था. 230 सदस्यीय सदन में भाजपा ने 109 और कांग्रेस ने 114 सीटें जीतीं थीं.

भाजपा के पास भी चौहान के रूप में एक दिग्गज हैं, पर पार्टी में सुगबुगाहट है कि उनकी लोकप्रियता कम हुई है. अटकलें हैं कि केंद्रीय नेतृत्व उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में आगे मौका नहीं देना चाहता. पार्टी का कमजोर पक्ष यह रहा कि प्रदेश अध्यक्ष वी.डी. शर्मा संगठन में उतनी महारत नहीं दिखा पाए जितनी अपेक्षा थी. इससे शीर्ष नेतृत्व मुख्यमंत्री के चेहरे पर कोई भी निर्णय लेने में हिचकिचा रहा है. स्थानीय नेतृत्व यदि कमजोर हुआ तो पार्टी की संभावनाओं पर उलटा असर पड़ सकता है.

शुरुआती संकेत बताते हैं कि भाजपा राज्य को वापस जीतने के लिए ध्रुवीकरण की कहानी का सहारा ले सकती है. कर्नाटक के नतीजों के एक दिन बाद, चौहान ने भोपाल से कट्टरपंथी संगठन हिज्ब-उत-तहरीर के सदस्यों की हाल ही में हुई गिरफ्तारी का उल्लेख किया और धर्मांतरण का मुद्दा भी उठाया. साथ ही, सोशल इंजीनियरिंग पर भी इसकी पूरी निगाह है. भाजपा एक सामाजिक गठबंधन बनाने के लिए कई जाति-आधारित समूहों के बीच एक संपर्क कार्यक्रम चला रही है. विभिन्न समुदायों के प्रमुख नेताओं के जन्मदिन मनाने के लिए छुट्टियों की घोषणा के अलावा जाति-विशिष्ट कल्याण बोर्डों की घोषणा की गई है.

छत्तीसगढ़ : लुभावनी योजनाएं और नरम हिंदुत्व

यह आदिवासी बहुल राज्य कांग्रेस का सबसे मजबूत गढ़ रहा है. पार्टी ने 15 साल के अंतराल के बाद 2018 में, राज्य की कुल 90 में से 68 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में वापसी की. भाजपा को मात्र 15 सीटें मिलीं. यहां भी मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उनके कैबिनेट सहयोगी टी.एस. सिंहदेव के बीच सत्ता को लेकर खींचतान देखी गई है. ओबीसी नेता बघेल की संगठन पर मजबूत पकड़ है और उन्हें अधिकतर विधायकों का समर्थन प्राप्त है, तो सिंहदेव का उत्तरी छत्तीसगढ़ की आदिवासी सीटों पर दबदबा है. अगर कांग्रेस एकजुट मोर्चा बनाना चाहती है तो उसे दोनों नेताओं के बीच गतिरोध को खत्म करना ही होगा.

चुनावी नैरेटिव की बात करें तो कांग्रेस जोर-शोर से यह दिखा रही है कि किस तरह बघेल सरकार ने धान की खरीद के लिए बोनस का भुगतान किया और नरम हिंदुत्व के रुख को अपनाते हुए गाय के गोबर की खरीद की, जैविक खेती को बढ़ावा देने और राम वन गमन पथ के विकास जैसे फैसले लिए. इनमें चुनावी लाभ का लक्ष्य स्पष्ट नजर आता है क्योंकि सभी नीतियां, योजनाएं और धन राज्य के मध्य क्षेत्र को लक्षित रहा जहां राज्य के 90 विधानसभा क्षेत्रों में से 65 या अधिक क्षेत्र पड़ते हैं. 

वहीं, भाजपा के लिए पूर्व सीएम रमन सिंह अभी भी सबसे प्रमुख चेहरा बने हुए हैं. हालांकि पार्टी ने ऐसा कोई नेता तैयार नहीं किया जो उनकी विरासत को संभाल सके लेकिन वह पूर्व सीएम के प्रभाव को कम करने की कोशिश भी करती रही है. पिछले साल के अंत में, राष्ट्रीय नेतृत्व ने पार्टी अध्यक्ष और विपक्ष के नेता दोनों को बदल दिया, जिन्हें रमन का करीबी माना जाता है. राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण साहू समुदाय से आने वाले बिलासपुर के सांसद अरुण साव को पार्टी अध्यक्ष बनाया गया, जबकि ओबीसी नेता नारायण चंदेल को विपक्ष का नेता नियुक्त किया गया. पार्टी ने अनुभवी ओम माथुर को छत्तीसगढ़ का प्रभारी बनाया है, जो इस बात का संकेत है कि वह राज्य को लेकर गंभीर है. लेकिन भाजपा के सबसे कद्दावर आदिवासी नेता नंद कुमार साय के हाल ही में पार्टी छोड़ने से ऐसा लगता है कि आदिवासियों के बीच पार्टी की पकड़ कमजोर हो रही है. साय कांग्रेस में शामिल हो गए हैं.

जहां तक चुनावी मुद्दों की बात है, भाजपा यह दावा करती रही है कि बघेल सरकार पीएम आवास योजना का लाभ राज्य के नागरिकों तक पहुंचाने में विफल रही है. साथ ही, अगर कथित भ्रष्टाचार ने कर्नाटक में भाजपा की हार में अहम भूमिका निभाई, तो फिर छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को चिंतित होने की जरूरत है. भ्रष्टाचार के आरोप में ईडी ने एक आइएएस अधिकारी और पार्टी के एक विधायक को गिरफ्तार किया है.

मध्य प्रदेश में कांग्रेस में नेतृत्व के मसले को हल कर लिया गया है. कमलनाथ मुख्यमंत्री पद के चेहरे हैं और पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के साथ उनके अच्छे संबंध हैं

छत्तीसगढ़ में कांग्रेस इस बात को जोर-शोर से दिखा रही है कि किस तरह बघेल सरकार ने धान की खरीद के लिए बोनस का भुगतान किया और गाय के गोबर की खरीद की

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