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अजंता पर मंडराता खतरा

महाराष्ट्र में विश्व प्रसिद्ध प्राचीन गुफा भित्ति-चित्र और मूर्तिशिल्प संरक्षण के विवादास्पद तौर-तरीकों और अनियंत्रित पर्यटन से पूरी तरह तबाही के कगार पर, हम हजारों साल पुरानी आश्चर्यजनक कलाकृतियों की कैसे कर सकते हैं रक्षा.

पर्यटकों की भारी आमद हर रोज गुफाओं को देखने औसतन एक हजार पर्यटक बेरोकटोक पहुंचते हैं
पर्यटकों की भारी आमद हर रोज गुफाओं को देखने औसतन एक हजार पर्यटक बेरोकटोक पहुंचते हैं
अपडेटेड 14 अप्रैल , 2023

सुनील मेनन

फोटो : रघु राय

''मनुष्य स्वर्ग में तभी सुखी रह सकता है, जब संसार में उसकी स्मृति हरी-भरी हो. (इसलिए) पहाड़ों पर स्मारक बनाया जाना चाहिए, जो तब तक कायम रहे जब तक सूरज-चांद रहे.’’
—भिक्षु बुद्धभद्र,
अजंता की गुफा 26 में शिलालेख, लगभग ईस्वी सन् 478 

एक मायने में अजंता के मूल में मनुष्य की नश्वरता के खिलाफ लड़ाई ही अंकित है. 5वीं शताब्दी के बौद्ध भिक्षु के शब्दों में नष्टप्राय अतीत का डर और एक ही समय में बिना किसी विडंबना के दो दुनियाओं में शाश्वत बने रहने की आकांक्षा प्रवाहित है. महाराष्ट्र के औरंगाबाद के पास उत्तरी दक्कन के इस छोटे-से जंगली नुक्कड़ पर तकरीबन 1,500 वर्ष बाद भी वही डर अदृश्य काले बादल की तरह मंडराने लगा है.

संभव है, ऐसी जगह दुनिया में और कहीं न हो. यहां वाघोरा नदी की धारा घोड़े की नाल जैसी आकृति बनाती है, जिसके चारों ओर ज्वालामुखी के लावे से बनी चट्टानों में 30 गुफाएं हैं, जो अपनी रहस्यमय श्रेणीबद्ध जटिलता और सौंदर्य से चमत्कृत कर देती हैं. मानो कोई सौंदर्यशास्त्र का ब्रह्मांड है.

जो अभी भी अपने स्तूपों की डिजाइन, विकसित होती फर्श योजनाओं, महीन नक्काशी और चट्टान से मुक्त होने को तत्पर दिखते भव्य मूर्तिशिल्प, उत्कृष्ट अग्रभाग और अधूरे कक्षों के बीच बिखरे रहस्यों का खुलासा कर रहा है. इसके सुराग इसकी मंद रोशनी में छिपे हुए हैं, जो भारतीय इतिहास के बारे में हमारे विचारों को काफी बदल सकते हैं, यानी शक्ति, धर्म और कला की गतिशीलता का रहस्य, जो इसके प्राचीन युग के परदे में कैद है.

अतीत कभी न खत्म होने वाला जादुई खजाना है, जिसे हम अपने मौजूदा मानसिक और भौतिक वजूद की खातिर अनंत काल तक खंगाल सकते हैं. भारत इस गहरे कुएं से अपने राज्य-कौशल को सींच सकता है, सभ्यता की ऐसी गहराई बेहद थोड़े-से दूसरों के पास है. जी-20 की बैठक फरवरी में खजुराहो और एलोरा में हुई. आयोजन की सूची से अजंता आखिरी मौके पर हटा, वह भी हास्यास्पद गफलतों की वजह से, लेकिन यह समझना आसान है कि आखिर इसका चयन ही क्यों किया गया था, शायद हमारे लिए प्राचीन धरोहरों का इस्तेमाल कुछ झांकियां दिखाने भर का है.

इन गुफाओं को लगातार याद किया जाता है और रौंदा जाता है, रह-रहकर उठने वाले जुमले की तरह-इंटरनेट का जुमला है 'प्राचीन भारत का लुवर.’ इसकी दीवारों, अष्टकोणीय खंभों और छतों पर आश्चर्यजनक नजाकत और कामुकता के भित्ति-चित्र हैं जो उसके आध्यात्मिक आख्यान का विचित्र सहज विलोम प्रस्तुत करते हैं.

ये चार गुफाओं में सबसे शानदार हैं. अगर झांकी कहना यूरोपीय उपमा का आलस भरी मदद लेने के पाप जैसा है, तो महान कलाकार अमृता शेर-गिल ने 1930 के दशक में ही अजंता के भित्ति-चित्रों को 'संपूर्ण पुनर्जागरण’ से अधिक मूल्यवान बताकर हम सभी की ओर से प्रायश्चित किया था. मूल योजना के महज 49,500 वर्ग फुट में फैली यह चित्रकारी आज सबसे गहरे संकट में है. दिनोदिन, मिनट-दर-मिनट यह नष्ट होने की ओर बढ़ रही है, जिसे बुद्धभद्र ने शाश्वत रखने की कामना की थी. 

'विरासत पर्यटन’ मिलजुला मुहावरा है जिसके एक-दूसरे के विपरीत दो पहलू हैं. एक पहलू संरक्षण का है, तो दूसरा दोहन करने का है. 2008-18 के दौरान हर साल लगभग 4,00,000 पर्यटक अजंता पहुंचे, और महामारी के बाद धीरे-धीरे फिर वही चक्र शुरू होने लगा है. पर्यटकों की बेहद कम आमद वाले मौसम में भी ड्राइवर राजेंद्र भोपे अपनी डीजल बस के 'टी-पॉइंट’ से 10 चक्कर लगाते हैं—फरवरी में छह बसें पर्याप्त हैं.

पीक सीजन में गुफाओं में हर समय सौ से अधिक लोगों की भीड़ होती है, जहां 1985 के बाद से ज्यादा से ज्यादा 40 लोग की सीमा तय है. इससे यहां के वातावरण में आद्र्रता और कार्बन डाइऑक्साइड का स्तर बढ़ जाता है. अजंता पर कई अध्ययन करने वाले नेशनल एन्वायरनमेंट इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट (एनईईआरआइ-नीरी) के एक वैज्ञानिक बताते हैं, ''फिर, मानव शरीर से ऐसे गैस—वोलाटाइल ऑर्गेनिक कंपाउंड (वीओसी)—निकलते हैं, जिनका असर रंगों पर पड़ता है.’’

दशकों से टंगस्टन, मर्करी और हैलोजेन बत्तियां मद्धिम आंच की तरह काम करती ही हैं. बारिश में बढ़ती अम्लता (एसिडीटी) बाहरी चट्टानों को कुरेद रही है, चट्टानों में बाल बराबर दरार से पानी रिसता है, जिसका अत्याधुनिक जियो-ट्रैकिंग से भी पता लगाना मुश्किल है. संक्षेप में कहें तो ऑर्गेनिक और इनऑर्गेनिक परिघटनाएं, धीरे-धीरे होने वाले रासायनिक परिवर्तन से सूक्ष्म कीटों की आमद बढ़ रही है (देखें, कैसे भित्ति -चित्र हो रहे बर्बाद).

फिर, इसमें पिछली दो सदियों से मानवीय हरकतों को जोड़ लें तो मामला भयावह दिखता है. इन हरकतों में सीधे खुरचने, तोड़फोड़ करने से लेकर घोर उपेक्षा और भलमनसाहत की बेवकूफियां शामिल हैं. मूर्तिशिल्प विशेषज्ञ संजय धर से पूछा गया कि वे एक से दस के पैमाने पर तबाही को कहां आंकते हैं. वे थोड़ा ठहरे, पूछा कि क्या दस सबसे ज्यादा है. फिर, आराम से कहा, ''दस.’’

संरक्षकों का सपना और दु:स्वप्न 

यह तबाही फौरन नंगी आंखों से नहीं दिखती. जैसे ही आप फटाफट प्रवेश संबंधी कर्मकांडों से आगे विशेष क्षेत्र की ओर बढ़ते हैं. कुछेक मील दूर पार्किंग में, दुनियाभर के नस्लों के लोग शटल बसों, सामान वगैरह की जांच होती है. फिर भी कुछ चीजें चलती रहती हैं, जैसे पानी चट्टान में अपना रास्ता ढूंढ लेता है. पहाड़ी की लहरदार हरियाली के पार, एक सफेद बुद्ध मूर्ति, जो यहां से एक बिंदु की तरह दिखती है, गुफा 1 में धर्मचक्र मुद्रा में बैठने वाले के साथ संवाद करती है. उस बस में तिब्बती तीर्थयात्रियों को शायद यह पता न हो, लेकिन आंबेडकरवादी अनुयायियों का एक देसी मठ है, जो उन पहाड़ियों पर स्थित है. वे उसे धम्मचल कहते हैं. 

कुछ नष्ट हो रहा है. सीढ़ियों की पहली चढ़ाई के ऊपर, एक रास्ता कटता है, जो नदी के दूसरी तरफ लंबी दूरी तय करके ले जाता है. उससे समूचे परिदृश्य की एक मध्यम छटा दिखती है, एक फ्रेम में उसकी भव्यता और निखरती है. वहीं से  चैत्य पोर्टिको वाली चट्टानें दिखती हैं. यह ऊपर से दिखने वाले उस बहुचर्चित दृश्य की कुछ भरपाई जैसी है, जिसे पहले अंग्रेज ने इसे देखा था.

यहां बुलबुल, चिडिय़ों की चहचहाहट के बीच दोस्ताना स्वभाव के स्थानीय लोग बुद्ध की जैसी-तैसी मूर्तियां बेचते मिलते हैं. कोई एक कंटीली झाडिय़ों के बीच बिछी ईंटों की ओर इशारा करता है. यह मलबा नहीं है...किसी खास ढंग में बिछाया गया है, ये सामान्य से बड़े हैं. फिर, हैरान करने वाली खबर मिलती है—यह एक प्राचीन पक्के-ईंटों का मठ है, शायद कभी लकड़ी पर नक्काशी वाले ढांचों के नीचे हुआ करता था.

यह अजंता से प्राचीन है? हम नहीं जानते. 2002 में एक खुदाई में पूर्वी रोमन साम्राज्य बाइजेंटाइन या सम्राट थियोडोसियस द्वितीय का सिक्का मिला था. फिर, उसे उपेक्षित, बेसहारा छोड़ दिया गया. यह जमीन वन विभाग की है. पीडब्ल्यूडी ने उन्हीं ईंटों के बीच से अपना रास्ता बना दिया है, जो कार्बन डेटिंग के लिए कराह रही हैं.

दूसरी तरफ, इधर से पुल के पार, मिनट भर चलने पर दुनिया की आंखों का वह तारा स्थित है. 

यूनेस्को की 1983 की विश्व धरोहर सूची में शामिल पहले चार भारतीय स्थलों में यह एक है. इसके अलावा ताज महल, इसकी सहोदरा एलोरा वगैरह हैं. इससे इसे आम बौद्ध गुफाओं की तुलना में कहीं अधिक अंतरराष्ट्रीय और स्थानीय क्चयाति हासिल है. असमानताएं बहुत है, लेकिन आकर्षण एकदम स्वाभाविक ही है. अजंता आपको मुग्ध कर देती है—अपनी खूबसूरती से, बेहद जटिल आकृतियों और बनावट से, आपकी आंखें यह समझ ही नहीं पातीं कि कहां टिकना है, किस संवेदना, भावना पर जोर देना है, किस एहसास को अपने भीतर भर लेना है.

तराशे गए रॉक स्तूप के संयम को? या जातक रंग, परिधान, त्वचा के रंग, बुद्ध की निर्मल आंखों, मिथुनरत जोड़ों, रथ पर सवार राजाओं और यक्षों को, जिनकी रहस्यमय कहानियां आप तक इतिहास की धुंधली रेखाओं के जरिए पहुंचती हैं. जीवन के इस उत्सव को चित्रित करने वाले ये लोग कौन थे? आपने अस्पष्ट-से नाम पढ़े हैं—एक तो मूलसर्वास्तिवादी संप्रदाय... इतिहासकारों की कलम अब भी बीच हवा में लटकी हुई है. 

हर हाल में, यह आज कुछ दशक पहले के मुकाबले कई अहम मामलों में बेहतर स्थिति में है. एक तो यही कि इकलौते प्रहरी के नाते भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) के कुछ बहादुर और जुनूनी लोगों की छोटी-सी टोली ने हिमालय जैसी बाधाओं के बीच अपने मठवासी पूर्वजों के भक्ति-भाव के साथ चट्टानों और रंग-रोगन पर श्रमसाध्य काम किया. इस तरह अतीत के पापों को धोने और वर्तमान के खतरों से बचाव की कोशिश की.

संरक्षण के रासायन विज्ञान के अनोखे विशेषज्ञ मैनेजर राजदेव सिंह जैसे लोगों ने दशक भर की श्रमसाध्य कवायद से 2,200 साल पुरानी कलाकृतियों की मानो ओपन हार्ट सर्जरी को अंजाम दिया. या अनजान-से पैदल सिपाहियों में एक मिलन चौले हैं, जिनका औरंगाबाद सर्कल के अधीक्षण पुरातत्वविद् के रूप में कार्यकाल इस जनवरी में नई दिल्ली से एक फोन कॉल के साथ अचानक समाप्त हो गया था.

जब उन्होंने बीबी का मकबरा को अतिक्रमण से मुक्त कराया, तो उनकी खूब वाहवाही हुई, लेकिन जब उन्होंने वही नियम जैनियों पर लागू किया तो सूली पर लटका दिया गया, जिन्होंने एलोरा के पिछवाड़े तीन गुफाओं पर कब्जा कर लिया है. या कंबोडिया में ता प्रोह्म वृक्ष मंदिर जीर्णोद्धार टीम का हिस्सा रहे एकांतप्रिय डी.एस. दानवे हैं, जिन्हें हर तारीख, हर बल्ब को बदलना याद है. एएसआइ में गहरी खामियां हैं.

मसलन, संकीर्ण नजरिया, और अफरा-तफरी वाला सुस्त सरकारी माहौल, खासकर ऊपरी हलके में जहां सरकारी दखल है (1993 से इसके 13 में से ज्यादातर प्रमुख नौकरशाह ही रहे हैं). लेकिन उसकी बुनियाद में खुद जाना-सीखा ज्ञान और कार्यपद्धति का विशाल खजाना भी है. अजंता-एलोरा का संसार विनोदी किस्म के वास्तुशिल्प का एहसास कराता है—अलौकिक प्रयास की बानगी देखिए, ढांचों के तल में उकेरी गई लघु आकृतियां मानो हांफते हुए और अजीब तरह से धनुषाकार झुककर अपने ऊपर टनों बोझ उठाए हुए हैं. शायद वे मौके पर मौजूद आधुनिक पुरातत्वविदों की प्रतिबिंब हो सकती हैं. 

यूनेस्को के निर्देशन में 1990 की शुरुआत में एक जापानी-वित्त पोषित पहल से अजंता के जीर्णोद्धार की प्रक्रियाओं की एक शृंखला शुरू की गई. ऑप्टिक फाइबर से चार भित्ति-चित्र समृद्ध गुफाओं को रोशन किया गया; छत के साथ नए जल प्रवाह चैनलों से भारी बारिश के पानी के रिसाव को दूर करने में मदद मिली, अंदर भित्ति-चित्रों को नुक्सान पहुंचाने वाला रिसाव रोका गया और बाहर बोल्डर खिसकने का खतरा कम किया गया.

2014 तक भित्ति-चित्रों के चारों ओर बैरिकेड आ गए; दो सेतुमार्ग और एक पुल पर्यटकों को 850 मीटर की दूरी में बिखेर देता है और आप नदी के आर-पार टहलने के शौकीन हों तो कुछ और दूर जा सकते हैं. नजदीकी हवाई अड्डे पर उड़ान के डैने कुछ और खुल गए. कभी जिन प्राचीन सड़कों पर गांधार, अमरावती, उज्जैन और समुद्र तट से काफिले चला करते थे, उन पर मैकडैम का नया कोट चढ़ गया.

कुछ समय के लिए तो ऐसा लगा कि अजंता की प्राचीन दुनिया आकर्षक आधुनिकता से ओत-प्रोत हो जाएगी. लेकिन भारत को अपनी शैली में लौटने में ज्यादा देर नहीं लगती. वही सुस्ती, संकीर्णता और संस्थागत हठ की परत गर्मी में उड़ती धूल की तरह हर नई पहल पर आ जमती है. 

भित्ति-चित्रों पर हर बातचीत में आखिरकार एक अव्यन्न्त आशंका हावी हो जाती है, मानो हर कोई उसके अंत या कम से कम उसकी संभावना भांप पा रहा है. सामान्य कामकाज की गहमागहमी के बीच सबसे चमकदार पाठ भी मानो अपने कोनों में दबी हुई चेतावनी से अंधियारा लगने लगता है. यहां वह पुराना मुहावरा—मन का आशावाद, बुद्धि का निराशावाद—खूब फिट बैठता है.

मानो संरक्षण की यह बहादुराना लड़ाई सिर्फ होनी को कुछ देर टालने भर की है—जैसे जानलेवा बीमारियों से पीड़ित परिवार के बुजुर्ग के आसपास सब सामान्य होने का भाव दिखाया जाता है. कुछ अपनी डरावनी अशंकाओं को साफ-साफ जाहिर कर देते हैं. तीन दशकों से अजंता का रहस्य सुलझाने को अपने जीवन का लक्ष्य बनाकर उसमें जुटे स्वतंत्र विद्वान-लेखक राजेश कुमार सिंह उदास हैं, ''मुझे यकीन हो चला है कि ये भित्ति-चित्र 50 साल बाद हमारे साथ नहीं होंगे.’’

वैज्ञानिक जवाब देने से बचते हैं. 2010 में अजंता स्थल प्रबंधन योजना तैयार करने वाली टीम की अगुआ वास्तुकार-संरक्षक आभा नारायण लांबा मुस्कराते हुए मजाकिया लहजे में यह कहकर टाल देती हैं, ''आपको दिल्ली के तुगलक स्मारकों पर स्टोरी करनी चाहिए. अजंता दरअसल हमारी सबसे बेहतर प्रबंधन वाले स्थलों में एक है!’’

फिर कुछ कहने को तैयार होती हैं, मगर उसमें बहुत कुछ अनकहा छोड़ देती हैं, ''अजंता के मुद्दे उस स्थल से जुड़े स्थानीय हैं.’’ यूनेस्को की तिब्बत और लद्दाख में पुराने बौद्ध थांगका और भित्ति-चित्रों की पुनरुद्धार परियोजनाओं पर वर्षों बिताने वाले धर कहते हैं, ''खतरा चित्रों तक सीमित नहीं है.’’ वे अपने विश्लेषण में ''प्रबंधन पर्यावरण’’ को जोड़ते हैं, खासकर गैर-जानकार, अनगढ़ संरक्षण उपायों को.

कोई गलत नहीं है. लेकिन ये मसले हैं क्या? एलोरा में कैलाशनाथ के उस्ताद वास्तुकार ऊपर से नीचे की ओर गए और ऐसे खोदा कि वह आश्चर्यजनक स्मारक एक ही टनों भारी ठंडी, लेटी चट्टान का हिस्सा है. इसके उलट अजंता में हमें सबूतों को लेकर नीचे से ऊपर जाना है. यहां की भित्ति-चित्रों की प्रकृति और स्थिति को समझने के लिए इस सबूत को साथ रखकर देखना होगा, क्योंकि यह आधुनिक संरक्षकों को भ्रमित करता है, तो एक अहम मामला माइक्रोस्कोपिक है. दूसरा मामला मनुष्य की उमंग...और हिंसा, जाने या अनजाने, के इतिहास का है.

अजंता: टूटा-फूटा जातक

कला का पहला नमूना उसी हाथ ने गढ़ा जो अब सबसे बड़ा खतरा पैदा कर रहा है—यानी प्रकृति. लगभग 6.6 करोड़ वर्ष पहले, विशाल ज्वालामुखीय विस्फोटों के लावा से दक्कन ट्रैप का निर्माण हुआ, जो ठंडा होकर बसॉल्ट चट्टान बना—यह वही चट्टान है जो चंद्रमा में अंधेरी छाया, लुनर मारिया बनाती है. सहस्राब्दियों के अंतराल में वाघोरा नदी ने उसे यू-आकार के कंठ में बदला, जो हाथी की पीठ जैसे बौद्ध तीर्थस्थल का अभास देता है. ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के आखिरी वर्षों में, सातवाहन काल के दौरान पहले मानव मूर्तिकारों ने खुदाई शुरू की—चट्टान कठोर थी लेकिन हथौड़े और छेनी से आसानी से कट रही थी.

तब तीसेक में से छह गुफाएं खोदी गईं—गुफा 9 और 10, खनिज रंगों के आकर्षक मेल से बौद्ध चित्रपट तैयार हो गए—जिसमें बुद्ध नहीं थे, जैसा कि उन पूर्व-महायान दिनों में चलन था. मैनेजर सिंह ने इंडिया टुडे को बताया, ''पूजा में इस्तेमाल होने वाले तेल के दीयों से कालिख की परतें जम जातीं. लेकिन चूने के प्लास्टर के बेस पर रंग चढ़ाए गए थे इसलिए क्षतिग्रस्त नहीं है.’’ अगली गतिविधि सात सदियों के लंबे ठहराव के बाद शुरू हुई, जब अजंता अपने पूर्ण आकार में प्रस्फुटित हुई.

इस बार, प्लास्टर या गारे में सुधार किया गया. वाघोरा नदी की मिट्टी में लाल मिट्टी, सिलिकेट युक्त रेत और धान की भूसी का मिश्रण बनाया गया. फिर चूने के पानी की एक परत चढ़ाई गई. फिर उस पर चर्बी डाली गई, जो गोंद का काम करे. फिर, चमकीले रंगों में जैसे अपने दिल को उड़ेल दिया गया, ठीक जैसे मौन को तोड़कर भाषा फूट पड़ती है. मैनेजर सिंह कहते हैं, मूल प्रिय रंग, पुरा-पाषाणकालीन भीमबेटका तक सभी तरह से एक ही रहा था—लाल गेरू, पीला गेरू, हरे रंग के लिए टेरावर्ट—लैम्पब्लैक के साथ, चूने से तीन तरह के सफेद, काओलिन मिट्टी  और सहज रूप से दिखने वाला अफगानिस्तान से लैपिस लाजुली भी जुड़ा (''पहले के चित्रों में नीला रंग बिल्कुल नहीं है’’).

शाश्वत सौंदर्य का आह्वान करने वाले कैनवास की रचना के संदर्भ में यह संपूर्ण जैविक प्लास्टर तकनीक के क्षेत्र में लंबी छलांग जैसा था. मैनेजर सिंह कहते हैं, ''रंग पक्के हैं.’’ लेकिन सौंदर्य की इस खोज में, 5वीं शताब्दी के भित्ति-चित्रों में अनजाने ही उनकी दीर्घायु को बलिदान कर दिया गया. आखिर, जैविक का अर्थ है क्षय. 

ईस्वी 480 के आसपास अजंता को अचानक और रहस्यमय  ढंग से उपेक्षित छोड़ दिए जाने के लंबे दौर में संस्कृति पर प्रकृति भारी पड़ गई. यह दौर 7वीं शताब्दी में ह्वेन त्सांग के इस बारे में बात करने के कुछ समय बाद शुरू हुआ. उस उपेक्षा के दौर में सूक्ष्म जीवों और कीट-पतंगों को समृद्ध कार्बनिक प्लास्टर में पनपने का खूब मौका मिला. खासकर सिल्वर फिश छेद कर देती हैं और प्लास्टर में वनस्पति मूल के सेलूलोज फाइबर और पशु प्रोटीन पर दावत उड़ाती हैं.

फिर, प्लास्टर के अंदर उनकी खुद की अनदेखी सामूहिक कब्र ने दूसरों के लिए अंतहीन भोज की व्यवस्था की. मैनेजर सिंह कहते हैं, ''एक सहस्राब्दी में उन्होंने अजंता के भित्ति चित्रों के एक-चौथाई हिस्से को नष्ट कर दिया.’’ ये अब भी ऐसा कर रहे हैं, जैसा कि 2021 में म्यूमिगेशन से पता चला. नीरी के अध्ययन में पाया गया कि माइक्रोकलाइमेट कीट लार्वा, प्यूपा और बैक्टीरिया, शैवाल, कवक, कीड़ों-मकोड़ों वगैरह के लिए मुफीद है.

उपेक्षा की उन शताब्दियों के दौरान रात में सिल्वर फिश बाहर निकलती, उन कीड़ों की एक पूरी शृंखला होती जो बदले में गुफाओं में राज करने वाले चमगादड़ों का भोजन बनती. अब उनके लिए दरवाजे बंद कर दिए गए हैं, लेकिन धीरे-धीरे सड़ने वाले यूरिया के साथ एक सहस्राब्दी के चमगादड़ों के अम्लीय मलमूत्र का जमाव अभी भी अपना काम कर रहा है. ये डरावने जीव, कीड़ों की दुनिया के अनजान अजूबे, असंख्य दरारों से टपकता बारिश का पानी, गुफा 10 के सामने गिरा एक शिलाखंड, अंदर तीन फुट तक पसरी गीली घास, यानी एक मायने में जंगल दरवाजे पर खड़ा था.

कुछ ऐसा ही हाल था अजंता का, जब 28 अप्रैल, 1819 को पहला यूरोपीय शख्स वहां पहुंचा था. शायद वह बाघ के शिकार के दौरान एक स्थानीय भील की अगुआई में वहां पहुंचा और इसमें कोई संदेह नहीं कि उसे वैसा ही एहसास हुआ था, जैसे टेंपल ऑफ डूम में इंडियाना जोन्स को हुआ था. फिर, वह उसी तोड़फोड़ को आगे बढ़ा गया जैसे बाकी लोगों ने भित्ति-चित्रों को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी. गुफा 10 के बाहर एक खंभे पर बुद्ध की बेरंग होती मूर्ति की छाती पर उसने चाकू से गोद दिया, जो अजंता के शिलालेखों की एएसआइ सूची में 'अतिक्रमण’; 'जॉन स्मिथ, 28वीं कैवलरी’ के रूप में दर्ज है.

भलमनसाहत का बुरा नतीजा 

औपनिवेशिक युग के हस्तक्षेपों पर नाराजगी जताना आसान है—उनके झुंड की डकैती के तरीके, शुरुआत में अजंता के भित्ति-चित्रों को 'बर्बर’ कहा जाना और, सबसे बढ़कर, प्रतिकूल नजरिए वालों की पुनरुद्धार के आदिम तौर-तरीके वगैरह. ट्रॉफी के शिकारियों ने भित्ति-चित्रों को काटा-पीटा. ब्राह्मी लिपि को डिकोड करने वाले जेम्स प्रिंसेप ने 1836 में लिखा कि एक डॉ. जेम्स बर्ड ने ''विरोध के बावजूद चार चित्रों को उखाड़ने की कोशिश की.’’ लूट के उन दिनों का एक, गुफा 16 से कनवर्जन ऑफ नंदा का 14&10 इंच का टुकड़ा बोस्टन म्यूजियम ऑफ फाइन आर्ट्स में है.

लेकिन दूसरा पहलू भी था. 1880 में प्रकाशित बर्गेस और फर्ग्यूसन का भारत की रॉक-कट गुफाओं का संपूर्ण अध्ययन व्यवस्थित रूप से एक भूले-बिसरे सौंदर्य ब्रह्मांड को सामने लाता है,  जो आज भी इस विषय पर ओल्ड टेस्टामेंट की तरह है. इसकी अनिश्चितता की आशंका भी शुरुआत से ही घर करने लगी थी.

मेजर रॉबर्ट गिल ने तीन दशक ''ऐडजुंटा में’’ बिताए, प्रत्येक भित्ति -चित्र की श्रमसाध्य नकल तैयार की (जो लंदन की आग में खाक हो गई). कला पारखी जॉन ग्रिफिथ्स ने 1872 में फिर नकल तैयार की (उनकी 125 में से अधिकांश प्रतियां 1885 में विक्टोरिया और अल्बर्ट संग्रहालय की आग में भस्म हो गईं). दोनों ने अपने तात्कालिकता के चक्कर में भित्ति-चित्रों पर वार्निश लगाई. यह विनाशकारी साबित हुई.

1884 तक रंग उधड़ने लगे. जापानी कलाकार कम्पो अरई की भी 1917 की प्रतियां आग के हवाले हो गईं. उन्होंने कहा कि वार्निश ने सतह को ''चिकना, बदसूरत’’ बना दिया और ''चित्रों का रंग बदल दिया था.’’ प्रकृति के कीट-पतंगों की टोली वहां मौजूद थी. महिला मताधिकार की पैरोकार लेडी क्रिस्टियाना हेरिंगहैम 1909-11 में तीन यात्राओं के दौरान भित्ति-चित्रों की नकल करने के लिए एडवर्डियन इंग्लैंड के पोम्पाडोर और खूबसूरत टोपियों को पीछे छोड़ आई थीं. उनके पति ने झल्लाकर लिखा, ''गहरे कोनों में रॉक कॉर्निस के बीच आवाज करते चमगादड़ ...’’ वे सभी घंटों मचान पर छत की ओर मुंह किए लेटे रहे, ताकि 5वीं शताब्दी की चित्रकारी की बारीक नकल निकाली जा सके, जबकि नीचे तेंदुए और भालू मंडरा रहे थे. 

फिर हैदराबाद के निजाम आए, जिनके राज में अजंता पड़ता था. उनके मशहूर पुरातत्वविद् गुलाम यजदानी ने 1930 तक पहली आधुनिक फोटोग्राफिक रंगीन और मोनोक्रोम प्रतिकृतियां बनाईं. उसी के आसपास, आधुनिक भारतीय कला अजंता में गहराई से रुचि ले रही थी. यूरोपीय आधुनिकतावाद से दूर बंगाल स्कूल का प्रसिद्ध 'इंडियन टर्न’  खिल रहा था. लेडी हेरिंगहैम की मदद करने वाले असित हलदार ने अजंता को अपनी कला में लगभग ज्यों का त्यों उतार दिया.

अजंता से साबका तूफानी तेवर वाली अमृता शेर-गिल के लिए भी परिवर्तनकारी था—अजंता की मायावी छायाएं उनकी दक्षिण भारतीय त्रयी में दिखती हैं. निजाम ने दुनिया के सर्वश्रेष्ठ पुनरुद्धार विशेषज्ञों में एक लोरेंजो सेकोनी को भी आमंत्रित किया, जिन्हें कभी मोना लिसा का निरीक्षण करने के लिए बुलाया गया था. अफसोस, यह तेज दोधारी तलवार साबित हुआ. यजदानी ने सोचा कि सेकोनी और उनकी सहायक काउंट ओरसिनी ने अजंता के जीवन को ''कम से कम कुछ शताब्दियों’’ तक बढ़ा दिया है.

मैनेजर सिंह अपने पूर्ववर्ती के काम के बारे में हल्की सहमति देते हैं, ''उन्होंने उधड़ते प्लास्टर को नहीं जोड़ा होता, तो भित्ति-चित्र कब के खत्म हो गए होते.’’ ''गुफा 1 के भीतरी गलियारे में जस्ता की एक नाली डाली गई’’ जिसने शायद प्रतिष्ठित पद्मपाणि को बचाया, जो हमारे कवर की शोभा बढ़ा रहा है. लेकिन विक्टोरिया दौर की क्षति की भरपाई करने की कोशिश कर रहे सेकोनी ने जिन उपायों का सहारा लिया, उन्हें आज प्रारंभिक विज्ञान की निर्दोष मूर्खताओं में शुमार किया जाता है. उन्होंने शराब, तारपीन, कास्टिक सोडा, हाइड्रोक्लोरिक एसिड, अमोनिया के पतले मिश्रण और, सबसे घातक, बिना ब्लीच किए शेलक की उदार कोटिंग का इस्तेमाल किया. आज, हम देखते हैं कि प्राचीन कला पर उसकी धूसर और धुंधली छाया पड़ गई है.  

तबाही का यह स्थल मैनेजर सिंह को विरासत में मिला. नए उपकरण मौजूद थे. मसलन, एक्स-रे फ्लोरेसेंस, एफटीआइआर स्पेक्ट्रोस्कोपी, वगैरह. उनकी टीम ने 1998 में काम शुरू किया. इंच दर इंच, गुफा दर गुफा आगे बढ़ते हुए, भित्ति-चित्रों से जितना संभव हो उतना घातक शंख, वार्निश और कालिख को निकाला.

रंगों के लिए साइक्लोडोडेकेन, 'गीले जापानी टिश्यू के साथ’ चमगादड़ के मल को साफ किया गया; मूर्तियों के लिए एथिल सिलिकेट; चट्टान के लिए वेकर का इस्तेमाल किया गया. ये अगली पीढ़ी के रसायन हैं, लेकिन हैं तो रसायन ही, हालांकि यह भी संदेह से परे नहीं है. नए प्रतिमानों की ओर तेजी से बढ़ रही दुनिया में नए उपाय भी हैं, जैसे सूक्ष्मजीवविज्ञानी हस्तक्षेप. आखिर, औपनिवेशिक काल में वार्निश का इस्तेमाल भी तो भलमनसाहत के साथ ही किया गया था. 

लेपन और क्षय रोकने की कोशिशें

ज्यादातर दर्शकअजंता में वास्तुशिल्प के एक अनूठे नमूने को देखने से चूक जाते हैं. यह है बहुत पैसे से बना 'अजंता विजिटर सेंटर’, जो पार्किंग क्षेत्र के बगल में ही है. जापानी इंटरनेशनल कोऑपरेशन एजेंसी (जेआइसीए) के उदार कर्ज से वित्त-पोषित यह अजंता-एलोरा विकास योजना (एईडीपी) फेज-2 और आधुनिक स्थल प्रबंधन का शोपीस है. इससे काफी बड़ी संख्या में पर्यटक महाराष्ट्र पर्यटन विकास निगम (एमटीडीसी) के साढ़े चार एकड़ में फैले म्यूजियम और प्रदर्शनी की ओर जाते.

इस तरह गुफाओं में पहुंचने वाली भीड़ कुछ कम हो जाती. दुनिया भर में यही तरीका अपनाया जाता है. 2010 में एलोरा के लिए स्थल प्रबंधन योजना तैयार करने वाली समिति के संरक्षक गुरमीत राय कहते हैं, ''चीन में मोगाओ गुफाओं के कुछेक मील के भीतर स्थित दो दर्शक केंद्र में ही 95 फीसद दर्शक खप जाते हैं, ज्यादातर संतुष्ट होकर और थककर लौटते हैं.’’ स्पेन के ऑल्टामीरा में हर हफ्ते सिर्फ पांच दर्शकों को इजाजत मिलती है. फ्रांस के लैसकॉ में तो काफी सख्ती है, उसमें किसी को जाने की इजाजत नहीं. दोनों स्थलों पर दर्शकों को गुफा कलाकारी की प्रतिकृतियां ही देखने को उपलब्ध हैं. 

भारत में ऐसे विजिटर सेंटर की कल्पना ’90 के दशक के मध्य में की गई; काम 2006 में शुरू हुआ. लागत छह साल में दोगुनी हो गई, 130.3 करोड़ येन से 261.4 करोड़ येन हो गई. चरण दो की सभी परियोजनाओं पर कुल 649 करोड़ येन का लगभग आधा आवंटित किया गया. विविध नाटकीय व्यक्तित्वों और संस्थानों ने इस कोशिश को सजीव बना दिया. मसलन, लार्सन ऐंड टुब्रो, टाटा कंसल्टेंसी, छाया ऐंड छाया, रामोजी राव स्टूडियो के अच्छे लोगों, विविध वास्तुकारों, शोधकर्ताओं, ठेकेदारों ने भी अपनी प्रस्तुतियां देकर पैसे बनाकर चले गए.

नतीजे प्रभावशाली हैं: भले ही इसका पॉलीकार्बोनेट शीट वाला केंद्रीय स्तूप परमाणु रिएक्टर जैसा दिखता हो. इसके नीचे एक विशाल फिल्म स्क्रीन है, जो एक फिश-आई प्रोजेक्टर और बड़े बोस स्पीकर से सुसज्जित है. यह सब एक सुंदर विशाल एम्फीथिएटर के इर्दगिर्द है. चार आदमकद गुफा प्रतिकृतियों, आरसीसी-स्टायरोफोम-कॉर्न मिश्रण से बने ज्वालामुखीय चट्टान के बीच भित्ति-चित्रों की विशाल ब्रोमाइड प्रतिकृतियां ठीक वैसा ही आभास देती हैं, जैसी वे हैं. इसके साथ कॉन्फ्रेंस हॉल, लाइब्रेरी, एक या दो बड़ा विशाल कैफेटेरिया. यह तब के इनक्रेडिबल इंडिया का हिस्सा था.!

यह आज भी है. लेकिन 2017 से बंद पड़ा है. हालांकि मध्य फरवरी में अचानक हुई गहमागहमी से जमी धूल उड़ने लगी, लंबे समय से जो सफाई लंबित थी. जी-20 जो आ रहा था! पूरा सेक्टर सक्रिय हो उठा. औरंगाबाद के फ्लाइओवरों के नीचे फूलों की क्यारियां सजने लगीं, और एलोरा के गेट के बाहर बुलडोजर दुकानों को ढहाने लगे.

हड़बड़ी में पीडब्ल्यूडी अजंता को जाने वाली सड़क के आखिरी हिस्से को दुरुस्त करने की समय-सीमा चूक गया था, सो, किसी ने सोचा कि प्रतिनिधियों को हेलिकॉप्टर से उड़ा ले जाया जाए. मानो फाहियान के कथन को लगभग हू-ब-हू सत्य करना था, जिसने 5वीं सदी की शुरुआत में कहा था कि सड़कें इतनी ''दुखदायी’’ थीं कि स्थानीय लोग हमेशा दर्शकों को उड़ते हुए अजंता जाते देखते थे. आखिरकार उड़ने की समृद्ध ख्वाहिश धरी रह गई. योजना रद्द हो गई और एलोरा की विचित्र प्रतिकृतियों पर जी-20 का बिल्ला लगाए महिला-20 की भद्र टोली लौट आई.

अमल की दरारें 

गुफाएं ऐसे बनाई गई थीं, ताकि सूरज की मद्धिम रोशनी ही अंदर आए, सीधे किरणें न घुसें. अजंता के घुमावदार कॉरिडोर से निकलने वाली कई रिपोर्टें भी दिन की रोशनी नहीं देख पाई हैं. नीरी की 2015 की रिपोर्ट एएसआइ की सुरक्षित आलमारी में बंद है. सीएसआइआर के धरोहर मिशन के तहत उसके बाद के अध्ययन भी शायद विरले दस्तावेजों में शुमार हों. जेआइसीए के तीन दशकों के काम के समय-समय पर सेल्फ-ऑडिट जरूर ऑनलाइन हैं. उसके तीखे निष्कर्ष अच्छी विनम्र भाषा में कमतर बयानी की मिसाल हैं (2017 की एक तालिका का फुटनोट कहता है, ''प्रशासकीय खर्च के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं कराई गई’’).

जेआइसीए की 2007 की रिपोर्ट में लिखा गया कि स्थानीय एएसआइ मैनेजर को पर्यटन प्रबंधन की जानकारी नहीं है और स्थानीय एमटीडीसी मैनेजर को धरोहर प्रबंधन के बारे में मालूम नहीं है. यह फांक नीचे हलके तक उतरती है. ये उस काम के लिए दो सज्जन हैं और साझा प्रबंधन की बात तो भूल ही जाइए, वे एक-दूसरे से बातचीत तक नहीं करते. एमटीडीसी का दायरा वहां शुरू होता है, जहां एएसआइ का खत्म होता है, यानी टिकट ऑफिस पर. स्थानीय अधिकारी तो विनम्र हैं, लगता है कि कोई समग्र नीति है ही नहीं. इसकी एक मिसाल तो विजिटर सेंटर ही है.

सभी स्थानीय छोटे व्यापारियों को 2002 में दो मील दूर घटिया-से 'शॉपिंग प्लाजा’ में जबरन विदा करने के बाद उसका पूरी कमाई पर एकाधिकार है, और हर मायने में पूरी की पूरी कमाई मुंबई पहुंच जाती है. सैयद मुमताज हुसैन ने अजंता के पास 1975 में पहली किताब की दुकान खोली थी, अब उनके बेटे नए स्थल से भद्दी कलाकृतियों की प्रतिलिपि बेचते हैं, ''कमाई आधी हो गई है.’’ पर्यटन से स्थानीय अर्थव्यवस्था में जान फूंकने की सभी सुंदर बातें नई दिल्ली के गलियारों में गूंजती हैं और यूनेस्को के खूबसूरत डोसियर में कैद रहती हैं.

यह एक और अजीब दुनिया लगती है, जो नेक इरादों से भरी हुई है, मगर बेहद धीरे सरक रही है. फिलहाल डब्ल्यूएचसी के लिए काम करने वाले द्रोण फाउंडेशन की संरक्षक शिखा जैन बताती हैं, ''विश्व विरासत समिति (डब्ल्यूएचसी) के नियम भी अभी तैयार ही हो रहे हैं. रेट्रोस्पेक्टिव स्टेटमेंट ऑफ यूनिवर्सल वैल्यू (आरएसओयूवी) को 2009 में पूर्व में दर्ज सभी स्थलों के लिए अनिवार्य बनाया गया. उसी के बाद स्थल प्रबंधन योजनाओं की बाढ़ आई.’’

अजंता के लिए आभा नारायण लांबा की योजना दर्जन वर्ष पहले ही तैयार हो गई. उसके आधार पर संरक्षक राधिका धूमल पुष्ट करती हैं कि उन्होंने दशक भर पहले आरएसओयूवी कर लिया था. डब्ल्यूएचसी ने उसे 2021 में ही अपनाया. हर छह साल पर समीक्षा के अलावा, संरक्षण की पूरी स्थिति रिपोर्ट आखिरी बार डब्ल्यूएचसी में 2002 में पेश की गई. इस बीच फर्क यह है कि कुछ और जगह के प्लास्टर झड़ गए.

फौरन कार्रवाई की जरूरत

असली दुविधा यह है कि पर्यटकों की आमद को कैसे देखें: यह बेहिचक भली है या अभिशाप? संकट अमूमन अति की हद तक प्रतिक्रिया पैदा करता है यानी फौरन फाटक बंद किया जाए. और जो अतिशय पर्यटन जोखिम से आंख मूंदे हुए हैं, उन्हें झिड़की मिलती है. पेरू को माचू पिचू केलिए यूनेस्को की कई चेतावनियां मिल चुकी हैं.

संख्या की समस्या को हल करने के लिए अजंता को हब बनाने का प्रस्ताव नासमझी लगता है (देखें, अजंता को कैसे बचाएं), लेकिन हर पक्ष के विशेषज्ञों को मिलाकर विशेष, बहुपयोगी निगरानी समिति बनाने की समग्र क्षेत्रीय योजना की कई शर्तें हो सकती हैं. मुंबई में जोगेश्वरी गुफाओं के लिए स्थल योजना तैयार कर रहीं धूमल कहती हैं, ''चट्टान काटकर बनाई गई गुफाएं भारतीय वास्तुशिल्प इतिहास का विशेष पहलू हैं. उनके लिए दीर्घावधिक निगरानी और नजरिए की जरूरत है.’’

फिलहाल, अजंता की बहूमूल्यता से शायद ही कुछ भी मेल खाती है. स्थानीय अर्थव्यव्स्था इससे एकदम अछूती है. बाकी बौद्ध गुफा स्थल उपेक्षा के शिकार हैं. इन सबको सामूहिक दर्जा दिया जाए? आइसीओएमओएस ब्रिटेन के पूर्व अध्यक्ष संरक्षक रिचर्ड ह्यूज कहते हैं, ''विलक्षण अंतरराष्ट्रीय मूल्य है, इसलिए मामला तो बनता है और ऐतिहासिक स्थलों के विकास का चलन भी है.’’

एएसआइ धरोहर स्थलों की अपनी ट्रस्टीशिप को अक्सर अपनी मिल्कियत मान बैठता है, इसलिए उसके और देश के सबसे काबिल संरक्षकों के बीच बड़ी खाई है, जो कभी अजंता में काम नहीं पाते. धर कहते हैं, ''एएसआइ की व्यवस्था ऐसी है कि जो भित्ति-चित्र संरक्षण में प्रशिक्षित न हो, वह कल के अजंता का प्रभारी बन सकता है. उसके ज्यादातर काम ठेकेदारों को दे दिए जाते हैं.’’ वे एक ऐसी बात भी बताते हैं जिसको लेकर अभी कानाफूसी भर है. ''उसके अपने कलाकार भित्ति -चित्रों पर काफी कूची चला रहे हैं.’’

बेशक, एएसआइ की अपनी प्रतिभाओं की इकलौती छतरी से बड़ी छतरी बेहतर ही होगी. पूर्व महानिदेशक गौतम सेनगुप्ता एएसआइ के लिए ''अधिक स्वायत्तता की मांग करते हैं. अजंता ऐसी केस स्टडी है जिससे पूरा सिस्टम एक्स-रे मशीन के नीचे आ जाएगा. यह अपनी धरोहर से हमारे रिश्ते की भी व्याख्या करता है. अजंता को याद करना एक शुरुआत हो सकती है. तब बुद्धभद्र की आशंकाएं दूर की जा सकती हैं कि अंत सांध्यवेला का प्रतिबिंब है.

2008-18 के दौरान हर वर्ष तकरीबन 4,00,000 लोग अजंता दर्शन को पहुंचे. पीक सीजन में  गुफाओं  में एक समय में करीब सौ लोगों की भीड़ होती है, जबकि 1985 के बाद से अधिकतम 40 लोग ही होने चाहिए

पहले अजंता के भित्ति -चित्रों को बचाने के लिए विशेषज्ञों ने भले कई तरह के संरक्षण के उपाय अपनाए, मगर  सरकारी लेट-लतीफी और उपेक्षा ने भारी नुक्सान पहुंचाया

एएसआइ की अपनी खामियां हैं, चाहे लेट-लतीफी हो या बाबूशाही. अजंता को बचाने की समन्वित और समग्र योजना के अभाव से समस्या और गंभीर ही होती गई है

चट्टान काटकर बनाई गई गुफाएं देश के वास्तुशिल्प इतिहास का अभिन्न अंग हैं. उनके संरक्षण के लिए दीर्घावधिक नजरिया और विशेषज्ञों की निगरानी जरूरी है, न कि कोई एकाधिकार वाला प्राधिकरण.

भित्ति-चित्र कैसे हो रहे बर्बाद

प्राकृतिक या मानव-निर्मित गुफाओं का अपना एक खास लघु वातावरण होता है, जो उसके पर्यावरण को संचालित करता है. अजंता की दुखती रग मिट्टी का गारा, बारिश के पानी का रिसाव, आर्द्रता, जिसमें फेरबदल होने से बड़ी मात्रा में सुक्ष्म जीव और कीट जन्म लेते हैं, उनके साथ चमगादड़ और मनुष्य की दखल भित्ति -चित्रों की तबाही ला रही है.

गारे के तत्व
लाल मिट्टी, चट्टान के चूरे और बालू के मिश्रण में 14 फीसद तक धान की भूसी मिलाकर बनाए गारे में सूक्ष्म जीवों के पनपने की वजह होती है, जिससे अजंता के भित्ति -चित्रों का 25 फीसद तक नुक्सान हुआ है. एलोरा के प्लास्टर में भांग या पटसन का इस्तेमाल है, जिससे अजीब रूप से सुक्ष्म जीवों के नुक्सान से बचाव हुआ है

पेंट फिल्म के तत्व
लाल, पीला, हरा रंग तो स्थानीय ज्वालामुखी के लावे से बनी चट्टानों से मिलते हैं, लैंपब्लैक या सूट, काओलिन मिट्टी और चूने से सफेद, अफगानिस्तान के लैपिस लाजुली से नीला. इन्हें एनिमल फैट से बने जैविक गोंद में मिलाया जाता है

चमगादड़
सदियों से झूलते चमगादड़ आज भी तबाही मचा रहे हैं, प्लास्टर और चट्टान की सतह में छेद कर देते हैं, उनके यूरिया से सैकड़ों कीट-पतंगे पलते हैं

रोशनी
अजंता में वर्षों से टंगस्टन, मर्करी और हैलोजेन बत्तियां जल रही हैं. फाइबरऑप्टिक्स, एलईडी कुछ कम गरम होती हैं, लेकिन सभी बत्तियां गर्मी छोड़ती हैं, जिससे भित्ति -चित्र धुंधले पड़ जाते हैं

सूक्ष्म जीव
नमी वाले मौसम में प्लास्टर के ऑर्गेनिक तत्व कई तरह की बैन्न्टीरिया, शैवाल, फंगस का भोजन और प्रजनन क्षेत्र बन जाता, ये गारे में गहरे पैठ जाते हैं और सतह में छेद कर देते हैं तथा क्षय बढ़ाने वाले एन्जाइम छोड़ते हैं 

कीट-पतंगे
जैविक क्षय से प्लास्टर में हुए छेद कीटों के अंडों, लार्वा वगैरह के लिए मुफीद होते हैं. अजंता के भित्ति -चित्रों को सबसे ज्यादा नुक्सान सिल्वर फिश (लेपिस्मा सैकचारिना) से हुआ है, जो कार्बोहाइड्रेट पर पलती हैं और प्लास्टर के भीतर रहती हैं. सिल्वर फिश वाघेरा नदी से आती हैं इसलिए रास्ते में पाइरेथ्रम (मच्छर भगाने की दवाइयों में इस्तेमाल होने वाला जहर) के छिड़काव से इनमें कमी आएगी

ऐतिहासिक भूलें
विक्टोरियन दौर के दो कलाकारों रॉबर्ट गिल और जॉन ग्रिफिथ ने अजंता भित्ति -चित्रों की नकल बनाने के लिए उन पर धड़ल्ले से वार्निश का इस्तेमाल किया. नामधारी इतालवी संरक्षक लोरेंजो सेकोनी ने 1920 में कोरे लाख का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया. ये दोनों ही कालांतर में तबाही का सबब बने, सतह फट गई और रंग बदलने लगे

छोटे मौसमी संकेतक
सापेक्ष आर्द्रता

उच्च आर्द्रता सूक्ष्म जीवों के लिए मुफीद होती है. 25 डिग्री सेंटीगेड पर स्थायी आरएच वैल्यू 55-60 फीसद चित्रों के लिए आदर्श मानी जाती है. लेकिन अजंता की आर्द्रता में काफी कमी-बेशी होती है. नीरी के एक अध्ययन से पता चलता है कि पर्यटकों के सांस और शरीर की गर्मी से आर्द्रता का स्तर काफी ऊंचा हो जाता है. इसके साथ गर्मियों में मिट्टी के ईंटों में नमी पैदा होती है, जिससे दरारें पड़ जाती हैं 

कार्बन डाइऑक्साइड
नीरी ने खासकर पर्यटकों की सांस से ही 836 पीपीएम जैसा उच्च स्तर दर्ज किया है. इससे सफेद रंग के कण ढीले पड़ जाते हैं

माइक्रोबॉयल लोड
आर्द्रता और गर्मी के असर से सूक्ष्म जीवों का स्तर बढ़ जाता है. नतीजतन, भित्ति -चित्रों में क्षय होता है.

अजंता को कैसे बचाया जाए

मौजूदा योजनाओं में विभिन्न स्थलों पर अलग-अलग ध्यान केंद्रित किया जाता है. आगे बेहतर रास्ता यही होगा कि सभी संबंधित स्थलों के लिए एक समग्र रणनीति बनाई जाए जिसमें पर्यटन, संरक्षण, शोध जैसी सभी जरूरतों को जोड़कर देखा जाए.

भारत में रॉक-कट आर्किटेक्चर केंद्रित यानी चट्टानों को काटकर बनाई गई इस तरह की सभी करीब 1,200 साइट को 'विरासत समूह’ मानकर एक एकीकृत प्रबंधन प्राधिकरण के तहत लाया जाए और अजंता को इसका नोडल सेंटर बनाया जाए. कंबोडिया का अंगकोर आर्कियोलॉजिकल पार्क हो या 121 'कल्चरल लैंडस्केप’ यूनेस्को अक्सर विरासत स्थलों को एक समूह के तौर पर देखता है

प्राथमिक स्तर पर संरक्षण की जिम्मेदारी संभालने वालों (एएसआइ, एमटीडीसी) को एक व्यापक निगरानी ढांचे की संभावनाएं तलाशनी चाहिए जो ऐसी अंतर-विषयक समिति हो सकती है, जिसमें विशेषज्ञ, वैज्ञानिक, यूनेस्को के प्रतिनिधि और फंड मुहैया कराने वाले शामिल हों. द्विवार्षिक आधार पर स्थलों की समीक्षा, वैज्ञानिक सर्वेक्षण, और जरूरी बदलाव जैसे कदम उठाए जाने चाहिए

अन्य स्थल इसलिए भी उपेक्षित रह जाते हैं क्योंकि सबका ध्यान विश्व धरोहर स्थलों पर केंद्रित होता है और वे न केवल पर्यटन का सारा भार वहन करते हैं बल्कि तमाम संसाधन भी सोख लेते हैं. पितलखोरा में द्वारपाल और अजंता में खंडहर बन चुकी पकी ईंटों के मठ में नजर आने वाला सूनापन, इसी विषमता को दर्शाता है. अगर एकीकृत योजना हो तो सभी को फायदा मिल सकेगा

हवाई अड्डे से महज आधे घंटे की दूरी पर स्थित एलोरा के विपरीत अजंता करीब 100 किमी दूर है और आतिथ्य सुविधाएं भी बेहद सीमित हैं. यहां अमूमन औरंगाबाद से पर्यटकों के दिनभर के लिए ही आने का एक पैटर्न दिखता है, जो स्थानीय अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने की संभावनाएं बनाता है

अब, इस क्षेत्र को एक केंद्र मानकर कल्पना करें—यहां एक आधुनिक आक्रियोलॉजी यूनिवर्सिटी, विरासत-स्थल के अनुरूप आतिथ्य सेवाएं और पूरी तौर पर एक 'हेरिटेज और नेचर सर्किट’ है, जो आसपास की विभिन्न साइट जैसे घटोत्कच, पितलखोरा, बनोटी वगैरह को भी जोड़ता है

सघन वन क्षेत्र में नहीं आने वाली इन्याद्री रेंज नेचर टूरिज्म के लिहाज से काफी शानदार जगह उपलब्ध कराती है—अजंता में लोग समृद्ध पक्षी जीवन का आनंद ले सकते हैं, ईबर्ड डॉट ओआरजी पर 152 प्रजातियां सूचीबद्ध हैं. बनोटी को एडवेंचरस ट्रेक में बदलने की जरूरत है

पर्यटकों, स्कॉलर, स्कूली बच्चों (जो यहां आने वालों का एक बड़ा हिस्सा होते हैं) के लिए आकर्षक प्रोग्राम कैलेंडर के साथ आगंतुक केंद्र को फिर से खोलें

नदी के दूसरे किनारे को एक विश्राम स्थल, जलपान गृह और घूमने-फिरने योग्य क्षेत्र—स्थानीय लोगों की भागीदारी के साथ—के तौर पर विकसित करें ताकि यहां आने वाली पर्यटकों के लिए घूमने का दायरा बढ़ सके

आगे क्या उपाय मुमकिन
भारत के संरक्षण विज्ञान को रसायनों के इस्तेमाल जैसी 20वीं सदी की प्रथाओं से आगे बढऩा चाहिए. विरासत स्थलों और पर्यावरण के अनुकूल जैविक उपाय दुनियाभर में आकर्षक संभावनाएं बढ़ा रहे हैं. सोलंटम, सिसिली (नीचे) में ग्रीको-रोमन साइट की फ्लोर मोजैक पर ऑरेगनो और थाइम जैसे पौधों का तेल काफी कारगर साबित हुआ है

सीएसआइआर-एनईईआरआइ जैसे संस्थानों को विभिन्न साइट से संबंधित वैज्ञानिक निष्कर्षों को सर्कुलेट करने के साथ-साथ इनके अनुवाद में तेजी दिखानी चाहिए और संरक्षकों का पूल भी अपडेट करते रहना चाहिए. भारत में एक ही जगह पर अटके रहने वाला नौकरशाही रवैया भी एक बड़ी समस्या है

भारत में शोध के लिहाज से एक बड़ी शून्यता है—दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण बौद्ध स्थलों में से एक के लिए हमारे पास बस कुछ गिने-चुने साइट एक्सपर्ट ही हैं. संरक्षणवादी संजय धर कहते हैं, ''चीन के मोगाओ में साइट पर हर समय 300 शोधकर्ता होते हैं, जो भूविज्ञान से पुरातत्व तक सब विषयों पर कुछ न कुछ अध्ययन करते रहते हैं’’

पर्यटन पर गंभीर समाजशास्त्रीय अध्ययन (उदाहरण स्वरूप 'प्रामाणिक’ और कैजुअल टूरिस्ट में स्पष्ट अंतर) पश्चिम की नीतियों के बारे में बताता है. वर्ग और 'रोमांटिक जोड़ों’ जैसे अद्वितीय पैटर्न पर अपनी अंतर्दृष्टि और पैनी करते हुए हमें भी अपने पर्यटन स्थलों से जुड़ी एक गंभीर श्रेणी पर ध्यान देना चाहिए

अन्य देशों का क्या है रुख
लासकॉ, फ्रांस (1), ऑल्टमीरा, स्पेन (2) और मोगाओ, चीन (3) पर्यटक प्रवाह को पूरी तरह या काफी हद तक मोड़ने के लिए प्रतिकृतियां/आगंतुक केंद्र (विजिटर सेंटर) का उपयोग करते हैं. मिलान के सांता मारिया डेले ग्राजी, जहां दा विंची का लास्ट सपर म्यूरल (4) संरक्षित है, एक समय में केवल 30 लोगों को ही जाने की अनुमति देता है. जापान के होरयूजी मंदिर के भित्ति -चित्र (5) तो ज्यादातर ताले में ही बंद रहते हैं. अजंता आगंतुक केंद्र (6) में इलेक्ट्रॉनिकली निर्धारित टाइम स्लॉट के साथ आने वाले पर्यटकों की संख्या नियंत्रित किए जाने को एक अनिवार्य हिस्सा बनाया जाना चाहिए.

अजंता को क्यों बचाएं?

अजंता में अंतर्मन छू लेने वाले कठिन ध्रुपद से लेकर विपुल खयाल तक, सबका अनुभव एक जगह पर ही होता है. एलोरा के ताने-बाने के साथ यहां हिंदू धर्म के आकृति विज्ञान का जादू भी दिखता है, जैसे कोई फोटोग्राफिक निगेटिव हो.

किसी भी हब के बारे में सारे सवालों के जवाब एक जगह पर ही आकर मिल पाते हैं, और वह है केंद्रीय गतिविधि स्थल के नाते उसकी अहमियत. आप अजंता को कला, राजनैतिक इतिहास या धर्म किसी भी नजरिए से देखिए: प्रतीकात्मक या ठोस किसी भी रूप में उसका कोई विकल्प नहीं मिलेगा, इसमें जितना कुछ खुले तौर पर दिखता है, उससे कहीं ज्यादा रहस्यमय भी बना हुआ है.

संरक्षक संजय धर इससे रू-ब-रू कराने की शुरुआत करते हैं. वे कहते हैं, ''यही वह जगह है जो सभी एशियाई कलाओं की जननी है.’’ जरा सोचिए, हमारे उपमहाद्वीप में सत्ता के इतिहास और उसके धर्म में अजंता की केंद्रीयता क्यों नजर आती है. दरअसल, यह प्रतीकचिह्नों का एक ऐसा खजाना है, जो हमें विरासत में मिला है.

शुरुआत कला से करते हैं. हम श्रीलंका में सिगिरिया से लेकर चीन में सिल्क रूट के आखिरी छोर पर स्थित मोगाओ गुफाओं, जापान के सात महान मंदिरों में से एक होरीयुजी तक के कारवां में एक बेहद अहम केंद्र बने अजंता के निशानों को साफ देख सकते हैं. धर कहते हैं, ''पूरा एशिया ही इस एक जगह का कर्जदार है.’’ हालांकि, इसके लिए जनक होना आवश्यक नहीं है.

हम नहीं जानते कि अजंता भारत में पहली बौद्ध चित्रित कला की निशानी है, या फिर इस तरह की एकमात्र जगह है. लेकिन यह ऐसी एकमात्र जगह लगती जरूर है. शैलीगत और विषयगत आधार पर अगर इसके अपने ही दो चरणों की प्राचीन कला के अन्य केंद्रों—मथुरा, गांधार, नागार्जुनकोंडा—और पश्चिमी भारत की रॉक-कट गुफाओं के पारिस्थितिकी तंत्र के साथ तुलना की जाए तो आधुनिक शोध में एक बेहद आकर्षक जातक स्वरूप सामने आता है.

भौगोलिक रूप से देखें तो अजंता प्राचीन व्यापारिक मार्गों उत्तरपथ और दक्षिणपथ के चौराहे पर स्थित है. इन सभी बातों को एक रूपक के तौर पर समझें. एक सहस्राब्दी तक आकार लेती रही यह कला दूर-दूर तक फैले एक महाद्वीप, एक बेहद ऊर्जस्वी सौंदर्यशास्त्र और पूरे प्राचीन भारत के बीच एक सेतु की तरह है.

धर्म की बात करें तो आप भारत में अपने विकास के दो भिन्न चरणों में बौद्ध धर्म के निशान देखेंगे, शुरुआती समय के सादा-सरल, मूर्तिविहीन स्तूप, जिसमें बुद्ध को सीधे तौर पर चित्रित नहीं किया गया है, और फिर सात शताब्दी बाद उनके पूर्ण साकार मानव स्वरूप में, बोधिसत्व जैसे महायान कुल के समांतर देवताओं के साथ. अजंता में अंतर्मन छू लेने वाले कठिन ध्रुपद से लेकर विपुल खयाल तक, सबका अनुभव एक जगह पर ही होता है. एलोरा के ताने-बाने के साथ यहां हिंदू धर्म के आकृति विज्ञान का जादू भी दिखता है, जैसे कोई फोटोग्राफिक निगेटिव हो.

आइए, अब दो महत्वपूर्ण तत्वों पर विचार करें. पहला है वास्तुशिल्प—गुफा. भीमबेटका और हजारों अन्य स्थलों पर 'प्रागैतिहासिक आध्यात्मिकता’ की अभिव्यक्तियों के समय से ही गुफाओं या कंदराओं की खास अहमियत रही है, इसमें एक पवित्रता अंतर्निहित मानी जाती है. यह थोड़ी अजीब बात है कि बौद्ध गुफाएं फिर बनाई गईं. दो सदी से जारी बहस का हिस्सा बने रघु राय के अंदर का कलाकार बेहद सहजता से इसका जवाब देता है.

जाने-माने फोटोग्राफर राय कहते हैं, ''अजंता की अधिकांश फोटोग्राफी फ्लैट, द्विआयामी, डॉक्यूमेंट्री विजुअल वाली रही है. मैं एक गुफा के अंदर होने के अनुभव को रिक्रिएट करना चाहता था.’’ अगर थोड़ा अलग नजरिए से देखें तो हिंदू धर्म से जुड़े माने जाने वाले एलोरा में गर्भगृह—यानी हिंदू मंदिरों का आंतरिक स्थल, दरअसल एक गुफा के अलावा और कुछ नहीं है, जिसे ब्रह्मांडीय गर्भगृह के तौर पर दर्शाया गया है.

अगली चीज है ऑप्टिकल गेम—जरा ठहरकर स्तूप की आकृति पर नजर डालें, और लिंगम को देखें...एक दिव्य अनुभव सिहरन पैदा करता है! वे आइसोमॉर्फिक हैं, एक समान आकार वाले. फिर एक जेनेटिक ट्रांसफर? शिव के शास्त्रीय शैववाद में आकार लेने की कल्पना करें, पूरी दुनिया से विरत एक तपस्वी, या विशुद्ध चेतना...वे बुद्ध अधिक लगते हैं. अब लगभग एक-समान स्कल्पचर क्लस्टर को ही ले लें—बुद्ध देवदूत नागों, और शिव के चिरपरिचित गणों से घिरे हैं. अमरता पर अजंता की परिकल्पना इस तरह की है, मानो यह भी संक्रमणकाल का कोई एक क्षण हो.

कला जहां विश्व के दो प्रमुख धर्मों के महत्वपूर्ण सूत्रों को जोड़ती है, वहीं एक तीसरा सूत्र भी इसी में समाया है, वह है राजनैतिक इतिहास. यहां, फिर, अजंता प्राचीन और मध्यकाल, जिसकी परंपरागत शुरुआत 500 ईस्वी से मानी जाती है, के बीच एक कड़ी है. 480 ईस्वी के आसपास साइट को ऐसे क्यों छोड़ दिया गया? बहरहाल, हम उस तारीख तक कैसे पहुंचे?

इसका जवाब, पहली बार 1953 में और अंतिम बार 2019 में अजंता आए मिशिगन के इतिहासकार वाल्टर स्पिंक के दशकों तक चले शोध में छिपा है. उन्होंने एक विद्वान के तौर पर अपना पूरा जीवन बेहद गहराई से शोध करने में गुजारा और छोटी-छोटी कड़ियों को जोड़कर एक वृहद तस्वीर सामने रखी. उनका 'संक्षिप्त कालक्रम’ बताता है कि अजंता में बाद के पूरे चरण—25 या उससे अधिक गुफाओं, और उनके भित्ति -चित्रों—का रचनाकाल सदियों में नहीं, बल्कि सिर्फ 460 से 480 ईस्वी के बीच सिमटा हुआ है.

वैसे तो इस पूरे पुनरुत्थान को दो दशकों में ही सिमटे होने का विचार विवादास्पद रहा है लेकिन दुनियाभर के अधिकांश विद्वानों ने अनमने ढंग से ही सही, इसे स्वीकार किया है. स्पिंक ने भारतीय इतिहास एक राजवंश के इर्द-गिर्द केंद्रित होने का दावा भी किया, जबकि तमाम आम लोगों ने तो इस वाकाटक राजवंश का नाम भी नहीं सुना होगा.

उन्होंने लिखा है कि हरिसेना, जिनके संरक्षण में ही अजंता की गुफाओं ने आकार लिया, ''उस समय भारत ही नहीं, संभवत: पूरी दुनिया में सबसे महान राजा थे’’ और यह भी कि ''गुप्तकाल में नहीं, बल्कि वाकाटक शासन के दौरान ही भारत का स्वर्ण युग अपने चरम पर पहुंचा था.’’

एक उल्लेखनीय दावे पर स्वीकृत इतिहास में खासे संशोधन की जरूरत है. रोमिला थापर की शोधपरक किताब अर्ली इंडिया (2002) में अजंता के संरक्षक राजवंश का जिक्र पृष्ठ 228 पर कुछ इस तरह के वाक्य के साथ आता है, ''वाकाटक उत्तरी दक्कन पर राज किया करते थे.’’ स्पिंक के विपरीत इसमें हरिसेना का उल्लेख तक नहीं है.

सारे इतिहासकार अजंता के एक शिलालेख पर आधारित उनके इस दावे का समर्थन नहीं करते कि हरिसेना ने भारत के एक तट से दूसरे तट तक अपना राज स्थापित किया था, लेकिन जैसा हम कहते-सुनते आए हैं, वाकाटक को केंद्र में रखकर हंस टी. बक्कर जैसे लोग एक नए और अधिक विस्तृत इतिहास का खाका तैयार कर रहे हैं.

और आखिर में, बौद्ध रॉक-कट गुफाओं की इनसाइक्लोपीडिया पर काम कर रहे राजेश कुमार सिंह अजंता की पहेलियों से जुड़ी एक अन्य आकर्षक थीसिस सामने रखते हैं—उसमें नाटकीय बदलाव लेकर आते हैं. उनका निष्कर्ष कहता है, डिजाइन के विकास से जुड़े साक्ष्य बताते हैं कि अजंता में तीर्थ वास्तुकला की पूरी रूपरेखा अपने दूसरे चरण के बीच अचानक बैक्ट्रिया और गांधार के कलाकारों के आ जाने की वजह से बदल गई थी, जो हुनिक युद्धों से भागकर आए थे.

इसमें केवल गूढ़ बौद्ध कला नहीं है, हमें इसके बीच में कुछ अनदेखे गांधार शिलालेखों के साथ हिंदू गर्भगृह का आकार लेना स्पष्ट दिखता है. कुछ अन्य लोगों की नजर में अजंता की दीवारों पर उकेरे गए भित्ति -चित्रों की सफाई स्पष्ट तौर पर 'विदेशियों’ के शामिल होने को दर्शाती है.

वे कौन थे? क्या वास्तव में उस भित्ति -चित्र में 'फारसी दूतावास’ था? स्वात में चांदी के कटोरे पर अंकित एक पक्षी गुफा-1 की छत के पैनल पर बने पक्षी की तरह क्यों दिखता है? इस तरह के तमाम सवालों का जवाब अबूझ पहेलियों में छिपा है, जिनके सुलझने का इंतजार किया जा रहा है.

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