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तीसरा ध्रुव बनने का इससे अच्छा मौका नहीं

एकध्रुवीय दुनिया के दिन लद गए, अब हम सही मायने में बहुध्रुवीय दुनिया की दहलीज पर खड़े हैं. ऐसे परिवेश में दुनिया की इकलौती स्वतंत्र ताकत के नाते भारत 'तीसरा ध्रुव' बनने की अनूठी स्थिति में

भू-राजनीतिः भारत का यूएनएससी की स्थाई सदस्यता पर दावा तब सही मायने में मजबूत होगा जब वह एक स्वतंत्र शक्ति के तौर पर सामने आए
भू-राजनीतिः भारत का यूएनएससी की स्थाई सदस्यता पर दावा तब सही मायने में मजबूत होगा जब वह एक स्वतंत्र शक्ति के तौर पर सामने आए
अपडेटेड 17 जनवरी , 2023

भारत @2023 : भू-राजनीति

किशोर महबूबानी, मानद फेलो, एशिया रिसर्च इंस्टीट्यूट, नेशनल यूनिवर्सिटी ऑफ सिंगापुर

पचहत्तर साल पहले मिली आजादी के बाद भारत आज भू-राजनैतिक  दृष्टि से अब तक की सबसे सुखद स्थिति में है. यह स्थिति है क्या? यह भारत के लिए खुद को दुनिया की इकलौती स्वतंत्र महाशक्ति के तौर पर पेश करने का मौका है.

यह स्थिति कैसे बनी है? इसका सरल जवाब यह है कि दुनिया आज मानव इतिहास के सबसे बड़े भू-राजनैतिक बदलाव के मुहाने पर है. हम एकध्रुवीय विश्व-व्यवस्था से एक बहुध्रुवीय, बहु-सभ्यता वाली व्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं. भू-राजनैतिक बदलाव नए अवसर लाया है, लेकिन इसके अपने खतरे भी हैं.

बेशक, यह भारी व्यवस्थागत बदलाव चीन के दोबारा उभार की वजह से हुआ है. यह बदलाव काफी स्वाभाविक है. वर्ष 1 से लेकर 1820 तक चीन और भारत दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं रही हैं. अब आखिर पिछले 200 साल के पश्चिमी दबदबे के अपवाद का अंत हो रहा है. चीन, भारत और अधिकांश एशिया की इस परिदृश्य में वापसी पश्चिमी विचारों और पद्यतियों की वजह से हुई है, पश्चिम को इसका स्वागत करना चाहिए. हालांकि पश्चिम इसे सिद्धांत के रूप में स्वीकार करता है मगर व्यवहार में नहीं.

मानव इतिहास की दूसरी महाशक्तियों की तरह ही अमेरिका भी दुनिया में अपनी नंबर एक की हैसियत बरकरार रखने के लिए हरसंभव कोशिश कर रहा है. अलबत्ता अमेरिका इनकार करता है कि उसने चीन के खिलाफ 'अंकुश लगाने' की नीति का दबाव बढ़ा दिया है, लेकिन फाइनेंशियल टाइम्स के एडवर्ड लुके और यूरेशिया ग्रुप के इयान ब्रेमर जैसे अनुभवी और प्रतिष्ठित पश्चिमी जानकारों ने पुष्टि की है कि 'अंकुश लगाया जाना' शुरू हो चुका है. तत्कालीन सोवियत संघ (यूएसएसआर) के खिलाफ प्रथम शीत युद्ध में भारत ने खुद को 'गलत पक्ष' में पाया और उसकी कीमत चुकाई. आज कुछ भारतीय जानकारों का मानना है कि भारत अब 'सही पक्ष' के साथ है. इसलिए, रणनीतिक सोच-समझ वाली भारतीय बिरादरी में एक मजबूत और ताकतवर तबका तैयार हुआ है, जो यह तर्क दे रहा है कि भारत को अमेरिका के साथ खड़ा होना चाहिए और ब्रिक्स के बजाय क्वाड को भारतीय विदेश नीति का मुख्य स्तंभ बनाना चाहिए.

चीन पर बनते अमेरिकी भू-राजनैतिक दबाव का फायदा उठाने का प्रलोभन समझ में आता है. यह आसान विकल्प मालूम होता है, जिसकी कोई खास कीमत नहीं चुकानी. हालांकि, अमेरिका का प्रत्यक्ष या परोक्ष सहयोगी बनने के नफे-नुक्सान का वस्तुपरक आकलन करें तो यह साफ दिखाई देगा कि ऐसा करके भारत वैश्विक व्यवस्था में एक स्वतंत्र तीसरा ध्रुव बनने का बड़ा भू-राजनैतिक अवसर खो देगा. और दुनिया को एक स्वतंत्र तीसरे ध्रुव की जरूरत है.

जरा अफ्रीका के 54 देशों की स्थिति पर गौर फरमाइए. 14 दिसंबर, 2022 को अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के साथ व्हाइट हाउस की बैठक में शामिल होने वाले अफ्रीकी नेताओं में से कई इस खुशामदी निमंत्रण से जरूर खुश हुए होंगे. लेकिन यह सोचना कि अब अमेरिका अफ्रीका की आंतरिक समृद्धि और सुंदरता को पहचान रहा है, खुद को धोखा देने जैसा है. अफ्रीका के अधिकांश नेता इतने समझदार हैं कि वे समझते हैं कि व्हाइट हाउस का यह निमंत्रण इसलिए आया क्योंकि चीन बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआइ) के जरिए अफ्रीकी देशों में पैठ बढ़ा रहा है. अगर अमेरिका अपने व्यापार और प्रौद्योगिकी युद्ध के जरिए चीन की अफ्रीका में बढ़त रोकने में कामयाब हो जाता है तो अमेरिका अफ्रीका के साथ वही करेगा जो उसने प्रथम शीत युद्ध के बाद किया.

हां, भू-राजनीति निहायत निर्मम होती है. पिछले 2000 साल यही बताते हैं. दूसरे विकासशील देशों की तरह अफ्रीकी देश अच्छी तरह से जानते हैं कि आने वाले दशक में अमेरिका और चीन की भू-राजनैतिक होड़ तीखी होती जाएगी और उन्हें कठिन विकल्प चुनने होंगे. किसी एक पक्ष की ओर झुकने और कुछ विकल्पों को छोड़ने के लिए मजबूर होने से बेहतर वे तीसरे रास्ते के रूप में एक स्वतंत्र ध्रुव की ओर जाना चाहेंगे. अगर एक भरोसेमंद स्वतंत्र ध्रुव उनके लिए मिसाल बनता है तो उनके लिए अमेरिका और चीन के दबाव को अनदेखा करना और बीच का रास्ता अपनाना आसान हो जाएगा.

हाल का इतिहास बताता है कि दुनिया स्वतंत्र शक्तियों का सम्मान करती है. दिवंगत पियरे ट्रुडो के नेतृत्व में कनाडा अमेरिका का सहयोगी बना रहा, लेकिन जरूरत पड़ने पर उसने वाशिंगटन को दो-टूक सलाह देने में हिचकिचाहट नहीं दिखाई. उनके नेतृत्व में कनाडा कभी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) का चुनाव नहीं हारा. हालांकि, जब कनाडा ने स्टीफन हार्पर और जस्टिन ट्रुडो के नेतृत्व में अपनी स्वतंत्र लकीर छोड़ी तो वह यूएनएससी के चुनाव हारने लगा. यही कारण है कि जापान एक बार यूएनएससी के लिए बांग्लादेश से हार गया था. संयुक्त राष्ट्र में एक अफ्रीकी राजदूत ने बड़ी सहजता से मुझे बताया: यूएनएससी में अमेरिका को एक अतिरिक्त वोट क्यों दें?

यूएनएससी का अगला स्थायी सदस्य होने का भारत का दावा बिल्कुल जायज है. मैंने पहले भी कहा है कि उसे तत्काल और बिना शर्त स्थायी सदस्यता मिलनी चाहिए. यह दावा तब और मजबूत होगा, जब अधिक से अधिक देश यूएनएससी में भारत के तत्काल प्रवेश की मांग करें. यह तभी संभव होगा जब भारत साफ-साफ एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में सामने आए.

भारत अगर स्वतंत्र रुख अपनाता है तो वह अमेरिका, चीन, रूस और यूरोपीय संघ जैसी सभी महाशक्तियों के लिए भी उपयोगी साबित हो सकता है. उनके गैर-जिम्मेदार और अड़ियल रवैए पर वह उन्हें स्पष्ट सलाह दे सकता है. मसलन, वह अंतरराष्ट्रीय कानून के मामले में चीन को बता सकता है कि दक्षिण चीन सागर में उसके नौ-बिंदुवार सीमा रेखा के दावे समुद्री कानून पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (यूएनसीएलओएस) के तहत बेबुनियाद हैं. वह अमेरिका और ब्रिटेन से विश्व अदालत के फैसले का सम्मान करने और डिएगो गार्सिया (चागोस द्वीपसमूह में एक प्रवालद्वीप) को मॉरिशस को सौंपने के लिए कह सकता है. एक प्रभावशाली तीसरे ध्रुव के ऐसे बयान इन मुद्दों के निस्तारण के लिए जरूरी दबाव बना सकते हैं. 

दुनिया में 2023 में सबसे बड़ा संकट यूक्रेन युद्ध है. सिर्फ एक देश ही रूस, यूरोपीय संघ, अमेरिका और यूक्रेन की गहरी संरचनात्मक चिंताओं के साथ रणनीतिक सहानुभूति दिखा सकता है और वह है भारत. भारत के पास 2023 में जी20 की अध्यक्षता एक अवसर है जिससे वह युद्धविराम कराने की कोशिश कर सकता है. इससे न केवल यूक्रेन के पीड़ित लोगों बल्कि दुनिया के गरीब लोगों की मदद होगी जो ऊर्जा की ऊंची कीमतों और अंतरराष्ट्रीय मुद्रास्फीति से त्रस्त हैं. अगर भारत इस कोशिश में नाकाम भी होता है तब भी उसकी वैश्विक प्रतिष्ठा बढ़ेगी क्योंकि दुनिया को यूक्रेन युद्ध में एक निष्पक्ष और संतुलित मध्यस्थ चाहिए.

कई लोग गलती से भारत के स्वतंत्र तीसरे ध्रुव के रूप में उभरने को पिछली 'गुट-निरपेक्ष' विदेश नीति की वापसी समझ लेते हैं. दरअसल, यह रुख भारत के पिछले गुटनिरपेक्ष रास्ते के ठीक उलट होगा. 1979 में क्यूबा में फिदेल कास्त्रो की ओर से आयोजित हवाना गुटनिरपेक्ष शिखर बैठक में भाग लेते समय मैंने श्रीलंका के तत्कालीन राष्ट्रपति जे.आर. जयवर्धने को सही कहते सुना था कि दुनिया में केवल दो गुटनिरपेक्ष देश हैं: अमेरिका और सोवियत संघ. भारत समेत दुनिया का हर दूसरा देश किसी न किसी रूप में इन दोनों के साथ था. 

आज के संदर्भ में कहें तो दुनिया में केवल दो वास्तविक गुट-निरपेक्ष देश हैं: एक तो अमेरिका और दूसरा चीन. यह साफ है कि अधिकांश देश इनमें से किसी एक के साथ जुड़ना नहीं चाहते (जैसा कि मैंने हैज चाइना वन? में लिखा है). इसके बजाए, दुनिया के अधिकांश देश तीसरा धु्रव चाहते हैं. तीसरा धु्रव बनने के लिए केवल एक ही देश सक्षम है, और वह है भारत. भू-राजनैतिक संदर्भ में कहें, तो यह भारत के लिए एक अद्भुत मौका है. उसे इसको बेकार नहीं जाने देना चाहिए.

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