यह पंजाब में संधि का समय है, ऐसा समय जब अलग-अलग तरह की सीमाओं पर चीजें एक-दूसरे से मिलती हैं और घुल-मिल जाती हैं, एक-दूसरे की गांठें खोलती हैं, दरारें भरती हैं और अपना सुख-दुख सुनाती हैं. हवा में सर्दियों की आमद के साथ बीतती शरद ऋतु की उमस घुलती जा रही है. नीचे एकड़ों में फैला हरा-भरा धान साफ किया जा रहा है, ताकि सुनहरी गेहुईं चादर दूर तक बिछाई जा सके.
हल गहरे खोदते हैं, आदमी के जेहन में, तो एक और ही तरह की फसल उग आती है. धर्म भारत की चेतना में गुणसूत्रों की तरह पिरोया हुआ है. वह हकीकत पर राज करता है, वह सामाजिक आचार-व्यवहार को आकार देता है, वह आगे बढ़ाता है और दिशा दिखाता है, और उसी शिद्दत से वह पराया बनाता और दो-फाड़ कर देता है. यहां पंजाब की घुली-मिली धरती के इतिहास में कुछ अनोखा और सीमाएं तोड़ने वाला एहसास पैदा हो रहा है.
दुनिया भर में पेंटेकॉस्टल मूवमेंट से प्रभावित करिश्माई ईसाइयत की एक लहर पंजाब में सैलाब सरीखी बन रही है और तमाम तरह की टकराहटों का एहसास जगा रही है. उस दायरे के भीतर पहुंच गए लोगों में उससे जुड़ाव और उम्मीद का गहरा एहसास है, तो उसे बाहर से देखने वालों में वह बेचैनी बढ़ा रही है. ये नई सरहदें हैं, जिनका पंजाब आदी नहीं है और नहीं जानता कि इसे कैसे संभाला जाए.
उस वक्त तक सब कुछ एकदम सामान्य दिखता है जब तक आप जालंधर के देसज शहरी माहौल से उसके एक छोर खंब्रा गांव की ओर रुख नहीं करते. रविवार को अंकुर नरूला मिनिस्ट्री पहुंचना दिल्ली के अक्षरधाम परिसर में जाने जैसा है; 65 एकड़ के इस परिसर का दायरा और भी बड़ा है. इसका आध्यात्मिक प्रभाव क्षेत्र से मेल खाता है. महज 37 साल के, जालंधर में संगमरमर का व्यापार करने वाले एक हिंदू खत्री परिवार में जन्मे, नरूला का गोल चेहरा-मोहरा आम मैनेजमेंट पेशेवरों जैसा ही है.
लेकिन वे जिस चर्च ऑफ साइन्स ऐंड वंडर्स के कर्ताधर्ता हैं, वह पंजाब के नए करिश्माई इदारों में सबसे बड़ा है. यह छोटे-मोटे साम्राज्य सरीखा है. पंजाब के नौ जिलों के अलावा बिहार और बंगाल के साथ अमेरिका, कनाडा, जर्मनी और ग्रेटर लंदन के हैरो में भी उसके ठिकाने हैं. 2008 में ईसाइयत में दीक्षित होने के बाद वे करिश्माई उपदेशक बन गए. शुरू में उनके तीन शिष्य थे. अब उनकी मिनिस्ट्री दुनिया भर में 3,00,000 अनुयायियों का दावा करती है, जो उन्हें प्यार से 'पापा’ बुलाते हैं.
अलबत्ता, उन्हें 'एपोस्टल’ या दैवीय प्रचारक कहलाना ही पसंद है. 2011 की जनगणना के आंकड़ों से इस संख्या का जरा मिलान करें, जब पंजाब में ईसाइयों की कुल संख्या 3,48,000 थी. यही वजह है कि दूसरे धर्मों के प्रतिष्ठान क्यों बेचैन होने लगे हैं. संख्या में इजाफे का डर ही दरअसल उन अटकलों को हवा दे रहा है कि हाल के वर्षों में ईसाई धर्मांतरण में तेजी आई है.
नरूला की मिनिस्ट्री में रविवार को कम से कम 10,000-15,000 की भीड़ जुटती है. सैकड़ों मोटरसाइकिलें, कारें और किराए की पीली स्कूल बसें धान के खेतों को पार करके बाहर विशाल पार्किंग में पहुंची हैं. परिसर के मेन गेट के बाहर चिप्स, कोक, लाइम सोडा, बर्गर के स्टॉल हैं. कुछ खोमचे वाले पापड़ बेचने के लिए धक्कापेल मचाए हुए हैं. परिसर के भीतर चार बड़े शामियानों में अत्याधुनिक वीडियो स्क्रीन और स्पीकर लगे हैं, इनके बीच से रास्ता विशाल निर्माणाधीन चर्च भवन तक पहुंचता है.
पूरा होने पर इसके एशिया का सबसे बड़ा चर्च बन जाने का दावा है. उपासना शुरू हो चुकी है. नरूला बर्मिंघम से लाइव हैं, जहां वे ब्रिटेन में चर्च ऑफ साइंस ऐंड वंडर्स की दूसरी शाखा का उद्घाटन करने गए हैं. सुरक्षाकर्मियों और सफेद-पहनावे में परिचारकों की एक कतार है. उन्हीं में से कुछ भारी जनरेटरों के बगल में तीन भाषाओं में बाइबल, नरूला की माई बुक ऑफ प्रोफेसीज और मिनिस्ट्री की पत्रिका के स्टॉलों पर हैं.
भदेस सुधारक
उसी रविवार की सुबह अजनाला से 100 किमी दूर का जरा रुख करते हैं. ग्रामीण पंजाब की सुस्त, शांत हवा. धूल की चादर ओढ़े गांव, तालाब में मड़िया लेती भैंसें और देहात को दोफाड़ करती, नहर के साथ मीलों चलती पक्की सड़क, ताजा कटे धान और पॉपुलर के पेड़ों के झुरमुट. सेहंसरा कलां गांव किसी शहरी मध्यवर्गीय मोहल्ले जैसा ही दिखता है: चमचमाता सफेद गुरुद्वारा और चौड़े खड़ंजों के दोनों तरफ शानदार घर, जिनकी बालकनियां शीशे और लकड़ी के काम से सजी हैं. हालांकि, थोड़ा अंदर घुसिए तो गलियां आम गांवों जैसी ही संकरी हो जाती हैं.
एक लंबा, सांवला आदमी बाइक पर जाता दिखता है. सफेद कमीज, भूरी पैंट, करीने से संवारी दाढ़ी और आकर्षक मुस्कान. कद-काठी से वह कोई पुलिसवाला और पोशाक से रविवार की ड्यूटी पर किसी पादरी-सा लगता है. दरअसल, गुरनाम सिंह दोनों हैं: एक ही काया में समाई दो विरोधी शख्सिकयत (देखें: ''मैं धर्मांतरण नहीं कराता’’). रास्ता एक और गुरुद्वारे के सामने पीपल की छांव में एक चौपाल तक जाता है.
सपाट-सी छत पर दो लाउडस्पीकर लगे हैं, टूटी-फूटी दीवार से लगी छोटी-सी किराने की दुकान है. बगल से एक गली उतरती है, जिसकी दाहिनी ओर चारदीवारी के भीतर छोटा-सा सफेद घर है. फाइबर ग्लास के दरवाजे. एक हुंडई इयॉन शान से खड़ी है. उसकी जालीदार छत पर लगा क्रॉस चौपाल से लगभग नहीं दिखता. तभी हालालुइया (गॉड की प्रार्थना) गूंज उठता है.
अंदर धीरे-धीरे उपासना गति पकड़ती है. हॉल छोटा-सा है जिसका प्लास्टर यहां-वहां से उखड़ा हुआ है. गुलाबी फीतों से सजे छोटे-से मंच पर एक युवक कीबोर्ड पर आसान बोल वाले गीत के जरिए मोक्ष की तस्वीर बयान करता है. एक तरफ दर्जन भर महिलाएं बैठी हैं; दूसरी तरफ कुछ पुरुष किसानों जैसी पोशाक और हर मौसम के थपेड़े खाए चेहरे के साथ बैठे हैं. उन्हें पता है, कब ताली बजाकर सुर ऊंचा कर देना है, और कब धीमा.
ऐसा लगता है, जैसे कोई कव्वाली हो रही है. युवक के सुर में सुर मिलाकर एक महिला गाती है. हालालुइया किसी देहाती कोरस में बदल जाता है, ठीक ऊंची सुरीली आवाज में जैसे जागरण गाया जाता है, बिल्कुल वैसा ही. पादरी वहीं बैठा, ताली बजाता, टहलता, सब पर नजर रखता है. दीवारों पर लगे पोस्टर में वह दिखता है. एक में वह नवविवाहितों को आशीर्वाद देता पगड़ी पहने पुलिसवाला है. दूसरे में वह सलवार कमीज में दो गोरी मेमों के साथ, बिना पगड़ी के पादरी की पोशाक में दिखता है: यह है 'बेथेल मसीह सत्संग.’
धर्म का प्रचार
मिलिए पंजाब के इन नए पादरियों से. इनमें करीब दर्जन भर बड़े नाम हैं: अमृत संधू, कंचन मित्तल, रमन हंस, गुरनाम सिंह खेड़ा, हरजीत सिंह, सुखपाल राणा, फारिस मसीह. इनके अनुयाइयों की बड़ी तादाद है. पंजाब में इनकी कई शाखाएं हैं और यूट्यूब पर इनके लाखों फॉलोअर हैं. इनमें हर तबके के लोग हैं: डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, पुलिस, नौकरशाह, कारोबारी और जमींदार जिन्होंने या तो अपना पेशा छोड़ दिया है या साथ में रविवार को प्रचारक की भूमिका भी निभाते हैं.
खंब्रा से कुछ मील दूर, कपूरथला जिले के गांव खोजेवाल में ओपन डोर चर्च अपनी पूर्वी यूरोपीय प्रोटेस्टेंट वास्तुकला से ध्यान खींचता है. यहां के आध्यात्मिक गुरु हरप्रीत देओल जट्ट सिख हैं, जो मेहमानों को चाय के साथ उबले अंडे पेश करते हैं (''तुस्सी अंडे खाओ’’).
बटाला के हरपुरा गांव के सर्जन-पादरी गुरनाम सिंह खेड़ा भी जट्ट सिख हैं. पटियाला के बनूर में चर्च ऑफ पीस के मित्तल बनिया हैं. और चमकौर साहिब के रमन हंस मजहबी सिख हैं. इनमें से कई निजी सुरक्षा गार्ड भी रखते हैं. देओल के कार्यालय में बड़े-बड़े बाउंसर और एक फिंगरप्रिंट युक्त सुरक्षा लॉक है.
इस कड़ी के दूसरे छोर पर गांव के पादरी हैं, साधारण आम आदमी. रविवार की प्रेयर अक्सर उनके अपने घर में ही आयोजित की जाती हैं. सेहंसरा के गुरनाम सिंह पंजाब पुलिस में एएसआइ हैं, अमृतसर में नारायणगढ़ के मनोहर सिंह छोटे कपड़ा व्यापारी हुआ करते थे, पादरी गजान सिंह अटारी में खेत मजदूर थे, और दलबीर मसीह वेरका में छोटे-मोटे दर्जी थे. ये सभी पंजाब के सांस्कृतिक प्रतीकों में रचे-बसे हैं.
जैसे, पगड़ी, लंगर (वे इसे जीसस दा लंगर कहते हैं), टप्पा गीत, गिद्दा नृत्य क्योंकि यह सब उनका अपना है. इसलिए उनके सत्संग आपको अलग न दिखकर उसी सिलसिले की कड़ी लगते हैं. इन्हीं गहरे राग-रंगों पर पादरी की शब्दावली चढ़ा दी जाती है, जो अमूमन देहरादून में न्यू थियोलॉजी कॉलेज या केरल में इंडियन बाइबल कॉलेज और सेमिनरी में प्रशिक्षण से हासिल होती है, लेकिन बोली पूरी तरह से स्थानीय. तभी दशमांश दान यहां दसवंड बन जाता है.
किसी पादरी के चमत्कार के दावे इस पर भी निर्भर हैं कि वह कितना नाटकीय है. और चमत्कारों से कुछ भी अछूता नहीं: भूत उतारना, कैंसर, जोड़ों का दर्द, बांझपन तक सबका इलाज, नशे की लत से लेकर नौकरी, वैवाहिक रिश्तों और वीजा तक एक भाव से मदद. कुछ ने तो मुर्दों को जिला देने का भी दावा किया है. हालांकि, जालंधर के ताजपुर गांव में रंगीनमिजाज विवादास्पद हरियाणवी जाट बजिंदर सिंह के चर्च ऑफ ग्लोरी ऐंड विजडम में चार वर्षीय कैंसर रोगी तनीषा की मृत्यु हो गई पर उपचार में आस्था बेरोकटोक चलती रही.
देओल की सुनिए, ''लोग इसकी सचाई पर सवाल उठाते हैं पर चमत्कार संभव हैं और आस्था के लिए अहम.’’ चमत्कार का तत्व सभी धर्मों में समान है. सूफी दरगाह, वैदिक यज्ञ, हरमंदिर साहिब के परिक्रमा पथ पर दुख भंजनी बेरी का पेड़, सभी चमत्कार के विचार पर आधारित हैं. और यह तर्क देना मुश्किल है कि आधुनिक भक्त वास्तव में इसमें विश्वास नहीं करते.
तो फिर क्या चीज है जो करिश्माई आस्थावानों को इनसे अलग करती है? पंजाब में पेंटेकॉस्टल मूवमेंट डेरा प्रमुखों की तरह विश्वास करता है कि विश्वास महज पूजा-पाठ के बजाए अनुभव केंद्रित होना चाहिए. कोई भी विश्वासी अपने भगवान की मौजूदगी का सीधा अनुभव कर सके. यही इसका मुख्य आकर्षण है.
इसके अलावा, 'इलाज’ कहीं अधिक मनोवैज्ञानिक और सामाजिक-आर्थिक रूपक हो सकता है. यहां के अधिकांश अनुयायी पंजाब के नौ सबसे शोषित दलित/आदिवासी समुदायों से आते हैं, जिन्हें समृद्धि के दायरे से बाहर रखा गया है: मजहबी सिख-वाल्मीकि, सांसी, राय सिख, बावरिया, बाजीगर, बराड़, बंगला, गढीले और नट. एक नजरिया इन दिनों धर्मांतरण को 'अवैध’ मानता है.
लेकिन जिंदगी में बेहतर अवसरों की चाहत, जाति के दंश से बचाव और अपने लिए एक समुदाय की भावना रखने में गलत या नाजायज क्या है भला? 2018 में यीशु की रोशनी में आने का दावा करने वाले अमृतसर के नारायणगढ़ के हरिंदर सिंह कहते हैं, ''मेरे बच्चे अब अच्छे स्कूलों में जा सकते हैं, अंग्रेजी सीख सकते हैं. पादरी एक मिल में नौकरी दिला रहे हैं. मुझे ग्रंथी साहब से इतना स्नेह कभी नहीं मिला.’’
भाजपा समर्थित दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी से माझा बेल्ट में सिख परिवारों के 'धर्मांतरण’ का मुकाबला करने भेजे गए कार्यकर्ता मंजीत सिंह भोमा भी मानते हैं, ''अगर ये ईसाई समूह बच्चों को शिक्षा, किताबें या स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच मुहैया करते हैं तो एसजीपीसी जैसे सिख संस्थानों को आत्ममंथन करना होगा कि इसमें गलत क्या है. जो लोग पाला बदल चुके हैं, उन्हें वापस लाना बहुत मुश्किल है.’’
पर इतना तो है कि बड़े पैमाने पर धर्मांतरण के इस भूत ने सभी पक्षों को हिलाकर रख दिया है. नव-ईसाई धर्म को बढ़ावा देने वाली ये तमाम मिनिस्ट्री पंजाब के 23 जिलों में फैली हुई हैं. माझा और दोआबा बेल्ट के अलावा मालवा में फिरोजपुर और फाजिल्का के सीमावर्ती इलाकों में सबसे ज्यादा सक्रियता है. कोई ठोस आंकड़े नहीं हैं पर एक अनुमान के मुताबिक पादरियों की कुल संख्या 65,000 है.
कैथोलिक प्रतिष्ठान जैसे मुख्यधारा के संगठन भी इस नए घटनाक्रम से हैरत में हैं क्योंकि पेंटेकोस्टलवाद से उनके अनुयायी भी छिटक रहे हैं. क्या वे सभी धर्मांतरण कर रहे हैं या केवल एक और पूजा स्थल पर सुकून तलाश रहे हैं जैसा कि भारतीय अपनी उदार धार्किता में करते हैं? शायद दोनों.
अधिकांश पादरियों ने इंडिया टुडे से दावा किया कि वे धर्मांतरण नहीं कराते, केवल इलाज करते हैं-और लोगों को ''दर्दनाक सच्चाइयों से बाहर निकलने’’ में मदद करते हैं. लेकिन यहां तौबा, पश्चाताप, और बप्तिस्मा की रस्म कराई जाती है. और पंजाब की 2.96 करोड़ आबादी के महज छोटे हिस्से में ही सही, इससे सहमत होने वालों की तादाद बढ़ रही है.
किसी भी धर्म को अपनाने, उसके अनुरूप जीने की आजादी देने वाले भारतीय संविधान में धर्मांतरण एक कानूनी अधिकार है. हालांकि, हाल के वर्षों में जबरन धर्मांतरण के आरोपों के बीच अलग-अलग राज्यों में धर्मांतरण विरोधी कानूनों की बाढ़ आ गई है. इनमें से कई को अदालत में चुनौती दी गई है क्योंकि इनमें 'प्रलोभन’ की परिभाषा कुछ ज्यादा ही विस्तृत है.
सिख धर्म खुद भी धर्मांतरण करवाता है और सैद्धांतिक तौर पर सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु है. शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) के अध्यक्ष एच.एस. धामी इस धार्मिक घटनाक्रम को ज्यादा तवज्जो नहीं देते. वे कहते हैं, ''लोग जिंदगी की समस्याओं के हल के लिए पादरियों के पास जाते हैं. देर-सबेर उन्हें सच्चाई पता चलेगी और वे मूल धर्म में लौट आएंगे.’’ हालांकि, कहीं न कहीं चिंता साफ दिखने लगी है.
एसजीपीसी ने 'घर घर अंदर धर्मसाल’ जैसे जवाबी अभियान शुरू किए हैं, जहां स्वयंसेवक सिख धर्म का प्रचार करने घर-घर जाते हैं. 5 सितंबर को आनंदपुर साहिब में अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने सिख समुदाय से धर्मांतरण पर अपने रवैये को लेकर पुनर्विचार करने को कहकर हड़कंप मचा दिया. पर इस रवैए के बावजूद पंजाब में लोभ-लालच से धर्मांतरण के संकेत आपको शायद ही कहीं मिलें. जैसे-जैसे कृपा प्राप्त हो रही है, लोग स्वेच्छा से उधर झुक रहे हैं.
लेकिन अब पानी नाक तक आ गया दिखता है. 29 अगस्त को निहंगों के एक समूह ने अमृतसर के दादुआना गांव में एक पेंटेकोस्टल चर्च में ''जबरन धर्मांतरण’’ का आरोप लगाते हुए एक कार्यक्रम में अड़ंगा लगाया. दो दिन बाद चार नकाबपोशों ने तरनतारन के ठक्करपुरा गांव में एक कैथोलिक चर्च पर हमला किया, गार्ड को पकड़ा और मूर्तियों को तोड़ दिया.
कैथोलिक प्रतिष्ठान ने शुरू में विरोध प्रदर्शन किया पर बाद में ''छोटी-मोटी छिनैती’’ की घटना बताकर इसे रफा-दफा करने की कोशिश की. और 8 अक्तूबर को एक नया पहलू जुड़ा जब दुबई से लौटे, 'दूसरे भिंडरावाले’ अमृतपाल सिंह ने रोडे गांव में अपने सम्मान के दौरान कहा कि ''जिन्होंने भी बेअदबी की, उन्हें न पुलिस को सौंपा जाएगा और न अदालतों में भेजा जाएगा. उन्हें हम सजा देंगे.’’
प्रतिक्रिया से निबटने की युक्ति
ईसाई कार्यकर्ताओं ने 18 अक्तूबर को विरोध प्रदर्शन किया, पर कुल मिलाकर वे डर गए हैं. इंडिया टुडे की टीम जिन पादरियों से मिली, उनमें से कई तस्वीर खिंचवाने से कतरा रहे थे. नरूला ने तो मिलने से भी इनकार कर दिया, हालांकि वे धर्मोपदेशों के जरिए सिख धड़ों के लगाए आरोपों का जवाब देते हैं. इस उठापटक ने पादरियों को एकजुट होने के लिए प्रेरित किया.
पिछले नवंबर में देओल ने पेंटेकोस्टल चर्च प्रबंधक कमेटी (पीसीपीसी) का गठन किया. उनके मुताबिक, अब 1,000 से ज्यादा पादरी पीसीपीसी के तहत पंजीकृत हैं. हालांकि अब राजनैतिक नुमाइंदगी की जरूरत महसूस की जा रही है और नरूला सरीखे बड़े नाम अपने नेटवर्क का इस्तेमाल कर रहे हैं. स्थानीय निकायों और पंचायतों में ईसाई सदस्य तो हैं पर पंजाब में ईसाई विधायक या सांसद नहीं हैं.
पंजाब के लिए ईसाई धर्म बेशक अजनबी नहीं है. 19वीं सदी के मध्य में इसका आगमन अनजाने में ही यहां के धार्मिक और सामाजिक जीवन की निर्णायक घटना बन गया. आर्य समाज की स्थापना 1875 में साफ तौर पर हिंदू धर्म के लिए उभर रहे कथित खतरों का प्रतिकार करने के लिए ही की गई थी—दयानंद सरस्वती यूरोपीय मिशनरियों की तरफ से की जा रही हिंदू धर्म की भर्त्सनाओं से आहत थे.
मगर इसने खुद ही ब्रह्म समाज के ईसाई रंगत में ढले सुधारवाद को अपना लिया था. जाति की ग्रंथियों से मुक्त दयानंद आंग्ल-वैदिक स्कूल और कॉलेज स्पष्ट रूप से ईसाई संस्थाओं के मॉडल पर बनाए गए (बाद में आरएसएस ने भी यही मॉडल अपनाया). फिर धर्मांतरित लोगों को वापस लाने के लिए चलाए गए आर्य समाज के शुद्धि आंदोलन ने भी वही महत्वाकांक्षा पाल ली जिसकी वह आलोचना करता था और इस कदर अपना ली कि वह विधि-विधान से पंजाबी धर्म—सिखी—के लिए खतरा बन गया.
और इस सिख धर्म ने खुद को परिमार्जित करने वाले आंदोलन के जरिए इसका जवाब सिंह सभा के रूप में दिया, जिसने खालसा को ब्राह्मणवादी रवैए से मुक्त किया. इसने इस दावे को भी धता बताया कि सिख धर्म व्यापक हिंदू धर्म का ही हिस्सा है. उसने इसे स्वायत्त धर्म के रूप में इसकी चौहद्दी बनाई और उस आधुनिक सिख धर्म को जन्म दिया जिसे आज हम जानते हैं.
इसका दूसरा गहरा असर जाति प्रथा पर पड़ा. 1873 में सिर पर मैला ढोने वाली जाति—जिसे अब वाल्मीकि (हिंदुओं में) और मजहबी सिख की उपाधि दी गई है—के ''एक लंगड़े, काले आदमी’’ दित्त सिंह ने सियालकोट में बपतिस्मा करवाकर पंजाब में ईसाइयत में धर्मांतरण की पहली लहर चलाई.
उनकी जाति के लोग स्वप्रेरणा से इतनी बड़ी तादाद में उनके पीछे चल पड़े कि चर्च भी इन सबॉल्टर्न अनुयायियों से भौचक रह गया. पर महाराजा रणजीत सिंह के बेटे दलीप सिंह (जो बाद में फिर अपने धर्म में लौट आए) या कपूरथला के 'राजा सर’ हरनाम सिंह सरीखी शख्सियतों के धर्मांतरण ने खासी खलबली मचाई थी.
आज के पंजाब में दलित कुल 31.9 फीसद हैं, जो किसी भी भारतीय राज्य में सबसे ज्यादा अनुपात है. और पहले सिर पर मैला ढोती रही जाति 13.5 फीसद (मजहबी सिख 10 फीसद, वाल्मीकि 3.5 फीसद) हैं. सबसे ज्यादा लांछित जाति होने के नाते सिर पर मैला ढोने वाली जातियां पहली अर्धशती के दौरान धर्मांतरित होने वालों में सबसे आगे थीं. कारण समझना मुश्किल नहीं: शुद्ध और सरल मुक्ति.
यह सदियों से चले आ रहे अपमान और शोषण की बेड़ियों से खुद को मुक्त करने का तरीका था. समाजशास्त्री मार्क जुरगेंसमायर ने 1982 की अपनी किताब रिलीजन ऐज सोशल विजन में लिखा था, ''पंजाब की ईसाइयत वस्तुत: अछूतों के उत्थान का आंदोलन बन गई, जो शायद आधुनिक इतिहास का पहला ऐसा आंदोलन था.’’ पहले-पहल धर्मांतरित लोग नए इलाकों में बस गए, खासकर जालंधर छावनी के आसपास तकरीबन पूरी तरह ईसाई गांवों में.
अविभाजित पंजाब की ईसाई आबादी 1870 में कुछ हजार से बढ़कर 1930 में पांच लाख हो गई. फिर यह लहर शांत पड़ गई. बंटवारे ने उनमें से बड़े हिस्से को रैडक्लिफ रेखा के दूसरी ओर रख दिया. फिर दशकों तक एक तरह से शांत मौजूदगी कायम रही और पुराने चर्च, स्कूल, कॉलेज और अस्पताल सरीखे समाज उपयोगी उपक्रम खोलते-चलाते हुए वे शहर के फलक पर काम करने लगे.
2003 में तब के अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष तरलोचन सिंह ने सिख प्रतिष्ठान, कैथोलिक और प्रोटेस्टैंट के बीच एक समझौता करवाया: यही कि धर्मांतरण वैसे धीमी गति से हो रहे हैं पर इन्हें भी बंद करवा दिया जाए. ईसाई समुदाय अब भी छोटा ही है. 2011 की जनगणना में पंजाब की आबादी में ये महज 1.26 फीसद जबकि सिख (57.7 फीसद) और हिंदू (38.5 फीसद) मिलकर 96 फीसद हैं.
दरअसल चीजें 2000 के दशक में तमिल ईसाई धर्मप्रचारक दिनकरण के आने के साथ बदलनी शुरू हुईं. उनका करिश्माई टूलकिट अमेरिकी टीवी इवेंजेलिस्ट के सांचे में ढला था. उनके बाद उनके साथी रहे नरूला सरीखे दूसरे लोगों ने पेंटेकोस्टल आध्यात्मिकता का पूरा गुलदस्ता सजा दिया—संगीत और नृत्य के जरिए परमेश्वर के साथ समागम, परमानंद की अनुभूति, धार्मिक चिकित्सा के चमत्कारिक कृत्य. पंजाब पहले से ही कई तरह के सदमों में डूबा रहा था—सालों का उग्रवाद, खेती का संकट, नशे से डूबी युवा पीढ़ी. ऐसे में 'उम्मीद दिखाते पादरियों’ के लिए यह उर्वर जमीन बना.
धर्मों की लोहभट्टी
लेकिन हकीकत में पंजाब धर्मों, पंथों और प्रतिस्पर्धी धर्म प्रचार के लिहाज से एक तपती हांडी बना रहा. 1891 की जनगणना तक 'अछूत’ जातियों को हिंदुओं में नहीं गिना जाता था. दरअसल सिर पर मैला ढोने वालों का अपना धर्म था—बाला शाही पंथ, जो 1884 में दर्ज रिचर्ड टेंपल के शब्दों में ''न हिंदू, न मुसलमान, बल्कि प्रीस्टहुड (पुरोहिताई) और अपने आप में अनोखे अनुष्ठान वाला’’ था. आर्य समाज ने बाद में बाला शाह को वाल्मीकि की रामायण से जोड़कर इसका हिंदूकरण कर दिया.
सिख धर्म की बाहरी परिधि वाले निरंकारी और नामधारी जीते-जागते गुरुओं में विश्वास करते हैं, तो राधास्वामी और डेरा सच्चा सौदा सरीखी उनकी दूर-दराज की शाखाएं भी. डेरा आंदोलन, जो हिंदू, सिख और सूफी इस्लाम का एक मिला-जुला आध्यात्मिक रूप पेश करता है, दरअसल एक इतर परंपरा है.
यह मुख्यधारा के धर्मों में कुलीन जाति के दबदबे की वजह से अलग-थलग पड़ गए दलितों को अपनी ओर खींचती है. डेरों ने भी अनुयायियों को आकर्षित करने के लिए रंगारंग समागमों और म्यूजिकल नाइट्स का इस्तेमाल किया, पर एक के बाद एक विवादों ने उन पर ग्रहण लगा दिया. पटियाला में रहने वाले टिप्पणीकार जयबैंस सिंह कहते हैं, ''वह जगह तुरत-फुरत चंगा कर देने वाले ईसाइयों ने हथिया ली.’’
मगर उससे पहले डेरा आंदोलन ने दलितों को ग्रामीण पंजाब में भू-अधिकारों के लिए आंदोलन चलाने और आम तौर पर जट सिखों के दमन के खिलाफ खड़े होने का आत्मविश्वास दिया. 20 फीसद से भी कम जाट राज्य की राजनीति में दबदबा रखते हैं—आजादी के बाद केवल दो मुख्यमंत्री, ज्ञानी जैल सिंह और चरणजीत सिंह चन्नी, गैर-जाट थे. जाट 93 फीसद खेतिहर जमीन के भी मालिक हैं और इस तरह ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करते हैं.
उन्हें पुलिस, अफसरशाही और न्यायपालिका के शीर्ष पायदानों पर भी पाएंगे. सिख संस्थाओं में उनका फरमान ही अंतिम है. मगर धार्मिक मामलों में भी विद्रोही भावना ने जड़ें पकड़ ली हैं. 2010 में डेरा सचखंड ने विवादास्पद ऐलान किया कि रविदसिए अलग धर्म के हैं और उनके पूजास्थलों में गुरु ग्रंथ साहिब की जगह संत रविदास की अमृतबानी होनी चाहिए.
मजहबियों, रामदसियों, जाटों और रामाग्रहिया सिखों सरीखे पिछड़ों के लिए अलग-अलग गुरुद्वारों के उभरने के साथ सिखी के भीतर जाति के आधार पर परस्पर दूरी वैसे भी साफ दिखाई देती है. अलग सामुदायिक विवाह स्थल और शवदाह गृह भी विरले नहीं हैं.
करिश्माई ईसाईयत के अक्षरधाम खंब्रा की ओर फिर लौटें. यहां की परमानंद की अनुभूति के धुंधलके में तमाम अहम सवाल हवा हो जाते हैं. कोई 5,000 समागमी भजनों पर झूम रहे हैं. आर्थिक दृष्टि में उनमें हर तबके के लोग हैं—उनमें से कुछ रविवार को डोसा खाने बाहर निकले मध्यवर्गीय पंजाबी परिवारों की तरह हो सकते हैं, जब तक कि आप उनके मिजाज को करीब से जाकर न भांपें.
एक युवा दंपती अपने सामने करीबी रिश्तेदारों की तीन तस्वीरें बिछाए बैठा है. एक गर्भवती महिला संजीदगी से तल्लीन है. खड़े हुए लोग गुलाबी रंग के पवित्र जल से भरी प्लास्टिक की छोटी शीशियां माथे से लगाते हैं और आंख मूंदे-मूंदे दूसरा हाथ इस तरह आगे फैलाते हैं मानो उन पर यीशु अवतरित हो रहे हों. यहां तक कि तैनात स्वयंसेवकों पर भी यही मनोदशा तारी हो जाती है.
यहां चार विशाल वीडियो स्क्रीन के सामने, जहां एक बहुत बड़ा सलीब मुख्य स्क्रीन पर एक लोगो की तरह घूम रहा है, आप अलग ही दुनिया में पहुंच जाते हैं: द ग्रेट इंडियन होप ट्रिक या उम्मीद जगाने का भारतीय करतब. शाम को 'इंस्टैंट हीलिंग टेस्टिमनी संडे डिलिवरेंस’ बैठक पेशेवर ढंग से आयोजित मंचीय शो है.
जिसमें रणनीतिक तरीके से कैमरे लगाए गए हैं और ज्यों-ज्यों संगीत ऊंचा उठता जाता है, श्रद्धालु एक के बाद एक मंच पर आकर बताते हैं कि किस तरह नरूला के जादुई हाथ ने उन्हें चमत्कारिक ढंग से चंगा कर दिया. महाराष्ट्र की एक लड़की कहती है, ''अंधे देखते हैं, बहरे सुनते हैं, लंगड़े चलते हैं, मेरा लकवा भी ठीक हो जाएगा...’’
बाहर धान के खेतों में घुमंतू गूजर आदिवासी अपनी भैंसों के लिए पराली (भूसे) के पूले उठाकर ले जा रहे हैं. मतलब, जितना भी वे उठाकर ले सकते हैं. बाकी जला दिए जाते हैं और पंजाब के ऊपर धुएं की चादर बनाने के काम आते हैं.
—सुनील मेनन.