
नौकरियां. यह शब्द चारों दिशाओं से मॢसये की तरह उठता है और हवाओं में स्थायी मातम की तरह दिखते रंग घोल देता है. अभी-अभी खत्म चुनावों पर भी, तेज बहती गुस्से की अंतर्धारा की तरह, इसकी रंगत चढ़ी थी, जो बदलाव को संभव बनाने से बस थोड़ा ही पीछे रुक गई. आप इसे नारों में सुनते हैं. आप इसे मुट्ठी भर सरकारी खाली पदों की हर घोषणा के जवाब में आवेदनों की सूनामी में देखते हैं.
आप इसे देश भर में दीवारों और पोस्टरों में देखते हैं और हर जगह उसके गवाह बनते हैं, जब लाखों छात्र रोजगार दिलवाने लायक बुनियादी पढ़ाई के लिए विदेश जाते हैं (यूक्रेन से पलायन के दौरान हमें इसका पैमाना समझ आया), जब महामारी के दौरान छंटनी की लहरें आती हैं, जब आर्थिक पलायन के आंकड़े आते हैं. उत्तर प्रदेश के जनादेश के वक्त फिर 'जाति से परे की राजनीति’ मुखर हो उठी. खासकर मतदान में शुद्ध आर्थिक वजहें प्रभावी दिखीं, उनमें एक बेरोजगारी थी.
राजनैतिक पंडित और एग्जिट पोल के महारथियों ने इसे 18-29 वर्ष आयुवर्ग के नौजवानों का मामला बताया. अगर ऐसा था, तो शर्तिया तौर पर इतना तगड़ा नहीं था कि नतीजों को बदल डालता. महज दो महीने पहले एक और सार्वजनिक घटना हुई थी. 25 जनवरी को नौकरी चाहने वाले हजारों नौजवानों ने बिहार के नवादा में ट्रेन के एक कोच में आग लगा दी. सीतामढ़ी, बक्सर, मुजफ्फरपुर, छपरा, वैशाली और गया में भी हिंसक प्रदर्शन हुए.
एक अखबार ने इसे देश का ''पहला बड़े पैमाने पर बेरोजगारी दंगा’’ लिखा. इन शब्दों में एक मिलती-जुलती छवि तैरती है. लेकिन इसे ऐसी घटना की तरह न देखिए, जो आई-गई हो गई, बल्कि किसी गहरे मर्ज का लक्षण है, एक महामारी का जो अब भी हमारे साथ मौजूद है और निकट भविष्य में फिर दिखेगी.
बिहार की और दूसरी अपेक्षाकृत कम हिंसक घटनाएं हमें उस संकट से चेताती हैं, जो बिलकुल नए घटनाक्रम की तरह उभर रहा है और वह है सरकारी नौकरियों के लिए सामूहिक जुनून. पहली नजर में तो यह विरोधाभास जैसा लगता है. उदारीकरण के बाद भारत के चौथे दशक में, दो पीढ़ियों तक सरकारी नौकरियों के सिकुड़ने की तमाम चर्चाओं और 'नई अर्थव्यवस्था’ के विस्फोट के बाद आपने उम्मीद की होगी कि इससे उलटा होगा? तो तय मानिए कि कहानी पटकथा जैसी नहीं है.

जुनून
एनएसएसओ के आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के मुताबिक पांच साल पहले भारत की बेरोजगारी दर 45 साल के सबसे ऊंचे मुकाम 6.1 फीसद पर थी. 2017-18 के आंकड़ों से पता चला कि हम सत्तर के दशक की शुरुआत के उस खौफनाक मुकाम पर पहुंच गए हैं, जहां छात्रों और मजदूर यूनियनों की बेचैनी ने देश की राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया था और एंग्री यंगमैन सरीखे रूपकों ने हमारी संस्कृति में स्थायी गहरी पैठ बना ली थी.
आबादी के आकार में भारी अंतरों के साथ तमाम अवधियों की तुलना करना सरलीकरण होगा, पर तो भी निष्कर्ष चौंकाने वाला है. वह यह कि सुधारों की एक-चौथाई सदी के बाद देश पलटकर नौकरियों के फिर उसी मुकाम पर आ गया है, जहां आजादी के बाद समाजवादी नीतियों के दौर की एक-चौथाई सदी पूरी होने पर था.
बाद का मोटा-मोटी इतिहास हम सब जानते हैं. अर्थव्यवस्था 2008 की वैश्विक मंदी के बाद गिरावट की ओर बढ़ने लगी. पिछले दशक में देश ने नोटबंदी, जीएसटी और आखिरकार कोविड की मार झेली, जिसने झटका खाए निजी क्षेत्र को लाखों नौकरियां घटाने पर मजबूर किया. सरकार ने खुद माना कि 2020 के लॉकडाउन के दौरान मैन्युफैक्चरिंग, निर्माण, व्यापार, परिवहन, शिक्षा, स्वास्थ्य, हॉस्पीटालिटी, आइटी/बीपीओ और वित्तीय सेवा के क्षेत्र में 23 लाख लोगों की नौकरी चली गई.
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइई) के मुताबिक, मई 2020 में बेरोजगारी दर 24 फीसद की ऊंचाई पर पहुंच गई, जब महामारी चरम पर थी. उसका यह तक कहना है कि देश की अर्थव्यवस्था में करीब 17 फीसद की हिस्सेदारी रखने वाले मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में नौकरियां 46 फीसद की गिरावट के साथ 2016-17 में 5.1 करोड़ से 2020-21 में 2.73 करोड़ पर आ गईं. यह मैन्युफैक्चरिंग में रोजगार को 10 करोड़ तक बढ़ाने के केंद्र के 2020 के मूल लक्ष्य को जबरदस्त झटका था.
बेरोजगारी दर उसके बाद थोड़ी घटकर कोविड-पूर्व अवधि के मुकाबले 7 फीसद के आसपास आ गई, लेकिन एनएसएसओ के इस हफ्ते जारी आंकड़े उस अजीब अनिश्चित स्थिति की ओर इशारा करते हैं, जिसमें हम फंसे हैं. अप्रैल-जून ’21 में शहरी बेरोजगारी दर 12.6 फीसद पर पहुंच गई. वह कोविड की दूसरी लहर का दौर था. हमारे चारों तरफ जड़ें जमाए बैठी मंदी अब तक पूरी तरह नहीं छंटी है.
यहां दो गोलघेरे हैं जिनमें एक पूरी तरह दूसरे के भीतर समाया है. ''सुरक्षित सरकारी नौकरी’’ का विचार, जो लौटता दिखता है, मुख्यत: चौतरफा पसरी उदासी का सूचक और संकट का बड़ा गोलघेरा है. कृषि को लीजिए. आप वही गुस्से और संकट की आवाजें सुनते हैं. हमारी अर्थव्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी महज 14 फीसद है, पर 42 फीसद कार्यबल इसमें लगा है. लेकिन उसकी रोजगार देने की क्षमता भी साफ-साफ सिकुड़ रही है,और आमदनी भी.

इसीलिए खेती की जमीन वाली मध्य जातियों—जाट, पटेल, मराठा—और उन्हीं की देखादेखी गुर्जरों सरीखे विस्थापित लाभान्वितों को हालिया वर्षों में ओबीसी आरक्षण की मांग को लेकर प्रदर्शन करते देखा गया. आरक्षण केवल एक दिशा में इशारा करती है—सरकारी नौकरियां.
सवाल यह है कि क्या सरकारी क्षेत्र इस बढ़ती नई मांग को शांत कर सकता है? संक्रमणकालीन अर्थव्यवस्था में बदलाव की तकलीफ से घिरा यह क्षेत्र कम वृद्धि के चक्रों से बामुश्किल ही सुरक्षित है. सीएमआइई का अनुमान है कि दिसंबर 2021 तक देश में 5.3 करोड़ लोग बेरोजगार थे. लेकिन सरकारी क्षेत्र के मौजूदा पद देश के10 फीसद बेरोजगारों को भी नहीं ले सकते.
केंद्र और राज्य तमाम खाली पड़े पद भर लें, तब भी तकरीबन महज 40 लाख लोगों को ही नौकरी मिल सकती है. कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) के पूर्व सचिव सत्यानंद मिश्र कहते हैं, ''इसमें यह मान लिया गया है कि नौकरी की तलाश करने वालों की संख्या इतनी ही रहेगी. हर साल करीब 1 करोड़ युवा कार्यबल में जुड़ रहे हैं. सरकार किसी भी तरह यह मांग पूरी नहीं कर सकती.’’ यही वजह है कि आपको जमीन पर वे हैरतअंगेज नजारे दिखते हैं.
बदहाली
इस पर गौर कीजिए: दिसंबर 2021 में ग्वालियर जिला अदालत में चपरासी, माली, सफाईकर्मी और ड्राइवर सरीखे पदों के लिए 15 भर्तियों की घोषणा हुई, तो तकरीबन 11,000 आवेदन आ गए. ज्यादातर नौकरियों के लिए शैक्षणिक योग्यता दसवीं पास थी. मगर इन 11,000 में ग्रेजुएट, पोस्ट-ग्रेजुएट, यहां तक कि एमबीए थे. यह अपवाद मामला नहीं है.

2018 में लगभग 3,700 पीएचडी धारकों, 50,000 ग्रेजुएट और 28,000 पोस्ट-ग्रेजुएट ने उत्तर प्रदेश पुलिस में संदेशवाहक के पद पर 62 भर्तियों के लिए आवेदन किया. आवश्यक न्यूनतम योग्यता कक्षा पांच थी. यहां आप दो स्तरों पर असंतुलन देखते हैं. खालिस तादाद और गुणवत्ता. नौजवानों को परवाह नहीं. उन्हें तो बस नौकरी चाहिए. इस साल गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर बिहार में यही हुआ.
फौरी वजह क्या थी? भारतीय रेलवे ने 2019 में 35,281 गैर-तकनीकी पदों के लिए परीक्षा आयोजित की. इसके लिए 1.25 करोड़ आवेदन आए, यानी एक पद के लिए 354 आवेदन. पहले चरण के नतीजे 15 जनवरी को घोषित हुए. आक्रोश की वजह थी योग्यता अंकों की संख्या में किया गया बदलाव और न्यूनतम कट-ऑफ निर्धारित करने की प्रक्रिया को लेकर भ्रांति. रेलवे भर्ती बोर्ड (आरआरबी) ने बाद में सफाई दी कि आरोप गलत थे. मगर व्यापम घोटाले के दिनों से ही यह प्रक्रिया लोगों की नजर में मजाक रही है.
अव्वल तो सार्वजनिक क्षेत्र में नौकरियों के सृजन की गुंजाइश सीमित ही है. तिस पर एक के बाद एक सरकारों ने मौजूदा खाली पदों को न भरकर और प्रक्रिया में आम लोगों का बढ़ता अविश्वास दूर करने के कोई कदम न उठाकर तकलीफ और बढ़ा दी. बिहार के बेरोजगारी दंगों सहित अभूतपूर्व हताशा के उन तमाम संकेतों के पीछे यही वजहें हैं. बेरोजगारी के खिलाफ जनमत को लामबंद करने में जुटे राष्ट्रव्यापी युवा आंदोलन युवा हल्ला बोल के अध्यक्ष अनुपम कहते हैं, ''यह अर्थव्यवस्था के संकट की झलक है.’’
ऐसा नहीं कि राजनैतिक दल संकट को स्वीकार नहीं करते. वे इसका इस्तेमाल अक्सर चुनावी नारे की तरह करते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में हर साल 2 करोड़ नौकरियों का वादा किया, तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 2021 में 1.5 करोड़ नई नौकरियों की बात कही. बजट 2022 ने अगले पांच साल के दौरान साठ लाख नौकरियों का कमतर लक्ष्य चुना. इन वादों के पूरा होने की तस्दीक का कभी कोई भरोसेमंद आंकड़ा नहीं होता, इससे पार्टियां ऐसे वादे करने से पीछे नहीं हटतीं, बल्कि शायद प्रोत्साहित ही होती हैं.
अनुपम सवाल करते हैं, ''उत्तर प्रदेश के प्रचार अभियान में कांग्रेस ने भर्तियों के लिए छह महीने के समयबद्ध कार्यक्रम का वादा किया. क्या राजस्थान और छत्तीसगढ़ में वे ऐसा कर पाए?’’ कमी से अस्पष्टता और अपारदर्शिता पैदा होती है. आंकड़ों के बारे में कोई स्पष्ट नहीं है. यहां बिहार की हिंसा में एक अंधकारमय विडंबना भी है. तीन साल पहले तब के केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि पांच साल में नौकरियों के लिए कोई आंदोलन न होना सबूत है कि नौकरियों का सृजन हो रहा है.
असल में नौकरियां हैं कितनी?
हकीकत यह है कि 2014 और 2020 के बीच केंद्र सरकार में नौकरियों के स्वीकृत पदों में ठीक 3,98,459 नए पद जुड़े. यह 11 फीसद की वृद्धि दर थी, जिससे केंद्र के कुल कमर्चारियों की संख्या 40 लाख से कुछ ऊपर पहुंच गई. यह शानदार मालूम देता है, मगर तभी तक जब आप इसके सामने यह तथ्य रखते हैं कि इसी अवधि में खाली पद दोगुने बढ़कर 4,21,685 से 8,72,243 हो गए. भर्तियां दर्दनाक ढंग से धीमी रहीं. केंद्र सरकार बीते पांच साल में जितनी भर्तियां कर सकती थी, उसने महज आधी 4,44,813 भर्तियां कीं.
इनमें से करीब 30 फीसद भर्तियां 2019-20 में रेलवे भर्ती अभियान की बदौलत हुईं. भारतीय रेलवे आखिरकार सबसे बड़ा केंद्रीय नियोन्न्ता है, जिसकी केंद्र की कुल नौकरियों में 35 फीसद हिस्सेदारी है. मगर वह भी भर्ती में सुस्ती के आम रुझान का अपवाद नहीं है. 2019 में तब रेल मंत्री पीयूष गोयल ने 2021 तक इस पीएसयू में 4,00,000 लोगों की भर्ती का ऐलान किया था. मगर 2019-21 में आरआरबी ने महज 1,34,220 भर्तियां कीं. बेरोजगारों का गुस्सा भीतर ही भीतर उबलता रहा. उन 35,281 नौकरियों के लिए जिन 1.25 करोड़ जरूरतमंदों ने आवेदन किए और जिनमें से सैकड़ों ने बिहार के कस्बों में गुस्सा निकाला, नतीजों के लिए ढाई साल इंतजार कर चुके थे.
भर्ती में हर जगह यही हीला-हवाला दिखता है. 14 फीसद नौकरियों वाले दूसरे नंबर के केंद्रीय नियोन्न्ता सशस्त्र बलों में 1,22,555 पद खाली हैं. इनमें अधिकारियों के भी करीब 10,000 पद हैं. (अब यह न सोचने लगिएगा कि 'दक्षताÓ के लिहाज से इसका क्या मतलब है). सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में कुल 41,177 पद खाली हैं.
केंद्र अन्न्सर बजट की परेशानियों पर दोष मढ़ता है, पर आंकड़े ऐसे दावों की तस्दीक नहीं करते. 2015 और 2020 के बीच सैन्य और असैन्य वेतन-भत्तों पर केंद्रीय खर्च वाकई 50 फीसद तक बढ़ गया, पर अगर आप इसकी तुलना जीडीपी में इसके हिस्से से करें, तो यह बढ़ोतरी मामूली 1.09 फीसद से 1.06 फीसद थी.
अगर केंद्र नहीं संभालता...
तो क्या राज्य संभालते हैं? देश के सार्वजनिक रोजगार में केंद्रीय रोजगार की हिस्सेदारी महज करीब 14 फीसद है. बाकी राज्यों के जिक्वमे है. लेकिन यह 'बाकीÓ कितना है, इसका कोई असल हिसाब नहीं है. आंकड़ों में काफी ऊंच-नीच है, किसी के पास असली आंकड़े नहीं हैं और जो आंशिक आंकड़ा उपलब्ध है, वह भी अति-सुरक्षित है. इसका 28 से 30 लाख का मोटा-मोटी आंकड़ा ही हमें मिल सकता है. असल गिनती किसी के पास नहीं, आंकड़ा घटता-बढ़ता रहता है और इसे खासी पहरेदारी में रखा जाता है.
मगर राज्यों के मौजूदा कार्यबल में 28-30 लाख की यह मोटा-मोटी गिनती ही लें और उसे खाली पदों के औसत के हिसाब से आंके, तो हम शर्तिया कह सकते हैं कि हर हाल में कुछ लाख नौकरियां रिक्त होंगी. ऑल-इंडिया स्टेट गवर्नमेंट एक्वप्लॉई फेडरेशन (एआइएसजीईएफ) का कहना है कि राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में 30 लाख खाली पद हैं.
वित्त वर्ष 2021 में राज्यों में 3,89,052 भर्तियां की गईं, जो बीते साल से 1,07,000 कम और धीमे-धीमे घटने के आम रुझान के अनुरूप थीं. केंद्रीय सांक्चियकी मंत्रालय के मुताबिक 2018-19 में राज्यों में कुल 5,42,504 यानी हर महीने 45,208 से कुछ ज्यादा नौकरियों का सृजन हुआ. 2019-20 में यह आंकड़ा घटकर 4,96,003 या 41,333 प्रति माह पर आ गया.
राजस्थान सरकार, जिसे सीएमआइए सबसे ज्यादा 'बेरोजगारी दरÓ (18.9 फीसद) का संदिग्ध गौरव देता है, बीते तीन साल में 1,01,164 भर्तियों का दावा करती है, फिर भी 2,00,000 खाली पद भरे जाने हैं! इसकी तुलना बीते चार साल में बेरोजगार ग्रेजुएट की तादाद में चार गुना बढ़ोतरी से कीजिए. राज्य के 65 लाख बेरोजगार युवाओं में 20.6 लाख ग्रेजुएट हैं.
उत्तर प्रदेश में क्या हाल है? राज्य के बजट दस्तावेजों से विभिन्न विभागों में 4,00,000 खाली पदों का पता चलता है. फिर भी करीब 30,000 पद भरने के लिए राज्य अधीनस्थ सेवा चयन आयोग (यूपीएसएसएससी) द्वारा आयोजित 20 से ज्यादा भर्ती परीक्षाओं के नतीजे बीते पांच साल से लटके हैं. कथित अनियमिताओं का नतीजा है कि ज्यादातर परीक्षाएं अदालतों की कार्यवाहियों में लटकी हैं.
दरअसल 2013 के बाद उत्तर प्रदेश में हुई 21 परीक्षाएं सीबीआइ के राडार पर हैं, जिसने पांच लाख से ज्यादा उम्मीदवारों का भविष्य अनिश्चितता की गहराती छायाओं में धकेल दिया है. इसके दुष्परिणाम त्रासद हैं.
प्रयागराज/इलाहाबाद में आते-जाते रहकर प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करने वाले दस लाख छात्रों के बदलते विशाल जत्थे की नुमाइंदगी करने वाली प्रतियोगी छात्र संघर्ष समिति के अनुसार, बीते दो साल में 50 से ज्यादा उम्मीदवार खुदकुशी कर चुके हैं. शहर में राज्य के कई बड़े चयन/भर्ती निकायों के मुख्यालय हैं और इन्हें एक परीक्षा की प्रक्रिया पूरी करने में अक्सर 'कम से कम तीन से चार साल’ का वक्त लगता है. लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति प्रो. रूपरेखा वर्मा कहती हैं, ''प्रतियोगी छात्रों की उम्र बढ़ती रहती है और उनमें से ज्यादातर अंतत: नौकरी की दौड़ से बाहर हो जाते हैं. हताशा उन्हें भयावह कदम उठाने को मजबूर करती है.’’
राज्यों की पड़ताल कीजिए और आप हर जगह वही व्यवस्थागत ढिलाई देखेंगे. सत्ताधारी पार्टी किसी भी विचारधारा की हो, काम एक ही करती है. ममता बनर्जी के पश्चिम बंगाल में 2,00,000 पद, भाजपा-शासित मध्य प्रदेश में 1,00,000 पद और उसके पड़ोसी कांग्रेस-शासित छत्तीसगढ़ में 80,000 से ज्यादा पद खाली पड़े हैं. भाजपा के 2018 के घोषणापत्र ने मध्य प्रदेश से सार्वजनिक और निजी क्षेत्र को मिलाकर हर साल 10 लाख नौकरियों का वादा किया.
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हाल में अकेले सरकारी क्षेत्र में सालाना 1,00,000 का आंकड़ा दिया. यह बेहद महत्वाकांक्षी लक्ष्य है, खासकर तब जब यह उससे कहीं ज्यादा है जो राज्य ने बीते पांच साल में कुल मिलाकर हासिल की, यानी तृतीय श्रेणी की नौकरियों में महज 95,453 भर्तियां. सामाजिक कार्यकर्ता और 'बेरोजगार सेना’ के प्रमुख अक्षय हुंका कहते हैं कि 2005 और 2020 के बीच सरकारी पदों में तीन फीसद की गिरावट आई है. वे कहते हैं, ''सरकारें सामान्यत: अपने कार्यकाल के पहले दो या तीन साल में भर्तियां नहीं करतीं... वे चुनाव नजदीक आने पर करती हैं. इससे खाली पदों में इजाफा होता रहता है.’’
कौन करेगा काम?
आंकड़े और भी भयावह तस्वीर पेश करते हैं. फिर, अधिकतर रिक्तियां तीन ऐसे विभागों में हैं जो लोगों की जिंदगी को सबसे अधिक प्रभावित करते हैं—स्वास्थ्य, शिक्षा और पुलिस. ग्रामीण स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-20 में पाया गया कि देशभर में इस क्षेत्र में विशेषज्ञ, सामान्य चिकित्सकों, नर्सों, तकनीशियनों और अन्य पैरामेडिकल कर्मचारियों समेत करीब 1,70,000 पद खाली पड़े हैं. ग्रामीण भारत में बुनियादी पोषण और बच्चों की देखभाल सेवाएं प्रदान करने वाली करीब 1,75,000 आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को नियुक्ति बाकी है.
अक्तूबर 2021 में यूनेस्को की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 10 लाख से ज्यादा स्कूल टीचरों की कमी है. पुलिस शोध और विकास ब्यूरो की ओर से संकलित आंकड़ों के मुताबिक, देशभर में 1 जनवरी, 2020 तक पुलिस बलों में 5,31,737 पद खाली थे. सबसे अधिक यूपी (जहां हाल ही में 'कानून-व्यवस्था’ सफल चुनावी नारा रहा) में 1,00,000 से अधिक पद खाली थे.
कुछ राज्य तत्काल सुधार की जरूरत पर बल दे रहे हैं. मसलन, असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा ने 10 मई तक 1,00,000 भर्तियां करने का लक्ष्य रखा है. इसमें से करीब 52,000 भर्तियां पुलिस, स्वास्थ्य और शिक्षा विभाग में होंगी. पुलिस में 5,000 पदों का सृजन शामिल है. उन्होंने वादा किया, ''इन तीनों विभागों में कोई भी पद खाली नहीं रहेगा.’’
सरकारें भर्तियां क्यों नहीं कर रही?
अधिकतर अधिकारी खुलकर बताने से कतरा रहे हैं, लेकिन वे स्वीकार करते हैं कि लागत में कटौती की अनिवार्यता की वजह से संविदा पर रोजगार की परंपरा अब आम हो चली है. केंद्रीय मंत्रालय के एक सचिव ने इंडिया टुडे से कहा, ''विभागों की क्षमता कम रखने का अनौपचारिक निर्देश मिला हुआ है.’’ इसलिए, जब भी कोई व्यक्ति सेवानिवृत्त होता है, उसकी जगह पर संविदा (ठेके) पर कर्मचारी बहाल किए जाते हैं, अमूमन कंसल्टेंट (सलाहकार) के रूप में.
कई मंत्रालयों को यह सुविधाजनक लगा है, क्योंकि इससे नियमित प्रक्रिया को दरकिनार करने की अनुमति मिलती है तथा समय और पैसे की भी बचत होती है. इस शॉर्ट-कट व्यवस्था के पैरोकारों का दावा है कि इससे न केवल काम पर रखना आसान होता है बल्कि दक्षता भी बढ़ती है. बंगाल के एक आइएएस अधिकारी कहते हैं, ''करो या हटो, के सिद्धांत पर आधारित ठेका नियुक्तियां काफी प्रतिस्पर्धी और उपयोगी साबित हो सकती हैं.’’
भारत में 'उपयोगी’ होने के अन्य मतलब भी हैं—अक्सर नेताओं के इशारे पर नियमित प्रक्रियाओं को टाला जाता है. अस्थायी कर्मिचारियों की नियुक्ति और फिर उन्हें निमयमित कर देना, निजी सिफारिशों का जरिया बनता है. यह कुछ किफायती भी होता है. भत्तों से छुटकारा मिलना ही यहां एकमात्र बचत नहीं है. यहां तक कि परीक्षाओं को आयोजित करने में भी भारी खर्च होता है. मुख्यमंत्री सरमा बताते हैं, ''करीब 1,00,000 लोगों की नियुक्ति करने में मेरी सरकार को 200 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ेंगे. उसके लिए मुझे पूंजीगत और राजस्व व्यय में कटौती करनी पड़ेगी, हालांकि इस अतिरिक्त श्रमशक्ति से राज्य को दूरगामी फायदा होगा.’’
तकनीकी विकास की वजह से भी सरकारी नौकरियों में कमी आई है. मसलन, इंटरनेट और स्मार्टफोन ने—आधिकारिक संचार के दायरे को छोड़कर—पत्र लेखन को खत्म कर दिया है. इससे डाक विभाग में श्रमबल की जरूरत घट गई है. निजी क्षेत्र की देखादेखी अपनाई गई प्रथाओं ने भी नौकरशाही के कामकाज में छंटनी की है और इससे लोगों पर निर्भरता कम हो गई है. दक्षता की बात के अलावा नौकरियों पर इसके असर को आधिकारिक रूप से बताया नहीं गया है—इस बीच वादों के जरिए जनता की उक्वमीदों की अवास्तविक प्रकृति अभी भी कायम है. 'सरकारी नौकरी’ का ख्वाब जिंदा है और जोर-शोर से चल रहा है, भले ही वह अनिश्चित हकीकत के धुंधले बादलों के पीछे छिपा हो.
केंद्रीय नौकरियों के नोडल मंत्रालय डीओपीटी के सचिव प्रदीप कुमार त्रिपाठी का कहना है कि यह मंत्रालय केवल भर्ती प्रक्रिया की सुविधा देता है. यह पूछने पर कि मंत्रालयों को डीओपीटी की ओर से दो रिमाइंडर—21 जनवरी, 2020 और फिर 3 जून, 2021—भेजे जाने के बावजूद कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई, उन्होंने इंडिया टुडे से कहा, ''नियुक्ति करना या नहीं करना, यह मंत्रालयों का विशेषाधिकार है.
केवल वे ही बता सकते हैं कि वे नियुक्तियां क्यों नहीं कर रहे हैं.’’ डीओपीटी के एक अन्य अधिकारी ने दावा किया कि कई मंत्रालय बजटीय प्रावधान किए जाने से पहले औपचारिक रूप से अपनी रिक्तियों का उल्लेख करने में विफल रहते हैं. कुछ नौकरशाह भर्ती करने वाले संगठनों को इसका जिम्मेदार ठहराते हैं—और इस तरह कहानी लटकती जाती है.
केंद्र सरकार में भर्तियां मुख्य रूप से चार संस्थान करते हैं—प्रशासनिक अधिकारियों का भर्ती करने वाला संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी); ग्रुप 'बी’ पदों और ग्रुप 'सी’ (क्लास III ) के अराजपत्रित कर्मचारियों की भर्ती करने वाला कर्मचारी चयन आयोग (एसएससी); रेलवे भर्ती बोर्ड (आरआरबी); और बैंकिंग कार्मिक चयन संस्थान (आइबीपीएस). एसएससी और आरआरबी अक्सर विवादों में घिरे रहते हैं.
2018 में एसएससी की एक परीक्षा में कथित पेपर लीक से सीबीआइ जांच करनी पड़ी. दिलचस्प यह है कि 2018 और 2020 के दौरान एसएससी ने सबसे कम उम्मीदवारों का चयन किया. यह 2016-17 या 2020-21 में की गई भर्तियों की एक-चौथाई से भी कम था. इंडिया टुडे ने एसएससी के तत्कालीन चेयरमैन असीम खुराना से संपर्क किया, लेकिन उनसे कोई जवाब नहीं मिला.
आरआरबी की परीक्षाएं भी भ्रष्टाचार के दाग से नहीं बच पाई हैं. 2010 में सीबीआइ ने करोड़ों रुपए के भर्ती घोटाले का पर्दाफाश किया था और परीक्षा के प्रश्नपत्र लीक करने के आरोप में मुंबई आरआरबी चेयरमैन के बेटे समेत आठ लोगों को गिरफ्तार किया था. विशेषज्ञों के मुताबिक, बिहार की हालिया घटनाएं तो महज लक्षण हैं. जेएनयू के सेंटर फॉर इनफार्मल सेक्टर ऐंड लेबर स्टडीज के पूर्व प्रोफेसर और अर्थशास्त्री संतोष महरोत्रा कहते हैं, ''आखिर इन परिणामों का ऐलान करने में दो साल से अधिक क्यों लग गए? इससे देश में बड़े पैमाने पर नौकरियों की संकट के प्रति सरकार के रवैये का भी पता चलता है.’’
कुछेक को छोड़ दें, तो अधिकतर राज्यों के पास कोई एकल भर्ती एजेंसी नहीं है. अधिकतर विभाग परीक्षाएं खुद आयोजित करते हैं या निजी एजेंसियों को ठेके पर दे देते हैं. ऐसे में हैरानी नहीं कि ये भ्रष्टाचार के आरोपों और उसके नतीजतन लंबी कानूनी जंग में उलझ जाते हैं. फरवरी 2017 में, बिहार पुलिस ने बिहार कर्मचारी चयन आयोग (बीएसएससी) के अध्यक्ष और वरिष्ठ आइएएस अधिकारी सुधीर कुमार के साथ-साथ बीएसएससी सचिव परमेश्वर राम को क्लर्क तथा सचिवालय सहायकों को भर्ती परीक्षा के प्रश्नपत्र लीक के आरोप में गिरफ्तार किया था.
राजस्थान में सितंबर 2021 में स्कूल टीचरों की भर्ती परीक्षा में प्रश्नपत्र लीक का मामला सामने आया! दो पेपरों में से एक रद्द कर दिया गया. ऐसे में 15,000 पदों के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहे 16 लाख आवेदकों के भी सपने टूट गए. उच्च प्राथमिक टीचरों (पांचवीं से आठवीं तक के) के चयन के लिए पश्चिम बंगाल स्कूल सेवा आयोग की ओर से आयोजित 2016 की भर्ती परीक्षा में भी ऐसे ही आरोप लगे और 28,900 उम्मीदवारों की किस्मत अधर में लटक गई. असम के पूर्व मुख्य सचिव कुमार संजय कृष्ण कहते हैं, ''कुछ पदों के लिए हद से ज्यादा संख्या में उम्मीदवार आवेदन करते हैं. इतने बड़े पैमाने पर परीक्षाएं आयोजित करने में मंत्रालय सक्षम नहीं हैं. सियासी हस्तक्षेप और आसानी से पैसे हासिल करने का लालच भी होता है. इससे ऐसी घटनाएं होती हैं.’’
क्या है आगे की राह?
विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि सरकार के पास अपनी भर्ती क्षमता बढ़ाने की बहुत सीमित गुंजाइश है. इसलिए सरकार को लीक से हटकर सोचना होगा कि वह क्या कर सकती है. डीओपीटी से पूर्व सचिव शांतनु कोंसुल का कहना है कि सरकार को संगठनात्मक ढांचे में पूरी तरह बदलाव करना होगा. वे कहते हैं, ''जैसे, अगर डाक विभाग में छंटनी होती है तो उससे शिक्षा और स्वास्थ्य में क्षमता बढ़ाने का मौका मिल सकता है.’’
प्रोफेसर महरोत्रा का भी कहना है कि सरकार को अनुपयोगी श्रमबल को कम करना चाहिए ताकि ऐसे क्षेत्रों में अवसर उत्पन्न हो सकें जहां तत्काल जरूरत हो—शिक्षा, स्वास्थ्य और पुलिस. पटना विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग के पूर्व अध्यक्ष एन.के. चौधरी का कहना है कि स्वास्थ्य और शिक्षा में निवेश भविष्य के अवसर पैदा करेंगे. अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक, कई सरकारें वास्तव में नए प्रयोग कर रही हैं. मसलन, बंगाल में प्रथम श्रेणी पाने वाले ऑनर्स स्नातकों के लिए इंटर्नशिप की शुरुआत की गई है. श्रम विभाग के एक सचिव ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर कहा, ''6,000 छात्र-छात्राओं को प्रशिक्षुओं के रूप में नियुन्न्ति किया जाएगा और उन्हें हर महीने 5,000 रुपए वजीफा दिया जाएगा.’’
सभी सहमत हैं कि पूरी प्रक्रिया को सुव्यवस्थित और साफ-सुथरा करने की जरूरत है. अनुपम कहते हैं, ''देश इतने बड़े पैमाने पर चुनाव करा सकता है तो परीक्षाओं के साथ भी वैसा क्यों नहीं कर सकता? सभी परीक्षाओं को अधिकतम नौ महीनों में पूरा किया जा सकता है.’’
इस मुद्दे को हल करने की खातिर मोदी मंत्रिमंडल ने केंद्रीय नौकरियों के लिए एक साझा प्रारंभिक परीक्षा आयोजित करने के लिए अगस्त 2020 में राष्ट्रीय भर्ती एजेंसी (एनआरए) का गठन किया—उत्तीर्ण होने वाला उम्मीदवार साझा पात्रता परीक्षा (सीईटी) के अंकों के साथ यूपीएससी और अन्य में आवेदन कर सकता है, और अंतिम चयन अलग विशेष परीक्षाओं पर निर्भर करेगा. सीईटी अंक तीन साल तक वैध रहेंगे. सरकार का कहना है कि इससे पूरी प्रक्रिया में ''काफी वक्त बचेगा.’’ कुछ विभाग दूसरे चरण की परीक्षा भी लेने के पक्ष में नहीं हैं.
कार्मिक और लोक शिकायत विभाग के केंद्रीय राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह के मुताबिक, एनआरए इसी महीने से काम शुरू कर देगा. असम ने भी ग्रेड 2 और 4 कर्मचारियों के लिए साझा परीक्षा शुरू की है. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कहते हैं कि छत्तीसगढ़ रोजगार मिशन का लक्ष्य अगले पांच साल में 12-15 लाख नौकरियां पैदा करना है. हालांकि, ऐसे वादे अतीत में वादे ही बने रहे.
दुश्चक्र का वह बड़ा घेरा जटिल बना हुआ है. हमारी आबादी में सालाना उछाल 1990 के शुरुआत में चरम पर पहुंच गया था और उसके बाद स्थिर है. ’80-90 के दशकों में हमने आबादी में सालाना 1.7-1.9 करोड़ लोगों को जोड़ा (इसके विपरीत, पिछले साल हमने केवल 1.3 करोड़ लोगों को जोड़ा है).
आखिरकार ये लोग काम करने की उम्र हासिल करेंगे और अर्थव्यवस्था में उन्हें भी जगह देनी होगी. सौभाग्य से, उसी अवधि में सुधारों ने विभिन्न क्षेत्रों को खोला. आंकड़ों के मुताबिक, उस दौरान लोगों को रोजगार मिला—1991-2012 के दौरान दो दशकों में 6.1 करोड़ नई नौकरियां पैदा हुईं, भले ही 90 फीसद नौकरियां अनौपचारिक क्षेत्र में थीं.
चाहे स्वरोजगार हो या कुछ और, हर क्षेत्र रोजगार में आए उछाल की पुष्टि करता है— निर्माण, रियल एस्टेट, टेलीकॉम, पर्यटन, खानपान, आतिथ्य, आइटी/बीपीओ या फिर एमएसएमई. लेकिन 2000 के दशक के आखिर में कहानी में कड़वाहट घुल गई. प्रजनन दर में गिरावट के साथ देश ने सुनहरे दौर में प्रवेश किया था—उन कुछेक दशकों में जब कामकाजी उम्र के लोगों की आबादी आश्रितों से अधिक हो गई थी.
'जनसंख्या लाभांश’ करीब 2005 से हासिल होना था और लगभग 2030-40 तक चलना था. दुर्भाग्य से, इसकी शुरुआत 2008 की वैश्विक मंदी के साथ हुई. हम जनसंख्या-लाभांश के बगैर रह गए. सड़कों पर जो आक्रोश नजर आ रहा है, उस नियति से चूक जाने का नतीजा है. हमें इतिहास की विसंगतियों को ठीक करना है—वह भी तेजी से.
—साथ में आशीष मिश्र, अमिताभ श्रीवास्तव, राहुल नरोन्हा, रोमिता दत्ता, रोहित परिहार और जीमॉन जैकब
30
लाख
खाली पद हैं विभिन्न प्रदेशों में, कई गैर-सरकारी आकलनों के मुताबिक
''1 लाख लोगों की भर्ती से मेरी सरकार का खर्च करीब 200 करोड़ रु. बढ़ेगा. मुझे पूंजीगत और
राजस्व खर्च घटाना होगा. ज्यादा कार्यबल से राज्य को लंबे वक्त में लाभ होगा’’
हेमंत बिस्वा सरमा
मुख्यमंत्री, असम
उत्तर प्रदेश: राकेश पाल, 28 वर्ष, बीएससी (रसायन शास्त्र)
नौकरी जिसके लिए आवेदन किया: रेलवे की गैर-तकनीकी श्रेणी
कुल खाली पद: ३५,२८१; कुल आवेदन: १.२५ करोड़
राकेश उत्तर प्रदेश के वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र में ग्रेजुएशन पूरा करने के एक साल बाद 2015 में जौनपुर स्थित घर से बाहर निकले. उन्हें उम्मीद थी कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के तजुर्बे से उन्हें ऐसी सरकारी नौकरी हासिल करने में मदद मिलेगी, जो रसायन शास्त्र की उनकी डिग्री के साथ न्याय करेगी. अपने सपनों की नौकरी उन्हें सात साल बाद भी नहीं मिली है.
आखिरकार हताश होकर 2019 में उन्होंने भारतीय रेलवे की गार्ड, क्लर्क और टाइमकीपर सरीखी गैर-तकनीकी लोकप्रिय वर्गों की नौकरियों के लिए आवेदन कर दिया. इस साल नतीजों का ऐलान होने पर उन्हें पता चला कि जिसे उन्होंने स्क्रीनिंग टेस्ट मान लिया था, उसमें उनके प्रदर्शन के आधार पर उन्हें स्तर-5 की नौकरी में रखा गया है.
मायूस राकेश कहते हैं, ''हमने सोचा कि पहला टेस्ट क्वालिफाइंग टेस्ट था और दूसरे टेस्ट के अंकों से तय होगा कि हमें किस स्तर की नौकरी के लिए चुना जाएगा. इसलिए हमने विरोध प्रदर्शन किए. तीन साल इंतजार करने के बाद भी हमें वह नौकरी नहीं मिली जो हम चाहते थे.’’ इस बीच, उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के कानून संकाय में नाम लिखवा लिया और वकील बनने की तैयारी कर रहे हैं.
केरल बशीर ए, 39 वर्ष, बीकॉम
नौकरी जिसके लिए आवेदन किया: वन पर्यवेक्षक, कोट्टायम जिला
कुल खाली पद: 12; कुल आवेदन: 2,700
केरल के तटीय इलाके में एक टूरिस्ट गांव पूवर के रहने वाले बशीर 18 साल से सरकारी नौकरी के लिए प्रयासरत हैं. बीकॉम की डिग्री के बाद, वे राज्य में सरकारी भर्तियों को संभालने वाली एजेंसी केरल लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षाओं में कई बार बैठ चुके हैं. 2018 में, उन्हें कोट्टायम जिले में वन पर्यवेक्षकों की भर्ती के लिए निकले 400 रिक्तियों की सूची में 187वां स्थान मिला था.
लेकिन पीएससी ने मेरिट लिस्ट में केवल तीन लोगों को नियुक्ति के लिए बुलाया. शेष पद अस्थायी नियुक्तियों से भरे गए थे. वैध मेरिट सूची के बावजूद मौजूदा रिक्तियों के लिए अस्थायी वन पर्यवेक्षकों की नियुक्ति के खिलाफ बशीर ने केरल हाइकोर्ट का दरवाजा खटखटाया. मामला अदालत में विचाराधीन है.
बशीर कहते हैं, ''मुझे उम्मीद थी कि मुझे यह नौकरी मिलेगी, क्योंकि लगभग 400 रिक्तियां थीं.’’ लेकिन तीन पदों को छोड़कर, बाकी को नेताओं या वरिष्ठ अधिकारियों की सिफारिश के आधार पर अस्थायी तौर पर भरा गया. बशीर कहते हैं, ''हमने 63 दिनों तक विरोध किया, लेकिन सरकार ने हमारी अनदेखी की. इसलिए, हमने अदालत का रुख किया.’’ बशीर केरल पीएससी रैंक होल्डर्स एसोसिएशन के महासचिव भी हैं.
उनका आरोप है कि सरकारी विभाग रिक्तियों का विवरण छिपाते हैं ताकि वे अस्थायी कर्मचारियों की नियुक्ति कर उन्हें 10 साल बाद नियमित कर सकें. इस बीच, बशीर अपनी पत्नी और छह साल की बेटी का भरण-पोषण करने के लिए एक दुकान चला रहे हैं.
मध्य प्रदेश रंजीत रघुनाथ, 26 वर्ष, बीएससी (कृषि)
नौकरी जिसके लिए आवेदन किया: कृषि विस्तार अधिकारी, म.प्र.
कुल खाली पद: 863; कुल आवेदन: 22,000
मध्य प्रदेश के देवास जिले के दवाथा गांव के रहने वाले रंजीत ने 2017 में कृषि में स्नातक की डिग्री हासिल की. तब से, वे कृषि क्षेत्र में सरकारी नौकरियों के लिए प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं. फरवरी 2021 में, वे ग्रामीण कृषि विस्तार अधिकारी की नौकरी के लिए एमपी प्रोफेशनल एग्जामिनेशन बोर्ड (एमपीपीईबी) द्वारा आयोजित प्रवेश परीक्षा में शामिल हुए, जिसे आम तौर पर व्यापम के रूप में जाना जाता है, और यह पद राज्य सरकार के तहत चतुर्थ श्रेणी की नियुक्ति होता है.
एक पेपर लीक की अफवाह और छात्रों के आंदोलन के बाद, राज्य सरकार ने परीक्षा रद्द कर दी और इस साल जनवरी में इसे फिर से आयोजित किया. निराश-हताश रंजीत कहते हैं, ''सरकार के कुप्रबंधन के कारण हमने अपनी जिंदगी का एक साल गंवा दिया.’’ उन्हें प्रक्रिया में सुधार या पारदर्शिता की बहुत कम उम्मीद है. अगर वे इस वर्ष इसे पास नहीं कर पाते हैं तो वे एक और प्रयास करेंगे. वे कहते हैं, ''उसके बाद, मैं कुछ और करने पर विचार करूंगा.’’
उत्तर प्रदेश राहुल मोडलवाल, 27 वर्ष, डिप्लोमा (ऑप्टोमीट्री)
नौकरी जिसके लिए आवेदन किया: सरकारी अस्पताल में ऑप्टोमीट्रिस्ट
कुल खाली पद: 46; कुल आवेदन: 525
यूपी के कौशांबी जिले के एक छोटे-से कस्बे सिराथू के निवासी, राहुल ने 2012 में 10+2 बोर्ड परीक्षा दी और उसके बाद पास के प्रयागराज के एक निजी संस्थान से ऑप्टोमीट्री (आंखों की जांच करने की पढ़ाई) में दो साल का डिप्लोमा कोर्स किया. उन्हें कई निजी अस्पतालों में ऑप्टोमीट्रिस्ट की नौकरी भी मिली, लेकिन महज 5,000 रुपये प्रति माह की मामूली तनख्वाह पर. हताश राहुल हमेशा सरकारी नौकरी की तलाश में रहते थे.
इसलिए, जब स्वास्थ्य विभाग ने 46 पदों के लिए ऑप्टोमीट्रिस्ट की भर्ती की प्रक्रिया शुरू की, तो राहुल ने इसके लिए आवेदन करने में कोई हीला-हवाली नहीं की. दुर्भाग्य से, उनका चयन नहीं हुआ. और उसके बाद से सरकार ने किसी ऑप्टोमीट्रिस्ट की भर्ती भी नहीं की है. अपने अंधकारमय भविष्य को देखते हुए राहुल अपने गृहनगर लौट गए और अपने पिताजी की मिठाई की दुकान में काम करने लगे. राहुल कहते हैं, ''मैंने सरकारी अस्पतालों में ऑप्टमेट्रिस्ट की भर्ती का इंतजार करते हुए बहुत वक्त बर्बाद कर दिया. सरकारी महकमों में कोई नौकरी नहीं है और निजी क्षेत्र में वेतन बेहद मामूली है.’’
राजस्थान
सुरभि पारीक, 22 वर्ष, बीएससी (जीव विज्ञान), बीएड (अंतिम वर्ष)
नौकरी जिसके लिए आवेदन किया: सीनियर सेकंडरी अध्यापक
कुल खाली पद: 31,000; कुल आवेदन: 16 लाख
बी कानेर की रहने वाली सुरभि ने सरकारी स्कूलों में सीनियर सेकेंडरी पदों के लिए राजस्थान एलिजिबिलिटी एग्जाम फॉर टीचर्स (आरईईटी) लेवल 2 परीक्षा में टॉप किया है. राजस्थान बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन की सितंबर 2021 में 31,000 नौकरियों के लिए आयोजित परीक्षा में 16 लाख उम्मीदवारों ने हिस्सा लिया. लेकिन टॉपर बनना सुरभि के लिए बुरे सपने जैसा साबित हुआ.
कई असफल रहे उक्वमीदवारों और दूसरों ने उन्हें धोखाधड़ी के लिए सोशल मीडिया पर ट्रोल किया. उनका मोबाइल नंबर सार्वजनिक कर दिया गया और उन्हें अपमानजनक कॉल आने लगे. इस महीने की शुरुआत में, मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी के आरोपों और लगभग 300 उम्मीदवारों के लीक हुए पेपर तक पहुंच की आशंका के बीच परीक्षा रद्द कर दी.
रद्द होने से न केवल सुरभि की सरकारी नौकरी की सुरक्षा की उम्मीद पर असर पड़ा है, बल्कि एक ओर सामाजिक दबाव भी बढ़ गया है. वे कहती हैं, ''कई लोग मुझसे कह रहे हैं कि जब तक मैं फिर परीक्षा में शीर्ष 10 में नहीं आती, इसका मतलब यह होगा कि मैंने पहली में धोखा किया था.’’ सुरभि अपने साथी रैंकधारकों के बारे में भी चिंतित हैं, खासकर गरीब और ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वालों के लिए इस प्रक्रिया में फिर से शामिल होने का मतलब एक बड़ा वित्तीय बोझ होगा.
उनमें से एक गांव का एक चरवाहा था और दूसरे को अपनी मां के आभूषण बेचने पड़े थे. सुरभि कहती हैं, ''सरकार को परीक्षा रद्द करने से पहले हमारे बारे में सोचना चाहिए था. मीडिया ने यह भी अनुमान लगाया कि अधिकांश उक्वमीदवार फिर से परीक्षा चाहते हैं. जाहिर है, असफल होने वाले 97 प्रतिशत लोग ऐसा चाहते हैं.’’
पश्चिम बंगाल जीनत असरीन, 32 वर्ष, बीए (बांग्ला साहित्य)
नौकरी जिसके लिए आवेदन किया: सेकेंडरी/हायर सेकेंडरी टीचर
कुल खाली पद: 17,400; कुल आवेदन: 3,00,000
जी नत, उन लोगों में से एक हैं जो पूरी तरह से निराशा में सड़क पर उतर आए हैं, शायद उन्हें लगता है कि वे अपने डिग्री पाठ्यक्रम में शामिल किसी उदास उपन्यास की किरदार हैं. बंगाल में स्कूल शिक्षकों की भर्ती में देरी का विरोध कर रहे उनके जैसे कई लोग हैं. वे पश्चिम मिदनापुर की रहने वाली हैं और उनकी शादी एक बेरोजगार पीएचडी धारक से हुई है, और वे 2016 से एक माध्यमिक /उच्च माध्यमिक शिक्षक की नौकरी पाने का इंतजार कर रही हैं.
वे 17,400 रिक्तियों के लिए तीन लाख आवेदकों में से एक हैं और मेरिट सूची में नाम होने के बावजूद उन्हें कभी बुलावा नहीं आया. आखिरकार, अपनी गर्भावस्था के दूसरे महीने में, वे भी विरोध प्रदर्शनों में शामिल हो गईं और उनका गर्भपात हो गया. अपना सब कुछ खोने के बाद प्रदर्शन स्थल पर लौट आईं जीनत कहती हैं, ''अब मुझे किसी बात का डर नहीं है. मेरे पिता 65 साल के हैं और उन्हें दिल का दौरा पड़ा. मैं परिवार चलाने के लिए ट्यूशन पढ़ाती हूं.’’ उच्च प्राथमिक शिक्षकों के चयन के लिए हुई परीक्षा भी अधर में है. उसमें 14,339 रिक्तियों के लिए 2,28,220 सफल परीक्षार्थी रहे और 28,900 साक्षात्कारों के बाद 2,032 अदालती मामले लगे हुए हैं.
कलकत्ता हाइकोर्ट ने अंतत: इस प्रक्रिया को रद्द कर दिया और स्कूल सेवा आयोग को पूरी प्रक्रिया दोबारा शुरू करने को कहा है. कथित अनियमितताएं अविश्वसनीय किस्म की हैं. अनुतीर्ण और किसी सूची में न आने वाले उम्मीदवारों को भी काउंसलिंग में बुलाया गया है. और जीनत जैसी योग्य उम्मीदवार पैनल में शामिल होने के बावजूद कहीं भी नहीं हैं.
बिहार गुलाब गौतम, 25 वर्ष, बीएससी (रसायन शास्त्र)
नौकरी जिसके लिए आवेदन किया: बहुपयोगी गैर-तकनीक स्टॉफ
कुल खाली पद: 20,902 कुल आवेदन: 30 लाख
वे बिहार सिविल सेवा सहित कई प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे होते, लेकिन गुलाब का दिल पुलिस सब-इंस्पेक्टर के पद पर टिका है. नवादा जिले के अकबरपुर गांव के रहने वाले गुलाब ने घर का आराम छोड़कर—जहां बिजली, इंटरनेट, टीवी, घर का पका खाना और बहुत सारी खुली जगह थी—हॉस्टल के 12 फुट 3 8 फुट के कमरे में रहना पसंद किया ताकि अपने जैसे लड़कों के साथ रह सकें. उन लड़कों के साथ रहकर, वे कहते हैं, ''उन्हें लगन बनाए रखने में’’ मदद मिलती है.
2019 में, गुलाब ने बिहार पुलिस और कर्मचारी चयन आयोग की परीक्षा में भर्ती के लिए परीक्षा दी, लेकिन किसी में भी पास नहीं हो सके. गुलाब कहते हैं, ''हम जैसे छात्रों के लिए सरकारी नौकरी ही एकमात्र उक्वमीद है.’’ उनके बड़े भाई सेना में नौकरी करते हैं और उनकी पढ़ाई का खर्च उठाते हैं क्योंकि उनके गरीब किसान पिता के लिए ऐसा कर पाना मुमकिन नहीं है.
गुलाब अपना खाना खुद पकाते हैं, उन्होंने पांच महीने से ज्यादा समय से टेलीविजन नहीं देखा है और यह याद नहीं है कि आखिरी बार वे कब सिनेमा देखने थिएटर में गए थे. उसके पास अपना कंप्यूटर नहीं है, लेकिन उनका मोबाइल फोन उन्हें परीक्षा सामग्री मुहैया कराने में मददगार है.