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आवरण कथाः वास्तविक अनियंत्रण रेखा

चीन तिब्बत के पठार पर अपने हवाई ठिकाने और सुविधाएं बढ़ा रहा है जबकि भारतीय सेना पाकिस्तान के साथ लगी पश्चिमी सीमा और चीन से लगती उत्तरी सीमा पर अपनी टुकडिय़ों की तैनाती में नया संतुलन बना रही है, लिहाजा, भरोसे की कमी और बातचीत प्रोटोकॉल के न होने का मतलब है कि हल्की गलतफहमी भी टकराव के मोर्चे खोल सकती है

पीछे हटने के मायने पूर्वी लद्दाख में पैंगोंग झील के किनारों से 16 फरवरी, 2021 को भारत और चीन के सैनिक और टैंक पीछे हटते हुए
पीछे हटने के मायने पूर्वी लद्दाख में पैंगोंग झील के किनारों से 16 फरवरी, 2021 को भारत और चीन के सैनिक और टैंक पीछे हटते हुए
अपडेटेड 4 अगस्त , 2021

उपग्रहों से प्राप्त तस्वीरें देखकर ऐसा लगता है जैसे धूसर रंग के तिब्बती पठार के सामने भूरे रंग का कंक्रीट से बना एक विशाल विमानवाहक युद्धपोत खड़ा है. सैटेलाइट तस्वीरें चीन की तरफ निर्माण की उन्मादी गति का प्रमाण देती हैं और हाल के वर्षों में यह सबसे तेज गति है. नए एयरफील्ड्स बनाए जा रहे हैं और पुराने एयरफील्ड में नए टैक्सी ट्रैक, एप्रन और लंबे रनवे जोड़कर उनका विस्तार किया जा रहा है.

लड़ाकू विमानों को तीन फुट मोटे कंक्रीट के ढांचे के बीच रखा जा रहा है जो मिसाइलों और हवा से गिराए गए प्रीसिजन बमों के हमले झेल सकते हैं. 100 किलोमीटर दूर से ही जहाजों को मार गिराने में सक्षम एचक्यू-9 मिसाइलें बेस के चारों ओर बने लॉन्च पैड में तैनात कर दी गई हैं.

तिब्बत के पठार में हर इलाके में विभिन्न सैन्य स्थलों में मई से ही ट्रकों में भरकर कंक्रीट पहुंचाया जा रहा है (ऊंचाई वाले इलाकों में मई-अक्तूबर निर्माण कार्यों के लिए आदर्श मौसम होता है क्योंकि कंक्रीट सर्दियों में आसानी से सेट नहीं होता है). एक सरकारी सूत्र ने जानकारी दी कि पूरे पठारी क्षेत्र में मौजूद ट्रकों की गिनती की गई तो 800 ट्रकों को विभिन्न साइटों पर काम करते पाया गया.

चीन, शिनजियांग में ताशकुरगन और तिब्बत में टिंगरी और दामसुंग में तीन नए हवाई अड्डों का निर्माण कर रहा है और काशगर, होतान, न्गारी-गुंसा, ल्हासा और बांगडा में मौजूदा अपने एयरबेस में बुनियादी ढांचे का विस्तार और आधुनिकीकरण कर रहा है. इस साल मार्च में स्वीकृत बीजिंग की 14वीं पंचवर्षीय योजना (2021-25) में तिब्बत में 20 बहुपयोगी हवाई क्षेत्रों का निर्माण प्रस्ताव शामिल था. चीन या तो एक पूर्ण युद्ध की तैयारी कर रहा है या नहीं तो कम से कम सीमा पर नए सिरे से युद्ध की स्थिति खड़ी करने की उसने तैयारी कर ली है. 

दो मोर्चों पर नई तैनाती
दो मोर्चों पर नई तैनाती

ऊंचाई पर लगभग चार वर्षों के बुनियादी ढांचे के निर्माण और सैन्य अभ्यास के बाद, मई 2020 में पीएलए (चीन की पीपल्स लिबरेशन आर्मी) ने पूर्वी लद्दाख में 840 किलोमीटर लंबी वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के लिए सेना की दो डिविजनों को रवाना किया था. लद्दाख में इतनी बड़ी तैनाती का पीएलए का कदम 1962 के भारत-चीन सीमा युद्ध के बाद से एलएसी को बदलने का उसका सबसे जबरदस्त प्रयास था और इसने दोनों देशों के बीच आपसी विश्वास-बहाली की तीन दशकों की कोशिशों को नष्ट कर दिया.

भारतीय सेना पहले तो इसे बस पीएलए डिविजन का नियमित युद्धाभ्यास मान रही थी, लेकिन वह हैरान रह गई और उसने भी दो पैदल सेना डिविजन (प्रत्येक में लगभग 15,000 सैनिक) को एलएसी की ओर रवाना किया और पूरी 3,488 किलोमीटर लंबी सीमा पर तैनात सेना को सक्रिय कर दिया. दोनों तरफ की सेना के आमने-सामने होने से पिछले साल 15 जून को गलवन घाटी में हिंसक झड़प हुई, जिसमें 20 भारतीय और चार चीनी सैनिकों की जान गई, जिसे नई दिल्ली अब चीन का दबाव बनाने का पैंतरा मानती है. 1967 के नाथू ला और चो ला की लड़ाई के बाद यह जान का सबसे बड़ा नुक्सान था. 

नौ महीने के गतिरोध के बाद 16 फरवरी को, दोनों देशों ने पैंगोंग त्सो के उत्तरी तट और झील के दक्षिण के मैदानों से अपने सैनिकों, टैंकों और तोपखाने को पीछे खींच लिया, जहां भारतीय सेना ने अगस्त 2020 में मोल्डो स्थित चीनी सेना के कैंप के सामने की ऊंची पहाडिय़ों पर कब्जा जमा लिया था. लगभग दो किलोमीटर तक पीछे हटने के बाद भी पूर्वी लद्दाख से सैन्य तैनाती में कमी या सेनाओं की पूरी तरह वापसी नहीं हुई है. भारतीय सेना चाहती है कि पहले पीएलए पीछे हटे क्योंकि उसे लगता है कि भारतीय सेना की तुलना में पीएलए ज्यादा तेजी से एलएसी तक पहुंच सकती है. इसलिए, अब एलएसी के दोनों तरफ करीब 2,00,000 सैनिक तैनात हैं.

भारत और चीन तीन जगहों—हॉट स्प्रिंग्स, गोगरा और देपसांग के मैदान—पर एक-दूसरे के सामने आखों में आंखें डाले जमे हुए हैं. लद्दाख काफी हद तक अत्यधिक ऊंचाई पर स्थित एक बंजर रेगिस्तान ही है लेकिन दोनों पक्षों के लिए सामरिक रूप से इसकी बड़ी अहमियत है. चीन ने मुख्य रूप से घुसपैठ लेह को भारतीय क्षेत्र के सबसे उत्तरी छोर से जोड़ने वाली महत्वपूर्ण डीएसडीबीओ सड़क के पास की है जिसकी हिफाजत दौलत बेग ओल्डी सैन्य चौकी करती है.

फरवरी 2021 के बाद
फरवरी 2021 के बाद

अक्साई चिन, जिस पर भारत अपना दावा करता है लेकिन 1962 के युद्ध के बाद से ही चीन के कब्जे में है, शिनजियांग को तिब्बत से जोड़ता है. इन गतिरोध बिंदुओं के अगस्त में किसी भी समय होने वाली कोर कमांडर स्तर की वार्ता के 12वें दौर में उठाए जाने की संभावना है. देपसांग पठार के लगभग दो-तिहाई हिस्से पर पीएलए का नियंत्रण है और वह पिछले साल से एलएसी पर पांच गश्ती क्षेत्रों में भारतीय सैनिकों को गश्त नहीं करने दे रही है.

भारतीय सेना ने 15 जुलाई की प्रेस विज्ञप्ति में उन मीडिया रिपोर्टों का खंडन किया, जिनमें कहा गया था कि फरवरी में सेनाओं के पीछे हटने की घोषणा के बाद भी भारतीय सेना और पीएलए के बीच झड़पें हुई थीं. इसमें कहा गया है कि 'दोनों पक्षों के बीच शेष मुद्दों को हल करने के लिए बातचीत लगातार जारी है, संबंधित क्षेत्रों में नियमित गश्त जारी है’, और जमीन पर स्थिति पूर्ववत बनी हुई है. भारतीय सेना सैनिकों की तैनाती समेत पीएलए की सभी गतिविधियों की निगरानी कर रही है. 

दो एशियाई दिग्गज अत्यधिक ऊंचाई वाले युद्ध क्षेत्र में अपनी तैयारियां चाक-चौबंद करने में जुटे हैं और चीनी वीकी (चीन की व्यूहरचना) चालों का माकूल जवाब देने के लिए भारत ने भी चतुरंगा व्यूह तैयार किया है. इस युद्ध में टैंक, सैनिक, मिसाइल और लड़ाकू जहाज, बड़ी भूमिकाएं निभाएंगे. 

भारतीय सेना, जिसने कभी पंजाब के मैदानी इलाकों और थार रेगिस्तान की रेतीली धरती पर युद्ध के लिए बड़े पैमाने पर योजना बनाई और तैयारियां की थीं, अब अत्यधिक ऊंचाई वाली मरुभूमि पर लड़ने के लिए खुद को तैयार कर रही है, जिसे दुनिया का सबसे मुश्किल युद्ध क्षेत्र माना जाता है. उत्तर की ओर बढ़ रहे इस कदम को आधिकारिक भाषा में 'पुनर्संतुलन या रिबैलेंसिंग’ नाम दिया गया है.

2021 से पहले, सेना के 13.5 कोर में से नौ पाकिस्तान के लिए, जबकि साढ़े चार चीन के साथ (प्रत्येक कोर में 15,000 सैनिकों के साथ दो डिविजन हैं) मुकाबले के लिए रखी जाती थी. अब यह अनुपात बदल गया है और पाकिस्तान के लिए आठ और चीन के लिए छह कोर तय किए गए हैं. एलएसी पर करीब 50,000 नए सैनिकों को भेजा गया है. 

सबसे महत्वपूर्ण कदम मथुरा स्थित 1 कोर की तैनाती का रहा है, जो एक स्ट्राइक कोर है और जिसे पाकिस्तान के चोलिस्तान रेगिस्तान में हमले के लक्ष्य के साथ तैयार किया गया था. उसे अब उत्तर की ओर मोड़ते हुए चीन के कब्जे वाले अक्साई चिन की ओर रवाना किया गया है. एक डिविजन आकार की लगभग 15,000 सैनिकों की राष्ट्रीय राइफल्स की 'फोर्स हेडक्वार्टर’ को जम्मू-कश्मीर से हटाकर लद्दाख में तैनात कर दिया गया है, जो आतंकवाद से लड़ने में महारत रखती है.

हवाई ताकत पर पहरा
हवाई ताकत पर पहरा

पानागढ़ स्थित माउंटेन स्ट्राइक कोर के खर्च को ध्यान में रखकर 2016 में मात्र एक इन्फैंट्री डिविजन तक सीमित कर दिया गया था, अब उसे रांची में बनाए गए एक दूसरे डिविजन के साथ मजबूत किया गया है और यह कोर अब विशेष रूप से पूर्वी क्षेत्र में केंद्रित है.

एलएसी को 'हार्डेंड या पहले से मजबूत’ कर दिया गया है. यह एक सैन्य शब्द है जो बताता है कि सुरक्षा के लिए पर्याप्त संख्या में जवानों की तैनात की गई है, हथियार और गोला-बारूद पर्याप्त मात्रा में जमा कर लिए गए हैं, सैनिकों को ऊंचाई पर युद्ध के लिए जलवायु की जरूरतों के हिसाब से तैयार किया जा चुका है, और वायु सेना अलर्ट पर है.

2020 से पहले, लद्दाख में सिर्फ एक इन्फैंट्री डिविजन थी. अब वहां चार डिविजन हैं. लेह स्थित 14 कोर ने अपनी बढ़ी हुई तैनाती की शीतकालीन जरूरतों को पूरा करने के लिए अक्तूबर से शुरू होने वाले सर्दियों के मौसम के लिए भोजन और ईंधन जैसी रसद का भंडारण शुरू कर दिया है. 

एक शीर्ष सैन्य अधिकारी इसे स्वतंत्रता के बाद से भारतीय सेना की तैनाती रणनीति में सबसे बड़ा परिवर्तन (रिडिप्लॉयमेंट) बताते हैं. चीन की हरकतों के जवाब में भारत को भी उसी स्तर की तैयारियां करनी पड़ी हैं. इस तरह भारत और चीन की अस्पष्ट सीमा दुनिया की सबसे लंबी और खतरनाक सैन्य सीमा में बदल गई है जहां कभी भी युद्ध भड़क सकता है.

पारंपरिक पूर्ण युद्ध लड़ने से ज्यादा, भारतीय सेना की तैनाती का उद्देश्य भविष्य में किसी भी प्रकार की चीनी घुसपैठ को रोकना और अपने सैनिकों का उपयोग करके 'जैसे को तैसा’ की तर्ज पर दुश्मन के इलाके पर कब्जा करने वाला सैन्य अभियान छेड़ना है. इसके पीछे सोच यह है कि भारतीय सेना के कब्जे वाले चीनी इलाकों का बाद में समझौता वार्ता के दौरान लेन-देन में इस्तेमाल किया जा सकता है. फिर भी, ये तैनातियां जोखिम से भरी हैं क्योंकि दोनों देशों के बीच 1996 में हुई सीमा पर हथियार इस्तेमाल न करने वाली संधि, 2020 में पीएलए घुसपैठ के बाद खत्म हो गई. 

नॉर्दर्न आर्मी के पूर्व कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल (रि.) डी.एस. हुड्डा कहते हैं, ''इस तरह की संधि की अनुपस्थिति में कोई छोटी-सी स्थानीय घटना भी युद्ध भड़का सकती है. यह एक बड़ी चिंता बनी हुई है. मसलन, वे (चीनी) एक स्थान पर घुस आते हैं, तो क्या हम उन्हें सिर्फ उसी क्षेत्र में खदेड़ने की कार्रवाई करने जा रहे हैं या हम उनके इलाके में घुसकर किसी दूसरी जगह पर कब्जा कर लेंगे?’’

विशेषज्ञ इस बात को लेकर चिंतित हैं कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) तेजी से अनियंत्रित रेखा बन रही है जो खतरनाक सैन्य टकराव का कारण बन सकती है. अमेरिकी थिंक-टैंक स्ट्रैटेजिक क्रयूचर्स ग्रुप की 7 अप्रैल की एक रिपोर्ट में भी ऐसा अंदेशा जताया गया है, जिसमें चेतावनी दी गई है कि दो परमाणु शक्तियां 'युद्ध में उलझ सकती हैं’ जिसे कोई भी पक्ष नहीं चाहता है. शीर्ष अमेरिकी खुफिया निकाय नेशनल इंटेलिजेंस काउंसिल को रिपोर्ट करने वाले थिंक-टैंक का कहना है कि ऐसा हो सकता है .

पूर्वी लद्दाख में टकराव के ठिकाने
पूर्वी लद्दाख में टकराव के ठिकाने

खासकर अगर विवादास्पद सीमा पर तैनात सैन्य बल, एक-दूसरे को चुनौती देने के लिए सीमा के एक महत्वपूर्ण हिस्से पर कब्जा करते हैं तो उससे युद्ध भड़क सकता है.’ शोधकर्ता केटियन झांग अपनी 2018 की एमआइटी डॉक्टरेट थीसिस, 'कैलकुलेटिंग बुली: एक्सप्लेनिंग चाइनीज कोएर्सन’ में लिखती हैं, ‘‘चीन को अब तक सैन्य बल प्रयोग के कारण भू-राजनीतिक नुक्सान काफी कम हुआ है.’’ 

घुसपैठ के बाद से दोनों देशों के बीच कड़वाहट बहुत बढ़ गई है. भारत ने स्पष्ट कर दिया है कि चीन के साथ रिश्ते तभी बहाल हो सकते हैं जब वह यथास्थिति के लिए राजी हो जबकि चीन चाहता है कि भारत ऐसी कोई शर्त रखे बिना संबंधों को बहाल करे. पिछले साल भारत ने 267 चीनी ऐप्स पर प्रतिबंध लगा दिया था.

इस साल मई में, भारत के दूरसंचार मंत्रालय ने चीनी दूरसंचार सेवा प्रदाताओं हुएई और जेडटीई को भारत में फिक्रथ जेनरेशन या 5जी दूरसंचार सेवाओं के परीक्षणों से रोक दिया. हालांकि, दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार अब भी उच्च स्तर पर बना हुआ है. यह पिछले साल बढ़कर 77 अरब डॉलर हो गया. चीन भारत का सबसे बड़ा व्यापार भागीदार है. 

15 जुलाई को विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने दुशांबे में शंघाई सहयोग संगठन के इतर चीन के विदेश मंत्री वांग यी से मुलाकात की. उन्होंने नई दिल्ली की उसी लाइन को दोहराया कि ‘एलएसी पर यथास्थिति में एकतरफा बदलाव भारत को स्वीकार्य नहीं होगा.’ विदेश मंत्री ने ट्वीट किया, ‘हमारे संबंधों के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों में शांति और विश्वास की पूर्ण बहाली और उसे बरकरार रखना आवश्यक है.’ 
 
दबाव का चीनी नुस्खा 
चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग एक बहुत ही प्रतीकात्मक यात्रा में, तिब्बत के तीन दिवसीय अघोषित दौरे के लिए 21 जुलाई को न्यींगची मेनलिंग हवाई अड्डे पर उतरे. न्यींगची प्रांत अरुणाचल प्रदेश से सिर्फ 20 किमी उत्तर में है. भारतीय राज्य अरुणाचल को चीन 'दक्षिणी तिब्बत’ बताकर उस पर अपना दावा करता है. तीन दशकों में एलएसी के पास किसी चीनी राष्ट्रपति की यह पहली यात्रा है.

शी के साथ एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल भी था, जिसमें केंद्रीय सैन्य आयोग के उपाध्यक्ष जनरल झांग यूक्सिया भी शामिल थे. शी ने ट्रेन से ल्हासा की यात्रा की, जहां उन्होंने क्षेत्र के शीर्ष सैन्य कमांडरों को अलग से संबोधित किया. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को उनके 86वें जन्मदिन पर सार्वजनिक रूप से बधाई दी तो उसके ठीक एक पखवाड़े बाद शी की यह यात्रा हुई.

रॉ के पूर्व अतिरिक्त सचिव और वर्तमान में सेंटर फॉर चाइना एनालिसिस ऐंड स्ट्रैटेजी के अध्यक्ष जयदेव राणाडे कहते हैं, ‘‘इस मोड़ पर शी की तिब्बत यात्रा इंगित करती है कि लद्दाख में घुसपैठ एकबारगी नहीं थी; वह हमारे खिलाफ अपने क्षेत्रीय दावों को मजबूत करने की एक वृहत चीनी योजना का हिस्सा है और इस पर पैनी नजर रखी जानी चाहिए.’’ 

2012 में शी के सत्ता में आने के बाद चीन का लगातार बढ़ता साम्राज्यवादी रुख, भारत के साथ उसके सीमा विवादों और उसके लिए उठाए गए कदमें में झलकता है. 2013 के बाद से चीन की दादागिरी लगातार बढ़ती जा रही है, जिसकी परिणति 2020 में सैनिकों की झड़प में दिखी. पीएलए, खासकर नई दिल्ली को डराने के लिए तैयारियां कर रहा है. पीएलए की तीन बड़ी घुसपैठ 2013 में दौलत बेग ओल्डी और चुमार में और 2014 में डेमचोक में देखी गई.

नई दिल्ली ने शी की बेल्ट ऐंड रोड जैसी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं से दूरी बनाए रखी है और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरने वाले चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) पर कड़ी आपत्ति जताई है.

सीमा पर भारी तैनाती और हिमालय क्षेत्र में शीत युद्ध की स्थिति पैदा करना चीन का पुराना खेल रहा है. बीजिंग सीमावर्ती क्षेत्रों में बुनियादी ढांचे का विकास करके धौंस जमाने की कोशिश करता आया है. पिछले एक दशक में, चीन ने दक्षिण चीन सागर को चीन की एक झील में बदलने और वियतनाम और फिलीपींस जैसे समुद्री पड़ोसियों को डराने के प्रयास में मानव निर्मित द्वीपों में हवाई पट्टियां तैयार की हैं और मिसाइल तैनात किए हैं.

तिब्बत में इसकी निर्माण गतिविधि इस बात का संकेत है कि ताइवान को चीन में मिलाना जहां उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता है—जैसा कि 1 जुलाई को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 100वीं वर्षगांठ पर शी ने अपने भाषण में कहा था—बीजिंग जब चाहे भारत के साथ विवादित सीमा पर धावा बोल सकता है. 

चीन ने गोलमुड से ल्हासा को जोड़ने वाली 1,142 किलोमीटर लंबी किंघाई-तिब्बत रेलवे (क्यूटीआर) का काम 2006 में पूरा कर लिया था और उसके साथ ही सैन्य हवाई क्षेत्रों और सड़कों का विशाल नेटवर्क भी खड़ा किया. दुनिया के सबसे ऊंचे रेलमार्ग तिब्बत-किंघाई रेलवे के जरिए चीन एलएसी पर सैनिकों को हफ्तों के बजाय चंद दिनों में भेज सकता है. भारत का बुनियादी ढांचा निर्माण कार्य धीमा ही रहा है और इसने 2015 के आसपास ही गति पकड़ी.

सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) का सड़कों और पुलों का तेजी से निर्माण सैन्य गतिरोध और महामारी के बीच भी जारी रहा. इस साल 28 जून को लद्दाख का दौरा करते हुए, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने छह राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों में फैले 63 पुलों का उद्घाटन किया. 240 करोड़ रुपए की लागत वाली परियोजनाओं में लेह-लोमा सड़क पर 50 मीटर लंबा पुल है, जो 'तोपखाने, टैंकों और अन्य विशेष उपकरणों सहित भारी हथियारों की आवाजाही’ दुरुस्त करेगा. 

बीआरओ के 2023 तक एलएसी से लगती सभी 61 महत्वपूर्ण सड़कों का निर्माण कार्य पूरा करने की उम्मीद है. ये सड़कें सेना और सैन्य साजो-सामान को सीमावर्ती क्षेत्रों में तेजी से पहुंचाने में सक्षम होंगी और 2009 के सीक्रेट वारगेम 'डिवाइन मैट्रिक्स’ में सामने आई कुछ कमियों को दूर करने में सक्षम होंगी.

इस गुप्त अभ्यास ने बताया कि युद्ध की स्थिति में चीनी सेना बुनियादी ढांचे की बदौलत किस प्रकार निर्णायक बढ़त हासिल कर लेगी. इसने युद्ध को तिब्बत तक ले जाने के लिए एक नई पर्वतीय आक्रमण वाहिनी (स्ट्राइक कोर) को खड़ा करने की जरूरत पर बल दिया. वारगेम में सेना 1962 वाला युद्ध फिर से लड़ रही थी, और इसमें पीएलए वायु सेना पर भारतीय वायु सेना की बढ़त को शामिल नहीं किया गया था. 

2017 में भारत और चीन के बीच 72-दिवसीय डोकलाम गतिरोध के दौरान बोलते हुए, पूर्व एयर चीफ मार्शल बी.एस. धनोआ ने डोकलाम में कहा था कि तिब्बती पठार पर पीएलए वायु सेना की तैनाती आक्रामक अभियानों के लिए नहीं थी, ''वे समझते हैं कि तिब्बत के हवाई क्षेत्रों और इन हवाई क्षेत्रों में अंतर है.’’

अगस्त 2021 में समझा जा सकता है कि वे अपने लक्ष्य को लेकर कितने गंभीर हैं. इन नए ठिकानों से, चीन पूरे उत्तर भारत में सैकड़ों लड़ाकू जहाज, बमवर्षक और यूसीएवी (मानव रहित लड़ाकू हवाई वाहन) भेज सकता है. भारत के मैदानों से हिमालय पर चढ़ने वाले लड़ाकू जहाजों, जिन पर हथियार का पूरा भार और ईंधन होता है, पर हमले के लिए चीन ने लंबी दूरी की मिसाइलें तैनात कर दी हैं. (पठार पर होने के कारण चीनी लड़ाकू जहाज उनका सामना नहीं कर सकते, बॉक्स देखें).

लेह स्थित 14 कोर के पूर्व जीओसी लेफ्टिनेंट जनरल राकेश शर्मा कहते हैं, ''ये सभी घटनाक्रम अलग स्तर की प्रतिस्पर्धा और एक नई तरह की हवाई कार्रवाई की रणनीति की जरूरत बताते हैं, इसलिए नए वारगेम तैयार करने होंगे और नए तरीके से योजनाएं बनानी होंगी.’’

चीन की तरफ से सेना-केंद्रित सैन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण में पहला उछाल भूटान के डोकलाम पठार पर 2017 के गतिरोध के बाद आया. पीएलए ने एलएसी के नजदीक अपने सैन्यबलों को ठहराने के लिए गर्म, तापरोधक सैन्य आश्रयों, सप्लाइ डिपो और अड्डों का निर्माण शुरू किया. मई 2020 में जब टुकड़ियों को लाया और पूरी सर्दियां रखा गया, तो इतनी ऊंचाई पर यह उनकी पहली तैनाती थी.

फिर जब लड़ाकू विमान और गनशिप तेजी से उस इलाके में भेजे गए, तो सरहदी गतिरोध पर भारतीय वायु सेना की प्रतिक्रिया का जायजा लेकर चीनियों ने सैन्य हवाई बुनियादी ढांचे का विस्तार शुरू किया. वायु सेना के एक अफसर स्वीकार करते हैं, ‘‘हवाई बुनियादी ढांचे के दूसरे दौर का लक्ष्य हमारी वायु सेना की लड़ाकू धार का मुकाबला करना है.’’

शिलांग स्थित ईस्टर्न एयर कमान ने कुछ साल पहले आयोजित वारगेम में हिमालय के ऊपर उड़ान भरते और भारतीय वायु सेना के एयरबेस को तरबतर करते चीनी बमवर्षकों की तरंगों का वर्णन किया गया था. भारतीय वायु सेना के लिए चिंता की बात यह है कि बीते कुछ महीनों में पीएलए वायु और थल सेना ने अपनी मिसाइलों का नेटवर्क स्थापित करके विशाल हवाई रक्षा कवच बना लिया है.

हालांकि रक्षा विश्लेषक कहते हैं कि भारतीय वायु सेना को अब भी मजबूत बढ़त हासिल है. उसके थिंक-टैंक सेंटर फॉर एयर पावर स्टडीज (सीएपीएस) के डायरेक्टर-जनरल एयर मार्शल अनिल चोपड़ा कहते हैं, ‘‘बनिस्बतन निचली जगहों पर स्थित अपने तमाम अड्डों से हम 250-300 लड़ाकू विमान सही जगह तैनात कर सकते हैं. चीनी लद्दाख के नजदीक होतान, काशगर और न्गारी-गुंजा से 70-90 से ज्यादा विमान मैदान में नहीं उतार सकते.’’

अभी यह पूर्वानुमान जल्दबाजी होगी कि सैन्य विमानन के विस्तारित बुनियादी ढांचे का नतीजा उस किस्म की चीनी हवाई घुसपैठों में होगा या नहीं, जो जापान और ताइवान को धमकाने के लिए दक्षिण और पूर्वी चीन सागरों के ऊपर देखी गई थीं. मगर विशेषज्ञ किसी भी संभावना से इनकार नहीं करते.

ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर सिक्योरिटी, स्ट्रैटजी ऐंड टेक्नोलॉजी की डायरेक्टर राजेश्वरी पिल्लै राजागोपालन कहती हैं, ''मुझे नहीं लगता कि भारत-चीन मोर्चे पर चीजें शांत होंगी, न तो विदेश नीति के स्तर पर और न ही सरहदी इलाकों में. सक्रियता की मौजूदा स्थिति को देखते हुए चीन तीव्रता कम करने को तैयार नहीं लगता. उलटे वह और मोर्चे खोल रहा है.’’

भारत के विकल्प क्या हैं?
चीन के भारी जमावड़े से तकलीफदेह हकीकत सामने आती है, जिससे भारत का वास्ता पहले नहीं पड़ा—दरवाजे पर महाशक्ति देश के आ धमकने की संभावना. सेना के लिए यह बदतरीन आशंका—चीन और उसके करीबी सहयोगी पाकिस्तान के साथ धधकती अनसुलझी सरहदों की आशंका—का सच होना है.

 जीडीपी का भारी फर्क (चीन का 149 खरब डॉलर और भारत का 26 खरब डॉलर) रक्षा बजटों पर दिखाई देता है. चीन का रक्षा बजट 252 अरब डॉलर है जबकि भारत का 72 अरब डॉलर. चीन ने शीत युद्ध के बाद किसी भी देश के सबसे बड़े सैन्य विस्तार की शुरुआत की, जिसकी देखरेख माओ त्से तुंग के बाद बीजिंग के सबसे ताकतवर नेता कर रहे हैं.

भारत के पास अब इसके अलावा कोई चारा नहीं कि वह चीन को टकराव भड़काने से भयपूर्वक रोकने के लिए सैन्य बाहुबल का निर्माण करे. लद्दाख के गतिरोध का नतीजा यह होगा कि नई हथियार प्रणालियों के लिए दौड़-भाग मच जाएगी. कम से कम छोटे वक्त के लिए तो मच ही जाएगी. सरकारी सूत्र बताते हैं कि भारतीय वायु सेना को जल्द ही 36 और राफेल लड़ाकू विमान खरीदने का मामला शुरू करना है.

ये उन 36 राफेल के अलावा होंगे, जो 2016 में फ्रांस से खरीदे गए थे और जो सभी जून 2022 तक आ जाएंगे. वायु सेना के एक अफसर कहते हैं, ‘‘राफेल पीएलए वायु सेना के बेड़े से बेहतर हैं.’’ रक्षा बजट की पूंजीगत खरीद में 40 फीसद हिस्सा रखने वाली वायु सेना चाहती है कि यह सौदा जल्द हो ताकि विमानों की नई खेप तीन साल बाद आना शुरू हो जाए, जैसा कि फ्रेंच मैन्यूफैक्चरर डासो एविएशन ने संकेत दिया है.

वायु सेना को अपने विमानों के लिए ब्लास्ट पेन यानी अंग्रेजी के 'ई’ के आकार के दोहरे कक्षों की तादाद बढ़ाने, ईंधन और भंडारों सरीखा अहम विमानन बुनियादी ढांचा भूमिगत रखना शुरू करने की जरूरत है, ताकि इन्हें पूर्वरोधक हमलों से बचाया जा सके. उधर, सेना अपनी नई तैनात स्थापनाओं को लैस करने के लिए 350 हल्के टैंक और 400 तोपें चाहती है.

विश्लेषक मानते हैं कि चीनी आक्रमण की लागत बढ़ाने के लिए भारत को एलएसी को मजबूत बनाने की जरूरत है. पूर्व डी-जी आर्टिलरी, लेफ्टि. जनरल पी. रविशंकर कहते हैं, ‘‘चीन महाशक्ति बनना चाहता है, हम नहीं. हम एलएसी को मजबूत करके इसकी अच्छी हिफाजत करते हैं, तो चीन के लिए इसका अर्थ होगा सैन्यबलों और हथियारों में और ज्यादा निवेश. वह भी वहां जिसे वह अपना दूसरे दर्जे का थिएटर मानता है. साथ ही, प्राथमिक थिएटर की कीमत पर, जो ताइवान है. सैन्य बलों का विन्यास और तैनाती कितनी भी बढ़ाएं, नतीजा ढाक के तीन पात ही है.’’

टुकड़ा-टुकड़ा खरीद से कहीं ज्यादा भारत को चाहिए कि लंबे वक्त से टलते आ रहे सैन्य सुधारों को परवान चढ़ाए. चीनियों ने तिब्बत में अपने हथकंडे 2016 में शुरू किए, जब उन्होंने अपने सैन्य सुधार पूरे कर लिए, इफरात सैनिकों से भरे सैन्यबलों में कटौती की और हवाई तथा जमीनी सैन्यबलों को जोड़ने और टेक्नोलॉजी-सघन चलित बल बनाने के साथ सात सैन्य क्षेत्रों को मिलाकर पांच सैन्य थिएटर बना लिए. भारत ने 2023 तक 17 एकल-सेना कमान को जोड़कर पांच एकीकृत थिएटर कमान बनाने की प्रक्रिया अभी शुरू की है. 

इस किस्म की सिफारिशें लेफ्टि. जनरल डी.बी. शेकटकर की अगुआई वाली विशेषज्ञों की समिति ने 2016 में की थीं—कि सैन्यबलों को पहाड़ी ऊंचाइयों पर युद्ध के लिए तैयार करें, क्योंकि पाकिस्तान और चीन दोनों के साथ देश की विवादित सीमाएं 10,000 फुट ऊंचे इलाकों में ही हैं. इन सिफारिशों को अब गंभीरता से उलटा-पलटा जा रहा है.

उनमें कुछ सबक अब तक सीखे नहीं गए हैं, बावजूद इसके कि करगिल युद्ध 1999 में हुआ था, जिसमें वायु सेना को पाकिस्तानी टुकडिय़ों की कब्जाई चोटियों और बंकरों पर बम बरसाने के लिए ऊंचाई की व्यूह-रचनाओं में तुरत-फुरत सुधार करने पड़े थे. करगिल के बाईस साल बाद भी सेना और वायु सेना के पास एक जैसी रेडियो फ्रीक्वेंसी और मैप ग्रिड नहीं हैं, जो संयुक्त हमलावर अभियानों में तालमेल के लिए बेहद जरूरी हैं. 

चीन के मुकाबले इस सैन्य असंतुलन को कम से कम कुछ हद तक दूर करने के लिए भारत अब अमेरिका, जापान, भारत और ऑस्ट्रेलिया के ‘क्वाड’ में सक्रियता से हिस्सा ले रहा है. चारों देशों ने अब तक का अपना सबसे बड़ा रक्षा अभ्यास पिछले नवंबर में बंगाल की खाड़ी में किया, जब चीन के साथ टकराव चल रहा था. 

12 मार्च को चार क्वाड देशों के शासन प्रमुखों—प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन, जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा और ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन—के पहले वर्चुअल शिखर सम्मेलन के संयुक्त बयान में 'कानून के शासन, नौवहन और ऊपर से उड़ने की स्वतंत्रता, विवादों के शांतिपूर्ण समाधान, लोकतांत्रिक मूल्यों और भूभागीय अखंडता का समर्थन किया गया. 

क्वाड की एक बड़ी कमजोरी है—इसका तकरीबन पूरा जोर समुद्री क्षेत्र पर है. भारतीय अधिकारी स्वीकार करते हैं कि ऊपर बताए तीनों सदस्यों में से एक के भी चीन-भारत भूमि विवाद में उलझने की संभावना नहीं है. यह लड़ाई भारत को अपने दम पर लड़नी होगी. जमीन पर टकराव की स्थिति में मलक्का जलडमरूमध्य में चीनी जहाजों को बीच में रोकने की आकस्मिक योजनाएं भारतीय नौसेना के पास हैं, मगर इससे अंतरराष्ट्रीय जल विवाद छिड़ने का खतरा है.

इसलिए जैसा कि फॉरेन कोऑपरेशन ऐंड नैवल इंटेलिजेंस के पूर्व फ्लैग ऑफिसर रियर एडमिरल सुदर्शन श्रीखंडे कहते हैं, ''हिंद महासागर में चीन के घुसने (जिसकी संभावना हो सकती है) का इंतजार करने के बजाय भारत दक्षिण चीन सागर में नौसैन्य बढ़त लेने और युद्ध के लिए तैयार होने के तरीकों और साधनों पर विचार कर सकता है. यहां समुद्री ताकत की पहुंच और आक्रामण की क्षमता अहम होगी.’’ चीन हिमालय को गुस्से से खौला देने की धमकी दे रहा हो, तो ऐसे में कोई भी विकल्प दूर की कौड़ी नहीं.

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