कोविड पॉजिटिव: 22 अगस्त, 2020
स्थिति: 5 अक्तूबर को निगेटिव
जगह: गाजियाबाद
शुभम शंखधर, एसोसिएट एडिटर
यह बीते साल अगस्त की बात है. मैं कोरोना की पहली ही लहर की चपेट में आ गया था. मार्च से अगस्त तक लगातार फील्ड में जाकर रिपोर्टिंग करते हुए भी मैं एहतियात तो पूरी बरत रहा था. लेकिन अगस्त में एक रोज तेज बुखार ने जकड़ लिया. तीन दिन बाद डॉक्टर की सलाह पर टेस्ट करवाया तो पता चला कि कोविड देवता मुझे भी प्रसाद दे चुके हैं.
साथ रहने वाला छोटा भाई और बहन भी संक्रमित हो गए. पत्नी और दोनों नन्हीं बेटियों को पहले ही दिन दिल्ली में एक रिश्तेदार के यहां भेज दिया था. वायरस का लोड ज्यादा होने के कारण जब तबियत बिगड़ी तो मैं कौशांबी के एक हॉस्पिटल में भर्ती हो गया.
कोविड की इस जंग के दौरान सबसे भयावह दृश्य मैंने अस्पताल में ही देखा. मेरे बेड के सामने लेटे मरीज को खून की उल्टियां होती थीं, साथ वाले मरीज के फेफड़ों पर गहरा असर हुआ था और उसे सांस लेने में दिक्कत होती थी. उन्हें ऑक्सीजन सिलेंडर के साथ रखा गया था. एक मरीज की जान बचाने के लिए प्लाज्मा चढ़ाना पड़ा. निजी अस्पतालों में तेज भागते बिल और सरकारी अस्पतालों की बदइंतजामी की चल रही खबरों के तार अब मैं यहां जोड़ पा रहा था.
दरअसल कोरोना शरीर से ज्यादा मन के स्तर पर लड़ी जा रही लड़ाई थी. मम्मी-पापा और दूसरे परिजन चाहकर भी तीमारदारी के लिए नहीं आ सकते. यह अकेलापन मुझे इस दौरान बहुत खला. कोरोना के कारण कमजोरी इस कदर थी कि फोन उठाने या बात करने की इच्छा ही नहीं करती थी.
कोरोना के कहर की खबरें मुझसे दूर मेरे परिवार वालों और शुभचिंतकों को बेहद परेशान कर रहीं थीं. इस मुश्किल समय में मेरे सहयोगी, मेरा संस्थान निश्चित तौर पर मेरे साथ खड़े थे. जिसने मुझे इस बीमारी से उबरने में बहुत मदद की.
स्थिति यह है कि कोरोना से उबर जाने के बावजूद बहुत-सी चीजें अब भी ऐसी हैं जो पहले जैसी सामान्य नहीं हो पा रहीं. एक तरह की चिंता/एन्जाइटी बार बार घेर लेती है.
पता नहीं क्या होगा? छोटी-सी भी तकलीफ का ज्यादा परेशान करना, कोविड से पहले अच्छी लगने वाली चीजों के प्रति उदासीन हो जाना, ऐसी कई समस्याओं से मैं करीब आठ महीने बीतने के बाद भी लड़ रहा हूं.