
पर्यावरण कार्यकर्ता 21 वर्षीया जलवायु ऐक्टिविस्ट दिशा रवि को 14 फरवरी को दिल्ली पुलिस ने बेंगलूरू से गिरफ्तार किया और उस पर राजद्रोह का आरोप थोप दिया, तो मीडिया में दो बिल्कुल अलग बोलियां उभरीं. एक में दिशा को राज्यसत्ता का दुश्मन करार दिया गया, जिस पर कथित तौर पर देश को बदनाम करने के लिए विवादास्पद ऑनलाइन ‘टूलकिट’ को संपादित करने का आरोप है. दूसरे में दिल्ली पुलिस की कार्रवाई को असहमति का गला घोंटने के लिए राजद्रोह कानून के घनघोर दुरुपयोग की एक और मिसाल बताया गया. बात सिर्फ दिशा की नहीं है.
इसी साल जनवरी में तिरुवनंतपुरम के सांसद शशि थरूर और इंडिया टुडे ग्रुप के राजदीप सरदेसाई सहित छह पत्रकारों के खिलाफ दिल्ली में 26 जनवरी को किसान ट्रैक्टर रैली के बारे में एक ‘‘अपुष्ट’’ खबर ट्वीट करने के लिए राजद्रोह के तीन मामले दर्ज कर लिए गए. पिछले साल जनवरी-फरवरी में नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रहे करीब दो दर्जन लोगों के खिलाफ राजद्रोह से जुड़ी आइपीसी (भारतीय दंड संहिता) की धारा 124ए लगाई गई. थोड़ा और पीछे जाएं तो फरवरी 2016 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र कन्हैया कुमार और उमर खालिद को भी दिल्ली कैंपस में अफजल गुरु की मौत की बरसी के मौके पर कथित तौर पर राजद्रोही नारे लगाने के लिए इन्हीं आरोपों में हिरासत में लिया गया था.
तो, क्या सत्ताधारी राजद्रोह के दायरे की गलत व्याख्या कर रहे हैं? वकीलों, अध्येताओं और पत्रकारों के समूह की स्वतंत्र शोध पहल ‘आर्टिकल 14’ के मुताबिक, 2010 और 2020 के बीच देश भर में राजद्रोह के 816 मामलों में 10,938 लोग गिरफ्तार किए गए. लोकप्रिय विमर्श में केंद्र सरकार को ही दोषी माना जा रहा है, जिसके तहत सिर्फ दिल्ली पुलिस और केंद्रीय एजेंसियां ही हैं, लेकिन राज्य सरकारें इसका लगातार इस्तेमाल कर रही हैं, क्योंकि कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है. राजद्रोह के तकरीबन 65 फीसद मामले पांच राज्यों—बिहार, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश, झारखंड और कर्नाटक—में ही दर्ज हुए हैं.

युवा, बुजुर्ग, अमीर या गरीब, सेलेब्रिटी या आम लोग, छात्र या पेशेवर, राजद्रोह के आरोप के लंबे साए से कोई भी दूर दिखाई नहीं देता. राष्ट्रगीत के लिए खड़े न होने, आलोचना करती ट्वीट करने, ‘कश्मीर को आजाद करो’ सरीखा पोस्टर थामने और यहां तक कि ‘आजादी’ का नारा लगाने पर भी धारा 124ए लगाई जाती रही है. बीते दशक में 1,310 लोगों पर महज नारे लगाने की वजह से राजद्रोह के आरोप लगाए गए हैं. वह भी तब जब 1995 में सुप्रीम कोर्ट ने बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य सरकार मुकदमे में अपने ऐतिहासिक फैसले में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद खालिस्तान-समर्थक नारे लगाने के लिए राजद्रोह के सभी आरोपियों को बरी कर दिया था. अदालत ने फैसले में कहा था कि हिंसा भड़काने की किसी कोशिश के बगैर महज नारे लगाने का मतलब राजद्रोह नहीं है और जांच अधिकारियों को ऐसे मामलों में गिरफ्तारियां करने से पहले बेहद सतर्क होना चाहिए.

राजद्रोह क्या है?
आइपीसी की धारा 124ए के तहत राजद्रोह में ऐसे संकेत, दृश्यांकन या बोले या लिखे गए शब्द शामिल हैं जिनसे सरकार के प्रति ‘घृणा या मानहानि’ उत्पन्न हो सकती हो या जो सरकार के प्रति 'अलगाव उकसाते या उकसाने का प्रयत्न’ करते हों. अलगाव या वैमनस्य को खासकर राज्यसत्ता के प्रति शत्रुता के रूप में परिभाषित किया गया है.
ब्रिटिश इतिहासकार-राजनीतिक थॉमस मैकॉले ने पहले 1837 में इस कानून को सूत्रबद्ध किया था, लेकिन 1860 में आइपीसी बनाते और लागू करते वक्त उसमें इसे शामिल नहीं किया गया. दस साल बाद सर जेम्स स्टीफन ने एक संशोधन के जरिए आइपीसी के अध्याय VI में धारा 124ए जोड़ी, जो राज्यसत्ता के विरुद्ध अपराधों के लिए है. यह वहाबी आंदोलन में आ रही तेजी और भारतीय नागरिकों की तरफ से ज्यादा स्वायत्तता की उठ रही मांगों के संदर्भ में किया गया था. आजादी के आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, जवाहरलाल नेहरू और अबुल कलाम आजाद सहित कई स्वतंत्रता सेनानियों पर राजद्रोह के मुकदमे चलाए गए.

आजाद हिंदुस्तान में राजद्रोह का सबसे चर्चित मामला बिहार में फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के नेता केदारनाथ सिंह का था. 26 मई 1953 को बेगुसराय में एक जोशीले भाषण में उन्होंने अपराध जांच महकमे और कांग्रेस पार्टी की खूब खिल्ली उड़ाई. कांग्रेस को भ्रष्टाचार, कालाबाजारी और निरंकुशता का दोषी ठहराते हुए उन्होंने ऐसी क्रांति का आह्वान किया, जो पूंजीपतियों, जमींदारों और कांग्रेस नेताओं के उखाड़ फेंके. सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने उन्हें दोषी ठहराने वाले हाइकोर्ट के फैसले को बरकरार रखा, लेकिन उसने राजद्रोह के दायरे को परिभाषित करने की भी कोशिश की. उसने कहा कि राजद्रोह के तहत ऐसे अपराध आते हैं, जो हिंसा के जरिए 'सरकार को उलटने का असर’ पैदा करने की मंशा से किए गए हों.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘‘लोगों को सरकार के बारे में, या उसके कदमों के बारे में, आलोचना या टिप्पणी के रूप में जो भी चाहे कहने या लिखने का अधिकार है, जब तक कि वह कानून द्वारा स्थापित सरकार के विरुद्ध हिंसा के लिए या अराजकता पैदा करने की मंशा से लोगों को उकसाता न हो.’’ संक्षेप में, शीर्ष अदालत ने सरकार या नेताओं की आलोचना को, ‘फिर चाहे वह कितने भी कठोर शब्दों में’ क्यों न की गई हो, राजद्रोह के दायरे से बाहर निकाल दिया. फिर भी नेताओं की आलोचना पर बार-बार राजद्रोह के आरोप मढ़े जाते रहे हैं.

कई लोगों का मानना है कि भाजपा सरकार के इन छह साल में राजद्रोह के मामलों में बढ़ोतरी हुई है. लेकिन ऐसा कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, जो साबित करे कि पिछली सरकारों का रिकॉर्ड बेहतर था. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने 2014 से ही राज्यसत्ता के विरुद्ध अपराधों का डेटा प्रकाशित करना शुरू किया है, जिनमें 124ए सरीखे प्रावधानों और गैर-कानूनी गतिविधि (रोकथाम) कानून 1967 के तहत दर्ज मामले शामिल हैं. इसी वजह से स्वतंत्र जानकार राजद्रोह के कानूनों के उपयोग या दुरुपयोग के बारे में विभिन्न सरकारों की तुलना करने में सावधानी बरतते हैं. सेडिशन इन लिबरल डेमोक्रेसीज (उदार लोकतंत्रों मं राजद्रोह) की लेखिका, दिल्ली स्थित डॉ बी.आर. आंबेडकर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ लॉ, गवर्नेंस और सिटिजनशिप में असिस्टेंट प्रोफेसर अनुष्का सिंह कहती हैं, ''2014 से मामलों में उछाल दिखने की एक वजह यह है कि सरकारी डेटा केवल 2014 के बाद का ही मौजूद है और इसलिए तुलना कर पाना मुश्किल है.’’
आइपीसी की इस धारा का दुरुपयोग करने के लिए बेशक सिर्फ भाजपा ही दोषी नहीं है. जून 2019 में छत्तीसगढ़ के एक 53 वर्षीय शख्स के ऊपर राजद्रोह का नोटिस थमा दिया गया था. वजह यह थी कि एक फेसबुक वीडियो में उन्होंने दावा किया था कि कांग्रेस सरकार और इनवर्टर कंपनियों की मिलीभगत से राज्य में बिजली की कमी पैदा हुई है.

लेकिन सबसे चिंताजनक यह है कि राजद्रोह के आरोप बिल्कुल बेबुनियाद और हैरतअंगेज आधारों पर लगाए जा रहे हैं. पिछले साल जनवरी में कर्नाटक पुलिस ने सीएए-एनआरसी को लेकर मंचित नाटक में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खराब ढंग से पेश करने के आरोप में एक प्राथमिक स्कूल के प्रबंधन के खिलाफ मामला दर्ज करने के बाद प्रधानाध्यापिका को गिरफ्तार कर लिया. एक छात्र की मां को भी इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि उन्होंने नाटक में ऐसा संवाद लिखा था, जिसमें प्रधानमंत्री को चांटा मारने का जिक्र था.
अनुष्का 2014 के पहले और बाद के राजद्रोह के विमर्श में आए अहम बदलाव की तरफ भी इशारा करती हैं. कई सरकारों ने लोगों के आंदोलनों को दबाने के लिए कानूनों का इस्तेमाल किया है, लेकिन आज तमाम आंदोलनों और विरोध प्रदर्शनों पर ‘राष्ट्र विरोधी’ होने का ही आरोप चस्पां कर दिया जाता है. 2010-11 में कुडनकुलम परमाणु संयंत्र के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान हजारों लोगों के विरुद्ध राजद्रोह के आरोप लगाए गए थे, लेकिन तब प्रदर्शनकारियों को परमाणु बिजली के विरोधियों के तौर पर देखा गया, न कि राष्ट्र विरोधी.
अनुष्का कहती हैं, ‘‘किसी भी किस्म के मतभेद को, चाहे वह अभिव्यक्ति, प्रदर्शन या संगठन किसी रूप में हो, राष्ट्र विरोधी करार देना आज की रवायत बन गई है. इससे प्रदर्शनकारियों के खिलाफ कठोर कानूनों का इस्तेमाल सामान्य बन गया है. इससे मामलों की संख्या बढ़ गई है, और यह इन विरोध प्रदर्शनों की वैधता को चुनौती देने में सरकार की मदद भी करता है. आम धारणा में वे लोगों के आंदोलन नहीं रह जाते, बल्कि उन्हें राष्ट्र विरोधी के रूप में समझा जाने लगता है.’’
ऐक्टिविस्टों को खलनायक के तौर पर पेश करने और गिरफ्तारियों को जायज ठहराने में सोशल मीडिया, और कई बार पारंपरिक मीडिया भी, अहम भूमिका अदा करता है. साथ ही साथ, इस अफसाने की स्वीकृति भी बढ़ती गई है. 2019 के लोकसभा चुनाव के दौरान जब पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि राष्ट्र विरोधी गतिविधियों को रोकने के लिए भाजपा राजद्रोह कानून के प्रावधानों को और ज्यादा कठोर बनाएगी, तब सभा में जोरदार स्वागत हुआ था.
सुप्रीम कोर्ट के वकील और भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता नलिन कोहली राजद्रोह कानून के इस्तेमाल को सही ठहराने के लिए उन तत्वों के कथित खतरे की दुहाई देते हैं जो चुनी हुई सरकार पर हमले करने के लिए विदेशी संगठनों और यहां तक कि संदिग्ध ताकतों की भी मदद लेने को तैयार हैं. वे कहते हैं, ''भारतीय लोकतंत्र अपने नागरिकों को संवैधानिक तौर पर स्वीकृत चुनाव प्रक्रिया के जरिए सत्तारूढ़ पार्टी को हटाने का विकल्प मुहैया करता है. क्या कोई सत्तारूढ़ सरकार से खुश नहीं है तो क्या विदेशी ताकतों की मदद लेने को जायज ठहराया जा सकता है?’’

लेकिन, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज न्यायमूर्ति बी.एन. श्रीकृष्णा कहते हैं, ''सरकार की सभी और किसी भी आलोचना को राष्ट्र विरोधी और राजद्रोही मान लिया जाता है. राजद्रोह का कानून हालांकि औपनिवेशिक काल में बना था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसलों ने इसे काफी नरम बनाया है. अलबत्ता आज जिस तरह इसे लागू किया जा रहा है, वह बताता है कि इसका औपनिवेशिक चरित्र बनाए रखा गया है.’’ सुप्रीम कोर्ट ने 5 सितंबर, 2016 को एक बार फिर जोर देकर कहा कि सरकार की आलोचना राजद्रोह नहीं है.
मगर कोहली इसे इसलिए पूरी तरह जायज मानते हैं, क्योंकि मौजूदा निजाम को बदनाम करने के व्यापक अभियान छेड़ दिया गया है. वे कहते हैं, ''किसी भी ईमानदार और निष्पक्ष रिसर्च से पता चलेगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ निजी हमले देश में किसी भी प्रधानमंत्री पर इस कदर नहीं हुए. पिछले छह साल में उन्हें देश की किसी भी और हरेक अप्रिय घटना के लिए दोषी ठहरा दिया जाता है. इससे भी ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि मोदी के खिलाफ ज्यादातर निजी निंदा-तिरस्कार तथ्यों से प्रमाणित नहीं बल्कि दुर्भावना से प्रेरित एजेंडों का नतीजा है.’’ उत्तर प्रदेश सरकार में एमएसएमई, निवेश और निर्यात, कपड़ा, खादी और ग्रामोद्योग मंत्री तथा राज्य सरकार के प्रवक्ता सिद्धार्थनाथ सिंह उनसे सहमत हैं. वे कहते हैं, ''सभी को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, लेकिन किसी को भी गलत तथ्य पेश करके सरकार को बदनाम करने की कोशिश की इजाजत नहीं है. ऐसा करने के वालों के खिलाफ कानून के मुताबिक कार्रवाई की जा रही है.’’
जवाब में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर कहते हैं, ‘‘सत्ताधारी चुनिंदा ढंग से असहिष्णुता का इजहार कर रहे हैं. विरोधी विचार रखने वाले लोगों को मनमाने ढंग से चुना जाता है लेकिन असामाजिक तत्वों के खिलाफ नरमी बरतते हैं.’’ दिशा को जमानत की मंजूर करने के दौरान अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा ने अपने आदेश में बेहद कटु टिप्पणी की. उन्होंने कहा, ‘‘लोगों सरकार की अंतरात्मा के रखवाले हैं. उन्हें केवल इसलिए जेल में नहीं डाला जा सकता क्योंकि उन्होंने राज्यसत्ता की नीतियों से असहमत होना चुना है. सरकार के आहत अभिमान की देखभाल के लिए राजद्रोह का सहारा नहीं लिया जा सकता.’’
प्रक्रिया ही सजा
राजद्रोह का आरोप असहमति को कुचलने के असरदार औजार के तौर पर इसलिए भी उभरकर आया है क्योंकि इसमें मुकदमे से पहले ही खासा परेशान करने की गुंजाइश होती है. इसमें वह समानांतर अभियान भी शामिल है जो खास तौर पर सोशल मीडिया में चलता है. संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध होने की वजह से राजद्रोह के आरोपी व्यक्ति को बगैर वारंट के गिरफ्तार किया जा सकता है. सजा में तीन साल से ताउम्र तक कारावास, जुर्माना, या दोनों शामिल हैं. इतना ही नहीं, 124ए के तहत आरोपी व्यक्ति की सरकारी नौकरी पर प्रतिबंध लग जाता है और उसे अपना पासपोर्ट जमा करना पड़ता है.
इन कानूनों के साथ मुकदमे से पहले के चरण में जटिल और दुरुह कानूनी प्रक्रिया जुड़ी है और इसलिए इसके पीछे मंशा अक्सर अपराधी को कानून के कठघरे में लाने के बजाए असहमत आवाजों को परेशान करने की होती है. अनुष्का ने अपने शोध में पाया कि लोगों ने महज जमानत हासिल करने के लिए 90,000 रुपए से लेकर 2 लाख रुपए तक खर्च किए. बेंगलूरू स्थित नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी में एसिस्टेंट प्रोफेसर कुणाल अलंबष्ठ कहते हैं, ‘‘अगर किसी को मुकदमे के बगैर हफ्तों या महीनों तक गिरफ्तार करके रखा जा सकता है तो मुकदमे के अंतिम निष्कर्ष का कोई मतलब नहीं रह जाता. लिहाजा, इन कानूनों में ऐसा है जिसमें प्रक्रिया ही सजा बन जाती है.’’

राजद्रोह के ज्यादातर मामले वाजिब वजहों के बगैर दर्ज किए जाते हैं, यह साल-दर-साल सजा होने की दर बेहद कम हाने से भी जाहिर है. राजद्रोह के मामलों की तादाद जहां 2016 में 35 से बढ़कर 2019 में 93 हो गई, वहीं सजा की दर इसी अवधि में 33.3 फीसद से घटकर 3.3 फीसद पर आ गई. अनुष्का इसके लिए पुलिस बलों में कानूनी निरक्षरता के साथ-साथ राजनैतिक प्रतिष्ठान के दबाव में इसके दुरुपयोग को जिम्मेदार ठहराती हैं.
यहां तक कि पूर्व पुलिस अफसर भी स्वीकार करते हैं कि कानून लागू करने वाली एजेंसियां अपने राजनैतिक आकाओं के विरोधियों को निशाना बनाने के लिए इन कानूनों का अक्सर दुरुपयोग करती हैं. बीएसएफ, उत्तर प्रदेश पुलिस और असम पुलिस के पूर्व डायरेक्टर-जनरल प्रकाश सिंह कहते हैं, ‘‘ऐसा नहीं है कि पुलिस इन कानूनों की बारीकियां नहीं समझती है, लेकिन ऐसे भी मौके आते हैं जब कार्यपालिका की तरफ से किसी खास व्यक्ति या समूह के खिलाफ हाथ धोकर पीछे पड़ जाने के अलिखित निर्देश होते हैं.’’
कानून विशेषज्ञों का कहना है कि कानून लागू करने वाली एजेंसियां 124ए सरीखे प्रावधानों की लचीली रूपरेखा का फायदा उठाती हैं. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों ने भी—केदारनाथ सिंह और बलवंत सिंह के मामलों में—पुलिस और राजनैतिक प्रतिष्ठान के हाथों गलत व्याख्या और दुरुपयोग की गुंजाइश छोड़ दी. अनुष्का कहती हैं, ‘‘असल में हमारे देश ऐसे न्याय-सिद्धांतों की बहुतायत नहीं है जो बोली की आजादी को व्यापक दायरे में ले जाता है और लोगों की स्वतंत्रता की हर कीमत पर रक्षा करता है. सुप्रीम कोर्ट ने 1962 में केदारनाथ सिंह मामले में फैसला दिया था कि हिंसा भड़काने की प्रवृत्ति राजद्रोह है. अब प्रवृत्ति इतना व्यापक और अस्प शब्द है कि किसी भी चीज की हिंसा की ओर प्रवृत्त चीज के तौर पर व्याख्या की जा सकती है.’’ यही लचीला ढांचा इसके दुरुपयोग की गुंजाइश पैदा करता है.
दमन के अन्य कानून
केवल 124ए ही नहीं, गैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम या यूएपीए,1967; राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम या एनएसए, 1980; जम्मू-कश्मीर सार्वजनिक सुरक्षा अधिनियम या पीएसए, 1978; और धन शोधन निवारण अधिनियम या पीएमएलए, 2002 जैसे अन्य कठोर कानूनों का भी दोषपूर्ण तरीके से दुरुपयोग किया जाता रहा है. ये सरकार के लिए बड़े उपयोगी होते हैं क्योंकि बिना मुकदमा चलाए किसी को भी लंबी अवधि तक हिरासत में रखने का अधिकार देते हैं.
मसलन, यूएपीए किसी को भी बिना किसी आरोप के 180 दिनों तक हिरासत में रखने की अनुमति देता है. 2019 में कानून में एक संशोधन से केंद्र को बिना मुकदमा चलाए किसी व्यक्ति को ‘आतंकवादी’ घोषित करने की शक्ति मिल गई है. यूएपीए में आतंकवादी के रूप में घोषित व्यक्तियों या संगठनों को अदालत में चुनौती देने की व्यवस्था नहीं है. खुद को आतंकवादी की सूची से बाहर कराने के लिए केंद्र सरकार के पास आवेदन करना होता है.
यूएपीए के दुरुपयोग के दो शानदार उदाहरण सीपीआइ (माओवादी) के प्रवक्ता गौर चक्रवर्ती और ऐक्टिविस्ट अरुण फरेरा के खिलाफ मुकदमे हैं. जून 2009 में, केंद्र सरकार ने भाकपा (माओवादी) पर प्रतिबंध लगाने के एक दिन बाद, चक्रवर्ती पर यूएपीए चस्पां कर दिया था और 2016 में बरी होने से पहले उन्होंने सात साल जेल में बिताए. फरेरा को भी 2007 में यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया था और बरी होने से पहले उन्हें पांच साल तक जेल में रखा गया था. उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह कहते हैं, ‘‘लचर जांच-पड़ताल और बदतर अभियोजन के कारण ज्यादातर आरोपी बरी हो जाते हैं. बरी होने पर जिम्मेदारियां तय करना जरूरी है. इससे कानून के दुरुपयोग और खराब जांच और अभियोजन दोनों को रोका जा सकेगा.’’
फरेरा के अलावा वकील सुधा भारद्वाज और ऐक्टिविस्ट गौतम नवलखा और वर्नोन गोंजाल्विस सहित कई अन्य लोग फिलहाल 2018 में भीमा-कोरेगांव की हिंसा में शामिल होने के आरोप में जेल में बंद हैं. उन सभी पर पुणे पुलिस ने यूएपीए चस्पां किए हैं. 80 साल के कवि और माओवादी विचारक वरवर राव को पिछले हफ्ते स्वास्थ्य आधार पर जमानत मिल गई. 2020 में, जांच का जिम्मा एनआइए ने संभाल लिया, और उसने झारखंड स्थित ऐक्टिविस्ट स्टैन स्वामी को गिरफ्तार कर लिया और उन पर भी यूएपीए के तहत आरोप लगाए.
दरअसल, जमानत का यह लंबा इंतजार यूएपीए को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के खिलाफ सरकारी दमन का एक साधन बनाता है. 2016 और 2018 के बीच, 3,005 मामले इस आतंकवाद-रोधी कानून के तहत दर्ज किए गए थे, लेकिन 180 दिनों की निर्धारित अवधि के भीतर केवल 821 मामलों में आरोप-पत्र दायर किए गए थे. 2016 और 2019 के बीच, यूएपीए के तहत 5,922 व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया था लेकिन केवल 132 को दोषी ठहराया जा सका. लंबे समय के लिए जेल में बंद रखने के इस चलन से चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने 1 फरवरी को फैसला सुनाया कि अगर किसी पर यूएपीए के तहत आरोप लगाए जाते हैं, तो भी उसके पास त्वरित सुनवाई का मौलिक अधिकार है और इस अधिकार का उल्लंघन होने पर वह जमानत का हकदार है.
हालांकि, यूएपीए से अधिक एनएसए का दुरुपयोग किया जाता है. इसका उद्देश्य राष्ट्रीय सुरक्षा, सरकारी आदेशों और आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं को बनाए रखने सहित कुछ अन्य आधार पर लोगों को पूर्वाग्रहपूर्ण तरीके से काम करने से रोकना है. यह सरकार को बिना कारण बताए किसी को 10 दिनों के लिए हिरासत में रखने और बिना आरोप तय किए 12 महीने तक हिरासत में रखने का अधिकार देता है.
फरवरी 2019 में, मध्य प्रदेश में कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार ने गोहत्या और तस्करी के आरोपी पांच लोगों के खिलाफ इस कानून का इस्तेमाल किया. 3 दिसंबर, 2019 को केंद्रीय गृह राज्यमंत्री ने संसद में स्पष्ट किया, ‘‘कृषि गतिविधियों और बूचडख़ाने के लिए मवेशियों का परिवहन एनएसए के तहत दंडनीय अपराध नहीं है.’’ इसके बावजूद यूपी पुलिस ने 19 अगस्त, 2020 तक गोहत्या के लिए 76 लोगों के खिलाफ एनएसए के तहत चालान किया था. एक संवाददाता सम्मेलन में अतिरिक्त मुख्य सचिव (आवास) अवनीश कुमार अवस्थी ने कहा था, ‘‘मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने निर्देश दिया है कि ऐसे अपराधों के मामले में एनएसए लगाया जाना चाहिए, जो सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित कर सकता है ताकि अपराधियों में भय और जनता के बीच सुरक्षा की भावना पैदा हो.’’
डॉक्टर कफील खान को बिना मुकदमे के सात महीने तक हिरासत में रखने के लिए इसी कानून का इस्तेमाल किया गया था. 31 जनवरी को उत्तर प्रदेश पुलिस ने दिसंबर 2019 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में सीएए के खिलाफ एक विरोध प्रदर्शन के दौरान भड़काऊ और उत्तेजक भाषण देने के आरोप में डॉ. खान को गिरफ्तार किया था. 10 फरवरी को अलीगढ़ की एक अदालत ने उन्हें जमानत दे दी, लेकिन चार दिन बाद डॉ. खान के खिलाफ एनएसए के तहत आरोप लगा दिए गए. 1 सितंबर, 2020 को इलाहाबाद हाइकोर्ट ने एनएसए के तहत उनकी हिरासत को अवैध माना और उन्हें जेल से रिहा कर दिया. हालांकि, मंत्री सिद्धार्थ सिंह ने कहते हैं कि डॉ. खान के मामले में कानून के अनुसार कार्रवाई की गई है. 2017 और 2018 के बीच एनएसए के तहत बंद किए गए 1,198 लोगों में से सबसे ज्यादा 795 लोगों को गिरफ्तार करके मध्य प्रदेश नंबर वन बना हुआ है.
2002 में बनने और 2019 में संशोधनों के बाद, धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) अत्यधिक जटिल और विवादास्पद बना हुआ है, विशेष रूप से अभियुक्त को गिरफ्तारी और जमानत देने के संबंध में. पीएमएल अपराध संज्ञेय और गैर-जमानती हैं, और प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के अधिकारियों को कुछ मामलों में, बिना वारंट के अभियुक्त को गिरफ्तार करने का अधिकार है. यही कारण है कि ईडी केंद्र के लिए सीबीआइ से भी अधिक शक्तिशाली हथियारों में से एक बना दिया है.
कानून में किसी को गिरक्रतार करने से पहले, ऐसा ‘‘मानने का कारण’’ होना चाहिए कि अभियुक्त जांच के दौरान एकत्र की गई सामग्री के आधार पर धन शोधन के अपराध का दोषी है. गिरफ्तारी से पहले कारण को लिखित में दर्ज किया जाना चाहिए. इसलिए, एक तरह से, कानून केवल संदेह के आधार पर लोगों को गिरफ्तारी से बचाता है.
फिर भी, व्यवहार में, ईडी के अधिकारी जांच के नाम पर, या यहां तक कि जांच के दौरान ‘असहयोग’ के लिए गिरफ्तारी करते हैं! यही कारण है कि पीएमएलए के तहत सजा की दरें अचानक कम हो गई हैं. पीएमएलए के तहत, ईडी ने 1,569 विशिष्ट जांचों के सिलसिले में मार्च 2011 से जनवरी 2020 के बीच 1,700 से अधिक छापे मारे. हालांकि, यह केवल नौ में ही सजा दिलाने में कामयाब रहा. अप्रैल 2017 और फरवरी 2020 के बीच, पीएमएलए के तहत 578 मामले दर्ज किए गए हैं, और ईडी ने लगभग 25,000 व्यक्तियों या संस्थाओं को मनी-लॉन्ड्रिंग से संबंधित जांच के संबंध में बुलाया.
एक और कड़ा अधिनियम, जिसके इस्तेमाल पर प्रश्न उठते रहे हैं, वह जम्मू-कश्मीर में पीएसए है. यह एहतियातन गिरफ्तारी कानून है, जिसके तहत किसी व्यक्ति को ‘राज्य की सुरक्षा या सार्वजनिक व्यवस्था’ के खिलाफ किसी भी तरह का कार्य करने से रोकने के लिए हिरासत में लिया जा सकता है. कानून किसी व्यक्ति को तीन महीने तक बिना मुकदमा चलाए हिरासत में रखने की अनुमति देता है, जिसे छह महीने तक बढ़ाया जा सकता है और ‘राज्य की सुरक्षा के लिए खतरा’ होने की स्थिति में दो साल के लिए हिरासत में रखा जा सकता है.
शेख अब्दुल्ला ने 1978 में विशेष रूप से लकड़ी के तस्करों को निशाना बनाने के लिए कानून बनाया था, लेकिन दशकों से इस कानून का इस्तेमाल राजनैतिक प्रतिशोध के लिए किया जाता रहा है. 2015 में, एक आरटीआई के जवाब में, सरकार ने खुलासा किया कि 1988 से पीएसए के तहत 16,329 लोगों को हिरासत में लिया गया था. 2007 और 2016 के बीच, पीएसएके तहत 2,400 से अधिक गिरक्रतारी आदेश पारित किए गए थे, जिनमें से 58 प्रतिशत अदालतों द्वारा रद्द कर दिए गए थे.
दिलचस्प बात यह है कि अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 के निरस्त होने के बाद जम्मू-कश्मीर राज्य के कुछ कानूनों में से एक को बरकरार रखा गया है. तब से, पूर्व मुख्यमंत्रियों महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला सहित बड़ी संख्या में नेताओं के खिलाफ पीएसए लागू किया गया है. जेऐंडके कोएलिशन ऑफ सिविल सोसाइटी ऐंड एसोसिएशन ऑफ पेरेंट्स ऑफ डिसएपियर्ड पर्सन्स की एक रिपोर्ट का अनुमान है कि 2019 में 662 व्यक्तियों के खिलाफ पीएसए के तहत कार्रवाई की गई थी. इस कानून को लागू करने के कुछ कारणों की कड़ी आलोचना हुई है. महबूबा मुफ्ती के डोजियर में कहा गया कि उनकी पार्टी के झंडे का रंग हरा है, जो कट्टरपंथी इरादे को दर्शाता है.
लेकिन यह सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 में एक गैर-मौजूद प्रावधान—धारा 66 ए—है जो कानून की निरंकुशता का प्रतीक है. धारा 66 ए ऑनलाइन संचार के माध्यम से ‘घृणास्पद संदेश’ भेजने को लेकर दंडित करने का अधिकार देता है जो अधिकारियों को किसी को भी गिरफ्तार करने का अधिकार देता है. हालांकि, कानून 'घृणास्पद’ की स्पष्ट व्याख्या नहीं करता. नेताओं ने अक्सर महत्वपूर्ण आवाजों को चुप कराने के लिए कानून के इस प्रावधान का उपयोग किया है.
अप्रैल 2012 में, कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में रसायन विज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफेसर अंबिकेश महापात्रा को 65 लोगों को एक ई-मेल भेजने के लिए गिरफ्तार किया गया था, जिसमें पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का कार्टून था. उन्हें और उनके पड़ोसी सुब्रत सेनगुप्ता को धारा 66 ए का उल्लंघन करने के लिए जादवपुर थाने की हवालात में एक रात गुजारनी पड़ी. मार्च 2015 में, सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को असंवैधानिक करार दिया. इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन (आइएफएफ) के ट्रैकर के अनुसार, अप्रैल 2015 से फरवरी 2020 के बीच, 1,297 मामले 10 राज्यों की अदालतों में चल रहे हैं.
आइएफएफ के कार्यकारी निदेशक अपार गुप्ता पूछते हैं, ‘‘अगर यह असंवैधानिक है, तो इस विशेष धारा के तहत लोगों के खिलाफ ताजा और पुराने मुकदमे कैसे चल सकते हैं?’’ कुछ पुलिस अधिकारी उन कानूनी प्रावधानों के लचीलेपन की सराहना करते हैं जो शब्दों और दायरे में अस्पष्ट रहते हैं. इसलिए, वे इस असंवैधानिक प्रावधान का उपयोग करते रहते हैं क्योंकि इससे उन्हें अपनी नजर में आने वाले ऑनलाइन अपराध को इसी प्रावधान के तहत असंवैधानिक घोषित करने में मदद मिलती है.’’ गुप्ता ने दिल्ली हाइकोर्ट के वकील अभिनव सेखरी के साथ सुप्रीम कोर्ट में एक पत्र प्रस्तुत किया, जिसमें इस कानून के दुरुपयोग के मामले अदालत के संज्ञान में लाए गए. शीर्ष अदालत ने फरवरी 2019 में निर्देश दिया कि सभी पुलिस स्टेशनों और जिला अदालतों को 2015 के फैसले की एक प्रति प्रदान की जाए. इस निर्देश के एक साल बाद भी, आइएफएफ ट्रैकर ने 10 राज्यों में विभिन्न अदालतों में धारा 66 ए के तहत 245 मामले पाए.
न्यायपालिका की भूमिका
न्यायिक आदेशों के प्रति कार्यपालिका के उदासीनता भरे रवैए ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता आश्वस्त करने में न्यायपालिका की भूमिका को भी सार्वजनिक छानबीन के दायरे में ला दिया है. संविधान विशेषज्ञों और न्यायविदों का मानना है कि अदालतें नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करने में सही वक्त पर सक्रियता से अपनी भूमिका निबाहने में नाकाम रही हैं. एहतियातन हिरासत में रखने के प्रावधानों से जुड़े अधिकतर कानूनों के मामले में, राहत की एकमात्र गुंजाइश हाइकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका ही है.
बहरहाल, देश की घोंघाचाल चलने वाली न्यायपालिका, जो लंबित मुकदमों के बढ़ते बोझ तले दबी हुई है, कई मौकों पर तुरंत प्रतिक्रिया देने में चूक गई है. हैदराबाद के एनएएलएसएआर यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति और संविधान विशेषज्ञ प्रोफेसर फैजान मुस्तफा कहते हैं, ‘‘न्यायपालिका को बड़ी चौकसी के साथ व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिए. हाल में, ऐसी प्रतिबद्धता में थोड़ी कमी रही है. महीनों तक बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं को न सुनकर और वास्तविक मामलों में भी जमानत न देकर, न्यायपालिका ने आलोचनाओं को न्योता दिया है. अदालतों को बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिकाओं को सबसे अधिक प्राथमिकता देनी चाहिए क्योंकि इसमें किसी का जीवन या उसकी आजादी खतरे में पड़ी होती है.’’ जस्टिस लोकुर अधिक कटु हैं. वे पूछते हैं, ‘‘बदकिस्मती से न्यायपालिका थोड़ी बुजदिल रही है और अधिकारियों ने इसका फायदा उठाया है, वरना लोगों को एहतियातन हिरासत में महीनों रखे जाने की व्याख्या आप कैसे करेंगे?’’
मसलन, 6 मार्च को, सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें राजद्रोह के आपराधिक मामले दर्ज करने के लिए दिशानिर्देश मांगे गए थे. कानून विशेषज्ञों का मानना है कि यह अनिच्छा न्यायपालिका की राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर अत्यधिक सतर्क रवैया अपनाने से उपजी है. अनुष्का कहती हैं, ‘‘जब किसी चीज को राष्ट्रीय सुरक्षा पर खतरे की तरह पेश किया जाता है तो न्यायपालिका, कार्यपालिका के प्रति आदर भरा रवैया अपनाती है जैसा कि हमने टाडा या पोटा की संवैधानिकता बरकरार रखने के मामले में देखा है. राष्ट्रीय सुरक्षा की बहस अधिकारों के न्यायशास्त्र पर हावी हो जाती है.’’ जस्टिस श्रीकृष्ण इसमें जोड़ते हैं, ‘‘न्यायपालिका के कुछ अबूझ कामों ने इस धारणा को बल दिया है कि यह लोगों के मूल अधिकारों के संरक्षक के तौर पर काम करने में या तो अक्षम है या फिर अनिच्छुक. न्यायपालिका को आत्म-निरीक्षण करना चाहिए और ऐसी धारणा को तोडऩे की दिशा में कदम उठाने चाहिए.’’
अंबष्ठ कहते हैं, ‘‘राजद्रोह कानून का इतिहास है कि इसका इस्तेमाल औपनिवेशक ताकतों ने मतभेद और असंतोष को दबाने के लिए किया है. लोकतंत्र में उस पर सवाल उठाए जाने चाहिए.’’
2018 में, विधि आयोग ने एक परामर्श पत्र प्रकाशित किया, जिसमें सिफारिश की गई थी कि अब धारा 124ए पर पुनर्विचार करने या इसको खत्म करने का समय आ गया है. ब्रिटेन में, जहां इस राजद्रोह कानून की शुरुआत हुई, इसे 2009 में खत्म कर दिया गया.
बहरहाल, इस बात पर तकरीबन सर्वानुमति है कि जमीनी स्तर पर इन कानूनों को कैसे लागू किया जाए, इसमें संशोधन की सख्त जरूरत है. जस्टिर लोकुर पूछते हैं, ''अगर राजद्रोह कानूनों को उसी तरीके से लागू किया जाना है जैसे कि आज किए जाते हैं तो इसे कानून की किताबों से हटा दिया जाना चाहिए. अगर इसे कानून की किताबों में बनाए रखना है तो संसद को यह तय करना चाहिए कि इसे अपवाद मामलों में ही इस्तेमाल किया जाए.’’ पूर्व डीजीपी विक्रम सिंह का सुझाव है कि पुलिसकर्मियों, खासतौर पर जांचकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए नियमित कार्यशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिए, जो देशभर के विभिन्न कानूनों के बारे में हो.
पिछले हफ्ते, दिल्ली की एक अदालत ने किसान आंदोलन के दौरान दिल्ली पुलिस के बारे में कथित रूप से एक फेसबुक पोस्ट शेयर किए जाने पर राजद्रोह के आरोप के के मामले में दो लोगों की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि राजद्रोह का कानून, ‘‘राज्य के हाथ में एक मजबूत हथियार है’’ और ‘‘इसे उपद्रवियों को शांत करने के बहाने मुखर लोगों को खामोश करने के लिए लागू नहीं किया जा सकता है.’’ हालांकि, राष्ट्रीय सुरक्षा और देश की अखंडता पर कोई समझौता नहीं हो सकता लेकिन संविधान में निहित लोकतांत्रिक मूल्यों पर भी कोई समझौता नहीं होना चाहिए.