
उत्तराखंड के ऊंचे पर्वतों पर नंदादेवी चोटी की ढलान पर 'झूलते ग्लेशियर' का एक हिस्सा खिसका तो 7 फरवरी को अचानक आई विनाशकारी बाढ़ ने हिमालय के नाजुक पर्यावरण संतुलन से छेड़छाड़ के प्रति खतरे की घंटी बजा दी है. राज्य के चमोली जिले में जोशीमठ के ऊपर रैणी गांव के पास ग्लेशियर के अचानक टूटने से अलकनंदा नदी की सहायक नदियों धौलीगंगा और ऋषिगंगा में भारी बाढ़ के साथ गाद-मिट्टी, चट्टान नीचे की ओर बहे तो प्रमुख पनबिजली परियोजनाओं सहित रास्ते में पड़ने वाले इलाकों में भारी तबाही बरपा हो गई. कम से कम 36 लोग मारे गए और 166 से अधिक लापता हैं.
इससे जून 2013 में केदारनाथ तीर्थ के पास बादल फटने से आई बाढ़ के बाद राज्य में हुए जल प्रलय की यादें ताजा हो गईं, जिसमें लगभग 4,500 लोग मारे गए थे. हालांकि, शाम तक वैसी तबाही की आशंका कम होने लगी क्योंकि नीचे पौड़ी गढ़वाल जिले के श्रीनगर में बांध के फाटक खोल दिए गए और टिहरी बांध के फाटक बंद कर दिए गए ताकि नीचे आने वाला पानी देव प्रयाग पर अलकनंदा के संगम से गंगा में समा जाए.
बाढ़ ने एनटीपीसी की तपोवन विष्णुगाड स्थित 520 मेगावाट की पनबिजली परियोजना ध्वस्त हो गई और निर्माणाधीन ऋषिगंगा छोटी-विद्युत परियोजना, सड़कों, पुलों के साथ-साथ घरों का तो नामोनिशन ही मिट गया. लापता लोगों में से अधिकांश के इन दो बिजली परियोजनाओं की सुरंगों में फंसे होने की आशंका है. टीएचडीसी इंडिया की 444 मेगावाट की पीपलकोटी और जेपी ग्रुप की 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग पनबिजली परियोजनाओं को भी भारी क्षति की रिपोर्ट मिल रही है. राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया बल (एनडीआरएफ), सेना, वायु सेना और राज्य एजेंसियों की टीमें बचाव और निकासी कार्यों में लगी हुई हैं.

क्यों हुई तबाही?
आपदा किस वजह से हुई, अब तक इसका स्पष्ट कारण पता नहीं है. केंद्र और उत्तराखंड सरकार दोनों ने विशेषज्ञों को काम पर लगा रखा है. इनमें भारतीय भूगर्भ सर्वेक्षण के वैज्ञानिक भी शामिल हैं.
श्रीनगर में हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के एक प्रसिद्ध ग्लेशियोलॉजिस्ट (हिमनद विशेषज्ञ) एच.सी. नैनवाल का कहना है कि प्रभावित क्षेत्र में कोई भी ग्लेशियर झील नहीं है. वे कहते हैं, ''हमें अध्ययन करने की आवश्यकता है कि पानी कहां से आया.''
आइआइटी-इंदौर के ग्लेशियोलॉजी और हाइड्रोलॉजी विभाग के सहायक प्रोफेसर मोहम्मद फारूक आजम के अनुसार, ''ग्लेशियर विस्फोट कभी-कभार ही होते हैं. सैटेलाइट और गूगल अर्थ की तस्वीरों में भी कोई ग्लेशियर झील नहीं दिखती है, लेकिन इस क्षेत्र में ग्लेशियर के भीतर बड़ी झीलों की संभावना है. पानी का ऐसा ही कोई स्रोत फूट गया होगा, जिससे यह घटना हुई. लेकिन हमें निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए मौसम और अन्य आंकड़ों के और अधिक विश्लेषण की आवश्यकता है.''
मौसम विभाग ने आपदा स्थल के आसपास 6-7 फरवरी को खुली धूप की सूचना दी थी. हालांकि हिमालय में हिमस्खलन आम है, लेकिन केवल हिमस्खलन से अलकनंदा की सहायक नदियों में जल स्तर में अचानक और इतनी खतरनाक वृद्धि होने की संभावना नहीं है. कनाडा के यूनिवर्सिटी ऑफ कैलगरी के भू-विज्ञान विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर डैन शुगर ने आपदा के पूर्व और बाद में कैद की गई सैटेलाइट इमेज के साथ किए अपने कई ट्वीट में संभावना जताई है कि कोई बड़ी चट्टान खिसककर ग्लेशियर से टकराई हो सकती है, जिससे यह हादसा हुआ.
ग्लेशियोलॉजिस्ट डॉ. डी.पी. डोभाल के अनुसार सात फरवरी की विभीषिका टूटे हैंगिंग ग्लेशियर से बनी कृत्रिम झील के बंध टूटने से हुई. उनके मुताबिक, सैटेलाइट इमेजरी से यही पता लग रहा है. डॉ. डोभाल ग्लेशियोलॉजी मिशन के तहत वाडिया इंस्टीट्यूट में स्थापित हिमालयन ग्लेशियोलॉजी सेंटर के डाइरेक्टर रहे और इस सेंटर को स्थापित करने में भूमिका निभाई. उन्होंने 2007 में ग्लेशियर में पड़ने वाली बरफ का आयतन मापने के लिए बांस के डंडों का उपयोग कर एक नई शुरुआत की, जिसको अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली. उनके इस काम की सराहना टाइम पत्रिका ने भी की थी.
दरअसल ग्लोबल वार्मिंग की विकराल होती समस्या को समझने और करोड़ों भारतीयों को जीवन देने वाले हिमालय की सुरक्षा और उस पर हो रहे पर्यावरण बदलावों के अध्ययन और वैकल्पिक अनुसंधानों को बढ़ाने के लिए डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार ने 2009 में 211 करोड़ रुपए के साथ हिमालयन ग्लेशियोलॉजी सेंटर की स्थापना की थी. लेकिन जून 2020 में इसे बंद कर दिया गया और उसका विलय वाडिया इंस्टीट्यूट में कर दिया गया. उत्तराखंड में 968 ग्लेशियर हैं, जो पिथौरागढ़, चमोली, उत्तरकाशी और बागेश्वर जिले में फैले हुए हैं.

विकास की कीमत
हालांकि किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी लेकिन कुछ विशेषज्ञ ग्लोबल वार्मिंग और उत्तराखंड की पारिस्थितिकी में निरंतर गिरावट को त्रासदी की वजह बता रहे हैं. इस घटना ने नंदादेवी, बद्रीनाथ और केदारनाथ समेत राज्य के ऊपरी क्षेत्रों में अनियंत्रित विकास कार्यों को सुर्खियों में ला दिया है. इन क्षेत्रों की बनावट ऐसी है कि चाहे वह निर्माण गतिविधि हो या जलवायु परिवर्तन, यहां की सभी नदियों में अचानक बाढ़ आने की आशंका बनी रहती है. जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी पैनल (आइपीसीसी) की एक रिपोर्ट सहित कई अध्ययनों में इन क्षेत्रों में बर्फ के तापमान प्रोफाइल के बढ़ने की बात कही गई है. यह अब शून्य से 2 डिग्री सेल्सियस नीचे है, जबकि एक समय शून्य से 20 से लेकर 6 डिग्री सेल्सियस नीचे तक का तापमान हुआ करता था. इससे बर्फ के जल्द पिघलने की आशंका काफी बढ़ जाती है.
जाहिर है, 2013 में उत्तराखंड में आई उस प्रलंयकारी बाढ़ से कोई सबक नहीं लिया गया, जिसने सैकड़ों लोगों की जान ले ली थी और अनुमानित 2,000 घरों, 1,300 सड़कों और 150 पुलों को नष्ट कर दिया था. अगले वर्ष, उत्तराखंड सरकार ने यूएनडीपी से प्राप्त इनपुट आधारित जलवायु परिवर्तन पर एक कार्य योजना तैयार की थी, लेकिन उस योजना को धरातल पर उतारे जाने के प्रमाण कम ही दिखते हैं.
उत्तराखंड का पारिस्थितिकी तंत्र काफी नाजुक है, जिसका 71 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र है. पिछले एक दशक में राज्य सरकारें विकास और पारिस्थितिकी वास्तविकताओं के बीच संतुलन बनाने की बातें कर रही हैं लेकिन बिजली पैदा करने के लिए नदियों को भारी पैमाने पर क्षति पहुंचाई गई है, नदी के किनारों पर बस्तियों का निर्माण हुआ है और सड़क नेटवर्क का विस्तार करने के लिए पहाड़ों में सुरंगें बनाई जा रही हैं.
मसलन, केंद्र और उत्तराखंड सरकार दोनों ही केदारनाथ, बद्रीनाथ, यमुनोत्री और गंगोत्री के तीर्थस्थलों को जोड़ने के लिए 816 किलोमीटर लंबे चार धाम राजमार्ग को पूरा करने का कार्य आक्रामक रफ्तार से आगे बढ़ा रहे हैं. मंजूरी को लेकर राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) के साथ राज्य प्राधिकरण और एनएचएआइ (भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण) के बीच ठनी हुई है. एनजीटी चाहता है कि जंगलों और पहाड़ों को होने वाला नुकसान कम से कम रखने के लिए निर्माणाधीन सड़क की चौड़ाई 5.5 मीटर (फिलहाल यह 10 मीटर चौड़ी है) तक सीमित कर दी जाए.
लेकिन 537 किमी लंबी सड़क पहले से ही बनकर तैयार हो चुकी है और मूल योजना में अब किसी भी तरह के बदलाव की संभावना बहुत कम है. उत्तरकाशी में गंगा आह्वान नागरिक मंच में सक्रिय तथा और भागीरथी पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र पर नजर रखने वालीं मल्लिका भनोट का कहना है कि चार धाम राजमार्ग निर्माण कम से कम समय में अधिक से अधिक ढलान-कटाई पर ध्यान केंद्रित कर रहा है. वे बताती हैं, ''लंबी ढलानों-अमूमन 45 डिग्री से अधिक झुकाव वाले 60-70 मीटर तक ऊंचे स्थलों को स्थानीय भूगर्भीय संरचना पर विचार किए बिना काट दिया गया है. यह भारी जोखिम वाला है जो कई बड़े भूस्खलनों का कारण बना है.''
हाल के वर्षों में, इस पहाड़ी राज्य में बिजली उत्पादन के लिए जल संसाधनों के अधिकतम दोहन के बड़े प्रयास शुरू हुए हैं. करीब 200 बड़ी, मध्यम और छोटी पनबिजली परियोजनाएं उत्तराखंड में विकास के विभिन्न चरणों में हैं. इस तरह की परियोजनाओं में भारी मात्रा में कंक्रीट का उपयोग होता है, जो गर्मी पैदा करता है और तापमान बढ़ाकर आसपास के क्षेत्र में हिमखंडों और ग्लेशियरों को अस्थिर करता है. नई दिल्ली में सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में सीनियर फेलो मंजू मेनन का कहना है कि उत्तराखंड के ऊपरी क्षेत्रों में इंजीनियरिंग परियोजनाओं ने पहाड़ों को और अधिक नाजुक बना दिया है. वे कहती हैं, ''पारिस्थितिकी की बेहतर समझ न केवल पहाड़ों को बचाने में मदद करेगी बल्कि निवेशकों को अपनी परियोजनाओं के लिए सर्वोत्तम तकनीक के इस्तेमाल के लिए मार्गदर्शन भी करेगी.''
सुप्रीम कोर्ट में 2016 में दायर एक हलफनामे में केंद्रीय जल संसाधन, नदी विकास और गंगा संरक्षण मंत्रालय ने कहा था कि उत्तराखंड के ऊंचे इलाकों सहित कई पहाड़ी क्षेत्रों को जल विद्युत परियोजनाओं से दूर रखा जाना चाहिए. लेकिन उत्तराखंड अपनी मजबूरियों का हवाला देता है. राज्य में लगभग 3.8 गीगावाट बिजली पैदा होती है, लेकिन उसे राष्ट्रीय ग्रिड से अतिरिक्त बिजली खरीदने की जरूरत पड़ती है. राज्य सरकार अगले कुछ वर्षों में अपनी बिजली उत्पादन क्षमता को दोगुना करने का लक्ष्य रखती है.
जून 2018 में, उत्तराखंड हाइकोर्ट ने नदियों के किनारे अनुचित रूप से मलबे जमा करने के कारण राज्य में सभी जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगा दी थी. सुप्रीम कोर्ट ने अगस्त 2020 में, परियोजनाओं को आगे बढ़ने की अनुमति दी, बशर्ते नदियों को बर्बाद किए बिना मलबे का निबटान किया जाए.
हालांकि मौजूदा आपदा की सटीक वजह की अभी जानकारी नहीं है, लेकिन हम जानते हैं कि हिंदुकुश हिमालयी क्षेत्र में 8,000 से अधिक हिमनदीय (ग्लेशियल) झीलें मौजूद हैं, जिनमें से 200 खतरनाक हैं. अकेले उत्तराखंड में करीब 1,000 हिमनदीय झीलें हैं. चमोली में हिमनद के टूटने से हुई यह त्रासदी तब तक एक आखिरी त्रासदी नहीं होगी जब तक कि देश के पहाड़ी राज्य अपने विकास मॉडल का पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने के लिए उचित कार्रवाई, हिमालय और उसकी नाजुक पारिस्थितिकी का चौबीस घंटे मूल्यांकन और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के आकलन के लिए अधिक वैज्ञानिक तरीके अपनाना शुरू नहीं करते.
जाहिर है, समस्या विकराल होती जा रही है और फौरन कदम नहीं उठाए गए तो और बड़ी आपदा की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता. अगर 2013 में केदारनाथ आपदा से ही सबक लिया गया होता तो आज कुछ हद स्थितियां काबू में आ गई होतीं. लेकिन उससे सबक लेने के बदले पनबिजली परियोजनाओं और सड़क निर्माण में जैसी तेजी दिखाई जा रही है, उस पर फिर नए सिरे से विचार करने का वक्त आ गया है. —साथ में, अखिलेश पांडे