scorecardresearch

वक्त की जरूरत ने बंदे को बना दिया सुर्खुरू

लेकिन हम किसी न किसी तरह लडऩा सीख लेंगे और धारा के साथ चलते रहेंगे. आज की तारीख में सख्त होना हमारा चुनाव नहीं बल्कि यह हमारी जरूरत है.

पूषाण दासगुप्ता
पूषाण दासगुप्ता
अपडेटेड 6 अगस्त , 2020

पूषाण दासगुप्ता, 20 वर्ष

मंचीय कला के छात्र

प्रेसिडेंसी यूनिवर्सिटी,

कोलकाता

पूषाण को लगता है कि कोविड के इस दौर में होने का मतलब एक इतिहास का हिस्सा होना भी है. वे कहते हैं, ‘‘यह किसी फटते ज्वालामुखी को नजदीक से देखने जैसा है. मैं इस गजब की अफरातफरी से बहुत हैरत में हूं और दूसरी तरफ रोमांचित भी महसूस कर रहा हूं.’’

वे कोविड जैसी घटनाएं होने देना चाहते हों, ऐसा बिल्कुल नहीं. लेकिन वे उस पीढ़ी का हिस्सा हैं जिसने खान-पान, पहनावे और धार्मिक विश्वासों को लेकर लोगों पर हमले होते देखा है, जिसने महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं के अलावा उन पर होने वाले तरह-तरह के अत्याचारों को मौसमी फ्लू जितने नियमित अंतराल पर होते देखा है, जो अपने चारों ओर रोज जारी हिंसा की गवाह बनती आ रही है.

पूषाण कहते हैं कि अब उन्हें ऐसी किसी चीज को देखकर हैरत नहीं होती. उनके शब्दों में, ''जापान में सुनामी अब ऐसी ही सालाना घटना हो गई है जैसे असम में बाढ़. लोगों ने इसके साथ तालमेल बिठाकर जिंदगी को आगे बढ़ाना सीख लिया है. हम एक बेहद सख्त और प्रतिस्पर्धी समय में बड़े हो रहे हैं और स्वाभाविक तौर पर हम इसके आदी बनते जा रहे हैं.

कोविड हमारे प्रतिस्पर्धी दृष्टिकोण को और अधिक तीखा बना देगा क्योंकि रोजाना नौकरी के अवसर सिकुड़ते जा रहे हैं. लेकिन हम किसी न किसी तरह लडऩा सीख लेंगे और धारा के साथ चलते रहेंगे. आज की तारीख में सख्त होना हमारा चुनाव नहीं बल्कि यह हमारी जरूरत है.’’

लॉकडाउन के दौरान वे न सिर्फ दोस्तों के साथ संपर्क में रहे बल्कि कई अजनबियों से भी वे वाबस्ता हुए. अम्फन चक्रवात प्रभावित जिलों में वे राहत सहायता और जरूरी राशन लेकर पहुंचे थे, उन्होंने प्रवासियों के साथ समय बिताया था और उनकी जिंदगी में थोड़े राहत के पल मुहैया कराने की कोशिश की थी.

इस बीच, वे किताबें पढ़ते रहे, फिल्में देखते रहे और अपने आत्मिक विकास पर ध्यान केंद्रित करते रहे. वे कहते हैं, ‘‘मैं खुशकिस्मत हूं कि मेरा विषय महज पाठ्यक्रम और कक्षाओं की पढ़ाई तक सीमित नहीं है.’’ पूषाण इस बात से भी खुश हैं कि उनके पास भरोसेमंद दोस्तों की एक सदाबहार मंडली है. उनके विश्वविद्यालय में मानसिक स्वास्थ्य के परामर्श का प्रावधान भी है. लेकिन उससे दूर छात्र अपने नजदीकी दोस्तों के साथ चर्चा करने में अधिक सहज होते हैं.

—रोमिता दत्ता

‘‘हम एक बेहद सख्त और प्रतिस्पर्धी दौर में बड़े हो रहे हैं. धीरे-धीरे इसका आदी बन जाना हमारे लिए स्वाभाविक-सी बात है’’

Advertisement
Advertisement