"चाहिए 25-40 वर्ष, सुस्थापित, पशु प्रेमी, शाकाहारी दूल्हा, 36 वर्ष, 5' 11" के मेरे बेटे लिए जो एक एनजीओ में काम करता है, जाति का बंधन नहीं (हालांकि अय्यर को प्राथमिकता).''
पद्मा विश्वनाथ ने 2015 में जब अपने समलैंगिक बेटे के लिए यह वैवाहिक इश्तहार मुंबई के एक अखबार में दिया था, तब हिंदुस्तान में यह इस किस्म का पहला इश्तहार था. उन्होंने यह इश्तहार बस इसलिए दिया, क्योंकि वे अपने बेटे को खुश देखना चाहती थीं. उन्हें पता नहीं था कि इसकी वजह से उसे फौजदारी की धाराओं का सामना करना पड़ सकता है और न ही वे कुछ असामान्य कर रही थीं. उनका दिल तो पहले ही टूट चुका था, तभी जब पता चला था कि उनका बेटा गे है.
परिवार के गौरव, रिश्तेदारों की नैतिक दहशत या अजनबियों की पूछ-परख के डर से उबरने में उन्हें वर्षों लगे—और यह भी मां ही कर सकती थी. 6 सितंबर के गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने उस बात को जायज ठहराया, जो पद्मा ने बहुत पहले अपने बेटे से कही थी, "तुम जैसे चाहो रह सकते हो.'' पद्मा सातवै आसमान पर थीं, "अब यह मानने का वक्त आ गया है कि ये लोग सामान्य हैं, उसी तरह जैसे बाएं हाथ के खब्बू बच्चे होते हैं.''
कभी-कभी मौजूदा वक्त को समझने के लिए भविष्य को देखने की जरूरत होती है. सुप्रीम कोर्ट के पांच सबसे वरिष्ठ जजों ने ठीक यही किया—उन्होंने प्यार करने और जीने के अलग-अलग तरीकों के लिए कानून के काले अक्षरों में प्रतिष्ठापित अपमानजनक सजा को इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिया. इसका असर हिंदुस्तान के प्रति 10 मर्दों और औरतों में से कम से कम एक पर पड़ा है.
भारत के प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्र ने इस ऐतिहासिक फैसले (नवतेज सिंह जौहर और अन्य बनाम केंद्र) को उद्घाटित किया और जर्मन विचारक जोहान वोल्फगैंग वॉन गोएथे की बात का हवाला दिया, "मैं जो हूं वही हूं, इसलिए मुझे वैसा ही स्वीकार करो जैसा मैं हूं.''
प्रधान न्यायाधीश के अलावा न्यायमूर्ति ए.एम. खानविलकर, डी.वाइ. चंद्रचूड़, आर.एफ. नरीमन और इंदु मल्होत्रा की पीठ ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को असंवैधानिक घोषित कर दिया.
158 साल पुराने इस कानून को, जिसने "कुदरत की व्यवस्था के खिलाफ शारीरिक संभोग'' को आपराधिक करार दिया था, बुहारकर निकाल देने के बराबर ही था—हालांकि अंग्रेजों के जाने के 72 साल बाद और ब्रिटेन के कानून की किताब से इसे हटाने के 51 साल बाद.
भारतीय परिवार की हिलती चूलें
जजों के हथौड़े की चोट और यौन जरूरतों, पसंदों और पहचानों की नई निर्भीक दुनिया के बीच शिनाख्तों के एक ककहरे ने एक नई वैधता हासिल कर ली हैः एलजीबीटीक्यूक्यूआइपीएएः लेस्बियन, गे, बाइसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, क्वेश्चनिंग, क्विर, इंटरसेक्स, पैनसेक्सुअल, एंड्रोगाइनस, एसेक्सुअल वगैरह-वगैरह.
मगर क्या यह महान भारतीय परिवार की सदियों पुरानी दुनिया में सेंध लगा देगा? फैसले के हिसाब से तो ऐसा होना चाहिए.
अदालत ने संविधान की इस दूरदृष्टि को और पुख्ता कर दिया है कि यह बदलाव का औजार है, "प्रगतिशील विचारों का जैविक घोषणापत्र'', जिसका मकसद यह नहीं है कि "बहुसंख्यकों की सामाजिक नैतिकता'' के भरोसे बैठा रहा जाए.
क्या यह पारिवारिक मूल्यों के खिलाफ जाएगा? अदालत के मुताबिक, कोई कानून उन लोगों के संघर्ष का "मूक दर्शक'' बना नहीं रह सकता, जो "अक्सर राजसत्ता, समाज और खुद अपने परिवारों के हाथों अपमान, भेदभाव, अलगाव और हिंसा का शिकार'' होते हैं.
व्यक्ति की स्वायत्तता और स्वतंत्रता, बराबरी, गरिमा और निजता के साथ पहचान की स्वीकृति भारतीय संविधान और इस फैसले की मूल स्थापना के "चार बुनियादी स्तंभ'' हैं.
समान सेक्स के रिश्तों को लेकर परंपरा और आधुनिकता के बीच टकराव चल रहा है. इसे मोटे तौर पर पतनशील पश्चिमी संस्कृति के आक्रमण की तरह देखा जाता है, हालांकि ऐतिहासिक रूप से यह हिंदुस्तान में चौतरफा मौजूद रहा है.
उस देश में जो सेक्स को खुसपुस रहस्य के तौर पर बरतने के लिए मशहूर है, कानून ही प्रतिवाद का मुख्य अखाड़ा रहा है. कानून वह जगह है जहां राष्ट्र अपनी यौनिकता से मुखातिब होने की इजाजत देता हैः 1829 में सती प्रथा के खात्मे से लेकर 1955 में हिंदू विवाह कानून में सुधार और 1956 में बहुविवाह पर पाबंदी तक.
मगर गर्भ निरोधक गोलियों की ईजाद के तकरीबन 70 साल बाद औरतों को नई हासिल आर्थिक आजादी, बदलती जनसांक्चियकी और सूचना के इस युग में दुनिया-जमाने का सफर, आमूलचूल बदलाव लाने वाले कानून और फैसलों की लहरें लैंगिक पहचानों के बीच रिश्तों की इबारतें नए सिरे से लिख रही हैं.वे मर्दों के दबदबे को उलट रही हैं और प्यार, यौनिकता और शादी की चाहतों को बदल रही हैं. महिलाओं को संपत्ति के अधिकार, विवाह पूर्व सेक्स, लिव-इन रिश्ते और यौन हिंसा की नई इबारत—कानून का यह बढ़ता कारवां रोजमर्रा की जिंदगी के अंतरंग कोनों में तब्दीली ला रहा है. आइपीसी की धारा 377 को गैर-आपराधिक बनाना बदलाव की सबसे ताजा कड़ी है, और कई बदलावों का इंतजार है.
क्या यह हिंदुस्तान की परिवार नाम की संस्था को बैकफुट पर ला देगा, जो हर रिश्ते, आचरण, संपत्ति, करियर, शादी, परवरिश पर नियंत्रण रखने में यकीन करती है? ब्रिटेन की कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में इतिहास की प्रोफेसर समिता सेन कहती हैं, " भारत में परिवार व्यक्तिगत आजादी की लड़ाई का मुख्य रणक्षेत्र रहा है.''
दिल्ली हाइकोर्ट ने 1984 के एक फैसले में कहा था कि इस परिवार में बराबरी और आजादी की कोई जगह नहीं है. यह दमनकारी माहौल अक्सर आदमियों और औरतों को अपनी यौन पसंद को राज रखने या दबाव में शादी कर लेने के लिए मजबूर करता है और इस तरह उनके जीवनसाथी की जिंदगियां बर्बाद कर देता है.
समाज मनोविज्ञानी आशीष नंदी कहते हैं, "कहानी का दूसरा पहलू भी है और वह है भारतीय समाज के भीतर गहरी जड़ें जमाए बैठा पाखंड.'' नंदी नहीं मानते कि हिंदुस्तानी समाज या परिवार पर इस फैसले का बहुत ज्यादा असर पड़ेगा.
उन्हें यकीन है कि लोग इससे निकलने का रास्ता खोज ही लेंगे. वे कहते हैं, "मौजूदा सियासी निजाम ने इसे लेकर चुप्पी ओढ़ रखी है और सुप्रीम कोर्ट रुढ़िवादिता के सार्वजनिक प्रदर्शन के प्रति असहिष्णुता दर्शा रहा है, ऐसे में गैर-विषमलिंगी प्यार-मुहब्बत के प्रति वैर-भाव और मुखालफत धीरे-धीरे अपने आप गायब हो सकती है.''
वे बात को और साफ करते हुए कहते हैं कि कुछ लोग हमेशा नफरत की वजहें खोज ही लेंगे; मनोविश्लेषण करने वाला साहित्य बताता है कि वैकल्पिक यौनिकता के प्रति लोगों की तर्कहीन नफरत उस वक्त सबसे ज्यादा ताकतवर होती है जब आपके भीतर अचेत और गुप्त समलैंगिकता मौजूदा होती है, जो आपके रक्षात्मक आक्रोश में जाहिर होने का रास्ता हासिल कर लेती है.
धारा 377 पर यह फैसला हिंदुस्तानी मर्दानगी के लिए मील का पत्थर है. अदालत ने स्पष्ट किया है कि किस तरह समलैंगिकता को विकृति मानने वाले पहले के सिद्धांतों की जगह ज्यादा ज्ञानवान नजरियों ने ले ली, जो इसे "मानव यौनिकता के सामान्य और प्राकृतिक रूप के तौर पर्य्य देखने लगे हैं; किस तरह 377 सरीखे कानूनों ने प्रतिसंस्कृति के खिलाफ ब्लैकमेल, जुल्मो-सितम और हिंसा का माहौल पैदा किया है; या किस तरह 24 देश अब समान-सेक्स जोड़ों को शादी की इजाजत देते हैं जबकि 28 देश इस किस्म के रिश्तों को कानूनी मान्यता देते हैं. क्या यह सामाजिक लोकाचारों को बदल देगा? पुरुषत्व के अध्ययनों की अग्रणी आवाज पुणे के मंगेश कुलकर्णी कहते हैं, "राजसत्ता और कानून के नजरिए से पुरुष को विषम लैंगिकता की शब्दावली में परिभाषित किया जाता था. वह अब खत्म हो चुका है.''
कई अनुत्तरित प्रश्नकानूनी लड़ाई भले खत्म हो गई हो, पर कई अनुत्तरित सवाल बाकी हैं. अब परिवार की अवधारणा का क्या होगा? शिव विश्वनाथन मानते हैं कि अब वह कथित महान भारतीय परिवार नहीं होगा, पर कम-से-कम शहरी भारत में अब किस्म-किस्म के कई आधुनिक हिंदुस्तानी परिवार होंगे, जिनमें समान-सेक्स पार्टनर होंगे और गोद लिए गए बच्चे.
क्या हिंदुस्तान इसके लिए तैयार है? हिंदुस्तानी परिवार को, खासकर मध्यम वर्गों में, बड़ी हद तक हिंदू अधिकारों और मुस्लिम अधिकारों ने गढ़ा है. दोनों ही पक्ष पहले ही इस फैसले को खारिज कर चुके हैं.
परिवार को परिभाषित करने के तरीकों पर अदालतों की गहरी पकड़ के साथ क्या पहचान, स्वायत्तता और निजता पर उसके विचार कारगर होंगे? क्या फैसला एलजीबीटीक्यू समुदाय के सदस्यों को सार्वजनिक जगहों पर गरिमा की गारंटी देगा?
अगर मकान मालिक समलैंगिक परिवारों को नामंजूर कर देते हैं तो फिर क्या होगा? क्या स्कूल ऐसे माता-पिता के गोद लिए बच्चों को स्वीकार करेंगे? क्या यह यौनिकता में, समलैंगिक नागरिकों को देखने के हिंदुस्तान के तौर-तरीकों में बेहद जरूरी क्रांति का सूत्रपात करेगा?
क्या यह संवैधानिक अधिकार के तौर पर समलैंगिक विवाहों की तरफ ले जाएगा? सुप्रीम कोर्ट को ऐसे दिशा-निर्देश देने पड़ सकते हैं जिनसे वैकल्पिक यौनिकता वाले लोगों को शिक्षा, व्यवसाय, चिकित्सा और दूसरी नागरिक सुविधाओं में संस्थाओं और कानून का सहारा मिल सके.
अगर ऐसा होता है, तो यह फैसला क्रांति ले आएगा. मनोविश्लेषक सुधीर कक्कड़ कहते हैं कि फिलहाल यह लाखों मर्द और औरतों की जज्बाती तकलीफ को कम करेगा, उन्हें अपने डर का सामना करने के लिए आत्मविश्वास और ताकत देगा, उनसे इस पूछताछ पर लगाम लगाएगा कि उनके साथ कोई शारीरिक या मनोवैज्ञानिक गड़बड़ी तो नहीं है. उन्हें सुकून खोजने के लिए नशीले पदार्थों की शरण में जाने या अपनी जिंदगी को खत्म कर लेने की जरूरत भी नहीं होगी.
ऐसे संकेत हैं कि दुनिया भर में विचारधारा की हवाएं बदल रही हैं और निजी स्वतंत्रताएं उद्घाटित हो रही हैं. वैकल्पिक यौनिकता की लड़ाई अभी बस शुरू ही हुई है. आगे लंबा रास्ता है. मगर कम-से-कम उस रास्ते का नक्शा तो है.
तो उस दिन का इंतजार कीजिए जब आप कह सकेंगे, "महान हिंदुस्तानी परिवार मर चुका है. महान हिदुस्तानी परिवार की 50 प्रेतात्माएं जिंदाबाद.'' इस बीच, मुंबई की एक मां ने अपने बेटे के लिए एक "अच्छे-से लड़के'' की तलाश फिर शुरू कर दी है.
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