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बदचलन बाबाः एक कलंक कथा

मामूल शरणार्थी आसुमल थाउमल हरपलानी ने किस तरह साइकिल मरम्मत करने से अपने करियर की शुरुआत की और बाद में आसाराम बापू बनकर प्रवचन के जरिए कैसे करोड़ों अनुयायी बनाए. फरेब और जुर्म की बुनियाद पर खड़े उसके अरबों रु. के साम्राज्य को एक पीड़िता के संकल्प ने किस तरह धराशायी किया.

आसाराम
आसाराम
अपडेटेड 30 अप्रैल , 2018

अप्रैल की 25 तारीख को जोधपुर जेल में न्यायाधीश मधुसूदन शर्मा ने स्वयंभू बाबा आसाराम को उम्रकैद की सजा सुनाई तो उसका चेहरा उतर गया. कभी हजारों श्रद्धालुओं पर जादू चलाने वाले आसाराम की सारी तिकड़में अदालत के सामने बेकार गईं. न्यायाधीश ने अगस्त 2013 में एक नाबालिग लड़की के साथ बलात्कार के आरोप में आसाराम को सजा सुनाते हुए कड़ी टिप्पणी की, "दोषी ने न केवल पीड़िता का भरोसा तोड़ा बल्कि आम जनता में संतों की छवि को भी नुक्सान पहुंचाया.''

लेकिन आसाराम जैसे अकूत ताकत के मालिक से लडऩा इतना आसान नहीं था. खुद न्यायाधीश ने पीड़िता के हौसले का भी जिक्र किया. पीड़िता आसाराम के विशाल कद और ताकत से घबराई हुई थी पर अभिभावकों का साथ पाकर उसने हिम्मत दिखाई और उसे इस अंजाम तक पहुंचाया. इसी के साथ गुनाहों के लिए सुर्खियां बटोरने वाले इस बदकार बाबा की कलंक कथा का पटाक्षेप हो गया. आसाराम बापू का उभरना, फलना-फूलना और फिर उसका पतन हाल के दशकों की सबसे हैरतअंगेज कहानियों में शुमार है.

आसाराम का उत्थान और पतन

सिंध प्रांत में नवाबशाह इलाके के बिरानी गांव का एक शरणार्थी लड़का विभाजन के बाद पहले कच्छ और फिर वहां से अहमदाबाद पहुंचा. शुरुआत में उसने साइकिल की दुकान में मरम्मत से लेकर तांगेवाले तक कई काम किए और आखिरकार कथावाचक बनने का रास्ता चुनकर अपने जबरदस्त अनुयायी बनाए और फिर एक दिन धड़ाम से जमीन पर आ गिरा. यह किसी अविश्सनीय कहानी की तरह है. वह लड़का और कोई नहीं बल्कि आसुमल थाउमल हरपलानी था, जिसने बाद में अपना नाम आसाराम रख लिया.

कच्छ से आने के बाद आसाराम अहमदाबाद के जिस मणिनगर इलाके में रहा, उसी इलाके के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के बड़े नेता (जिनका निधन हो चुका है) ने एक बार इंडिया टुडे को बताया था कि आसाराम ने अपनी जवानी के दिनों में उनके साथ आरएसएस की शाखाओं में शरीक होने की भी कोशिश की थी, पर उसके आत्मकेंद्रित तौर-तरीकों की वजह से उसे जल्दी ही बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.

आसाराम को कच्छ के दिनों से जानने वाले उसके एक दोस्त के मुताबिक, उसने किशोर उम्र में कच्छ के बड़े सिंधी संत लीला शाह बाबा का अनुयायी बनने की भी कोशिश की थी, पर उसके जिद्दी और मनमौजी रंग-ढंग को देखते हुए संत ने उसे कभी स्वीकार नहीं किया.

मगर यह सच्चाई कभी सार्वजनिक तौर पर सामने नहीं आई कि लीलाशाह बाबा ने आसुमल को ठुकरा दिया था. जल्दी ही आसुमल ने अपना नया नाम आसाराम बापू रखकर संन्यासी का सफेद चोला धारण कर लिया और संत बनने की राह पर चल पड़ा. उसके आसपास लोग जुटने लगे जिनमें शुरुआत में ज्यादातर सिंधी थे.

जल्दी ही जब वह भगवान कृष्ण और भगवान शिव और खुद अपने गुरु पूजा के नाम पर निचले तबकों के अवसाद से ग्रस्त लोगों की तकलीफों का निवारण करने का दावा करने लगा, तो हर तरह के लोग उसके अनुयायियों की जमात में शामिल होने लगे. वह अपने पास आने वाले लोगों को प्रभावित करने के लिए कई तिकड़में अपनाता था.

आसाराम के अनुयायी एक बात के लिए जाने जाते थे—हिंसा. गुजरात, राजस्थान और मध्य प्रदेश के कई इलाकों में, जहां उसके अनुयायी बड़ी तादाद में थे, लोग सफेद चोला धारण किए आसाराम के साधकों के साथ रेलों-बसों में सफर करने से डरने लगे थे कि कहीं किसी छोटी-सी बात पर भी उनकी नाराजगी मोल न ले लें. देशभर में फैले आसाराम के तकरीबन 400 आश्रमों में से कुछ उसके साधकों ने उनके असली मालिकों से जोर-जबरदस्ती या ब्लैकमेल करके हड़पे थे.

उसके खिलाफ हो चुके एक पूर्व अनुयायी ने इंडिया टुडे को ब्योरेवार बताया था कि किस तरह हरिद्वार के नजदीक ऋषिकेश के आश्रम की जमीन एक साधु से हिंसा के बल पर छीनी गई थी. हकीकत यह है कि उसके बहुत-से आश्रमों की जमीन अदालती मुकदमों में उलझी हुई है क्योंकि उनके असली मालिक अब अपनी जमीन वापस हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं.

हालांकि कई लोग अपनी जायदाद से हाथ धो बैठे हैं. 1980 के दशक में मध्य प्रदेश में रतलाम के नजदीक पंचेड़ के पूर्व राजपरिवार ने अपनी जमीन का एक बेशकीमती टुकड़ा आसाराम के अनुयायियों को आध्यात्मिक गतिविधियों के लिए किराये पर दिया था.

कुछ वक्त बाद उन्होंने पाया कि उस जमीन पर आश्रम बना लिया गया, जिससे आसाराम के साधकों को बेदखल करना उनके बस की बात नहीं रह गई. पंचेड़ के मौजूदा ठाकुर ओम सिंह चौहान के मुताबिक, राजस्व अफसरों की मिलीभगत से दस्तावेजों तक में हेराफेरी कर दी गई और आखिरकार परिवार को वह जमीन छोडऩे और आसाराम के एक ट्रस्ट को औने-पौने दाम पर बेचने के लिए मजबूर कर दिया गया.

साधकों को हिंसा की तालीम खुद आसाराम के उपदेशों और प्रवचनों से मिलती थी. मिसाल के लिए अपनी एक किताब के विवादास्पद उपदेश में उसने अपने अनुयायियों को नसीहत दी थी कि गुरु सही हो या गलत, उस पर कभी सवाल खड़े मत करो. 2008 में इंडिया टुडे में इस बारे में रपट छपने के बाद किताब की उस सामग्री को वापस ले लिया गया.

इसमें आसाराम ने गुरु की तुलना शिव से की थी और धमकी दी थी कि अगर किसी अनुयायी ने कभी भी गुरु की पीठ में छुरा भोंकने या उसके फरमान पर हुज्जत करने की कोशिश की तो उसे भीषण अभिशाप झेलना पड़ेगा.

इससे भी आगे बढ़कर उसने अनुयायियों से न केवल हिंसक होने बल्कि इस हद तक हिंसक होने के लिए कहा था कि अपने विरोधियों की जबान काट लो. अपने एक भाषण में उसने साधकों से यह भी कहा था कि गुरु के खिलाफ बगावत करना उतना ही बड़ा पाप है जितना गुरु पत्नी के साथ सेक्स करना. फिर 9/11 के बाद उसने खुलेआम ओसामा बिन लादेन की इस बात के लिए तारीफ की थी कि उसने ऐसे अनुयायी पैदा किए जो अपने गुरु की खातिर कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार थे.

एक और अहम बात यह थी कि हर साल गुरु पूर्णिमा पर आसाराम का गुरु दक्षिणा कार्यक्रम उसके लिए पैसा उगलने की चरखी बन गया था. इस दिन लाखों लोग आते और प्राचीन भारतीय परंपरा का निर्वाह करते हुए रकम की शक्ल में दक्षिणा भेंट करते. वह कई दूसरे तरीकों से भी लोगों से रुपए ऐंठता था.

आध्यात्मिकता और जन सेवा पर उसकी पत्रिकाएं—ऋषि प्रसाद और लोक कल्याण सेतु—उसके सबसे अच्छे दिनों में हर साल 7.5 करोड़ रु. जुटाती थीं. तकरीबन दो दर्जन उत्पादों की बिक्री से भी करोड़ों रु. आते थे, जिनमें कई किस्म की आयुर्वेदिक दवाइयां, गौमूत्र, साबुन, शैंपू और अगरबत्तियां वगैरह शामिल थीं. इस साम्राज्य का नियंत्रण तकरीबन 400 ट्रस्टों के हाथ में था, जिनमें दो प्रमुख थे—श्री आसाराम आश्रम ट्रस्ट और संत श्री आसारामजी महिला उत्थान ट्रस्ट. दोनों के मुख्यालय अहमदाबाद में थे.

आसाराम के होली और कृष्ण जन्माष्टमी के उत्सव उसके लिए औरतों के साथ घुलने-मिलने के मौके होते थे. इनमें वह भगवान कृष्ण की तरह बाना धारण करके उन्हीं की तरह अदाकारी और नृत्य करता था. यहां तक कि ताज पहनता था और महिला अनुयायियों पर पिचकारियों से रंगों की बौछार करता था.

आरएसएस से अपनी नजदीकी दिखाकर और हिंदुत्व के मुद्दों की हिमायत करके उसने गुजरात की हिंदुत्व की दुनिया में बड़ी सावधानी से अपना रौब-दाब जमाया था. विश्व हिंदू परिषद (विहिप) के साथ उसकी नजदीकी और ज्यादा थी. और क्यों न होती, आखिर मिशनरियों की धर्मांतरण की गतिविधियों के खिलाफ खुलेआम प्रवचन देकर उसने विहिप को खासा प्रभावित जो कर लिया था. उसके उच्च पदस्थ दोस्तों में हर पार्टी के नेता शामिल थे.

अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, नरेंद्र मोदी, कपिल सिब्बल, उमा भारती, रमन सिंह, कमलनाथ, प्रकाश सिंह बादल, एच.डी. देवेगौड़ा, फारूक अब्दुल्ला, जॉर्ज फर्नांडीस, राजनाथ सिंह आदि उसके अनुयायियों की बढ़ती संख्या से उसकी ओर आकर्षित हुए (देखेः आसाराम के आश्रम की काली हकीकत, इंडिया टुडे, 2 अक्तूबर, 2013).

विवाद हालांकि समय-समय पर आसाराम का पीछा करते रहते थे, पर 1980 से 2008 में अपना पतन होने तक आसाराम ने बहुत अच्छे दिन देखे. उसका पतन तब शुरू हुआ जब अहमदाबाद में उसके आश्रम के स्कूल के दो छात्रों की लाश साबरमती नदी के तल से बरामद हुई और आरोप लगे कि आसाराम तांत्रिक है जिसने तांत्रिक अनुष्ठान के लिए शरीर के अंग निकालने के मकसद से इन दो छात्रों को मरवाया है.

आरोप तो साबित नहीं हुए पर आसाराम का पतन जरूर शुरू हो गया. उस वक्त की नरेंद्र मोदी सरकार ने आरोपों की जांच के लिए एक आयोग गठित किया, जिसने अपने सामने गवाही देने के लिए लोगों को आमंत्रित किया.

आसाराम के नाराज अनुयायी एक-एक कर सामने आने लगे और उसके साम्राज्य—जो उसके ट्रस्टों की जमीन सहित अब तक 25,000 करोड़ रु. का हो चुका था—के कई काले रहस्य उजागर करने लगे. इनमें उसके कथित यौन जीवन खासकर लड़कियों के प्रति उसका कथित लगाव शामिल था.

ये आरोप अब खुलेआम और मीडिया के सामने भी लगाए जाने लगे और इसकी अगुआई आसाराम के कुछ सबसे प्रमुख अनुयायी कर रहे थे जो अब उसके दुश्मन बन चुके थे. इनमें शामिल थे जानलेवा हमलों से किसी तरह बच निकले महेंद्र चावला और आसाराम की कथित गैरकानूनी गतिविधियों के तीन प्रमुख गवाह, जो या तो मारे जा चुके थे या गायब हो गए थे—अमृत प्रजापति, जिन्हें खामोश करने की गरज से कम से कम छह हिंसक हमलों के बाद 2014 में राजकोट में गोली मार दी गई; अखिल गुप्ता, जो आसाराम के रसोइए थे और जिनकी 2015 में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर में गोली मारकर हत्या कर दी गई; और राहुल सचान, जो नवंबर 2015 में पुलिस सुरक्षा के बावजूद लखनऊ से गायब हो गए.

सचान के गायब होने के तकरीबन एक पखवाड़े बाद उत्तर प्रदेश पुलिस ने इसकी रिपोर्ट दर्ज की. यह आसाराम के अनुयायियों के रसूख के बारे में बताता है, तब भी जब वह कमजोर पड़ चुका था और जेल में बंद था (बलात्कार के आरोप में वह 2013 से जेल में है).

अहम बात यह है कि विरोधियों पर उसके अनुयायियों के हमलों की फेहरिस्त गैरमामूली ढंग से लंबी है. दिलचस्प बात यह है कि किसी समय आसाराम के वैद्य रहे प्रजापति ने बताया था कि उनके "गुरु'' ने उनसे अपने लिए सेक्स शक्ति बढ़ाने वाली आयुर्वेदिक दवाएं बनाने के लिए कहा था.

उन्होंने यह भी बताया था कि जब जवान महिला श्रद्धालुओं को उसके अहमदाबाद आश्रम की एक एकांत इमारत में "गुरु'' दर्शन के लिए ले जाया जाता था, तब उन्हें नशे का एक सीरप या घोल दिया जाता था, जिसे "पंचेड़ जड़ी-बूटी'' कहा जाता था, क्योंकि यह पंचेड़ के आश्रम से आया था. कुछ अनुयायियों के मुताबिक, यह जड़ी-बूटी और कुछ नहीं बल्कि अफीम का घोल थी.

ऐसे ढहा काला साम्राज्य

अगस्त 2013 में उत्तर प्रदेश की रहने वाली एक किशोरी दिल्ली के पुलिस अधिकारियों के पास गई और बताया कि आसाराम ने किस प्रकार जोधपुर के अपने आश्रम में उसका शारीरिक शोषण किया. दिल्ली पुलिस ने 20 अगस्त को जीरो एफआइआर दर्ज की और इसको फिर जोधपुर संबंधित थाने को भेज दिया.

सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार देश के किसी भी हिस्से में एफआइआर दर्ज कराई जा सकती है, ऐसी शिकायत को जीरो एफआइआर कहा जाता है. गेंद अपने पाले में देख राजस्थान की कांग्रेस सरकार शुरू-शुरू में तो बहुत फूंक-फूंक कर कदम रखती दिखी.

वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों ने कह दिया कि लड़की के साथ बलात्कार तो क्या बलात्कार की कोशिश भी नहीं मानी जा सकती क्योंकि आसाराम ने केवल उस लड़की के शरीर के ऊपरी नग्न हिस्सों को छुआ था और उसे अपने जननांग छूने को विवश किया था.

उस समय बहुत कम ही लोग पॉक्सो कानून की ताकत से परिचित थे. पॉक्सो कानून में यह साफ तौर पर लिखा गया है कि अगर पीड़ित अल्पायु है तो उसके साथ हुई कामुकतापूर्ण छेड़छाड़ को भी उसी बलात्कार की श्रेणी में ही रखा जाएगा जिसमें यौन अंग का प्रवेश शामिल होता है. इसी कारण आसाराम को आजीवन कारावास की सजा हुई है.

कांग्रेस सरकार शुरू-शुरू में आसाराम के खिलाफ कार्रवाई से हिचकती नजर आती थी क्योंकि तीन महीने बाद विधानसभा चुनाव होने थे. आसाराम पर कार्रवाई से कांग्रेस को हिंदू वोटों के खिसकने का अंदेशा था क्योंकि भाजपा पहले से ही गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की हिंदुत्व लहर से फायदे में दिख रही थी.

एक पुलिस अधिकारी जिसने मुठभेड़ के आरोपों में जेल की सलाखों के पीछे लंबा समय काटा है, उसे भी फर्जी बाबा का करीबी बताया गया. इस बात की आशंका थी कि क्या यह मामला उतना मजबूत बन सकेगा कि आसाराम को आखिरकार सजा ही हो जाए. लेकिन मामले की लीपापोती के कोई आदेश नहीं थे.

अधिकारियों को यह साफ तौर पर पता था कि उन्हें कार्रवाई के दौरान सारी प्रक्रिया का पालन करते हुए हर कदम बहुत सावधानी से उठाना होगा तभी वे आसाराम पर हाथ डाल पाएंगे. इसी नजरिए के कारण उसे सजा हो सकी है. बेशक इसमें सबसे अहम था पीड़ित और उसके परिवार का संकल्प.

वे ताकतवर और खतरनाक चरित्र वाले आसाराम को उसके इस धोखे के लिए सजा दिलाने को हर खतरा मोलने को तैयार थे. दरअसल, माता-पिता ने अपनी बेटी को आसाराम के पास अच्छी शिक्षा लेने के लिए भेजा था.

उस लड़की को आसाराम की सेवा के लिए नियुक्त किया गया पर वह उससे अपनी वासना की पूर्ति कराना चाहता था. कोर्ट ने माना कि यह अपराध सुनियोजित तरीके से हुआ है इसलिए आजीवन कारावास ही उपयुक्त सजा होगी.

जांच की अगुआई कर रहे अजयपाल लाम्बा ने सजा होने के तुरंत बाद इस फैसले को मील का पत्थर बताते हुए फेसबुक पर लिखा, "यह फैसला आपाराधिक न्यायशास्त्र में एक मील के पत्थर की तरह याद किया जाएगा. अगर निष्पक्ष होकर कानून का पालन किया जाए तो कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी आसाराम जैसे अत्यंत प्रभावशाली अपराधियों को चुनौती देकर इंसाफ पा सकता है.'' लाम्बा उस दौरान डीसीपी थे और जोधपुर के पुलिस कमिशनर बीजू जोसफ को रिपोर्ट करते थे.

लाम्बा खुद भी आइपीएस अधिकारी हैं और उन्होंने इस सोच के साथ काम शुरू किया कि पीड़िता के साथ गलत तो हुआ है. उसने जो बताया है वह सत्य है लेकिन उसे रिकॉर्ड पर लाने और भलीभांति सत्यापित करने की जरूरत है.

उन्होंने राज्य पुलिस के अधिकारी चंचल मिश्र को आसाराम को गिरक्रतार करने की जिम्मेदारी सौंपी क्योंकि वह पूछताछ में सहयोग से इनकार कर रहा था और अपने इंदौर आश्रम में चला गया था. मिश्र ने आसाराम को शांतिपूर्वक आत्मसमर्पण के लिए तैयार करने के लिए सारे तरीके अपनाए और सफल भी हुए.

दिसंबर 2013 में राजस्थान में भाजपा की सरकार आते ही शुरुआत में इस केस की जांच से जुड़े ज्यादातर अधिकारियों का तबादला कर दिया गया. नई टीम पहले से ज्यादा सतर्क थी. यही कारण है कि आरंभिक जांच और जुटाए गए साक्ष्य जो कि रिकॉर्ड पर आए थे, उनके कारण देर से ही सही पर इंसाफ संभव हुआ.

मजेदार बात यह है कि आसाराम के अनुयायी शुरू से ही कांग्रेस की तत्कालीन अध्यक्ष सोनिया गांधी पर उसे श्फंसाने्य का आरोप लगाते रहे हैं. जोधपुर में हाइकोर्ट के वकील संजीव शर्मा भी मानते हैं कि आसाराम को सोनिया गांधी और उनके परिवार के खिलाफ बोलने की सजा मिली है. ठीक ऐसे ही आरोप उमा भारती ने 2013 में लगाया थाः "उन्हें सोनिया और राहुल गांधी का विरोध करने के कारण निशाना बनाया जा रहा है.''

इस केस के ट्रायल के दौरान 13 प्रत्यक्षदर्शियों पर हमले हुए और उनमें से तीन की जान भी चली गई. एक की तो जोधपुर की अदालत में छुरा घोंपकर हत्या कर दी गई थी. लेकिन इन मामलों का सीधा-सीधा कोई जुड़ाव आसाराम से था, इसके कोई सबूत अब तक नहीं मिले हैं. लेकिन जिस तरह से विभिन्न राज्यों में गवाहों को धमकाने के बाद हमले हुए या उनकी हत्या होती रहीं, उससे पुलिस की अपने गवाहों को सुरक्षित रखने में नाकामी भी दिखती है.

आसाराम की अदालत में अक्सर होने वाली पेशी भी सरगर्मी भरी होती थी. उसके सैकड़ों समर्थक उसकी एक झलक पाने के लिए घंटों उसका इंतजार करते थे और कुछ तो पैदल ही कोर्ट से लेकर जेल तक उसके पीछे-पीछे भागते थे.

वे उस समय आक्रामक भी हो जाया करते थे. पुलिस ने मामले की सुनवाई जेल में ही कराने की एक आधी-अधूरी कोशिश भी की थी पर कोर्ट ने मना कर दिया. फिर भी कोर्ट ने पुलिस की उस अपील को स्वीकार लिया कि सजा के लिए आसाराम को जेल से कोर्ट लेकर आने में कानून-व्यवस्था के बिगडऩे का खतरा है इसलिए जेल में ही अदालत लगाकर सजा सुनाई जाए.

आसाराम को चाइल्ड ट्रैफिकिंग और पॉक्सो ऐक्ट के तहत सजा हुई है और उसके वकीलों ने पूरी कोशिश की थी कि पीड़िता को बालिग साबित किया जाए. अगर वे नाबालिग साबित कर पाते तो आसाराम को पॉक्सो के तहत सजा नहीं मिल पाती और वह इतनी कड़ी सजा से बच जाता. लेकिन अदालत में उसके वकील यह साबित नहीं कर सके.

आसाराम के वकील सज्जनराज सुराणा कहते हैं, "अदालत ने एक इंश्योरेंस पॉलिसी को जजमेंट में शामिल नहीं किया, जो इस फैसले पर सवाल खड़े करती है.'' हालांकि जोधपुर बार एसोसिएशन के अध्यक्ष रणजीत जोशी का कहना है, "फैसला गवाह और सबूतों के आधार पर हुआ है.''

आसाराम की प्रवक्ता नीलम दूबे ने अब हाइकोर्ट में अपील करने की बात कही है. सवाल है कि क्या उसे ऊपरी अदालत से जमानत मिलेगी? दरअसल, आसाराम के खिलाफ विभिन्न धाराओं के तहत आरोप लगे थे और अदालत ने मामले की विस्तृत सुनवाई के बाद अपने फैसले में उसे सजा सुनाई.

उसे सख्त सजा सुनाई गई है. ऊपरी अदालतें ही यह तय करेंगी कि क्या निरंतर सजा उचित है या फिर समवर्ती (कन्करेंट) सजा ही पर्याप्त है. खैर, जो भी हो पर इस बात की आशा कम ही है कि वह किसी भी सूरत में अपने जीवनकाल में जेल से बाहर आ पाएगा.

फिर भी बड़ी अदालतों ने समय-समय पर बड़े अपराधों में भी आरोपियों को बड़ी राहत दी है. सलमान खान का मामला ही ले लें. यह भी जोधपुर के निकट हुआ था और आने वाले कई वर्षों तक यह चलता रहेगा. आसाराम को आशा है कि वह एक दिन जेल से छूटेगा और राजा की तरह शानो-शौकत की अपनी जिंदगी फिर से जी सकेगा.

अन्य पीड़ितों को भी आस

आसाराम के मुकदमों में जिन लोगों को उसके राज खोलने से रोकने और खामोश करने की गरज से मौत की नींद सुला दिया गया, अब उनके परिजन इंसाफ की मांग कर रहे हैं. इनमें से कई मामलों की जांच कुछ आगे बढ़ी है, पर एक भी मामले में वह आसाराम के गले तक नहीं पहुंची है.

हालांकि उसके वफादार कहते हैं कि इन हमलों और हत्या में आसाराम की कोई भूमिका नहीं थी, मगर पीड़ितों के रिश्तेदारों का कहना है कि आसाराम की मिलीभगत के सबूत हैं जो अपने आप सारी कहानी बयान कर देते हैं.

मारे गए अखिल गुप्ता के पिता नरेश गुप्ता कहते हैं, "मेरे बेटे की हत्या में गिरफ्तार दो कथित हमलावरों में से एक ने असल में पुलिस को बताया है कि उसे मारने की साजिश आसाराम के दो दर्जन अनुयायियों ने गाजियाबाद के आश्रम में रची थी.

तमाम संदिग्धों के फोन कॉल रिकॉर्ड की जांच की जाए और उनसे कड़ाई से पूछताछ की जाए तो सारी कहानी सामने आ जाएगी. हमारे पास पक्की जानकारी है कि इन लोगों को ये संदेश आसाराम से ही मिला करते थे, या तो बिचौलियों के जरिए या खुद आसाराम ही जोधपुर जेल से गैरकानूनी फोन कॉल के जरिए सीधे ये संदेश भेजा करता था. कॉल रिकॉर्ड की जांच और जोधपुर जेल के जेलर से पूछताछ के अलावा उन लोगों की जांच-पड़ताल होनी चाहिए जो हत्या की अवधि के दौरान आसाराम से मिलने आए थे. इससे सचाई उजागर हो सकती है.''

मगर आसाराम और उसके अनुयायियों के खिलाफ इन शिकायतों में एक फर्क देखा जा सकता है. आसाराम के खिलाफ अदालत के इस कड़े फैसले के बाद अब इन लोगों के भीतर उम्मीद और भरोसा जगा है कि आसाराम के गले में कानून का फंदा कस सकता है.

फिलहाल आसाराम ऊर्फ कैदी नंबर 130 अब अपने जीवन के आखिरी दिन उसी राजस्थान की जेल में बिताएगा जहां से उसका संत के रूप में उदय हुआ था. जाहिर है, आसाराम की यह कलंक कथा रसूख और पैसे की अकूत सत्ता के मद में चूर होकर अर्श से फर्श तक पहुंचने की हैरतअंगेज कहानी है.

—साथ में संध्या द्विवेदी और विजय महर्षि

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