नए साल के आने के साथ ही यह अच्छी खबर भी आई है कि अक्षय ऊर्जा में भारत की स्थापित क्षमता नवंबर 2017 में 62 गीगावाट (जीडब्ल्यू) के स्तर को पार कर गई. यह भारत की कुल विद्युत क्षमता 333 जीडब्ल्यू के 19 फीसदी के बराबर है. कुल 62 गीगावाट की अक्षत बिजली में से 16.6 गीगावॉट सौर ऊर्जा से है और 32.7 गीगावाट वायु ऊर्जा से. बाकी बचा हिस्सा हाइड्रोपावर और बायोपावर के खाते में गया.
अक्षत ऊर्जा की श्रेणी में वायु सबसे बड़ा स्रोत है. इसके बावजूद सौर ऊर्जा को भारत की सफलता की सबसे बड़ी कहानियों में माना जा सकता है जिसमें जमीनी स्तर पर मिले नतीजे कुछ सालों से उम्मीद से कहीं ज्यादा बेहतर हैं. मॉड्यूल की कीमतों में पिछले आठ साल में 70 फीसदी गिरावट आई है और बाकी 'प्रणाली संतुलन' की कीमतें भी माप की अर्थव्यवस्था और बेहतर समझ के कारण नीचे आई हैं.
लेकिन बाजार की चाल से कहीं ज्यादा योगदान सरकारी नीति का रहा है. भारत में 2010 से ही राष्ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन (एनएसएम) है जिसने 2022 तक 20 गीगावाट की क्षमता हासिल करने का लक्ष्य रखा था. लेकिन तमाम प्रेक्षकों को चौंकाने वाले एक साहसिक फैसले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 में सत्ता में आने के कुछ ही समय बाद इस लक्ष्य को चार गुना बढ़ाकर 100 गीगावाट कर दिया. यह बढ़ा हुआ लक्ष्य (दिसंबर 2015 में दस्तखत किए गए) पेरिस जलवायु समझौते के तहत भारत की औपचारिक प्रतिबद्धता का अंतर्निहित हिस्सा बन गया. इसमें 2030 तक बिजली उत्पादन में कम से कम 40 फीसदी क्षमता गैर-जीवाश्म ईंधन (इसमें अक्षत, नाभिकीय और बड़ी पनबिजली ऊर्जा शामिल है) से हासिल करने की बात शामिल है.
हालांकि नीतिगत क्रियान्वयन की बाधाएं भी काफी हद तक दूर कर दी गईं. पहली बार ऊर्जा, कोयला और नवीन व अक्षत ऊर्जा के मंत्रालयों को एक ही काबिल मंत्री के अधीन कर दिया गया जिससे आपसी खींचतानी निम्नतम हो गई.
एक व्यापक सौर पार्क नीति की घोषणा की गई जिसमें स्थापित प्रत्येक मेगावाट क्षमता के लिए 20 लाख रुपए की सब्सिडी का प्रावधान था. भारतीय सौर ऊर्जा निगम (एसईसीआइ) जैसे निकायों के मार्फत भुगतान गारंटी की प्रणाली से एक ऐसे क्षेत्र में निवेशकों का विश्वास बढ़ा जो भुगतान में देरी के लिए कुख्यात था. जर्मनी और स्पेन जैसे देशों में प्रचलित महंगे फीड-इन टैरिफ की जगह पर मोदी सरकार ने एनएसएम के तहत पहले से लागू रिवर्स बोली प्रणाली पर बड़ा दांव खेला जिसके कारण रिकॉर्ड बनाने वाली कीमतें सामने आईं और हाल ही में राजस्थान में एक बोली में बिजली की दरों ने 2.44 प्रति किलोवाट घंटा के नए निम्न स्तर को छू लिया.
दरों की बोलियां हालांकि सौर ऊर्जा की 'असली' लागत को प्रतिबिंबित नहीं करतीं. सौर ऊर्जा तभी पैदा होती है जब सूरज चमकता है. उसके उत्पादन में इस अस्थिरता को उपयुक्त रूप से संतुलित करके ग्रिड में एकीकृत किया जाना होता है. केंद्रीय बिजली प्राधिकरण के अनुमानों के अनुसार यह अतिरिक्त छिपी हुई कीमत इस समय 1.50 रु. प्रति किलोवाट प्रति घंटा है (इसके 2022 तक कम होकर 1 किलोवाट प्रति घंटा हो जाने का अनुमान है).
इस तरह छुपे हुए खर्च को मिला लें तो भी सौर ऊर्जा की मौजूदा कीमत अब नए कोयला बिजलीघरों से मिलने वाली बिजली की दरों से कम है (जो कि 4 रु. प्रति किलोवाट से ऊपर है). इसके अलावा निवेश के माहौल में तेजी से सुधार हुआ है क्योंकि ब्याज दरें कम हुई हैं.
एक तरफ जहां सौर ऊर्जा में तेजी आ रही है, कोयला में विराम आ रहा है. कई नए कोयला संयंत्र कम क्षमता पर परिचालन कर रहे हैं और उन्हें आगे चलाते रहना फायदे का सौदा नहीं रह जाएगा. हालांकि देशभर में इस समय 50 गीगावाट क्षमता के नए कोयला बिजलीघर प्रक्रिया में हैं लेकिन अभी यह कहना मुश्किल है कि इनमें से कितने सूरज की रोशनी देख पाएंगे. उदाहरण के तौर पर तमिलनाडु में राज्य के स्वामित्व वाली इकाई टैंगेडको ने हाल ही में रामनाथपुरम जिले में एक नए बड़े कोयला बिजलीघर को रद्द करने का फैसला किया और उसकी बजाय 500 मेगावाट की एक सौर ऊर्जा परियोजना स्थापित करने का निर्णय लिया.
लेकिन इन तमाम शानदार सफलताओं को भी इस क्षेत्र के भावी तीव्र विकास के राह की कुछ नई और कुछ पुरानी बाधाओं के बरअक्स देखा जाना चाहिए. विरासत में मिल रही सबसे बड़ी बाधाओं में वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) के कर्ज का भारी बोझ है जिन पर आम तौर पर राज्य सरकारों का स्वामित्व रहा है. डिस्कॉम के कर्ज कोई नई बात नहीं है और न ही उन्हें संकट से बाहर निकालने के लिए मिलने वाले पैकेज. इस दिशा में इस तरह का सबसे नवीनतम पैकेज उदय नाम से है और उसमें इस दिक्कत को हमेशा के लिए दूर कर लिए जाने की बात है. हालांकि इससे डिस्कॉम को कर्ज से अल्पावधि राहत तो मिली है लेकिन उनके सकल तकनीकी और वाणिज्यिक नुकसान का स्तर अब भी 23 फीसदी बना हुआ है जो काफी ज्यादा है. इसके बाद भारत में बिजली की कमजोर मांग की बाधा भी है जो इस समय सालाना 4-5 फीसदी की रफ्तार से बढ़ रही है बजाए 7-8 फीसदी के उस स्तर के, जिसका अनुमान बिजली नियोजकों ने शुरुआत में लगाया था.
अगर मांग सुस्त रहती है तो सौर ऊर्जा तभी बढ़ सकती है जब ज्यादा से ज्यादा पुराने कोयला बिजलीघर बंद हो जाएं. लेकिन ये सभी पुराने, पहले से अवमूल्यित बिजलीघर ही सबसे सस्ती बिजली पैदा करते हैं. इसके कारण उन्हें तेजी से बंद करना राजनीतिक रूप से और आर्थिक रूप से भी मुश्किल प्रतीत होता है. हाल में हुई सौर ऊर्जा की नीलामियों में आश्चर्यजनक रूप से बहुत ही कम दरों की बोलियां लगी हैं. इससे अतार्किक तेजी के भय और उनके टिकाऊ रहने को लेकर सवाल सामने आए हैं. छतों के ऊपर लगने वाली श्रेणी में भी कुछ दिक्कतें हैं (छत के ऊपर के इंस्टॉलेशन किसी वाणिज्यिक या औद्योगिक इकाई और उच्च वर्गीय निवासों के परिसर के भीतर स्थित मिनी बिजलीघर हैं जिन्हें ग्रिड से जोड़ा गया है.) पिछले दो साल में इस श्रेणी का प्रदर्शन अच्छा रहा है लेकिन हाल ही में इसमें थोड़ी सुस्ती आई है. बड़ी केंद्रीकृत परियोजनाओं की तर्ज पर किसी भुगतान गारंटी प्रणाली का अभाव देखते हुए डेवलपर इसे एक जोखिम भरे बाजार के रूप में देखते हैं, कुछ ऐसे खरीदारों को छोड़कर जो समूची कीमत शुरू में ही अदा करने को तत्पर हैं.
दूसरी तरफ गरीब, ग्रामीण उपभोक्ताओं के लिए लक्ष्य करके तैयार की गई ऑफ ग्रिड श्रेणी में कभी जान आ ही नहीं पाई. आजादी के 72 साल बाद भी तकरीबन 25 करोड़ ग्रामीण भारतीय किसी भी तरह की बिजली की उपलब्धता से महरूम हैं. ऑफग्रिड क्षमता में इजाफा मामूली रहा है, उनकी दरें आसमान छूती हैं और उनके लिए वित्त वाणिज्यिक शर्तों पर बमुश्किल ही उपलब्ध हो पाता है. शायद यही वजह रही होगी कि क्यों केंद्र सरकार ने 'सौभाग्य' नाम से ग्रिड के विस्तार की एक स्कीम की शुरुआत की है.
मजबूत राष्ट्रीय प्रदर्शन के कारण अलग-अलग राज्यों के प्रदर्शन के उतार-चढ़ाव छिप जाते हैं. सौर ऊर्जा की बड़ी क्षमता रखने वाले राजस्थान, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, कर्नाटक और मध्य प्रदेश राज्यों का प्रदर्शन अच्छा रहा है. गुजरात पहले सौर ऊर्जा में दूसरों को राह दिखाने वाला था लेकिन हाल के समय में नई क्षमता खड़ी करने में उसकी गति थोड़ी थमी है. महाराष्ट्र का प्रदर्शन छत के ऊपर की प्रणालियों में तो अच्छा रहा है लेकिन केंद्रीयकृत सौर ऊर्जा में उतना अच्छा नहीं. छत्तीसगढ़ ने ऊर्जा की उपलब्धता में नेतृत्व दिखाया है. सस्ते उत्पादों से विश्व बाजार को भर देने में चीन की बेहतर काबिलियत के कारण सौर मैनुफैक्चरिंग का काम भी मोटे तौर पर नाकाम ही रहा है.
उधर सौर आयात पर केंद्र सरकार जो एंटी-डंपिग शुल्क लगाने पर विचार कर रही है, वह एक दुधारी तलवार हो सकती है. हालांकि दीर्घकाल में इससे घरेलू सौर मैन्युफैक्चरिंग को शिशु उद्योग संरक्षण मिल सकता है जो आगे जाकर बढ़ भी सकते हैं और नहीं भी. इतना सब कुछ कहने के बाद भी यह तो लगभग तय ही है कि सौर ऊर्जा साल 2018 में और उसके आगे भी लाभ हासिल करती रहेगी. लेकिन अभी उसे लंबा रास्ता तय करना है, तभी यह कहा जा सकेगा कि भारत ने बिजली क्षेत्र में ऊर्जा सुरक्षा, ऊर्जा उपलब्धता और पर्यावरण स्थायित्व के तीन महत्वपूर्ण राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल कर लिया है.
सारंग शिदोरे भूराजनैतिक पूर्वानुमान लगाने वाली कंपनी स्ट्रैटफॉर में वरिष्ठ वैश्विक विश्लेषक हैं और यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास में विजिटिंग स्कॉलर हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं

