साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट का सुनहरा पल न्यायमूर्ति के.एस.पुत्ता-स्वामी बनाम भारत संघ मामले में नौ जजों की पीठ का वह फैसला था जिसने निजता के अधिकार को बुनियादी अधिकार घोषित किया. अटॉर्नी जनरल ने आधार योजना का बचाव किया जो देश के हरेक बाशिंदे के लिए यूआइडीएआइ का नंबर और बायोमीट्रिक पहचान या आइडी हासिल करना जरूरी बनाती है.
एटॉर्नी जनरल ने दलील दी कि संविधान के तहत हिंदुस्तानियों को निजता का कोई अधिकार हासिल नहीं है. उनकी इस दलील से अदालत में वकीलों और जजों सहित हर कोई स्तब्ध रह गया. इस दलील का मतलब निजता की बहस को 50 से ज्यादा साल पीछे धकेल देने के बराबर था. ज्यादातर लोग यह मानकर चलते थे कि निजता के बगैर अभिव्यक्ति की आजादी या अधिकार भी नहीं हो सकता.
माना जाता था कि निजता विरोध और असहमति के अधिकार की बुनियाद है. बड़ी तादाद में एकत्र डेटा की वजह से हरेक शख्स दबाव में रहता है कि उसकी जानकारियों के आधार पर उससे कुछ भी स्वीकार करने को बाध्य किया जा सकता है. शुक्र है, पीठ ने निजता के अधिकार को बुनियादी अधिकार घोषित कर दिया.
14 नवंबर, 2017 को सुप्रीम कोर्ट कामिनी जायसवाल बनाम भारत सरकार मामला प्रधान न्यायाधीश की अदालत में अभूतपूर्व हंगामे का गवाह बना. अदालत में इस किस्म की अव्यवस्था शायद पहली बार देखी गई. मुद्दा नाजुक था क्योंकि इसका ताल्लुक एक पूर्व जज से था जिनके ऊपर सुप्रीम कोर्ट से अपने हक में आदेश हासिल करने में एक प्रतिबंधित मेडिकल कॉलेज की मदद करने के लिए भ्रष्टाचार का आरोप लगाया जा रहा था. आरोप लगाया गया कि पूर्व जज ने अनुकूल अदालती आदेश के लिए 3 करोड़ रुपए की मांग की थी.
जायसवाल की याचिका पर प्रशांत भूषण और दुष्यंत दवे ने अलग-अलग तारीखों पर अलग-अलग पीठों के सामने पक्ष रखा, जो तकनीकी तौर पर बेमौका हो सकता था, क्योंकि एफआइआर में सुप्रीम कोर्ट के किसी जज के नाम का जिक्र नहीं था. मगर सवाल यह था कि क्या यह एक संस्था के तौर पर सुप्रीम कोर्ट की सत्यनिष्ठा भंग करने के बराबर था? हमें याद रखना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट या हाइकोर्ट के किसी भी जज के खिलाफ एफआइआर संबंधित मुख्य न्यायाधीश की इजाजत के बगैर दर्ज नहीं की जा सकती.
तकनीकी तौर पर ही मामले को एक पीठ विशेष को सौंपने को लेकर प्रधान न्यायाधीश के प्रशासनिक पक्ष के बीच हितों का कोई टकराव नहीं था. लिहाजा मामले से हटने के आग्रह को उचित ही नामंजूर कर दिया गया. मगर हमें याद रखना होगा कि एक जज को हमेशा संदेह से ऊपर होना ही चाहिए. इस बीच, उसी एफआइआर के आधार पर प्रवर्तन निदेशालय ने मनी लॉन्ड्रिंग का मामला दर्ज किया है. इस विवाद ने जजों के खिलाफ शिकायतों से निबटने के लिए एक सांस्थानिक व्यवस्था की जरूरत पर जोर दिया. न्यायिक जवाबदेही न्यायपालिका की आजादी की पूर्व शर्त है.
न्यायपालिका ने सुप्रीम कोर्ट और तमाम हाइकोर्ट में जजों की नियुन्न्ति को लेकर जारी अभूतपूर्व गतिरोध का नजारा देखा. यह समस्या कुछ हद तक उस पीठ ने ही पैदा की थी जिसने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) को रद्द कर दिया था, पर दूसरी तरफ यह भी निर्देश दिया था कि कानून और न्याय मंत्रालय सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के साथ मशविरा करके नया मेमोरंडम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) तैयार करे.
संसद से सर्वानुमति से पारित एक कानून को रद्द कर देना ही अपने आप में अभूतपूर्व था, मगर एमओपी को नए सिरे से तैयार करना कहीं ज्यादा विवाद का मुद्दा बन गया जिसकी कल्पना भी नहीं की गई थी. न्यायपालिका पहले ही लंबित मुकदमों के जबरदस्त बोझ से दबी है, तिस पर सुप्रीम कोर्ट से लेकर अधीनस्थ अदालतों तक तमाम स्तरों पर जजों के 40-50 फीसदी खाली पदों ने इसे और भी मुश्किल और पेचीदा बना दिया है.
उम्मीद है कि सरकार इस बात को समझेगी कि भारी तादाद में स्वीकृत पदों को खाली रखकर न्याय से समझौता नहीं किया जा सकता, खासकर तब जब जजों के स्वीकृत पदों को दोगुना करने की मांग हो रही हो. न्यायपालिका के ऊपर पहले ही 3.3 करोड़ मुकदमों का बोझ है. मौजूदा गतिरोध के चलते मुकदमे और भी बहुत ज्यादा वक्त तक लटके रहेंगे और तेजी से इंसाफ की संभावना कहीं ज्यादा छलावा बन जाएगी. अगर इंसाफ को अपनी भूमिका अदा करनी है, तो उसे रक्रतार से पकडऩा होगा, क्योंकि एक दशक या ज्यादा वक्त की देरी से दिया गया कोई भी फैसला इंसाफ की खूबियां गंवा बैठता है. देरी खुद-ब-खुद इंसाफ को नाइंसाफी में बदल सकने में समर्थ है.
सर्वोच्च अदालत और दूसरी ऊंची अदालतें लगातार ज्यादा से ज्यादा वक्त जनहित याचिकाओं (पीआइएल) में लगा रही हैं, जो बरसों से लटके मामलों के निबटारे में और ज्यादा देरी की कीमत पर ही हो सकता है. कभी-कभी तो मामले के निबटारे के इंतजार में अभागे अभियुक्त सजा की पूरी मियाद ही जेल में बिता चुके होते हैं, तब जाकर उनके बेगुनाह या दोषी होने का फैसला आता है.
सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर कहा है कि कई जनहित याचिकाएं कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग करती पाई गई हैं. इससे अदालत का समय बर्बाद होता है जो कि अपराध जैसा है, क्योंकि मुकदमों की सुनवाई आगे कई और सालों तक लटक जाती है. उम्मीद है कि संवैधानिक अदालतें एक बार फिर विचार करेंगी और मुकदमों पर फैसले देने को सर्वोच्च प्राथमिकता देंगी. मुकदमों के निबटारे के बाद बचे वक्त में ही जनहित याचिकाएं लेनी चाहिए.
अगस्त 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने शायरा बानो बनाम भारत सरकार और अन्य के केस में तीन तलाक की प्रथा को गैर-इस्लामी और असंवैधानिक करार दिया. बहुमत के फैसले में अदालत ने कहा कि चूंकि तीन तलाक उसी पल लागू हो जाता है और पलटा भी नहीं जा सकता, इसलिए इसमें शौहर और बीवी के बीच उनके परिवारों के दो मध्यस्थों के जरिए सुलह की कोशिश की गुंजाइश भी नहीं है.
अदालत ने कहा कि तीन तलाक जिस तरह प्रचलित है, उसमें अगर यह किसी जायज वजह से न दिया गया हो, तब भी वैध माना जाता है. लिहाजा यह मनमाना है, क्योंकि कोई मुस्लिम मर्द निकाह के बंधन को सुलह की कोशिश के बगैर मनमानी से नहीं तोड़ सकता. इस तरह तीन तलाक असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत दिए गए समानता के अधिकार का उल्लंधन है.
सरकार ने आगे बढ़कर, किसी शख्स के अपनी बीवी को बोले या लिखे गए लक्रजों या इलेक्ट्रॉनिक शक्ल में तीन तलाक देने को शून्य और गैर-कानूनी करार देने के लिए मुस्लिम महिला (विवाह के अधिकारों का संरक्षण) विधेयक 2017 को शीतकालीन सत्र में लोकसभा में पेश कर दिया. यहां तक कि सरकार ने विधेयक के उपनियम 4 में सजा का प्रावधान जोड़ दिया, जो तलाक की घोषणा को तीन साल की कैद और जुर्माने के साथ दंडनीय बनाता है. इस तरह यह कैद को अनिवार्य बना देता है.
उपनियम 5 गुजारा भत्ते की बात कहता है, यह स्पष्ट किए बगैर कि शौहर के जेल जाने पर उस औरत को यह कैसे दिलाया जाएगा. उपनियम 6 नाबालिगों की कस्टडी का हक देता है, पर इसके कोई दिशा-निर्देश तय नहीं किए गए हैं और इसे किसी भी तरीके से तय करने के लिए मजिस्ट्रेट के विवेक पर छोड़ दिया गया है.
सरकार राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले में 27 जुलाई, 2017 को दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर ध्यान देने में भी नाकाम रही, जिसमें तफसील से बताया गया था कि दहेज निषेध अधिनियम, 1961 आने के बावजूद दहेज की घटनाएं बेलगाम बढ़ रही हैं. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कई मामलों में गिरफ्तारी के प्रावधान के चलते पति के परिवार के उन सदस्यों को जुल्म सहने पड़ते हैं, जिन्हें मुकदमे में झूठे फंसा दिया जाता है. अदालत ने इस बात की तरफ भी ध्यान दिलाया कि 2005 में भारतीय दंड संहिता की धारा 498ए (महिलाओं से क्रूरता) के तहत दर्ज 6,141 मामले झूठे करार दिए गए.
2009 में ऐसे झूठे मामलों की तादाद 8,352 थी. 2012 में ऐसे मामलों में बरी किए गए लोगों की तादाद 3,17,000 बताई गई. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जिला विधिक सेवा प्राधिकरणों को निर्देश दिया कि वे परिवार कल्याण समितियों का गठन करें. भारत के प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में तीन जजों की पीठ जनवरी 2018 में इस मामले की सुनवाई करने वाली है. इसके बावजूद सरकार ने एक आधा-अधूरा कानून लोकसभा में पेश कर दिया और उसे जस का तस पारित भी कर दिया गया. खुशकिस्मती से राज्यसभा में सरकार जरूरी समर्थन नहीं जुटा सकी, जहां यह फिलहाल लटका है.
इस साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट आधार को मोबाइल फोन और बैंक खातों से जोडऩे की इजाजत देने या नहीं देने के सवाल पर विचार करेगा. सरकार का दावा है कि आधार डेटा की सुरक्षा अचूक है, वहीं 4 जनवरी को द ट्रिब्यून अखबार ने इस डेटा की सुरक्षा में एक बड़ी सेंध की खबर छापी. खबर के मुताबिक, यूआइडीएआइ के अतिरिक्त महानिदेशक ने आधार डेटा में घुसपैठ की बात स्वीकार की थी.
नवंबर 2017 के आखिरी हफ्ते में यूआइडीएआइ ने दावा किया था कि आधार डेटा पूरी तरह महफूज था और कोई डेटा लीक नहीं हुआ था. इस दावे की उस वक्त धज्जियां उड़ गईं जब द ट्रिब्यून ने व्हाट्सऐप पर वह सुविधा खरीद ली जिसमें 1 अरब से ज्यादा आधार नंबरों के ब्योरे बेरोकटोक सुलभ करवाने का वादा किया गया. द ट्रिब्यून की उस संवाददाता ने इधर पेटीएम पर महज 500 रु. चुकाए और उधर 10 मिनट के भीतर उस ग्रुप के एजेंट ने संवाददाता के लिए गेटवे खोल दिया और साथ ही साथ उन्हें लॉगइन आइडी और पासवर्ड दे दिया.
द ट्रिब्यून ने और 300 रु. अदा किए और उस एजेंट ने वह सॉफ्टवेयर मुहैया करवा दिया जिससे वह संवाददाता मनचाहे नंबरों के आधार कार्ड का प्रिंट निकाल सकती थी. चंडीगढ़ में यूआइडीएआइ के अफसरों ने महज 20 मिनट के वक्फे में पूरे डेटा तक इतनी आसानी से पहुंच हासिल कर लेने पर हैरानी जाहिर की. सुप्रीम कोर्ट आधार डेटा की सुरक्षा को लेकर सरकार के दावों को सावधानी से देखेगा.
निर्वासन में रह रहे व्हिसलब्लोअर एडवर्ड स्नोडेन ने 5 जनवरी को एक ट्वीट किया और नागरिकों के निजी डेटा के गलत इस्तेमाल के खिलाफ चेताया. उन्होंने बड़ी पते की बात कहीः ''निजी जिंदगियों के मुकम्मल रिकॉर्ड चाहना सरकारों की फितरत है. इतिहास ने साबित किया है कि कानूनों के होते हुए भी इसका नतीजा दुरुपयोग की शक्ल में ही सामने आता है.'' बजफीड ने तस्दीक की कि 1.2 अरब निजी सूचना वाले देश के राष्ट्रीय आइडी डेटाबेस में सेंध लगाई गई है. एडमिनिस्ट्रेटर अकाउंट बनाए जा सकते हैं और डेटाबेस तक पहुंच बेची जा सकती है. इसने नागरिकों में बैंकों में रखी रकम और मोबाइल पर बातचीत की निजता को लेकर गहरी फिक्र पैदा कर दी है.
एक और मुद्दा जिससे निकट भविष्य में सुप्रीम कोर्ट का सामना हो सकता है, वह यह है कि क्या औरतें भी व्यभिचार या परपुरुषगमन के जुर्म की दोषी हो सकती हैं. पिछले 158 साल से आइपीसी की धारा 497 पुरुष को व्यभिचारी यानी परस्त्रीगमन करने वाला और शादीशुदा औरत को इसका शिकार मानती आई है, जब तक कि उस औरत के शौहर ने बीवी और दूसरे आदमी के बीच विवाहेतर यौन रिश्ते की मंजूरी न दी हो.
व्यभिचार को पश्चिम में गैर-अपराध घोषित किया जा चुका है. दो वयस्कों के बीच रजामंदी से यौन संबंध को अब निजी मामला माना जाता है और सरकारें नैतिक पहरेदारी से दूर रहकर असली अपराधों पर ध्यान देती हैं. जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर गहराई से विचार करेगा और फिर तय करेगा कि व्यभिचार को गैर-अपराध बनाया जाए, या अगर इसे अपराध बनाए रखा जाता है, तो औरत भी बराबर से दोषी होगी या नहीं. खैर, सभी को फैसले का इंतजार रहेगा.
के.टी.एस. तुलसी सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ वकील हैं

