निर्मित विरासत की दुनिया पारंपरिक रूप से विशेषज्ञों के दखल की रही है जो उसे सूचीबद्ध और संरक्षित करते हैं, उसकी देखरेख के साथ उन स्मारकों और स्थलों की व्याख्या करते हैं. यह दायरा सार्वजनिक हलके में भी अपनी भूमिका लगातार बढ़ा रहा है. हालांकि इसके साथ बाधाएं भी होती हैं और अवसर भी क्योंकि विशेषज्ञों के एकाधिकार को दावेदारी जताने वाले बाकी लोग भी तो चुनौती देंगे.
यह बात दिल्ली में हाल ही में हुए एक आयोजन में साफ हुई. दिसंबर की 11 से 15 तारीख तक तमाम विशेषज्ञ इंटरनेशनल काउंसिल अॉन मॉन्यूमेंट्स ऐंड साइट्स (आइसीओएमओएस) की त्रिवार्षिक आमसभा की मेजबानी के लिए जमा हुए थे. आइसीओएमओएस इस काम में लगा दुनिया का सबसे बड़ा निजी संगठन है और यही विश्व विरासत की सूची तैयार करने के काम में यूनेस्को को भी सलाह देता है. इस संगठन की भारत शाखा को हाल ही में फिर से सक्रिय किया गया था और बेहद कम समय में इसने संगठन की सबसे बड़ी सभा की मेजबानी कर ली, जिसमें सौ से ज्यादा देशों का प्रतिनिधित्व करने वाले हजार से ज्यादा लोग शामिल हुए.
सभा में चार समानांतर सत्रों में तकरीबन 200 प्रजेंटेशन दिए गए. भारतीय मेजबानों का इस परिचर्चा के लिए चुना गया मूल विषय था—विरासत और लोकतंत्र. शायद इस विषय को चुनने के पीछे यह भाव रहा होगा कि इन दोनों ही चीजों की भारत के पास बहुलता है. यकीनन ये ऐसे मामले हैं जिनमें भारत बाकी सौ देशों के सामने पूरे अधिकार के साथ अपनी बात रख सकता है.
सवाल यह है कि दोनों बातें कैसे एक साथ फिट होती हैं? कैसे निर्मित विरासत को संरक्षित रखने से सभी लोगों का भला हो सकता है और क्या यह भला सबका बराबरी के आधार पर हो सकता है? इस तरह के सवाल फिजूल नहीं हैं. क्योंकि ताज महल सरीखे ए श्रेणी के स्मारक भी विवाद से परे नहीं रह पाते हैं.
इस संदर्भ में देखा जाए तो अधिवेशन के प्रतिनिधियों की ओर से जारी दिल्ली घोषणापत्र काफी अहमियत रखता है. इसे यूनेस्को के साथ-साथ सरकार का भी अनुमोदन हासिल हो चुका है. घोषणापत्र टिकाऊ विकास की जन-आधारित परिकल्पना के लिए इन दोनों ही बातों को महत्वपूर्ण घटक के तौर पर देखता है. आदर्शवादी सुॢखयों के आगे गहराई से देखें तो कई बुनियादी मुद्दे सामने आते हैं. पहला है विरासत की धारणा का विस्तार करना ताकि उसमें न केवल स्मारक या फिर इमारतों का कोई समूह बल्कि उनका विन्यास और आसपास का भूदृश्य भी शामिल हो. यह इस अवधारणा से उपजा है कि विरासत स्थलों के बारे में लोगों की समझ एक व्यापक संदर्भ में निहित है और इसलिए वृहद धारणा ज्यादा समावेशी और लोकतांत्रिक है. इसमें लोगों की मान्यताओं और मूल्यों का भी ध्यान रखा गया है.
लिहाजा घोषणापत्र का अनुमोदन करने के बाद सरकार, हो सकता है कि संसद में सर्वसम्मति से पारित किए गए 2010 के प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल (संशोधन और अनुमोदन) अधिनियम के प्रावधानों को हल्का करने की उसकी कोशिशों पर पुनर्विचार करने लगे. उस अधिनियम में स्मारकों के इर्दगिर्द प्रतिबंधित और नियमित इलाके तय किए गए थे. उसका इरादा दरअसल विरासत की इसी विस्तृत होती अवधारणा से उपजा था जो इन स्थलों के बारे में लोगों की (केवल पुरातत्वविदों की ही नहीं) समझ पर आधारित था. लेकिन अब प्रस्ताव किया गया है कि 'जनकार्यों' के लिए इन प्रावधानों को किनारे कर दिया जाए. लेकिन सवाल लाजिमी है कि ये कौन से 'जन' हैं जो लोगों से ही विरोध पर उतारू नजर आते हैं?
संरक्षण और विकास के बीच के पुराने आपसी विरोध को कुछ अभिजात्य लोगों के जुनून बनाम गरीबों की जरूरतों के आधार पर नहीं मापा जा सकता. अब यह तमाम लोगों की जरूरतों के बारे में है ताकि वे विरासत को टिकाऊ भविष्य में शामिल कर सकें. लेकिन आखिर 'उनकी' विरासत है क्या? घोषणापत्र की इस टिप्पणी की रोशनी में कि 'विरासत का विधायी संरक्षण हर स्तर की सरकारों की जिम्मेदारी है', भारत सरकार भी जरा थमकर उन आखिरी पंक्तियों पर विचार कर सकती है जिनमें विरासत की समावेशी समझ पर जोर दिया गया है. 'यह हमारी जिम्मेदारी है कि हम उस बहुसांस्कृतिक, बहुआयामी विरासत के महत्व को संरक्षित करें जो हमें पिछली पीढ़ी से मिली है और उसे आने वाली पीढिय़ों के हाथों में सुरक्षित सौंपें.''
आइसीओएमओएस की आम सभा के उद्घाटन सत्र को संबोधित करने के लिए आमंत्रित किए गए योगी और हाल ही में पद्म भूषण से सम्मानित सद्गुरु जग्गी वासुदेव थोड़े हैरान-से नजर आए.
उन्होंने विनम्रता से स्वीकार किया कि वे इतने सारे विशेषज्ञों की मौजूदगी में खुद को थोड़ा अशिक्षित समझ रहे हैं. लेकिन उन्होंने भारतीय संस्कृति की अपनी परिकल्पना का विवरण पेश किया, जिसे न केवल संरक्षण की जरूरत थी बल्कि पुनस्र्थापित करने की भी क्योंकि 'हम लगभग हजार सालों तक दूसरों के शासन में रहे'. विरोध का कोई स्वर बमुश्किल ही सुनाई दिया, शायद जग्गी के कई जनकार्यों के लिहाज की वजह से. लेकिन इसका आशय स्पष्ट थाः जो यह मानते हैं कि कोई विदेशी मूल का धर्म भारतीय नहीं हो सकता, हजार साल के बाद भी नहीं; और उस धर्म के लोगों के शासन में जो कुछ भी तैयार किया गया था, वह भारतीय संस्कृति की निशानी नहीं है. यानी इस हिसाब से तो भारतीय विरासत विविध नहीं है और उसमें केवल एक ही सच्ची परंपरा है जिसे तमाम मुमकिन तरीकों से बताया जाना चाहिए.
भारतीय इतिहास के बारे में सद्गुरु का दृष्टिकोण सुनकर हाल ही में केंद्र सरकार का एक फैसला ध्यान आ गया. उसमें उसने कला और सांस्कृतिक विरासत के लिए भारतीय राष्ट्रीय न्यास (इनटैक) की ओर से दिल्ली को विश्व विरासत शहर के रूप में सूचीबद्ध करने के लिए आइसीओएमओएस को भेजे गए प्रस्ताव का समर्थन करने से ही इनकार कर दिया था. उसने कथित तौर पर ऐसा इसलिए किया था क्योंकि आवेदन के केंद्र में रखे गए इलाकों—शाहजहानाबाद और लुटियन्स बंगला जोन को भारतीय संस्कृति का प्रतिनिधि नहीं समझा गया था. जाहिर है कि इस तरह के कथन को अब दुर्लभ और बेतुका नहीं माना जाता. इसी तर्ज पर बीते साल में हमने उत्तर प्रदेश के एक मंत्री का भी बयान सुना कि ताज महल दरअसल भारतीय संस्कृति का उदाहरण नहीं है.
भारतीय कला के बारे में पहले जिस किताबी सर्वे (1950 के दशक में प्रकाशित) को मैंने एक छात्र के रूप में पढ़ा था, उसमें सिंधु घाटी सभ्यता से लेकर सन् 1200 तक की अवधि को शामिल किया गया था. इसका निष्कर्ष यह था कि भारतीय सभ्यता वहीं समाप्त हो गई और उसके बाद उसकी जगह किसी और ने ले ली. उस किताब के बाद एक और किताब आई जिसमें मुगल स्थापत्य को लिया गया था लेकिन वह भी 1750 के बाद आकर रुक गई. सदी के खत्म होते-होते भारतीय शिक्षाविदों के कई सर्वे सामने आए जिनमें आधुनिक कला को शामिल किया गया था और ऐसा केवल इसलिए नहीं किया गया था कि हमारे दौर की कला को अतीत की कला से जोडऩे के लिए अनिवार्यताओं की कोई कृत्रिम पहचान की जाए. इसके पीछे तो सिर्फ भारतीय कला के निरंतर-विविध, निरंतर परिवर्तित होते चरित्र का जश्न मनाना ही मकसद था.
साल 2018 के लिए मेरा अंदेशा यही है कि सार्वजनिक रूप से हमें निरंतर तेज होते प्रतिगामी स्वर और भारतीय विरासत की अनिवार्य परिभाषा सुनने को मिलेगी, ऐसे लोगों के मुंह से जो उन्हें अतीत की बहुलता को सुधारने के लिए जरूरी मानते हैं. इस तरह की आवाजों को कम से कम विरोध झेलना पड़ेगा. हालांकि 2018 के बारे में मेरी उम्मीद यही है कि विरासत के विशेषज्ञ स्मारकों और स्थलों के निरंतर विस्तृत होते दायरों से संवाद बनाएंगे, बगैर उनके मूल या तारीख की परवाह किए. और लोकतंत्र की मूल भावना के अनुरूप वे यह भी सीखेंगे कि कैसे आम लोगों को साथ लेकर चलें.
जाइल्स टिलोटसन कला इतिहासकार हैं. उनकी लिखी किताबों में ताज महल और जयपुर नामारू टेल्स फ्रॉम द पिंक सिटी शामिल हैं

