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आवरण कथाः फलता फूल

साल 2018 के विधानसभा चुनाव तय करेंगे कि भाजपा का कांग्रेस-मुक्त भारत का सपना साकार होगा या नहीं.

साल 2018 के विधानसभा चुनाव तय करेंगे कि भाजपा का कांग्रेस-मुक्त भारत का सपना साकार होगा या नहीं.
साल 2018 के विधानसभा चुनाव तय करेंगे कि भाजपा का कांग्रेस-मुक्त भारत का सपना साकार होगा या नहीं.

साल 2018 में सियासत 2019 के चुनावों को लेकर होगी. यह आम चुनाव से पहले वाले हर साल के बारे में सच है, पर मोदी और शाह चूंकि चुनाव अभियान के अंदाज में ही जीते हैं, इसलिए ऐसा इस साल और भी ज्यादा होने की संभावना है. केंद्र सरकार की हरेक नीति उसके चुनावी असर और नतीजों की रोशनी में पढ़ी जाएगी और सांस्कृतिक युद्ध की हरेक चाल—स्वयंभू गोरक्षक, अयोध्या, लव जेहाद, घर वापसी—हिंदुओं के जनसांख्यिकी बहुमत को विशाल सियासी धड़े में बदलने और संघ परिवार के घोषित लक्ष्य हिंदू राष्ट्र की चुनावी बुनियादें रखने की कोशिश के तौर पर देखी जाएगी.

इस साल होने वाले आठ विधानसभाओं के चुनाव अपने आप में तो अहम होंगे ही, साथ ही वे 2019 की बड़ी अग्निपरीक्षा के रास्ते में पडऩे वाले पड़ावों की तरह भी होंगे. बहुत कुछ इन चुनावों पर निर्भर है; न केवल आम चुनावों की रक्रतार और ताकत, बल्कि राज्यसभा में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का बहुमत भी, जो उसे सत्ता में अपने पहले कार्यकाल के ज्यादातर वक्त हासिल नहीं हो सका.

चुनावों के लिए तैयार आठ राज्यों में से अगर भाजपा मेघालय, मिजोरम और कर्नाटक जीत लेती है और जिन राज्यों में पहले से हुकूमत में है वहां अपनी सत्ता बरकरार रखती है, तो वह अपनी हुकूमत वाले राज्यों की तादाद 22 तक बढ़ा लेगी और कांग्रेस को दो राज्यों—पंजाब और अदने-से राज्य पुदुच्चेरि—तक समेट देगी. अगर ऐसा होता है (और यह संभावना के दायरे से परे नहीं है), तो मोदी और शाह का कांग्रेस-मुक्त भारत का लक्ष्य भाजपा के पहले कार्यकाल के भीतर ही हासिल हो जाएगा.

तो गुजरात में कांग्रेस के बेहतर प्रदर्शन और राहुल गांधी के पुनरुद्धार की अफवाहों के होते हुए भी 2018 वह साल है, जब पार्टी इस लफ्ज के बिल्कुल शाब्दिक अर्थ में वजूद के संकट से दो-चार है. अगर वह दक्षिण भारत में अपनी हुकूमत वाला अकेला अच्छा-खासा राज्य कर्नाटक गंवा देती है, तो बिहार और उत्तर प्रदेश में उसकी सियासी अप्रासंगिकता को देखते हुए राष्ट्रीय विपक्ष होने का उसका पहले से तार-तार दावा और भी छिन्न-भिन्न हो जाएगा. कई राज्यों में अपनी विपक्षी मौजूदगी का दावा वह भले ही अब भी कर सके, पर कर्नाटक को गंवाकर कांग्रेस सियासी तौर पर अनाथ उस दुमछल्ले की तरह दिखाई देने लगेगी, जो सत्ता के जीवनदायी खून की गैर-मौजूदगी में कुम्हलाने के लिए अभिशप्त है. 

किसी एक भी बड़े और अमीर सूबे में फायदेमंद सत्ता से वंचित होकर एक राष्ट्रीय पार्टी सियासी तौर पर अनाथ की तरह ही होती है, क्योंकि उसके पास पैसा उगाहने के वे मौके नहीं होते जिनसे वह अपनी चुनावी जंग की तिजोरी भर सके. कांग्रेस वे जबरदस्त सरपरस्तियां तो पहले ही गंवा चुकी है जो उसे केंद्र में नियंत्रण की बदौलत हासिल थीं, इसको देखते हुए कर्नाटक की हार जानलेवा हो सकती है.

जहां तक सियासी संभावना की बात है, कर्नाटक की टक्कर 2018 की सबसे अहम चुनावी लड़ाई है. कहने का मतलब यह नहीं कि छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के चुनाव किसी भी अखिल भारतीय पार्टी की सियासी नियति तय करने वाले हिंदीभाषी सूबों में कांग्रेस के भविष्य के लिए बेहद अहम नहीं हैं. फिर भी यह मानना होगा कि कर्नाटक के बगैर कांग्रेस के पास न किला होगा और न ही शस्त्रागार.

साल 2016 के मध्य तक मीडिया में व्यापक सर्वानुमति थी कि सिद्धरामैया की अगुआई वाली कर्नाटक सरकार गद्दीनशीन पार्टी होने के नाते कामकाज के अपने बेरौनक और बेरुखे रिकॉर्ड के बोझ के नीचे दबी हुई है. यह याद रखना मुनासिब होगा कि 2013 में जब सिद्धरामैया की अगुआई में कांग्रेस ने भाजपा पर फतह हासिल की, उससे पहले भाजपा राज्य की सत्ता में थी. कांग्रेस ने जिन वजहों से वह चुनाव जीता था, उनमें एक यह थी कि भाजपा की वोट हिस्सेदारी येदियुरप्पा के दलबदल की वजह से गंभीर रूप से घट गई थी. 

भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों की वजह से मुख्यमंत्री के ओहदे से हटा दिए जाने से नाराज येदियुरप्पा ने बदला लेते हुए टूटे हुए धड़े के साथ एक अलग पार्टी कर्नाटक जनता पक्ष (केजेपी) बना ली थी. 2013 के विधानसभा चुनावों में केजेपी को महज आधा दर्जन सीटें ही मिलीं, पर वह 10 फीसदी लोकप्रिय वोटों पर, जो अन्यथा भाजपा की झोली में जा सकते थे, कब्जा करने में और इस तरह उसे विधानसभा में 40 सीटों तक समेटने में कामयाब रही. येदियुरप्पा के भाजपा के पाले में लौटने से पार्टी को अपनी सीटें बढ़ाने में मदद मिलनी चाहिए, पर कांग्रेस इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए एक साल पहले की बनिस्बतन बेहतर हालत में नजर आती है.

इसका कुछ श्रेय मुख्यमंत्री को जरूर दिया जाना चाहिए. भेड़-पालक कुरुबा परिवार में जन्मे सिद्धरामैया कांग्रेस की सियासत में देर से आए और अपने साथ पार्टी में जमीनी ऊर्जा और ओबीसी समर्थक लाए, जिनकी उसमें उस वक्त बेहद कमी थी जब एस.एम. कृष्णा सरीखे महानगरीय नेता उसकी अगुआई करते थे. 

सरकार ने 2017 में बड़े पैमाने पर कर्ज माफी के जरिए अपने ग्रामीण समर्थकों का साथ दिया है और उसके कृषि मंत्री कृष्णा बायरे गौड़ा ने रागी और बाजरा सरीखे अनाजों की खेती को आक्रामक ढंग से बढ़ावा दिया है, खासकर जब सूखे और पानी के संकट ने धान और गन्ने की खेती को अव्यावहारिक बना दिया था.

दिलचस्प बात यह है कि सिद्धरामैया ने क्षेत्रीय और उप-राष्ट्रीय मसकदों की खातिर किए जा रहे झंडे, राष्ट्रगीत और भाषा के भाजपा के इस्तेमाल को अपने हिसाब से ढाल लिया है. उन्होंने राज्य के झंडे के हक में आवाज उठाई, खुद को कन्नड़ के सूरमा के तौर पर ढाला और बेंगलूरू मेट्रो स्टेशन पर हिंदी के संकेत चिह्नों के इस्तेमाल के खिलाफ दो टूक और निशानेवार विरोध जताकर केंद्र सरकार के हाथों सूबे के ऊपर हिंदी थोपे जाने पर हमला बोला. इसी के साथ एक और हकीकत यह है कि कर्नाटक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश हासिल करने वाले चार सबसे अव्वल हिंदुस्तानी राज्यों में बना हुआ है और देश के आइटी उद्योग का केंद्र है. 

इन दोनों बातों से मिलकर कांग्रेस को इस बेहद अहम सूबे में सत्ता बचाए रखने का न्यायसंगत मौका मिलना चाहिए. कांग्रेस में खास तौर पर निवेश नहीं करने वाले विश्व वाणी और पब्लिक टीवी सरीखे मीडिया संगठनों के शुरुआती सर्वेक्षण बताते हैं कि सिद्धरामैया बामुश्किल तमाम बहुमत भर हासिल कर सकते हैं.

इस परिदृश्य के साथ दिक्कत यह है कि इसमें भाजपा की ताकत को कई गुना बढ़ा देने वाली शख्सियत—नरेंद्र मोदी—का कोई शुमार नहीं है. सिद्धरामैया ने 2013 का चुनाव मुख्य तौर पर येदियुरप्पा और उनके भ्रष्टाचार से वाबस्ता भाजपा सरकार के खिलाफ जीता था. 2018 का चुनाव वे एक ऐसी पार्टी के खिलाफ लड़ेंगे, जो भड़काऊ लफ्फाजी और सियासी नौटंकी पर अनूठी महारत के साथ अपने जबरदस्त लोकप्रिय प्रधानमंत्री के नाम पर चुनाव लड़ेगी. यह चुनाव मोदी के लिए भी एक चुनौती और साथ ही दक्षिणी सूबे में अपने करिश्मे को वोटों में बदलने की उनकी क्षमता का इम्तिहान होगा. 

एक बार पहले वे ऐसा करने में कामयाब हो चुके हैं, जब 2014 के आम चुनावों में भाजपा ने कर्नाटक से लोकसभा की ज्यादातर सीटें जीत ली थीं. जिस तरह ऊंचे दांव लगे हैं, उसे देखते हुए इसमें कोई संदेह नहीं कि वे और उनके सिपहसालार अमित शाह उस शानदार कामयाबी को दोहराने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

हर उस चीज के बावजूद जो कांग्रेस के हक (भाजपा की राज्य इकाई में फूट सहित) में है, कर्नाटक के चुनाव के बारे में आत्मविश्वास से कोई भी भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, तो इसकी मुख्य वजह यह है कि मोदी तुरुप का पत्ता हैं, जिनके बारे में पहले से कुछ नहीं कहा जा सकता, और वे अप्रत्याशित तरीके से बाजी पलट सकते हैं. अगर दोनों पार्टियां बहुमत से कुछ पीछे रह जाती हैं और सत्ता की चाबी देवेगौड़ा के जनता दल (सेक्युलर) के हाथ में आ जाती है, तो कम ही लोग छल-प्रपंच से किंगमेकर बनने की अमित शाह की क्षमता के खिलाफ बाजी लगाने को तैयार होंगे.

गुजरात चुनाव ने दिखाया था कि सत्ता में होने के घटते हुए फायदों के प्रतिकार के लिए भाजपा प्रधानमंत्री के करिश्मे पर और भी ज्यादा बुरी तरह निर्भर करने लगी है. इस बात को लेकर अटकलों और अफवाहों का बाजार गर्म है कि आम चुनाव इस साल के आखिर करवाए जा सकते हैं ताकि उन्हीं दिनों होने वाले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के राज्य चुनावों के साथ-साथ करवाए जा सकें. इसके पीछे दलील यह है कि अलग से करवाए गए चुनावों में गद्दीनशीन होने के नाते वसुंधरा राजे और शिवराज सिंह चैहान को जो नुक्सान उठाना पड़ सकता है, उसकी भरपाई मोदी के जोश से भरपूर चुनावी रैलियों से की जा सकती है. 

राजस्थान इसका मौजूं उदाहरण है. वसुंधरा राजे के मातहत यह सूबा दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों और स्वयंभू हिंदू गोरक्षावाद की एक किस्म की प्रयोगशाला रहा है. कांग्रेस को यहां अभी पहाड़ चढऩा है; पिछले विधानसभा चुनाव में यह राजस्थान विधानसभा में दयनीय 21 सीटों तक सिमट गई थी, पर स्कूलों की अलोकप्रिय बंदी, सामाजिक और सामुदायिक सेवाओं पर बजट की रकमों का खर्च न होना और दंभी तथा विभाजनकारी मुख्यमंत्री ने विपक्ष के हाथों में एक सियासी मौका थमा दिया है.

इस साल जब सारे पत्ते—यानी संगठन की ताकत, रुपए-पैसे के संसाधन जो केंद्र में और बहुत सारे राज्यों में सत्ताधारी पार्टी होने की बदौलत हासिल होते हैं, सियासी हवाओं को अपने हक में मोडऩे की प्रधानमंत्री की करिश्माई क्षमता—भाजपा के हाथ में हैं, ऐसे में विपक्ष को, खासकर कांग्रेस को, सफाए से बचने के लिए जो भी पत्ते उसके हाथ में हैं, अच्छी तरह खेलने होंगे. अगर वह इसमें नाकाम रहती है, तो अगले आम चुनाव में भाजपा की पहले से उजली संभावनाओं में विलक्षण उछाल आ जाएगा. 

बेवजह दशहत फैलाने वाला लगने का जोखिम उठाते हुए भी भाजपा के लिए अच्छे चुनावी साल के सियासी नतीजों को सामने रखना मुनासिब होगा.अगर भाजपा 2018 का अंत हिंदुस्तान के 29 में से 22 सूबों में गद्दीनशीन पार्टी के तौर पर करती है, तो वह राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत के करीब होगी. उसके बाद अगर वह 2019 में होने वाले आम चुनावों में अपने 2014 के प्रदर्शन से भी आगे निकल जाती है, तो यह संविधान में संशोधन के लिए जरूरी विशेष बहुमतों के करीब हो सकती है, निश्चित तौर पर 2014 में किसी भी सियासी पर्यवेक्षक के मुमकिन पूर्वानुमान से कहीं ज्यादा करीब थे. 

इस बात की ज्यादा संभावना नहीं है कि भाजपा 2019 में लोकसभा में दो-तिहाई बहुमत हासिल कर लेगी, लेकिन ज्यादा संभावना नहीं होने का मतलब इस बात का घोर अविश्सनीय होना भी नहीं है. ज्यादा संभावना तो 2014 में इस बात की भी नहीं थी कि पांच राज्य सरकारों वाली पार्टी साढ़े तीन साल से भी कम वक्त के भीतर 19 राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टी बन जाएगी, लेकिन ऐसा हो गया.

उसके समर्थक और दुश्मन, दोनों मानते हैं कि भाजपा और उसका वैचारिक जनक आरएसएस शब्दशः भारत का संविधान नए सिरे से गढऩे के लिए प्रतिबद्ध है. जब कर्नाटक से भाजपा के पांच बार के सांसद अनंत कुमार हेगड़े ने ऐलान किया कि ''हम यहां संविधान बदलने के लिए हैं'', तो उनकी पार्टी के इनकार और खुद उनके माफीनामे के बावजूद लोगों ने उस पर ध्यान दिया. 

योगी आदित्यनाथ को हिंदुस्तान के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य के मुख्यमंत्री के ओहदे पर आसीन करके नरेंद्र मोदी ने नोटिस दे दिया है कि भाजपा की सियासी परियोजना हाशिये के तत्वों को मुख्यधारा में लाना है और जिसके बारे में सोचा भी न जा सके, उसे आम ढर्रे की बात बनाना है. इस धारणा में कोई चौंकाने वाली बात नहीं होनी चाहिए कि भाजपा और उसके संगी-साथी औपचारिक तौर पर गणराज्य को नए सिरे से गढऩा चाहते हैं; हिंदू राष्ट्र की परियोजना का वस्तुतः यही तकाजा है.

फ्रांस ने, 1848 से आरंभ करके, हरेक पुनर्निमित गणराज्य को एक नया नंबर देकर अपनी सियासत के परिवर्तनकारी दौरों पर निशान लगाने की शुरुआत की थी. फिलहाल फ्रांसीसी अपने पचासवें निशान पर हैं. अगर कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां इस साल एकजुट नहीं होती हैं, तो हो सकता है, 2019 में हिंदुस्तानी पाएं कि वे दूसरे गणराज्य में दाखिल होने के बहुत करीब पहुंच गए हैं.

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