पहले जनवरी 2017 में फिल्मकार को झापड़ और छीना-झपटी. फिर, मार्च में नागपुर में लगे सेट पर तोड़-फोड़. अब नायिका की नाक काटने की धमकी. दोनों के सिर कलम करने के लिए 10 करोड़ रु. का इनाम. कोटा में एक सिनेमाहॉल पर हमला. देश भर में बंद का ऐलान. पद्मावती के खिलाफ सियासी तमाशा चिंताजनक और कभी-कभी खौफनाक हिंसा की धमकियों के साथ बेहद फिल्मी तरीके से खेला गया है. पद्मावती वधरू भाग एक के आखिर में हमारे सामने विजेता भी है. बदकिस्मती से ये खलनायक ही हैं जो इनाम लेकर निकल गए हैं.
राजपूतों के एक छोटे-से संगठन श्री राजपूत करणी सेना ने कम से कम अभी तो यह लड़ाई जीत ली है और निर्माता वायाकॉम 18 मोशन पिक्चर्स और भंसाली प्रोडक्शंस को फिल्म का प्रदर्शन टालने को मजबूर कर दिया है. करणी सेना के मुखिया लोकेंद्र सिंह कालवी हैं जो फिलहाल भाजपा के सदस्य और दिवंगत केंद्रीय मंत्री कल्याण सिंह कालवी के बेटे हैं. फिल्मकार जोर देकर कहते हैं कि पद्मावती ''राजपूतों की बहादुरी, गरिमा और परंपरा को उसकी पूरी आभा और चमक के साथ उभारती है्य्य और यह फिल्म ''हरेक हिंदुस्तानी को गर्व से भर देगी." भारतीय सिनेमा को यह झटका तब लगा है जब स्मृति ईरानी की अगुआई में सूचना-प्रसारण मंत्रालय गोवा में भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में भारतीय और विश्व सिनेमा का उत्सव मना रहा है. यह ऐसी विडंबना है जो किसी की नजरों से छिपी नहीं है.
जब करणी सेना के साथ ही क्षत्रिय समाज, बजरंग दल, राजस्थान के राजघरानों और दूसरे कई और लोगों ने पूरी तरह मान लिया है कि यह फिल्म इतिहास को तोड़-मरोड़कर पेश करेगी और भावनाओं को चोट पहुंचाएगी, ऐसे में बॉलीवुड को लगता है कि उससे उसकी रचनात्मकता को कैद कर लिया गया है. इंडिया टुडे से कालवी ने कहा कि पद्मावती का प्रदर्शन टालने में केंद्र की भी मिलीभगत है. उन्होंने कहा, ''जनता के दबाव के साथ-साथ शीर्ष नेतृत्व, प्रधानमंत्री और सूचना-प्रसारण मंत्री ने जो सक्रिय भूमिका निभाई, उसकी वजह से फिल्म का प्रदर्शन टला है."
दशक भर पुराना यह संगठन राजपूत गौरव के नाम पर बॉलीवुड से पहली बार नहीं उलझा है. 2008 में जोधा-अकबर में जोधा को अकबर की बेगम दिखाने के लिए निशाना बनाया गया था. नौ साल बाद अब यह पद्मावती की बारी है. कालवी ने फिल्म नहीं देखी और न ही उन्हें भंसाली पर भरोसा है कि वे उन्हें फिल्म का आखिरी रूप दिखाएंगे. वे कहते हैं, ''तीन मिनट के ट्रेलर से हमें समझ मंत आ गया है कि फिल्म में क्या दिखाया गया है. विरोध जाहिर करने के लिए इतना काफी है." वे यह भी कहते हैं, ''दीपिका (पादुकोण, नायिका) नालायक है. उसने हमें ललकारा है, यह कहकर कि फिल्म किसी भी कीमत पर रिलीज होगी. अब हमने ठान लिया है कि फिल्म को कहीं भी रिलीज नहीं होने देंगे."
इस बार करणी सेना की आक्रामक लफ्फाजी को राजस्थान सरकार से भी ताकत मिली. मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे चाहती हैं कि इतिहासकारों, फिल्म विशेषज्ञों और राजपूत समुदाय के सदस्यों की एक समिति फिल्म देखकर उसकी पड़ताल करे. उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और पंजाब की सरकारों ने भी फिल्म को तब तक रिलीज होने देने से इनकार किया जब तक आपत्तिजनक बातों को उसमें से निकाल नहीं दिया जाता. ये पंक्तियां लिखे जाते वक्त महाराष्ट्र और तेलंगाना भी फिल्म का प्रदर्शन रोकने पर विचार कर रहे थे. इन सबके विरोध में एक बात को लेकर सर्वानुमति थीः पद्मावती का प्रदर्शन कानून-व्यवस्था के लिए खतरा है क्योंकि इससे राजपूत भावनाएं आहत होंगी.
सियासत के खेल
आखिरी हिस्से पद्मावती वधरू भाग दो के बेहतर अंत के साथ सामने आने की उम्मीद के लिए, केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के सूत्रों के मुताबिक, फिल्म निर्माताओं से गुजरात चुनाव तक इंतजार करने के लिए कहा गया है. आखिरकार गुजरात में राजपूत वोट जो दांव पर लगे हैं, जो कुल मतदाताओं के छह फीसदी के बराबर हैं. सौराष्ट्र की तटीय पट्टी में पारंपरिक तौर पर आपस में विरोधी माने जाने वाले करडिय़ा राजपूतों और पटेलों के बीच बढ़ती सांठगांठ भाजपा के लिए चिंताजनक है. हार्दिक पटेल की अगुआई में पटेलों ने भाजपा के राज्य अध्यक्ष जीतू वाघानी पर, जो खुद एक पाटीदार हैं, आरोप लगाया है कि वे समुदाय के अधिकारों के हक में नहीं लड़ रहे हैं. उधर, राजपूत मानते हैं कि वाघानी बांहें मरोडऩे के तौर-तरीके अपनाने के दोषी और ''राजपूत विरोधी मानसिकता" से ग्रस्त हैं. चिंताएं तब और गहरी मंडराने लगती हैं जब राजस्थान और मध्य प्रदेश (जहां राजस्थान के बाद दूसरी सबसे ज्यादा राजपूत आबादी है) दोनों सूबों में 2018 में चुनाव होने वाले हैं.
सिनेमा आसानी से सुलभ कला होने के नाते और इसमें व्यावसायिक हितों के शामिल होने के चलते हमेशा आसान निशाना रहा है.पद्मावती विवाद इसलिए भी खास है क्योंकि एक बड़े फिल्म स्टुडियो वायाकॉम18 ने, जिसमें मुकेश अंबानी की मिल्कियत वाले नेटवर्क18 की 50 फीसदी हिस्सेदारी है, 2017 की एक सबसे ज्यादा उम्मीदों से भरी फिल्म का प्रदर्शन अपनी इच्छा से ''टाल दिया." हमलों और धमकियों से घिरी पद्मावती की टीम ने किसी भी किस्म के संपर्क से बचने का रास्ता चुना. उनकी खामोशी ने दबंग विरोधियों के बेसुरेपन को उभारने का ही काम किया.
पद्मावती कलाकारों और रचनाकर्मियों के दमन के भारतीय इतिहास के कई फुटनोट में से एक बन गई है, चाहे वह सलमान रुश्दी की किताब द सैटनिक वर्सेज पर अक्तूबर 1988 में पाबंदी लगाना हो या 1998 में चित्रकार एम.एफ. हुसैन की देवी दुर्गा और सरस्वती की कलाकृतियों को तहस-नहस करना हो. केंद्र के इने-गिने मुखर आलोचक कलाकारों में एक, राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता अदाकार प्रकाश राज के लिए पद्मावती का मामला इस बात का एक और सबूत है कि संगठित ट्रॉलिंग किस तरह देश को हलकान किए है. राज कहते हैं, ''इन दिनों इन लोगों में इतनी हिम्मत कहां से आ गई है? वे मौत की, हत्या की धमकियां देने का फैसला कर रहे हैं. मुझे फिक्र उस माहौल को लेकर है जो इसकी वजह से बन रहा है. यह कतई मंजूर नहीं है."
धमकियों के मद्देनजर केंद्र के कोई कदम न उठाने से और ईरानी सरीखी अहम शख्सियतों की खामोशी से कई लोगों को हैरानी हुई है. प्रसून जोशी की अगुआई में केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) का फिल्म को प्रमाणपत्र देने से इनकार करना—वह भी ''आधी-अधूरी" अर्जी का हवाला देकर—फिल्मकारों के लिए एक और झटका था. एक अनदेखी फिल्म को लेकर मुख्य रूप से अफवाहों पर टिका यह पूरा हो-हल्ला इस सबको एक तमाशा बना देता है.
एक रानी, सबके लिए न्यारी
इन सारी जहर बुझी बातों, हाय-तौबा और विरोध के केंद्र में रानी पद्मिनी है, जो कहानी में बयान चित्तौड़ की राजपूत रानी थीं. उन्हें हिंदुस्तान की हेलन ऑफ ट्रॉय भी कहा जा सकता है, जिसकी मशहूर खूबसूरती साम्राज्य पर हमले का सबब बताई जाती है. कहा यह जाता है कि उन्होंने 13वीं सदी में एक अय्याश हमलावर, दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी से अपनी इज्जत बचाने के लिए खुद को आग के हवाले कर दिया—यह वह प्रथा थी जिसे जौहर के नाम से जाना जाता है. मलिक मोहम्मद जायसी का अवधी काव्य पद्मावत (1540) पहला लोकप्रिय आख्यान था जिसमें खिलजी के सिर पर सवार पद्मिनी के जुनून और राजपूतों के खासे मशहूर विरोध को बयान किया गया थाकृवे जंग भले हार गए हों पर पद्मिनी के बलिदान के चलते उनका गौरव सही-सलामत रहा.
इस बात का कोई ऐतिहासिक सबूत नहीं है कि खिलजी ने अपनी सल्तनत को महज बढ़ाने की खातिर नहीं, बल्कि पद्मिनी की खातिर चित्तौड़ पर हमला किया था. प्रतिष्ठित इतिहासकार बनारसी प्रसाद सक्सेना ने लिखा है कि किस तरह अमीर खुसरो, जियाउद्दीन बरनी और अब्दुल मलिक इसामी और उस जमाने के दूसरे इतिहासकारों ने पद्मिनी के होने का कोई जिक्र नहीं किया है. सक्सेना ने लिखा है, ''हमारे पास यह सोचने की कोई वजह नहीं है कि वह (खिलजी) राय (रतन सिंह) की बेगमों और औरतों के बारे में सोचता था." पद्मिनी के 37वें सगे वशंज होने का दावा करने वाले कालवी इसके जवाब में कहते हैं, ''अगर पद्मिनी कल्पना थी तो ऐसा कैसे है कि मैं असल चरित्र हूं? अगर वह कल्पना थी, तो एक राष्ट्रपति, दो प्रधानमंत्री और 15 मुख्यमंत्री पद्मिनी पैलेस (चित्तौडग़ढ़ किले के) में क्यों आए और उनके स्मारक पर सिर झुकाया?" पद्मिनी/पद्मावती की किंवदंती उनकी मशहूर खुदकुशी से कहीं आगे जाती है.
अमेरिका में रहने वालीं धार्मिक अध्ययनों की सेवानिवृत्त प्रोफेसर लिंडसे हार्लन अपनी किताब रिलीजन ऐंड राजपूत विमेनरू द एथिक ऑफ प्रोटेक्शन इन कंटेंपररी नैरेटिव्ज में इस बात की पड़ताल करती हैं कि पद्मिनी की इतनी महिमा क्यों गाई जाती है. वे बताती हैं कि लोकप्रिय किंवदंती में यह पद्मिनी की बहादुरी और दिलेरी ही थी जिसकी वजह से वह खिलजी के हाथों कैद कर लिए जाने के बाद अपने पति को बचाने के लिए एक कार्रवाई का मंसूबा बनाती है. हार्लन लिखती हैं, ''जंग के लिए बाहर निकलकर उसने औरतों से जुड़े रीति-रिवाजों को ताक पर रख दिया और मर्दों का फर्ज निभाया. मर्द के इलाके में कदम रखते हुए उसने अपने पति की कमान संभाल ली. पद्मिनी दिलेर नायिका इसलिए नहीं है क्योंकि वह पतिव्रता (कर्तव्यपरायण पत्नी) की तयशुदा भूमिका अदा करती है, बल्कि वह दिलेर नायिका इसलिए है क्योंकि वह इस भूमिका से हटकर दूसरी, ज्यादा जरूरी भूमिका अख्तियार कर लेती है." उधर, लोकप्रिय अमर चित्रकथा कॉमिक की ''ग्लोरियस हेरिटेज ऑफ इंडिया" शृंखला के एक हिस्से पद्मिनी में उन्हें ''हिंदुस्तानी नारी की मुकम्मल मॉडल" के तौर पर बखान किया है.
हिंदू गौरव की प्रतीक
अपनी किताब के लिए इंटरव्यू की शृंखला में हार्लन ने राजपूत औरतों से पूछा कि वे पद्मिनी की इस कदर पूजा क्यों करती हैं. एक ने कहा, ''मैं पद्मिनी को इसलिए मानती हूं कि क्योंकि वह बहुत चतुर थी; उसने मुसलमानों को भी यह दिखा दिया!" ज्यादातर के लिए लोकगाथा में पद्मिनी की बहादुरी को इस तरह बताया गया है जिसमें वह दूसरे आदमी की, जो इत्तेफाक से दूसरे मजहब का ताकतवर राजा है, बंधक या बेगम बनने की बजाए मर जाना पसंद करती है. यूनिवर्सिटी ऑफ पेनसिल्वेनिया में धार्मिक अध्ययनों की प्रोफेसर रम्या श्रीनिवासन अपनी किताब द मेनी लाइव्ज ऑफ ए राजपूत क्वीन में बताती हैं कि किस तरह पद्मिनी के अफसाने की नए सिरे से व्याख्या ''मुस्लिम फतह" से सामना होने पर ''राजपूत" और अब ''हिंदू देशभक्ति" की मिसाल के तौर पर की गई है. वे लिखती हैं, ''18वीं सदी आते-आते राजस्थान में इस अफसाने में फतह हासिल करने वाले दुश्मन को अचानक मूर्तिभंजक, मलेच्छ मुसलमान की दानवी शक्ल में पेश किया जाने लगा."
श्रीनिवासन की किताब इशारा करती है कि न केवल राजपूतों ने बल्कि दूसरे हिंदू समूहों ने भी पद्मिनी को हिंदू पराक्रम की मिसाल के तौर पर अपना लिया. और ऐसा पक्के तौर पर हुआ भी. हिंदू जनजागृति समिति (एचजेएस), जिसका मुख्यालय गोवा में है और जो महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान में भी सक्रिय है, चेतावनी देती है कि अगर पद्मावती को एतराजों को दूर किए बगैर रिलीज किया गया तो वह ''जनाक्रोश" के लिए सीबीएफसी को जिम्मेदार ठहराएगी. उसके प्रवक्ता सतीश कोचरेकर ''हिंदुस्तानी संस्कृति, परंपरा, सभ्यता की अवमानना करने और हिंदुओं के गौरवशाली इतिहास को तोडऩे-मरोडने" की कोशिश का आरोप लगाते हैं. विडंबना यह है कि गोलियों की रासलीलारू राम-लीला (गुजरात) से लेकर बाजीराव मस्तानी तक भंसाली की फिल्म कला हिंदुस्तानी संस्कृति और परंपरा को उसकी पूरी आभा के साथ पेश करने की उनकी काबिलियत पर टिकी है.
फिल्म निर्देशक ने अपनी प्रतिष्ठा भव्य और आलीशान दृश्य रचने और बहुत बारीकी से फिल्माए नृत्य और गानों की अपनी प्रतिभा के दम पर बनाई है. वे पद्मिनी की किंवदंती से पहली बार 2008 में प्रेरित हुए जब उन्होंने पेरिस में थिएटर डु शैतले में एक फ्रांसीसी ओपेरा-बैले का निर्देशन किया था. अल्बर्ट रसेल के 1923 की स्वरलिपि पर आधारित भंसाली की पेशकश राजेश प्रताप सिंह के कास्ट्यूम, तनुश्री शंकर की कोरियोग्राफी और उमंग कुमार के सेटों से सजी थी और गार्डियन की समीक्षा में इसे ''महज बॉलीवड खेमा" बताया गया था. पेरिस में तो आग नहीं लगी, पर अपने देश हिंदुस्तान में भंसाली के फिल्म रूपांतरण ने सत्तारूढ़ भाजपा के सदस्यों को नाराज कर दिया, जिसका सबूत हरियाणा में पार्टी के मीडिया कोऑर्डिनेटर सूरज पाल अमु की खौफनाक हिंसक धमकियों से मिलता है (उन्होंने दीपिका का सिर कलम करने वाले को 10 करोड़ रु. का इनाम देने की पेशकश की).
इस बीच पद्मावती के ''घूमर" गाने को, जिसे यूट्यूब पर पहले ही 5.4 करोड़ बार देखा जा चुका है, राजपूत संस्कृति को गलत ढंग से पेश करने का दोषी ठहराया जा रहा है. करणी सेना दावा कर रही है कि हिंदू राजपरिवारों में जन्मी औरतों ने कभी सार्वजनिक तौर पर नृत्य नहीं किया. जाने-माने गीतकार और पटकथा लेखक जावेद अख्तर ने इंडिया टुडे टीवी से कहा, ''यह तालिबानी एतराज है. हिंदुस्तान में हम अपने किस्से-कहानियों को नृत्य के जरिए ही बताते हैं. ये लोग मुल्लाओं की नकल कर रहे हैं. हिंदुस्तानी लोग नृत्यकारों और गायकों को तुच्छ कब से समझने लगे? ये तो सऊदी अरब का विशेषाधिकार था, हमारा नहीं."
अजमेर के दरगाह दीवान सहित कुछेक मुसलमान भी फिल्म को नापंसद और खारिज करने के शोर-शराबे में शामिल हो गए, जो इस मामले में ट्रेलर में आत्मरति के शिकार और बर्बर मुस्लिम सुल्तान को दिखाए जाने से नाराज थे. खिलजी का किरदार निभाने वाले अदाकार रणवीर सिंह ने बिल्कुल साफ संकेत दिया कि दिल्ली का सुल्तान परदे पर किस तरह उभरकर आने वाला है. ऐसा उन्होंने ट्विटर पर कोलाज डालकर किया जिसमें सुरमा लगी आंखों वाला सुल्तान सिनेमा के दो महान खलनायकों के साथ दिखाई दे रहा हैरू द क्लॉकवर्क ऑरेंज के मैल्कम मैकडॉवेल और द डार्क नाइट में हीथ लेजर का जोकर. क्या ऐसी भी चिंताएं हैं कि जिस तरह जोकर ने बैटमैन को फीका कर दिया था, उसी तरह भंसाली की फिल्म में भड़कीला खिलजी भी शो को चुरा सकता है?
पहली नजर में पद्मिनी की भंसाली की कल्पना उस चीज पर अडिग जान पड़ती है जिसे प्रतिष्ठित फिल्म निर्देशक श्याम बेनेगल हमारी कहानियों को ''मिथकीय शक्ल देने" का रुझान कहते हैं. द डिस्कवरी ऑफ इंडिया पर आधारित टीवी सीरीज भारत एक खोज के एक एपिसोड में पद्मिनी की किंवदंती को पेश कर चुके बेनेगल कहते हैं, ''अगर हमारे इतिहास में ऐसा कुछ है जो हमें नापंसद है या जिसे हमारे लिए मंजूर कर पाना मुश्किल है, तो हम उसका मिथकीय तर्जुमा पेश करते हैं जो उसे नरम बनाकर और कांटेदार खुरदुरे पन्नों को हटाकर कहीं ज्यादा स्वीकार्य बना देता है." मगर यह ऐसा कदम है जो हमेशा कारगर नहीं भी हो सकता है, क्योंकि बेनेगल हिंदुस्तान को ''आहत भावनाओं का महान गणराज्य" भी कहते हैं. वे कहते हैं, ''हम इस तरह बर्ताव करते हैं मानो ''हमारा इतिहास तुम्हारे इतिहास से ज्यादा उम्दा और शानदार है."
सन्नाटे की आवाज
पद्मावती अकेली ऐसी फिल्म नहीं है, जिसने सूचना-प्रसारण मंत्रालय को संकट में डाल दिया. अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आइएफएफआइ) शुरू होने से पहले मंत्रालय को इस खुलासे से जूझना पड़ा कि एक मराठी फिल्म न्यूड और एक मलयाली फिल्म एस दुर्गा को सुजोय घोष की अगुआई वाली जूरी की मंजूरी के बावजूद खारिज कर दिया गया. केरल के फिल्मकार सनलकुमार शशिधरन ने पहले ही अक्तूबर में मुंबई फिल्म महोत्सव में शामिल होने के लिए फिल्म का नाम सेक्सी दुर्गा से एस दुर्गा कर लिया था. शशिधरन, जिन्होंने मंत्रालय के फैसले को केरल हाइकोर्ट में चुनौती दी और आइएफएफआइ में प्रदर्शन की मंजूरी लेकर कामयाबी भी पाई, कहते हैं कि कुछ निहित स्वार्थी समूहों ने सिर्फ फिल्म का शीर्षक पढ़ लिया, फिल्म नहीं देखी है. वे कहते हैं, ''वे लोग फिल्म देखे बिना ही उस पर तरह-तरह की तोहमत लगा रहे हैं कि इससे धार्मिक भावनाएं आहत होंगी. वे जैसा कह रहे हैं, मेरी फिल्म में वैसा कुछ भी नहीं है."
उनकी स्थिति वैसी ही है जैसा पद्मावती के निर्माता खुद को घिरा हुआ पा रहे हैं, फिल्म को देखे बिना ही उस पर राय बनाई जा रही है और उसे खारिज किया जा रहा है. फर्क यह है कि शशिधरन के पास बड़े स्टुडियो और सुपरस्टारों का समर्थन नहीं है. शशिधरन कहते हैं, ''भारतीय बौद्धिक जगत और राय बनाने वालों के बीच यह गलत रुझान फैल रहा है. उनके मौन को भीड़ के लिए सलाम समझा जा रहा है, जिसे हर क्षेत्र में अपने से अलग राय रखने वालों का सफाया करने का अभ्यास हो चला है. अगर आप उनका विरोध करते हैं या किसी भी रूप में उनसे अलग राय रखते हैं, तो आपको निशाना बनाया जाएगा."
इस बीच, फिल्मकार और सेंसर बोर्ड के सदस्य अशोक पंडित फिल्म उद्योग से राजनीति में जाने वाले शत्रुघ्न सिन्हा, राज बब्बर, परेश रावल और जया बच्चन जैसे सांसदों की चुप्पी पर सवाल करते हैं. वे कहते हैं कि उन्हें राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या गृह मंत्री से अपील करनी चाहिए. वे कहते हैं, ''वे फिल्म उद्योग का नहीं, बल्कि राजनैतिक दलों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं और हर राजनैतिक दल में आज एक मनमोहन सिंह है. क्या यह उनका कर्तव्य नहीं है कि वे एक साथ मिलकर लोगों से या करणी सेना से अपील करें."
जहां तक बॉलीवुड की बात है तो पद्मावती को लेकर वह दो खेमों में बंट गया हैः एक तरफ वे लोग हैं जो बदतर हालात पर आत्ममंथन कर रहे हैं, दूसरी ओर बचे लोगों ने चुप्पी ओढ़ ली है. लेकिन इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि इस बात को लेकर मायूसी है कि वे उपद्रवी तत्वों के हाथों यह लड़ाई हार गए हैं, जिन्हें सत्तारूढ़ दल का समर्थन हासिल है. फिल्म कारोबार के विश्लेषक और 2017 की कॉमेडी फिल्म बहन होगी तेरी के निर्माता अमूल विकास मोहन कहते हैं, ''हम कुछ नहीं कर रहे हैं. हम यह सब होने दे रहे हैं. इसलिए हमें कोई गंभीरता से नहीं लेता. हम हर चीज को कालीन के नीचे दबा रहे हैं."
हंसल मेहता, जिनकी वेब शृंखला बोस, सुभाष चंद्र बोस के परिवार के सदस्यों की किसी आपत्ति के बिना आल्टबालाजी से जारी हो चुकी है, कहते हैं कि उद्योग में एकता नहीं है, वह भी तब जब उस पर हमला हो रहा है. वे कहते हैं, ''जब मुझ पर पड़ेगी तो देखेंगे" वाले खुद को बचाने के नजरिए के कारण ऐसी घटनाओं का प्रतिकार नहीं किया जाता. जब तक हम यह स्वार्थी और संकीर्ण नजरिया नहीं छोड़ते, हम एकजुट नहीं हो सकते."
अभिनेत्री शबाना आजमी ने हिंसा और विरोध झेला है. शिवसेना और बजरंग दल ने दिसंबर, 1998 में दीपा मेहता की समलैंगिकता पर केंद्रित फिल्म फायर की रिलीज का विरोध किया था, जबकि तोडफ़ोड़ के बाद वाटर का निर्माण श्रीलंका में करना पड़ा. आजमी ने इंडिया टुडे टीवी से इस विवाद पर कहा, ''मैं समझती हूं कि फिल्म उद्योग को यह एहसास हो गया होगा कि स्थिति ''करो या मरो" वाली हो गई है. ऐसा बहुत हो रहा है और बार-बार हो रहा है. फिल्म उद्योग सबके निशाने पर है और अब उसे खड़ा होने और यह कहने की जरूरत है कि वह चुनावी फायदा दिलाने वाले खेल और विभाजनकारी राजनीति की कठपुतली नहीं बन सकता."
अतीत के सबक
एक समय के यूटीवी के प्रोड्यूसर रोनी स्क्रूवाला को पता है कि इसका अर्थ यह होता है कि उपद्रवी आपकी गर्दन पर हमेशा सवार रहेंगे. उनकी फिल्म जोधा-अकबर (2008) को लेकर करणी सेना की आपत्ति यह थी कि अकबर तो जोधा का ससुर था इसलिए इतिहास को तोड़-मरोड़कर राजपूत गौरव को ठेस पहुंचाई गई है. स्क्रूवाला बताते हैं कि इसका अंदाजा उन्हें राजस्थान में शूटिंग के दौरान ही हो गया था. सो, उन्होंने सीधे ''आहत भावनाओं वालों से बात की, न कि मीडिया से." हालांकि पद्मावती के उलट जोधा-अकबर को सीबीएफसी से सेंसर सर्टिफिकेट लेने में कामयाबी हासिल हो गई थी. वे कहते हैं, ''हमारे पास सर्टिफिकेट था इसलिए किसी से खास बात करने की जरूरत नहीं पड़ी थी." कई लोग पद्मावती की रिलीज को टालने को उपद्रवियों के हाथों खेलना मान रहे हैं लेकिन स्क्रूवाला ऐसा नहीं मानते. वे कहते हैं, ''वायाकॉम शायद ही कोई समझौता करे. फिलहाल जो उचित है, वही वे कर रहे हैं. बस एक बार में एक कदम उठाने का मामला भर है."
आगे हैं और झमेले
फिलहाल पद्मावती के लिए करणी सेना ही खतरा नहीं है, असली मोर्चा तो प्रसून जोशी की अगुआई वाले सीबीएफसी को सर्टिफिकेट के लिए सहमत करना है, जो फिल्म के आकलन के लिए 68 दिनों की मोहलत चाहता है. गोवा में फिल्म फेस्टिवल के दौरान जोशी ने कहा, ''ये हालात सीबीएफसी ने नहीं पैदा किए हैं. उसका सड़कों पर प्रदर्शन से कोई लेना-देना नहीं है. आपने फिल्म मीडिया हाउसों को दिखाई और सकारात्मक समीक्षा हासिल कर ली. अब आप चाहते हैं कि सीबीएफसी सर्टिफिकेट थमा दे."
निर्माताओं का कहना है कि चुनिंदा मीडिया वालों के सामने फिल्म दिखाना उनकी पसंद का मामला है. लेकिन जोशी की बात से लगता है कि ऊपरी सत्ता कुछ नाराज है. जोशी कहते हैं, ''आप सर्टिफिकेट चाहते हैं तो हमें फैसले लेने का समय, सहूलियत और मौका तो दो." इस बीच 180-200 करोड़ रु. की बजट वाली यह फिल्म सिर्फ निर्माताओं का ही सिरदर्द नहीं है. इससे बॉलीवुड को भी झटका लगेगा, जो इस पर काफी दांव लगाए हुए है.
उधर, भाजपा फिल्म के खिलाफ उग्र बयानों और प्रदर्शनों पर मौन है या हल्की-फुल्की टिप्पणी ही दे रही है. कालवी तो कहते हैं, ''फिल्म को कचरे के डिब्बे के हवाले करने के अलावा और कोई चारा नहीं है." ऐसे उग्र बयानों का असर मुंबई में संजय लीला भंसाली के घर के आगे पसरे सन्नाटे में देखा जा सकता है. जाहिर है, इतिहास को दोबारा जीवंत करने के अपने खतरे हैं.
—साथ में किरण तारे, कौशिक डेका, रोहित परिहार, उदय माहूरकर और प्राची भुच्चर