scorecardresearch

यूपी चुनाव: कैसे उठेगा बेदम हाथी

करारी हार के बाद मायावती ने भाजपा पर ईवीएम में धांधली करके सत्ता हथियाने का आरोप लगाकर अपने आंदोलन की घोषणा कर दी है, लेकिन उनकी पार्टी की असल चुनौतियां कहीं ज्यादा बड़ी हैं.

मायावती के लिए अपनी पार्टी को बिखरने से बचाने की चुनौती होगी
मायावती के लिए अपनी पार्टी को बिखरने से बचाने की चुनौती होगी
अपडेटेड 27 मार्च , 2017
बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के संस्थापक कांशीराम की 83वीं जन्मतिथि पर 15 मार्च को लखनऊ के 12 माल एवेन्यु स्थित पार्टी के प्रदेश कार्यालय में कार्यकर्ताओं का हुजूम तो था पर जोश नदारद था. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बेहद खराब प्रदर्शन करने वाली बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती कार्यकर्ताओं को संबोधित करने वाली थीं. पूर्वान्ह करीब 11 बजे बसपा के राष्ट्रीय महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने जैसे ही नारे लगाने शुरू किए, बैठक का एजेंडा स्पष्ट हो गया. ''बहनजी तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं", मान्यवर कांशीराम जी अमर रहें", जैसे चिरपरिचित उद्घोष के बाद ''वोटिंग मशीन से चुनाव रद्द करो, रद्द करो", ''वोटिंग मशीन से धांधली करने वालो शर्म करो, शर्म करो", ''मतदान की पुरानी व्यवस्था बहाल करो, बहाल करो" जैसे नारों ने चुनाव में बुरी हार के बाद मायावती की रणनीति की ओर इशारा कर दिया.

कुछ ही देर बाद मायावती चारों ओर से एक दर्जन कमांडों से घिरी लाल बत्ती लगी एंबेसडर कार से सभा स्थल पर पहुंचीं और लिखा हुआ भाषण पढऩे की अपनी शैली में भाजपा पर चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) में धांधली करके सत्ता हथियाने का आरोप लगाकर पार्टी के आंदोलन की घोषणा कर दी. बसपा ईवीएम में धांधली की कानूनी लड़ाई का नतीजा आने तक हर महीने की 11 तारीख को प्रदेश के सभी जिला मुख्यालयों पर धरना-प्रदर्शन करेगी.

मायावती के लिए चुनाव नतीजे किसी सदमे से कम नहीं हैं. बसपा को भले ही 22 फीसदी से ज्यादा वोट मिले लेकिन 80 विधायकों वाली पार्टी के 19 सीटों पर सिमट जाने ने रणनीतिक स्तर पर उसकी कमजोरी को जाहिर कर दिया. चुनाव आयोग के नकारने के बावजूद मायावती ने ईवीएम में धांधली का आरोप लगा एक रणनीति के तहत प्रदेशव्यापी आंदोलन की घोषणा कर दी है. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग में प्रोफेसर डॉ. अजित कुमार कहते हैं, ''मायावती बुरी हार की जिम्मेदारी लेने की बजाए ईवीएम पर ठीकरा फोड़ समर्थकों को यह संदेश देना चाह रही हैं कि उन्हें साजिश के तहत सत्ता से दूर रखा गया है." आंदोलन को सफल बनाने के लिए मायावती ने अपने हर कोआर्डिनेटर को जिला मुख्यालय पर कम से कम 5,000 कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटाने का लक्ष्य दिया है.

आंबेडकर महासभा के अध्यक्ष लालजी निर्मल बसपा की इस रणनीति को असल मुद्दों से ध्यान बंटाने वाली करार देते हैं. निर्मल कहते हैं, ''लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव में दलित मतदाताओं का एक हिस्सा लगातार बसपा से छिटक रहा है, उसे रोकने के लिए मायावती को जमीनी मुद्दों को आधार बनाकर रणनीति तय करनी चाहिए." मायावती ने 86 सुरक्षित विधानसभा सीटों के अलावा दो अन्य सीटों पर दलित उम्मीदवार उतारे थे पर इनमें सिर्फ दो ही जीत सके. पिछले 25 वर्षों के दौरान बसपा का यह सबसे खराब प्रदर्शन है (देखें बॉक्स). उससे ज्यादा सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और अपना दल के दलित विधायक जीते हैं.

दलित आधार वाली बसपा के लिए इससे भी ज्यादा निराशाजनक बात यह है कि दलितों के लिए आरक्षित कुल 84 विधानसभा सीटों (दो सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं) में आधी से ज्यादा पर पार्टी दूसरे स्थान पर जगह नहीं बना सकी. पूर्वांचल के एक जिला कोआर्डिनेटर योगेंद्र कुमार बताते हैं, ''सवर्ण जातियों का ''फ्लोटिंग" वोट बसपा को नहीं मिलना सुरक्षित सीटों पर उसके खराब प्रदर्शन की मुख्य वजह है. मुस्लिम मतदाताओं पर अत्यधिक फोकस ने भी पार्टी को नुक्सान पहुंचाया है." पिछली विधानसभा में बसपा के विधानमंडल दल के नेता और बुंदेलखंड से आने वाले जाटव बिरादरी के नेता गयाचरण दिनकर के चुनाव हारने के बाद मायावती ने कुर्मी नेता लालजी वर्मा को बसपा विधानमंडल दल का नेता बनाया है.

99 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देना बसपा को भारी पड़ गया. आजादी के बाद यह पहला मौका था जब किसी मुख्य पार्टी ने इस तादाद में मुस्लिम उम्मीदवारों को उतारा. राज्य में 140 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जिनपर मुस्लिम मतदाताओं की आबादी 20 फीसदी या इससे अधिक है. इन सीटों में 109 पर बीजेपी, 2 पर अपना दल, 23 पर सपा और बसपा को सिर्फ दो पर जीत से संतोष करना पड़ा. चुनाव में दिल्ली की जामा मस्जिद के शाही इमाम सैयद अहमद बुखारी समेत कई मुस्लिम उलेमा का समर्थन भी बसपा को मुसलमानों का एकतरफा समर्थन न जुटा सका. अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद में एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. मोहम्मद इस्माइल खां कहते हैं, ''मुसलमानों का समर्थन पाने के लिए बसपा की रणनीति सिर्फ राष्ट्रीय महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी के इईगिर्द ही घूमती रही. स्थानीय स्तर पर मुस्लिम नेताओं को आगे न करने से पार्टी अपने पक्ष में माहौल बनाने में नाकाम रही."

वहीं कभी बसपा के गढ़ रहे आंबेडकर नगर जिले के नतीजों में मायावती की पुरानी सोशल इंजीनियरिंग की सफलता की झलक दिखी. दलित और अति पिछड़ा बाहुल्य इस जिले की पांच में से तीन सीटों पर बसपा का परचम लहराया है, जबकि पिछले विधानसभा चुनाव में वह सभी सीटों पर हार गई थी. बसपा में अति पिछड़ी जाति के दो सबसे बड़े नेता लालजी वर्मा आंबेडकर नगर की कटेहरी विधानसभा सीट और प्रदेश अध्यक्ष राम अचल राजभर अकबरपुर विधानसभा सीट से चुनाव जीते हैं. साफ है, दलित और अतिपिछड़ा जनाधार आज भी बसपा के लिए जिताऊ है. अगर मायावती अपने इस जनाधार को 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले वापस लाने में कामयाब रहीं तभी वे पलटवार कर पाएंगी.
Advertisement
Advertisement