जवाबः अपनी पार्टी के पूर्ववर्ती अटल बिहारी वाजपेयी के सांचे में तो कतई नहीं.
अभी यह तय होना बाकी है कि अपना एक-तिहाई कार्यकाल पूरा कर चुके मोदी पहले के किस प्रधानमंत्री से मेल खाते हैं. केंद्र सरकार के बजट की तैयारियों के दौरान और 29 फरवरी को उसके संसद में पेश किए जाने के बाद उनके और इंदिरा गांधी के बीच अजीबोगरीब समानताएं देखी जा रही हैं. समानताएं सिर्फ उनके काम करने के तरीके (दोनों को निरंकुश माना जाता है) और उनके करिश्मे (दोनों ने अपनी निजी लोकप्रियता के दम पर अपनी पार्टियों को मशहूर जीत दिलाई) में ही नहीं है, बल्कि इस बात में भी हैं कि मुश्किलों से घिरे होने पर किस तरह अपने दुश्मन और अपनी प्राथमिकताएं तय करने का अंदाज भी दोनों का काफी कुछ एक जैसा है. इंदिरा गांधी उस “विदेशी हाथ” के बारे में हल्ला मचाती थीं, जो लगातार उनकी गद्दी को हिलाने की साजिशें करता था, तो बजट के हफ्ते भर पहले मोदी ने भी विदेशी रकम से चलने वाले उन एनजीओ को आड़े हाथों लिया जिनका “मकसद मोदी को खत्म करना है.”
कांग्रेस के 1969 में दोफाड़ होने के बाद जब इंदिरा गांधी के नेतृत्व को चुनौती दी गई, तो उन्होंने “गरीबी हटाओ” का ऐलान कर दिया, जो आजादी के बाद का सबसे बड़ा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम था. इसने गांवों और शहरों के गरीबों में सीधे अपनी पैठ बनाने में उनकी मदद की और उन्होंने 1971 का आम चुनाव भारी जनसमर्थन के साथ जीता था. उनके 20 सूत्री कार्यक्रम में विशाल ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना, सभी गांवों को पीने का पानी और गांवों में बिजली पहुंचाना शामिल था.
हाल के राज्य विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी की हार के बाद लगातार असुरक्षित जान पड़ते और धीमी पड़ती अर्थव्यवस्था, गांवों की खराब माली हालत, निर्यात में तेज गिरावट, अमीरों की समर्थक होने के लिए उनकी सरकार की तीखी आलोचना और देश में बढ़ती नागरिक उथलपुथल से घिरे मोदी ने कुछ मायनों में इंदिरा गांधी को भी पीछे छोड़ दिया है. 2016 के बजट में उन्होंने खेती-किसानी और गरीबी हटाने के कार्यक्रमों पर दोनों हाथों से अब तक का सबसे ज्यादा धन न्योछावर किया है. इससे उन्हें उम्मीद है कि भारतीय अर्थव्यवस्था और भी तेज रफ्तार वृद्धि के रास्ते पर चल पड़ेगी और उन्हें दूसरा कार्यकाल भी जिता देगी.
ऐसा करते हुए मोदी ने उस सूट-बूट की सरकार के तमगे से भी पल्ला छुड़ाने की कोशिश की है जो राहुल गांधी ने उनके ऊपर चस्पां कर दिया था. इसकी जगह उन्होंने खुद को गरीब-गुरबों और दबे-कुचलों के नए मसीहा के तौर पर पेश करते हुए धोती कुर्ते की छवि धारण करने का जतन किया है. प्रधानमंत्री ने खुद को फिर से “विकास वाला” के तौर पर भी स्थापित किया है, मगर उन्हें संघ परिवार को अपने बांटने वाले एजेंडे पर लगाम कसने के लिए तैयार करना है, जो हाल के दिनों में इस एजेंडे को और भी जोशो-खरोश से लागू कर रहा है. सरकार और कांग्रेस, पार्टी दोनों को अपनी मनमर्जी के मुताबिक चलाने वाली इंदिरा गांधी से एक फर्क यह है कि मोदी को सरकारी फैसलों में संघ के बढ़ते दखल से निबटना पड़ रहा है.

जहां तक करों की बात है, तो कॉर्पोरेट क्षेत्र को उन्होंने कोई राहत तो नहीं दी है, मगर बजट ने कर निर्धारण और विवाद निबटारे की प्रक्रियाओं को सरल बनाकर और पिछली तारीख से कर लगाने के बारे में सारे संदेहों को दूर करके “टैक्स टेररिज्म” को खत्म किया है. अहम यह है कि मोदी सरकार ने चौतरफा कई कार्यक्रमों और क्षेत्रों में खुले हाथ से धन झोंका है, इसके बाद भी उसने घाटे के लक्ष्यों को पूरा करते हुए राजकोषीय अनुशासन कायम रखा है. वित्त मंत्रालय के अफसर कहते हैं, “इसी फैसले की बदौलत बजट की घोषणाओं को लोकलुभावन की बजाए लोकप्रिय करार दिया गया.”
राजकोषीय समझदारी का यह फैसला सरकार के भीतर गर्मागर्म बहस के बाद लिया गया. प्रधानमंत्री के कुछ अहम सलाहकारों ने उनसे कहा था कि राजकोषीय पाबंदियों को अतीत की अनचाही विरासत मानकर ताक पर रखें और किसी बात की परवाह किए बगैर कार्यक्रमों पर दोनों हाथों से खर्च करें. दूसरों ने उन्हें आगाह किया. एक अफसर ने इस बात को इस ढंग से कहा, “यह ऐसा ही होता कि भारत पूरी तैयारी के बगैर रातोरात यह फैसला कर लेता कि अब सभी कारों में स्टीयरिंग व्हील बाईं तरफ होना चाहिए.”
मोदी समझदारी बरतने के हक में झुक गए और उन्होंने बारीक संतुलन साधा. इस फैसले से दुनिया भर के निवेशकों को भरोसा बंधा और बजट पेश करने के बाद शेयर बाजार में फिर उछाल दिखा. विदेश मंत्रालय के एक वरिष्ठ अफसर कहते हैं, “शुरुआत में गरीबी हटाने के कार्यक्रमों पर इतना जोर देखकर मेरा तो दिल ही बैठ गया था, जब बुनियादी ढांचे में निवेश, करों से जुड़े उपायों और राजकोषीय संयम वाली बातें पढ़ी गईं, तो मैं फौरन समझ गया कि विदेशी निवेशकों ने चैन की सांस ली होगी. वे भारत संग एकजुट हो जाएंगे. उन्हें और ज्यादा की उम्मीद रही होगी, पर वे शिकायत नहीं कर सकते.”
यह तो जाहिर ही था कि पूरे बजट पर खुद प्रधानमंत्री की छाप थी. उन्होंने विभिन्न विभागों के साथ 10 बैठकें कीं और जोर दिए जाने वाले हरेक अहम क्षेत्र की एक-एक योजना की निजी तौर पर पड़ताल की. चाहे वह कृषि क्षेत्र हो या ग्रामीण क्षेत्र या फिर शिक्षा, स्वास्थ्य, ऊर्जा, परिवहन या कर क्षेत्र हो. वहां मौजूद एक वरिष्ठ अफसर ने कहा कि मोदी को एहसास था कि वैश्विक माहौल में गैरमामूली उथलपुथल मची है, विश्व अर्थव्यवस्था डगमगा रही है और भविष्य के उतार-चढ़ावों से भारतीय अर्थव्यवस्था की किलेबंदी करनी होगी. उन्हें यह एहसास भी था कि तेल के कम दामों ने उनकी सरकार का खजाना भरने में मदद की है, मगर ये हालात हमेशा कायम नहीं रह सकते हैं. मोदी ने अफसरों से कहा, “हम वैश्विक संकट का अपने ऊपर असर पड़ने का इंतजार न करें, इसकी बजाए हम आगे बढ़कर ऐसे उपाय करें जिससे वह असर कम से कम पड़े.”
प्रधानमंत्री ने लगातार दो फसलों के खराब होने की वजह से देश के अहम राज्यों में गांवों की तंगहाली पर भी चिंता जताई और राहत देने की जरूरत पर जोर दिया. बजट पर चर्चाओं के दौरान उन्होंने साफ कर दिया कि खेती और ग्रामीण विकास पर ध्यान दिया जाना चाहिए और इसके अलावा आर्थिक वृद्धि को उछाल देने के लिए बुनियादी ढांचे में भारी सार्वजनिक निवेश होना चाहिए. उन्हें पता था कि विनिर्माण क्षेत्र लड़खड़ा रहा है, निर्यात गिर रहे हैं और घरेलू निजी निवेश भी घिसट रहा है. इसलिए उन्होंने और तेज तथा ऊंची आर्थिक वृद्धि के लिए बड़े पैमाने पर सरकारी रकम झोंकने पर दांव लगाने का फैसला किया.
एक वरिष्ठ अफसर कहते हैं, “अर्थव्यवस्था को जरूरी प्रोत्साहन देने के लिए प्रधानमंत्री राजकोषीय संयम कायम रखते हुए मांग और खपत से आगे बढ़ती वृद्धि पर भरोसा करके चल रहे हैं. पर उनको यह भी साफ था कि पैसा संपत्ति निर्माण में, मसलन सड़कों में, लगना चाहिए जिसका असर लगातार बढ़ता जाएगा.” उनकी सरकार की उम्मीदें इस बात पर भी टिकी हैं कि ऐसा मुश्किल से ही कभी हुआ है कि फसलें लगातार तीन साल खराब रही हों. इसलिए मोदी की टीम को उम्मीद है कि इस साल मॉनसून अच्छा रहेगा. इससे अर्थव्यवस्था में और भी तेज वृद्धि की संभावना बढ़ जाएगी.
बजट के बाद इस पर बहुत बहस हो रही है कि सुधारों का वादा करके और “सरकार को कारोबार के मामले में नहीं पडऩा चाहिए” सरीखे दावे करके सत्ता में आए प्रधानमंत्री अपने रास्ते से भटक गए हैं. उनके आलोचक उनके ऊपर धीरे-धीरे आगे बढ़ने की नीति अपनाने का इल्जाम लगाते हैं, जो विनिवेश को धीमा करके और वृद्धि को तेज रफ्तार देने के लिए भारी-भरकम सार्वजनिक निवेश पर भरोसा करके चल रहे हैं. जाहिर तौर पर मोदी वाम या दक्षिण होने की परंपरागत विचाराधारात्मक बाड़ेबंदी के हक में नहीं हैं. अपने सहयोगियों से वे कहते हैं, “मैं पैसा बनाऊंगा और उसे बांट दूंगा.”
अपनी आर्थिक नीति मोदी ने पिछले साल ही साफ कर दी थी, जब उन्होंने एक कार्यक्रम में कहा था, “बड़े काम करने और छोटी-छोटी चीजें करने में आपस में कोई विरोध नहीं है. इनमें से एक तरीका नई नीतियों, कार्यक्रमों, बड़ी परियोजनाओं और रास्ता बदलने वाले बदलावों का है. दूसरे में अहमियत वाली छोटी-छोटी चीजों पर ध्यान देना होता है, जन आंदोलन खड़ा करना होता है और जनावेग पैदा करना होता है, जो फिर विकास को आगे बढ़ाता है. हमें दोनों रास्तों पर चलने की जरूरत है.”
2016 के बजट में उन्होंने इन दोनों रास्तों के बीच बेहतर संतुलन साधा है. और उन्होंने पिछली सरकार की नीतियों को गले लगाने और उनमें सुधार करने से भी संकोच नहीं किया, वैसे ही जैसे उन्होंने आधार और मनरेगा के साथ किया है. उन्होंने अपने एक सहयोगी से कहा था, “मेरी आर्थिक दूरदृष्टि वृद्धि और विकास है और मैं तब तक चैन नहीं लूंगा जब तक कि आने वाले सालों में हम जीडीपी में दो-अंकों की वृद्धि हासिल नहीं कर लेते.”
केंद्रीय बजट संसद में रखे जाने के कुछ ही घंटों बाद मोदी ने अपने वरिष्ठ अफसरों को पीएमओ में बुलाया और उनसे कहा, “बजट तो हो गया, अब इस पर अमल शुरू करें.” प्रधानमंत्री को अच्छी तरह पता है कि बजट की बहुत कुछ कामयाबी योजनाओं के तेजी से अमल पर निर्भर करेगी, जिनका उन्होंने ऐलान किया है. भारत की लालफीताशाही के बारे में उनकी यह बात काफी मशहूर है, “जिंदगी में मोक्ष हासिल करने के लिए लोग चार धाम यात्रा पर जाते हैं. सरकार में एक फाइल को छत्तीस धाम की यात्रा करनी पड़ती है और फिर भी मोक्ष नहीं मिलता.”
अब जब ड्राइविंग सीट पर वे खुद विराजमान हैं, उन्हें भारत को आर्थिक मोक्ष दिलाने के लिए कोई कसर बाकी नहीं रहने देनी चाहिए.