'एक आदमी का मोल इतना भर रह गया है कि वह अभी क्या है और उसका तुरत-फुरत क्या इस्तेमाल किया जा सकता है. उसे एक वोट, एक संख्या, एक सामान के रूप में देखा जाता है. किसी इंसान को कभी एक दिमाग की तरह तवज्जो नहीं दी गई. एक ऐसी खूबसूरत शय जिसे सितारों ने अपनी धूल से पैदा किया. हर जगह यही हो रहा है, चाहे पढ़ाई हो, चाहे सड़क, राजनीति और यहां तक कि जीने और मरने में भी.'
अपने 27वें जन्मदिन से ठीक 13 दिन पहले 17 जनवरी को हैदराबाद विश्वविद्यालय के न्यू रिसर्च स्कॉलर्स हॉस्टल में आंबेडकर स्टुडेंट्स एसोसिएशन (एएसए) के नीले बैनर का फंदा गले में डालकर और पंखे से लटक जब शोध छात्र रोहित वेमुला ने अपनी जान दी, तो जाते-जाते वह पांच पन्ने के अपने सुसाइड नोट में बहुत कुछ कह गया. रोहित के आखिरी खत में बातें तो बहुत-सी हैं, लेकिन इसका मर्म कैंपस में दलित छात्रों के साथ हो रहे अन्याय में ही छिपा है.
रोहित को पिछले सात महीने से जूनियर रिसर्च फेलोशिप (जेआरएफ) के तहत बकाया पौने दो लाख रु. का वजीफा भी नहीं मिला था जो वह अपने परिवार को दिए जाने की इच्छा जाहिर कर गया है. इसी पैसे से वह दिहाड़ी मजदूरी करने वाली अपनी मां और छोटे भाई की मदद किया करता था.
इस मौत ने देश को हिलाकर रख दिया. हैदराबाद विश्वविद्यालय से लेकर दिल्ली में मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी के घर और दफ्तर तक जबरदस्त प्रदर्शन हुए. रोहित समेत पांच दलित छात्रों को 21 दिसंबर, 2015 को हैदराबाद विश्वविद्यालय के छात्रावास से निष्कासित कर दिया गया था, जिसके बाद से वे लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे थे. मामले की जड़ में 3 अगस्त को एएसए और अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के छात्रों के बीच हुई एक झड़प है. यह झड़प मुंबई धमाकों के गुनहगार याकूब मेनन को जुलाई में हुई फांसी को लेकर लिखी गई एक पोस्ट और मुजफ्फरनगर बाकी है नाम की डॉक्यूमेंट्री से जुड़ी थी.
एएसए फांसी के विरोध में था और एबीवीपी की ओर से उक्त डॉक्यूमेंट्री के विरोध के खिलाफ भी था. एबीवीपी की ओर से छात्र नेता एन. सुशील कुमार ने फेसबुक पर एक कमेंट किया, जिसमें उसने एएसए के कार्यकर्ताओं को गुंडा करार दिया. हालांकि विरोध के बाद सुशील ने इसके लिए माफी मांगी लेकिन फिर उसने रोहित और अन्य चार पर मारपीट करने का आरोप लगा दिया. इसके बाद 17 अगस्त को केंद्रीय श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने ईरानी को एक पत्र लिखा, जिसमें घटना का विवरण देते हुए एएसए को “राष्ट्रविरोधी” करार दिया गया.
यूनिवर्सिटी के प्रॉक्टोरियल बोर्ड की जांच के बाद 9 सितंबर को हैदराबाद विश्वविद्यालय ने रोहित समेत अन्य छात्रों को एक सेमेस्टर के लिए निलंबित कर दिया. दो दिन बाद कार्यकारी कुलपति आर.पी. शर्मा ने उनके निलंबन को सिर्फ छात्रावास तक सीमित कर दिया और सार्वजनिक आयोजनों में उनकी हिस्सेदारी पर बंदिश लगा दी.

पिछले साल सितंबर और नवंबर के बीच मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने हैदराबाद विश्वविद्यालय को तीन पत्र लिखकर पूछा था कि बंडारू दत्तात्रेय की शिकायत पर क्या कार्रवाई की गई है? वहीं निष्कासन को लेकर आक्रोशित छात्रों ने 4 जनवरी को अपना प्रदर्शन उग्र करते हुए परिसर के खुले क्षेत्र में एक तंबू गाड़ दिया और प्रशासन पर फैसला पलटने का दबाव बनाने के लिए छात्रों की एक संयुक्त संघर्ष समिति बना ली. जब विश्वविद्यालय प्रशासन की ओर से कोई जवाब नहीं आया, तो छात्रों ने 17 जनवरी को अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू कर दी. इस दौरान रोहित लापता रहा.
रोहित की आत्महत्या के बाद गुस्साए छात्रों ने पुलिस को उसका पार्थिव शरीर नहीं ले जाने दिया. उन्होंने मांग की कि कुलपति, दत्तात्रेय और स्मृति ईरानी पर अनुसूचित जाति और जनजाति उत्पीडऩ निरोधक कानून के तहत मुकदमा चलाकर, उन्हें गिरफ्तार किया जाए. अप्पा राव कहते हैं, “एबीवीपी के एक छात्र नेता पर हमले के मामले में कार्यकारी परिषद की एक उपसमिति की सिफारिश और प्रॉक्टोरियल समिति की जांच के बाद इन लड़कों को निलंबित किया गया था.” मानव संसाधन विकास मंत्री ईरानी ने 20 जनवरी को मीडिया को बताया कि बार-बार भेजा गया पत्र सांसदों की ओर से की गई शिकायत पर की जाने वाली मानक प्रक्रिया का हिस्सा है, हालांकि मामला कहीं ज्यादा जटिल है.
राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पी.एल. पुनिया के मुताबिक, “श्रम मंत्री ने एचआरडी मंत्री को जो पत्र लिखा, उसमें पूरा सच नहीं है. दूसरी जगहों से भी दबाव था, जो कि पहली जांच के बाद लिए गए यू-टर्न से साफ होता है, जिसमें छात्रों को निर्दोष करार दिया गया था.” हैदराबाद विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष जुहैल केपी कहते हैं, “रोहित की मौत परिसर में जातिगत भेदभाव की बढ़ती खाई को रेखांकित करती है.”

वैसे, रोहित की मौत इस तरह की इकलौती मौत नहीं है. अकादमिक जगत के लोग इस तरह की घटनाओं के लिए प्रशासन की संवेदनहीनता और दलित छात्रों को आर्थिक मदद पहुंचाने की कारगर व्यवस्था न होने की तरफ इशारा करते हैं.ऐसी वजहों से कई दलित छात्रों को पढ़ाई बीच में ही छोडऩी पड़ती है. नाम न छापने की शर्त पर एक शिक्षाविद् कहते हैं, “1974 में हैदराबाद विश्वविद्यालय की स्थापना से लेकर आज तक यहां का प्रबंधन किसी वंचित तबके के शख्स के हाथ में नहीं आया.” ओपी जिंदल स्कूल ऑफ गवर्नमेंट ऐंड पब्लिक पॉलिसी में प्रोफेसर और सामाजिक अध्येता शिव विश्वनाथन कहते हैं, “रोहित की खुदकुशी विश्वविद्यालय की स्वायत्तता के झूठ का पर्दाफाश करती है. यह दिखाती है कि छात्र कैसे एक-दूसरे के परस्पर सहारे से जीते हैं. वह एक अद्भुत शक्चस था जो कार्ल सैगान की तरह लिखने और सितारों के सफर का सपना देखता था.”
इससे पहले भी हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित छात्रों की मौत हुई है लेकिन उन पर किसी का ध्यान नहीं गया. सलेम के एक छात्र सेंथिल कुमार ने 2008 में आत्महत्या कर ली थी, तब विश्वविद्यालय ने इस शोध छात्र को सुपरवाइजर उपलब्ध नहीं कराया था. इस मौत की जांच करने वाली समिति ने दलित छात्रों के खिलाफ गंभीर भेदभाव की बात कही थी. इसके बाद 2013 में एम. वेंकटेश नामक एक छात्र ने आत्महत्या कर ली. तीन साल तक गुहार लगाने के बाद भी विश्वविद्यालय ने वेंकटेश को गाइड और लैब नहीं मुहैया कराया था. उसकी मौत के बाद बनी एक समिति ने वंचित तबके से आने वाले छात्रों का “ध्यान न रखे जाने और उनसे संवेदनहीन व्यवहार किए जाने के मामलों” को पाया था.
शिक्षाविदों का मानना है कि छुआछूत और जात-पात एक तबके के दिमाग में गहरी जड़ें जमाए है जो समय-समय पर अपना असर दिखाता रहता है. पुनिया कहते हैं, “रोहित की खुदकुशी और आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल (एपीएससी) पर लगे प्रतिबंध में ऐसा ही चलन देखा जा सकता है. ऐसे मामले मनगढ़ंत किस्सों से शुरू होते हैं और फिर अनुसूचित जाति के लोगों को निराधार जांचों के आधार पर दोषी ठहरा दिया जाता है.” पिछले साल आइआइटी- मद्रास के अधिकारियों की एपीएससी पर लगाई गई बंदिश ने न केवल छात्रों की राजनैतिक सक्रियता को केंद्र में ला दिया है, बल्कि देश भर के विश्वविद्यालयों में दलित आंदोलन को बड़ा हौसला भी दिया है. यह प्रतिबंध मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भेजी गई एक “अनाम” शिकायत के आधार पर लगाया गया था. उसमें इस छात्र समूह पर आरोप था कि यह एससी और एसटी छात्रों का “ध्रुवीकरण” करने की कोशिश कर रहा है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का “आलोचक” है. इस प्रतिबंध के विरोध में देश भर में प्रदर्शन हुए और जून की शुरुआत में प्रतिबंध को हटा दिया गया. इस अस्थायी बंदिश को हटाए जाने के बाद दूसरे आइआइटी परिसरों और उच्च शिक्षण संस्थानों में भी छात्रों ने एपीएससी की इकाइयां बना दी हैं या एकजुटता में ऐसे ही मंच गठित कर लिए हैं.
आइआइटी-मुंबई के छात्रों ने जहां आंबेडकर-पेरियार-फुले सर्किल (एपीपीसी) नामक नए समूह की शुरुआत की है, वहीं आइआइटी-दिल्ली, जाधवपुर यूनिवर्सिटी, कोलकाता और जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) ने अपने परिसरों में एपीएससी के चैप्टर शुरू किए हैं. इसी तरह तमिलनाडु में कामराज अरविंदन ने मदुरै में एपीएससी का एक चैप्टर शुरू किया है.
एपीएससी और एएसए आंबेडकर तथा पेरियार की विरासत में विश्वास करते हैं और इनका उद्देश्य “जाति की घातक प्रथा” को खत्म करने के तरीके खोजना है. ये सत्ता और विमर्श की मुख्यधारा को चुनौती देते हैं.
जाति के आधार पर भेदभाव
हैदराबाद विश्वविद्यालय और आइआइटी-मद्रास की घटनाओं ने उच्च शिक्षा के बेहतरीन संस्थानों में जारी जात-पांत और दबंगई को भी उजागर कर दिया है. आइआइटी-मुंबई की पीएचडी की एक छात्रा आरोप लगाती हैं, “जाति के आधार पर भेदभाव यहां बड़ा मुद्दा है. यह बाहर केवल तभी आता है जब कोई छात्र खुदकुशी कर लेता है. मसलन, सितंबर 2014 में अनिकेत अंभोरे ने साथी छात्रों और स्टाफ की तरफ से जाति के आधार पर हो रहे भेदभाव से तंग आकर खुद को मार डाला था. लेकिन तब इसे महज हादसा बताकर खारिज कर दिया गया था.” वे कहती हैं, “जाति का आधुनिक चेहरा खालिस छुआछूत से बिल्कुल अलग है. कपट के लबादे में छिपी यह प्रवृत्ति और घातक हो जाती है. जरूरत इस बात की है कि हम जातिवाद और वर्गवाद के बारे में खुलकर चर्चा करें. छात्रों के साथ ही फैकल्टी को भी संवेदनशील बनाने की जरूरत है.”
जेएनयू में काम कर रहे एक छात्र संगठन बिरसा-आंबेडकर-फुले स्टुडेंट्स एसोसिएशन (बीएपीएसए) ने डायरेक्ट पीएचडी दाखिले को लेकर 15 जनवरी को विश्वविद्यालय में विरोध प्रदर्शन किया. दरअसल 2015-16 के विंटर सेमेस्टर में डायरेक्ट पीएचडी दाखिले की 75 सीटें थीं, लेकिन इसमें महज 6 ओबीसी सीट भरी गईं और अनुसूचित जाति-जनजाति की एक भी सीट नहीं भरी गई. कुछ ऐसा ही हाल 2014-15 के विंटर सेमेस्टर में भी रहा था. सिर्फ पीएचडी ही नहीं, एमफिल में दाखिले की प्रक्रिया पर भी सवाल उठते रहे हैं. जेएनयू से मीडिया स्टडीज में एमफिल कर रहे एक छात्र बताते हैं, “पिछड़े तबके के छात्रों को इंटरव्यू में दो-तीन-चार या शून्य नंबर तक दे दिया जाता है. वह तो लिखित परीक्षा में अच्छे नंबर हासिल करने की वजह से ऐसे छात्र दाखिला ले पाते हैं.” इस प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में भेदभाव के आलम को बताते हुए यहां के छात्र बाल गंगाधर कहते हैं, “जेएनयू में पीएचडी कर रहे वंचित समुदाय के डेढ़ दर्जन छात्र हर साल बीच में ही पढ़ाई छोडऩे के लिए मजबूर हो जाते हैं.”
दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के दयाल सिंह कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर और एकेडमिक फोरम फॉर सोशल जस्टिस के अध्यक्ष केदार कुमार मंडल ने आरटीआइ के जरिए जानकारी जुटाई तो पाया कि 2010-11 सत्र में डीयू में दाखिले की करीब 5,000 अनुसूचित जाति, जनजाति और ओबीसी समुदाय की सीटें खाली रह गईं और इनको बाद में सामान्य वर्ग के छात्रों से भर दिया गया. 2011 तक दाखिले के दो-तीन कट-ऑफ ही निकाले जाते थे. इस मामले को लेकर मंडल और उनके सहयोगी सुप्रीम कोर्ट गए. मंडल बताते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने 18 अगस्त, 2011 को फैसला दिया कि इन आरक्षित सीटों के लिए न्यूनतम कट-ऑफ जारी किया जाए और सीटों के खाली रहने तक कट-ऑफ कम की जाती रहे. यही वजह है कि डीयू में अब 12-14 कट-ऑफ लिस्ट निकलती हैं. मंडल कहते हैं, “यहां नियुक्तियों में भी विसंगतियां हैं और इसकी लड़ाई मैं अदालत में लड़ रहा हूं. जब तक वंचित समुदाय का सही प्रतिनिधित्व टीचिंग और उच्च प्रशासनिक पदों पर नहीं होगा हालात नहीं बदलेंगे.”
वहीं दाखिला मिलने के बाद भी छात्रों की समस्या खत्म नहीं होती. जैसा कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में सेंथिल और वेंकटेश के साथ हुआ. दूसरी ओर, 2014 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के एक दलित छात्र के साथ उसके गाइड ने मारपीट की. मजबूरन उसे दूसरे गाइड की शरण में जाना पड़ा. इसी तरह दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) और महावीर वर्धमान चिकित्सा महाविद्यालय भी कठघरे में रहे हैं. एम्स में एक के बाद एक आत्महत्या के बाद दलित-आदिवासी समुदाय के छात्रों के साथ भेदभाव की जांच के लिए गठित प्रोफेसर सुखदेव थोराट समिति ने 2007 में अपनी रिपोर्ट में चौंकाने वाला खुलासा कियाः 80 फीसदी से ज्यादा छात्रों ने बताया कि फैकल्टी सदस्य और परीक्षक उनकी जातिगत पृष्ठभूमि पूछते हैं और लिखे के मुताबिक नंबर नहीं देते. पिछले साल अक्तूबर में राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग ने एम्स की एक फैकल्टी सदस्य और दलित शशि मावर के जातीय उत्पीडऩ को अपनी जांच में सही पाया और एम्स से उचित कार्रवाई करने को कहा. संगठन जनहित अभियान के तहत एम्स में भ्रष्टाचार और जातीय उत्पीडऩ के खिलाफ अभियान चला रहे राज नारायण कहते हैं, “इस केस में आयोग भी कुछ नहीं करा सका है.” वहीं पुनिया कहते हैं, “हम सिर्फ सिफारिश ही कर सकते हैं.”
सियासी औजार भी
दलित और पिछड़े वर्ग के छात्र मुख्यधारा के विमर्श और लफ्फाजी पर सवाल उठाते हैं और नेताओं के जबानी जमाखर्च को भी कोसते हैं. मौजूदा परिदृश्य में दलित छात्रों में राहुल गांधी के हैदराबाद विश्वविद्यालय में आने पर भी विवाद है. तेलंगाना बनने के बाद राहुल इससे पहले केवल एक बार जून 2014 में कांग्रेसी दिग्गज और दलित नेता जी. वेंकटस्वामी को श्रद्धांजलि अर्पित करने हैदराबाद आए थे. इस तरह के दौरों को सियासी बढ़त बनाने की कवायद माना जाता है, जिससे वंचित समूह को मुख्यधारा में लाने में खास मदद नहीं मिलती. दलित छात्र कहते हैं कि नेता अपने लिए मुफीद किसी भी महापुरुष या विचार को हथिया लेते हैं. उनकी दलील है कि ठीक इसी तरह भगत सिंह को हिंदू राष्ट्रवादी के तौर पर प्रचारित किया गया हालांकि वे देश की आजादी के लिए लड़ रहे थे.
इस बीच दूसरे भी राहुल गांधी के नक्शेकदम पर चल पड़े. बीएसपी की सुप्रीमो मायावती, टीएमसी के सांसद डेरेक ओब्रायन और केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान की भेजी गई लोक जनशक्ति पार्टी की टीम ने अपने हिस्से का सियासी पुण्य कमाने के लिए हैदराबाद विश्वविद्यालय के परिसर की तीर्थयात्राएं कीं. कोलकाता में टीएमसी के पूर्व सांसद और गायक कबीर सुमन ने रोहित के लिए 63 सेकंड का एक गाना बनाया, गाया और सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया. इस तरह विश्वविद्यालय के मामलों में मानव संसाधन विकास मंत्रालय का हस्तक्षेप और कुलपति का कथित पूर्वाग्रह गौण मुद्दे बन गए.
वैसे, दलित उत्पीडऩ का दायरा केवल विश्वविद्यालयों और कॉलेजों तक ही सीमित नहीं है. बिहार के कैमूर जिले में एक स्कूल अध्यापक ने दलित छात्रों को इस तरह भेदभाव का शिकार बनाया कि प्रार्थना के दौरान एक-एक कर उन्हें उनके जाति के नाम से पुकारा और फिर आखिरी कतार में खड़ा होने के लिए मजबूर कर दिया. राजस्थान में कुछ जगहों पर नाई एससी और एसटी समुदायों के ग्राहकों के बाल काटने से इनकार कर देते हैं.
दलित एक्टिविज्म का उभार
इन ज्यादतियों की वजह से वर्ष 2000 के बाद से दलित और आदिवासी छात्र आंदोलन में नई ऊर्जा आई है. हैदराबाद में रहने वाले सामाजिक नृविज्ञानी पी. जयप्रकाश राव कहते हैं, “हमारे बेहतर अकादमिक संस्थानों के नए मुखर समूह जैसे-जैसे विकसित होते जाएंगे, उनकी आवाज बुलंद होती जाएगी, क्योंकि इन प्रतिष्ठित संस्थानों में वे सबसे मेधावी छात्रों की तुलना में उम्मीद से कम कामयाबी हासिल कर पाते हैं. यह संभवतः अगले दो दशकों तक जारी रहेगा, जब तक कि साधनहीन तबकों की इन नई पीढिय़ों में मुकाबला करने की ज्यादा काबिलियत नहीं आ जाती. किसी भी पड़ाव पर उनकी आवाज नहीं दबाई जानी चाहिए, बल्कि उन्हें खासकर विभाजनकारी मुद्दों पर खुलकर अपनी बात कहने देनी चाहिए, क्योंकि उच्च शिक्षा का कुल जमा यही मतलब है.”
बीएचयू के हिंदी विभाग में 2013-14 सत्र में पीएचडी में दाखिले में आरक्षण फॉलो न करने को लेकर दलित-आदिवासी छात्रों ने भारी विरोध किया था, जिसके बाद प्रशासन ने आरक्षण के अनुसार सीटें भरी थीं. दाखिले और नियुक्तियों को लेकर ही नहीं, अपनी अस्मिता और सांस्कृतिक पहचान को लेकर भी दलितों-आदिवासियों और पिछड़े समुदाय के छात्रों में उभार आया है. जेएनयू में 2011 में ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टुडेंट्स फोरम (एआइबीएसएफ) ने महिषासुर को आदिवासी नायक बताते हुए महिषासुर दिवस मनाना शुरू किया था. 2014 तक आते-आते यह समारोह उत्तरी भारत के करीब 100 शहरों, कस्बों और शैक्षणिक संस्थानों में मनाया जाने लगा. मुंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में 2014 में छात्रों ने बीफ और पोर्क सेवन के नाम पर छात्रावासों में ओवन पर लगे प्रतिबंध के बाद मेस मेन्यू में इसकी मांग यह कहते हुए की कि ये दलित-आदिवासी समुदायों के पारंपरिक भोजन में शामिल रहे हैं. इसी तरह, एक ओर जहां 5 सितंबर को देश में सर्वपल्ली राधाकृष्ण के जन्मदिन पर शिक्षक दिवस मनाया जाता है, वहीं छात्रों और शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग सावित्री बाई फुले के जन्मदिन 3 जनवरी को शिक्षक दिवस के रूप में मनाता है.
केंद्र में बीजेपी नेतृत्व वाली एनडीए सरकार आने के बाद यह विभाजन और बढ़ गया है. इसके बाद आइआइटी-मद्रास मंस आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल पर प्रशासन ने प्रतिबंध लगाया. सरकार बनने के कुछ माह बाद जेएनयू में महिषासुर दिवस को भावनाओं को भड़काने वाला बताते हुए बीजेपी समर्थित छात्र संगठन एबीवीपी ने इसके आयोजकों के खिलाफ विश्वविद्यालय प्रशासन और पुलिस में शिकायतें दर्ज कराई थीं और झड़प भी हुई थी. नतीजतन 2015 में यह समारोह जेएनयू में नहीं मनाया जा सका. अब हैदराबाद मामले को लेकर सरकार कठघरे में है. रोहित की मौत को लेकर बुद्धिजीवी और छात्र-छात्राएं महाभारत के मशहूर चरित्र द्रोणाचार्य की ओर से एकलव्य का अंगूठा मांगे जाने वाला प्रसंग याद कर रहे हैं. क्या देश के शैक्षणिक संस्थानों में इसी तरह वंचित तबके के छात्रों के अंगूठे काटे जाते रहेंगे?