इमामी, प्रियागोल्ड, बीकाजी, पेटीएम, एसएस बैट्स, बैल कोल्हू, शक्ति पंप्स, इंडिया गेट बासमती राइस, घड़ी डिटर्जेंट, एशियन सीमेंट, इंडियामार्ट, माइक्रोमैक्स, प्रकाश जनरेटर्स, शॉपक्लूज, लिबर्टी वगैरह में क्या समानता है? ये सभी जाने-पहचाने ब्रांड देसी हैं. ये उदारीकरण के बाद के दौर में कई-कई गुना बढ़ गए हैं और कामयाबी की नई मंजिलें छू रहे हैं. इन ब्रांडों को प्रमोट करने वाले उद्यमी आखिर कौन हैं? उनकी खास रणनीतियां क्या रही हैं? मेक इन इंडिया की चर्चाओं के बीच इंडिया टुडे के 29वीं वर्षगांठ विशेषांक में हमने इसी बारे में पता लगाया और सामने आए करिश्माई कारोबारी, ऐसे कारोबारी जिन्होंने अपनी उद्यमशीलता की बदौलत अपने ब्रांड को देश-विदेश में लोकप्रिय बना दिया है.
इन उद्यमियों की विकास गाथा देश में आर्थिक विकास की गति से जुड़ी हुई है. दिल्ली से सटे ग्रेटर नोएडा में सूर्या फूड्स ऐेंड एग्रो के बी.पी. अग्रवाल ने 1994 में प्रियागोल्ड नाम से बिस्कुट बनाना शुरू किया और आज उनकी फैक्ट्री में 22 तरह के बिस्कुट और कुकीज समेत कई तरह के फ्रूट ड्रिंक बन रहे हैं और कंपनी 1,200 करोड़ रु. की हो गई है. सन् 2000 में मात्र दो लाख रु. से कोलकाता के मछली बाजार में उधार देने का कारोबार शुरू करने वाले चंद्रशेखर घोष को रिजर्व बैंक ने 2014 में बैंकिंग का लाइसेंस दे दिया और आज बंधन बैंक गरीबों का सहारा बन गया है. इसी तरह दिल्ली के अजय बिजली ने 1992 में सिनेमा बिजनेस पर फोकस किया और आज उनकी कंपनी पीवीआर के पास देश में 477 सिनेमा स्क्रीन्स हैं, और यह दुनिया की टॉप 10 सिनेमा कंपनियों में शुमार है.
कई ऐसी कंपनियां भी हैं जो उदारीकरण से पहले से काम कर रही थीं लेकिन उन्हें बढ़त नब्बे के दशक में ही मिली. इंडिया गेट बासमती राइस बेचने वाली करीब 4,000 करोड़ रु. की केआरबीएल के पीछे करीब सवा सौ साल की विरासत है लेकिन कंपनी ने 1992 के बाद ही अपने ब्रांड को मजबूत करने पर जोर दिया. लुधियाना के लवली स्वीट्स के मालिकान हालांकि शहर में तीन दुकानों के जरिए अच्छा कारोबार कर रहे थे लेकिन बजाज और मारुति की डीलरशिप उन्हें नब्बे के दशक में ही मिली. ऑटो के क्षेत्र में नाम-दाम कमाने के बाद ही उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में कदम बढ़ाया और लोग उन्हें लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी के लिए जानते हैं, जहां देश-दुनिया के 30,000 छात्र पढ़ रहे हैं.
ये कंपनियां नई और पुरानी अर्थव्यवस्था के साथ ही परंपरा और आधुनिकता का भी संगम हैं. कई ऐसे उद्यमी हैं जो पीढिय़ों से एक ही व्यवसाय में जुटे हुए हैं, लेकिन वक्त के साथ उन्होंने खुद को बदला है और अपने कारोबार को बढ़ाया है. मिसाल के तौर पर, बरेली के घनश्याम खंडेलवाल के पिता और ताऊ, दोनों तेल का कारोबार करते थे. उनके जमाने में यह कारोबार मिलावट और कालाबाजारी के लिए बदनाम था. खंडेलवाल ने इस 'कलंक' को धोने के लिए कारोबार के तरीके को बदलने का संकल्प लिया. विश्वसनीयता बहाल करने के लिए सख्त नियम बनाए और अपने मकसद में कामयाब हुए. कड़वा तेल खुले में बेचने की बजाए उन्होंने देश में पहली बार तेल को कंज्यूमर पैक में बेचना शुरू किया. भरोसे की खातिर ट्रेडमार्क और एगमार्क हासिल कर लिया. आज वे नेपाल के अलावा देश के दो दर्जन राज्यों में तेल की सप्लाइ कर रहे हैं. इतना ही नहीं, बी.एल. एग्रो उत्तर भारत की पहली तेल कंपनी है जिसने 'रेलवे साइडिंग' विकसित की है. पिछले साल उन्होंने 1,900 करोड़ रु. का कारोबार किया.
इन कंपनियों में ज्यादातर पारंपरिक कारोबार से जुड़ी हैं लेकिन इंडियामार्ट, शॉपक्लूज और पेटीएम जैसी कंपनियां इंटरनेट की वजह से उभरी हैं. इनके प्रमोटरों ने ऑनलाइन बाजार सजाकर खरीद-फरोख्त को इतना आसान बना दिया है कि कई पुराने व्यापारी इनके मॉडल को समझ नहीं पाते. कस्टमर को किंग समझने वाली ये कंपनियां मार्केटिंग की नई रणनीतियों के साथ ही देश में शॉपिंग का तरीका बदलने पर आमादा हैं. इनमें से हर उद्यमी की कहानी दिलचस्प है. पेटीएम के विजयशेखर शर्मा के पिता शिक्षक थे. अपेक्षाकृत छोटे शहर अलीगढ़ के रहने वाले शर्मा अंग्रेजी में 'पैदल' थे लेकिन उनकी मेहनत, लगन और सूझ-बूझ के बूते आज उनकी कंपनी का कारोबार 15,000 करोड़ रु. है. दूसरी ओर, इंडियामार्ट के दिनेश अग्रवाल यूं तो व्यवसायी घराने से हैं लेकिन उन्होंने कोई दुकान खोलने या सामान बनाने की बजाए इंटरनेट पर आढ़त का काम शुरू कर दिया.
देसी ब्रांडों के पीछे मौजूद इन शख्सियतों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे वक्त की जरूरतों के साथ खुद को बदलते रहे हैं. ज्यादातर कंपनियां परिवार के स्वामित्ववाली हैं. पहली पीढ़ी के कारोबारी बुजुर्ग हो रहे हैं और परिवार के ही नए सदस्य महत्वपूर्ण भूमिका में आ रहे हैं. कंपनी को पारंपरिक ज्ञान और बिजनेस मैनेजमेंट की नई रणनीतियों का लाभ मिल रहा है. केआरबीएल के मित्तल कहते हैं, ''अगर हमारे बच्चे नए ढंग से कारोबार को न संभालते तो इतना बड़ा कारोबार संभालना मुश्किल होता.'' मिसाल के तौर पर सिक्युरिटी ऐंड इंटेलिजेंस सर्विसेज (एसआइएस) ग्रुप हालांकि पुरानी कंपनी है लेकिन ऋतुराज सिन्हा ने 2002 में अपने पिता आर.के. सिन्हा से जब इसकी कमान हासिल की तब यह मात्र 22 करोड़ रु. की कंपनी थी और अब 4,000 करोड़ रु. की कंपनी हो गई है. आज एसआइएस भारतीय मूल की पहली मल्टीनेशनल निजी सुरक्षा एजेंसी बन गई है.
अगले पन्नों पर आपको इन करिश्माई कारोबारियों की दिलचस्प कहानियों से अंदाजा लग जाएगा कि भले ही टाटा, बिड़ला, अंबानी और अडानी की तरह इनका साम्राज्य न फैला हो पर इनके ब्रांड में पूरा दम-खम है और उनमें इतनी संभावनाएं हैं किवे भी पेप्सी, केएफसी और कैडबरी सरीखे अंतरराष्ट्रीय ब्रांड खड़े कर सकते हैं.
देसी ब्रांड
'60 के दशक में खुला आगरा का प्रकाश हार्डवेयर स्टोर अब प्रकाश जनरेटर्स के रूप में दुनिया को रोशनी दे रहा है
सन् 2000 में कोलकाता के मछली व्यापारियों को छोटे कर्ज देने वाली कंपनी आज बंधन बैंक के रूप में जानी जाती है
देसी ब्रांडों का दम-खम
देश के लगभग हर क्षेत्र में ऐसे कई करिश्माई कारोबारी हैं जो अपने ब्रांड की चमक-दमक और हनक से अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कर रहे हैं. वे पुरानी और नई अर्थव्यवस्था की संधि के प्रतीक हैं. इंडिया टुडे के 29वीं वर्षगांठ विशेषांक में ऐसे कारोबारियों की कहानी जिन्होंने अपनी उद्यमशीलता की बदौलत अपने ब्रांड को देश-विदेश में लोकप्रिय बना दिया है.

अपडेटेड 15 दिसंबर , 2015
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