करीब 31 दिनों तक चली मैराथन सुनवाई पर इंसाफ का निर्णायक हथौड़ा 15 जुलाई को गिरा था. सुप्रीम कोर्ट के पांच न्यायाधीश—न्यायमूर्ति जे.एस. खेहर, जे. चेलामेश्वर, मदन बी. लोकुर, कुरियन जोसफ और ए.के. गोयल— अपने चश्मे और फाइलें समेट कर उठे, तो कोने-अंतरे में छुपे उनके अर्दली उनकी कुर्सियां थामने के लिए अचानक प्रकट हो गए. मिनट भर में पीठ खाली हो गई थी. वहां कुछ बचा था तो बस अधभरे पानी के गिलास और किताबों के ढेर. जजों के जाने के बाद कोर्ट नंबर चार का सन्नाटा टूटा, तो लोग फुसफुसा कर कह रहे थे कि फैसला सुरक्षित रख लिया गया है.
इस 16 अक्तूबर को अदालत की हवा में कुछ विस्फोटक-सी गंध आ रही थी. सवाल था कि आज आखिर क्या होने वाला है और सुप्रीम कोर्ट के परिसर के भीतर नौजवान वकील भागमभाग मचाए हुए थे कि किसी तरह देश के सामने सबसे पहले वे इस खबर को पहुंचा सकें. इसके बाद न्याय का हथौड़ा अचानक कुल्हाड़ी की तरह हवा में चमका और उद्घोषणा हुई: ''संविधान का 99वां संशोधन 2014 असंवैधानिक और निरस्त घोषित किया जाता है; राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून 2014 असंवैधानिक और निरस्त घोषित किया जाता है; सुप्रीम कोर्ट में जजों की नियुक्ति, हाइकोर्टों में मुक्चय न्यायाधीशों और जजों की नियुक्ति की प्रणाली यानी 'कॉलेजियम प्रणाली' को जारी रखने की घोषणा की जाती है."ऐतिहासिक टकराव
आज देश एक संवैधानिक संकट से रू-ब-रू है. पिछले 35 वर्षों में यानी कुख्यात इमरजेंसी के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब न्यायपालिका ने किसी संविधान संशोधन को खारिज कर दिया है. अपने पूर्ववर्ती की तरह संविधान का 99वां संशोधन भी—और उसके जरिए साकार होने वाला राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी)—उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति की प्रणाली को बदलने का उद्देश्य रखता था जिसके लिए मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली को खत्म कर दिया जाता. यह रोजमर्रा की दलीय सियासत जैसा मामला नहीं है. पांच जजों की संविधान पीठ के सामने सौ से ज्यादा न्यायविद् दलील-दर-दलील पेश कर रहे थे कि क्या संवैधानिक है, क्या सियासी है और दोनों के बीच की विभाजक रेखा कहां धुंधली पड़ती है. यह वाकई ऐसा संकट है जो हमें खतरनाक मोड़ पर पहुंचाने की ताकत रखता है.
इस फैसले से सरकार हिल उठी. केंद्रीय विधि मंत्री डी.वी. सदानंद गौड़ा ने कहा, ''सुप्रीम कोर्ट के फैसले से हम हैरान हैं." अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने इस फैसले को 'त्रुटिपूर्ण' करार दिया. अधिवक्ता और केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने अपनी फेसबुक पोस्ट में इसे ''अनिर्वाचितों की तानाशाही" करार दिया. इसमें कोई शक नहीं कि यह फैसला नई सरकार के लिए बड़ा झटका था. यह उसका सबसे पहला सक्रिय कदम था, जिससे उसने सुधारों के दौर की शुरुआत का संकेत दिया था और एनजेएसी में कुछ प्रक्रियागत आपत्तियों को भी दरकिनार कर संसद के दोनों सदनों से उसे फौरन पास कराने में कामयाब हुई थी. इस महीने वह जीत का उत्साह अचानक फना हो गया, जो पिछले अगस्त में प्रधानमंत्री कार्यालय और रविशंकर प्रसाद के विधि मंत्रालय में छाया हुआ था.जजों का मूल्यांकन
इस संशोधन को 2003 के बाद से कई बार दोबारा लिखा गया, इसकी समीक्षा की गई और बार-बार इसे लाया गया, इसके बावजूद जो फैसला आया है उसके मूल में अब भी यही सवाल है कि आखिर जजों का मूल्यांकन कौन करेगा? अगस्त 2014 में संसद के दोनों सदनों से पारित एक कानून के अंतर्गत तैयार किए गए संविधान संशोधन के जरिए सरकार ने कहा था कि जजों की नियुक्ति छह सदस्यीय एनजेएसी करे, जिसकी अध्यक्षता देश के प्रधान न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठतम जज, केंद्रीय विधि मंत्री और दो 'प्रतिष्ठित' व्यक्ति करें. तमाम उपबंधों और शर्तों से भरे इस कानून को राष्ट्रपति की सहमति 2014 के आखिरी दिन मिली और इस साल अप्रैल में एनजेएसी की अधिसूचना जारी की गई. जनवरी से हालांकि विभिन्न याचिकाएं दायर होना शुरू हुईं जिनके पीछे सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स ऑन रिकॉर्ड एसोसिएशन था, जिसने दावा करना शुरू किया कि एनजेएसी न्यायपालिका की स्वतंत्रता में दखल है और उसके कई प्रावधान असंवैधानिक हैं. वे कॉलेजियम प्रणाली को वापस चाहते थे लेकिन सुधरे हुए रूप में ताकि ज्यादा पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके.
सुनवाई शुरू होने के बाद केंद्र और राज्यों की ओर से जो वकीलों की फौज खड़ी की गई, उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि कॉलेजियम प्रणाली अब हमेशा के लिए ''मृत हो चुकी और दफनाई जा चुकी" है, क्योंकि संसद ने संविधान के मूल अनुच्छेद 124 को संशोधित कर दिया है जिसका वास्ता उच्च न्यायपालिका में नियुक्तियों और स्थानांतरण से है. दूसरी ओर, एनजेएसी 'जनता की इच्छा' का प्रतिनिधित्व करती है जो एक नई प्रणाली चाहती है जो कि पारदर्शी हो और जिस पर सवाल उठाए जा सकें. उन्होंने यह दावा किया कि कॉलेजियम एक 'गैर-कानूनी प्रणाली' थी जो 'संदिग्ध नीयत' वाले लोगों को छूट देती थी और जिसके तहत नियुक्तियां मनमौजी तरीके से की जाती थीं. उन्होंने यह तर्क भी दिया कि संविधान जजों की नियुक्तियां में प्रधान न्यायाधीश को प्रधानता नहीं देता और सुप्रीम कोर्ट ने इस ताकत को बेजा अख्तियार कर लिया है. सुनवाई जब खिंचती चली गई, तो सरकार ने रजामंदी दिखाई कि पांच जजों की संविधान पीठ को अगर एनजेएसी संवैधानिक प्रावधानों के विपरीत लगता हो, तो वह एनजेएसी में कुछ बदलाव करने को तैयार हो सकती है. दो विधेयक
इस कहानी की शुरुआत 2013 में संसद के मॉनसून सत्र से होती है. यूपीए सरकार उस सत्र में दो अहम विधेयक लेकर आई थी—एक संविधान का 120वां संशोधन विधेयक, 2013 और दूसरा, न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक, 2013 जो उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्ति के लिए नए नियम बनाने से संबंधित था. तब केंद्रीय विधि मंत्री कपिल सिब्बल ने राज्यसभा में कहा था, ''बेहतर भविष्य के लिए सर्वश्रेष्ठ जजों के उद्देश्य से" यह लाया गया है. राज्यसभा ने 5 सितंबर की दोपहर जब दोनों विधेयक पारित किए, तब सिब्बल एक बात यह छुपा गए कि इन दोनों के जरिए सरकार के पास न्यायपालिका के बरअक्स अबाध ताकत आ जाएगी. इन विधेयकों का विरोध करने वाले इकलौते सांसद न्यायविद् राम जेठमलानी कहते हैं, ''दोनों ही संविधान के बुनियादी स्वरूप से खिलवाड़ कर बैठते."
इसके बाद अचानक न्यायपालिका के खिलाफ बेचैन आवाजों का हल्ला-सा उठ खड़ा हुआ और इसमें हर राजनैतिक दल के लोग एकजुट हो गए. सिब्बल और जेटली ने राष्ट्रीय न्यायिक आयोग के प्रस्ताव का श्रेय ले लिया. कुछ लोगों ने न्यायपालिका में 'गोपनीयता की तानाशाही' की ओर उंगली उठाई तो कुछ ने 'मनमानेपन' को दोषी ठहराया. कुछ 'न्यायिक सक्रियता' को 'न्यायिक अतिरेक' में तब्दील होता देख रहे थे. कुछ ने न्यायपालिका को 'भारतीय अर्थव्यस्था की सुस्ती' का दोषी ठहराया. कुछ ने 'जवाबदेही', 'पारदर्शिता', 'धड़ेबाजी', 'चाटुकारिता' और 'गुणवत्तापूर्ण न्याय के अभाव' को गिनाया.
न्यायपालिका चुपचाप यह सब कुछ देखती रही. तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश पी. सतशिवम 14 सितंबर को जब दिल्ली में बार एसोसिएशन के एक सेमिनार में गए तो बार सदस्यों ने सवालों की झड़ी लगा दी. सवाल उठा, ''आखिर एक ऐसे विधेयक को संसद से निपटाने की इतनी जल्दी क्या है जो न्यायिक स्वतंत्रता का दमन करने के लिए है जबकि कानूनी जमात को इस पर परामर्श में शामिल तक नहीं किया गया है?" प्रधान न्यायाधीश ने मुस्कराते हुए कहा था, ''कानून के हिसाब से गुंजाइश बहुत कम है." हालांकि ये विधेयक 15वीं लोकसभा के भंग होने के साथ निरस्त हो गए. इस तरह अगस्त 2014 में एनडीए के नए विधेयक का रास्ता खुला.
नेता बनाम जज
कार्यपालिका और न्यायपालिका की टकराहट पुरानी है. अकसर ऐसा होता है कि कार्यपालिका के लिए सुप्रीम कोर्ट खतरे के रूप में सामने आ जाता है, लेकिन यह जंग बरसों पहले कार्यपालिका की दखलअंदाजी से शुरू हुई थी जब इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए 1973 में तीन शीर्ष जजों को बारी से पहले नियुक्त करके और 1977 में दोबारा ऐसा ही करके ''प्रतिबद्ध न्यायपालिका" का दौर शुरू किया था. जैसा कि न्यायविद् सोली सोराबजी कहते हैं कि दांव पर भारतीय संविधान का मूल ढांचा यानी अनुच्छेद 50 है जो यह सुनिश्चित करता है कि जजों की नियुक्ति में परामर्श के अलावा कार्यपालिका की कोई भूमिका ही नहीं है. वे कहते हैं, ''केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के 1973 के मुकदमे के दौरान संविधान का यह मूल ढांचा उभर कर आया था कि संसद के पास संविधान को संशोधित करने की निरपेक्ष ताकत नहीं है."
दो साल के भीतर 1975 में हालांकि इमरजेंसी लगा दी गई. इससे सहमत जजों को 'प्रतिबद्ध' बताते हुए लाभ दिया गया जबकि दिक्कत तलब 56 जजों को उनकी सहमति के बगैर स्थानांतरण के लिए सूचीबद्ध कर दिया गया. न्यायपालिका ने सिलसिलेवार कई फैसलों—सेकंड जजेज केस 1993 और थर्ड जजेज केस, 1998—के माध्यम से अपना बचाव किया और इस तरह न्यायिक नियुक्ति और स्थानांतरण में कार्यपालिका की भूमिका को काटकर बाहर निकाल दिया और कॉलेजियम प्रणाली की स्थापना की जो नियुक्तियों का एक ऐसा तरीका था जिसमें प्रधान न्यायाधीश की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट के पांच शीर्ष जज बंद दरवाजे में वरिष्ठता के आधार पर सहकर्मी जजों का चयन करते थे. सरकार के पास कॉलेजियम द्वारा चुने गए जजों के नाम एक बार तो लौटाने का विकल्प होता है, लेकिन उसके बाद वह कॉलेजियम के फैसले को मानने को बाध्य होती है. जेठमलानी कहते हैं, ''हमने बदलाव का समर्थन किया था लेकिन इससे न्यायिक ताकत के सिकुडऩे का खतरा पैदा हो गया." वे कहते हैं, ''किसी भी जज को कभी भी दोषी नहीं पाया गया और सजा नहीं दी गई. इनके खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोप हैं बावजूद इसके उन्होंने खुद को एक सुरक्षा कवच में बांध रखा है." इन जजों के खिलाफ कोई भी प्रधान न्यायाधीश की अनुमति के बगैर मुकदमा दायर नहीं कर सकता. हल्की-सी असहमति न्यायिक अवमानना का बायस बन जाती है. किसी जज पर अभियोग चलाने के लिए संसद के दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है. जज संसद द्वारा पारित कानून को खारिज कर सकते हैं, जनहित याचिकाओं पर फैसले के जरिए कार्यपालिका और विधायिका पर अधिकार जमा सकते हैं और अपनी नियुक्तियों पर नियंत्रण रख सकते हैं. वे कहते हैं, ''मैंने भी पहले एनजेएसी का समर्थन ही किया था, उसके बाद मुझे पता चला कि मौजूदा स्वरूप में वह कितना फ र्जी है." जजों के मूल्यांकन की कीमत हालांकि काफी ऊंची होती है. राजनैतिक विश्लेषक आशीष नंदी कहते हैं, ''भारी भ्रष्टाचार के कारण अक्सर सर्वोच्च न्यायालय की राजनैतिक तबके के साथ टकराहट होती रहती है जिसके बाद बदलाव की मांग उठने लगती है, खासकर ऐसा 2जी मामले के बाद से देखा गया है. राजनैतिक तबके के लिए कॉलेजियम प्रणाली पर हमला करना सक्रिय न्यायपालिका के खिलाफ आक्रोश व्यक्त करने का आसान काम बन गया है." राज्य के तीनों स्तंभों को संविधान से अधिकार प्रदत्त हैं. कानूनी विद्वान एन.आर. माधव मेनन कहते हैं, ''जनता संसद नहीं, संविधान के प्रति जवाबदेह है. हर किसी को अपने मिले अधिकार क्षेत्र के भीतर ही काम करना चाहिए."
एक तूफानी वर्ष का अंत
मोदी सरकार और न्यायपालिका के बीच लगातार जो टकराव की स्थिति बनी रही, उसने अंत में एक कमजोर एनजेएसी कानून को लागू किए जाने और अंतत: उसकी नाकामी को रास्ता दिया. दोनों विधेयकों को जब एनडीए की सरकार ने 13 अगस्त और 14 अगस्त, 2014 को पारित किया था—अगले छह माह में संसद के दोनों सदनों और 20 राज्यों के द्वारा भी अभिपोषित—तब न्यायपालिका अचानक टकराव की मुद्रा में आ गई थी, जो तब तक सिर्फ चुपचाप चीजों पर निगाह रखे हुए थी. इसके पीछे कुछ घटनाओं— जैसे पूर्व सॉलिसिटर जनरल गोपाल सुब्रह्मण्यम के सुप्रीम कोर्ट का जज बनाए जाने का खारिज होना और न्यायपालिका को मामूली बजटीय आवंटन से लेकर दागी मंत्रियों का पदों पर बने रहना और न्यायिक नियुक्तियों में सरकार के दखल तक—ने भी न्यायपालिका को इस स्थिति में लाकर खड़ा किया.
इसकी परिणति 5 अप्रैल को दिल्ली के विज्ञान भवन में मुख्य न्यायाधीशों और मुख्यमंत्रियों की द्विवार्षिक बैठक में हुई. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्यायपालिका की 'सक्षमता' और 'ताकत' पर सवाल उठाते हुए 'दैवीय' मिशन को जारी रखने की सलाह देते हुए कहा, ''ईश्वर ने आपको दैवीय उद्देश्य के लिए चुना है लेकिन अतीत में जो न्यायिक आजादी आपको मिली हुई थी, वह अब नहीं रहेगी." प्रधान न्यायाधीश एच.एल. दत्तू, जिन्होंने न्यायपालिका और संसद को कुछ देर पहले ही मंच से 'लोकतंत्र की संतानें, भाई-बहन' बताया था, वे प्रधानमंत्री के भाषण के बाद न्यायपालिका की स्वतंत्रता का बचाव पत्रकारों के सामने करने लगे. उन्होंने 15 अप्रैल से पहले खुद को पांच जजों की संविधान पीठ से अलग कर लिया, जो एनजेएसी की वैधता के खिलाफ मुकदमे पर सुनवाई कर रही थी. फिर 28 अप्रैल को उन्होंने प्रधानमंत्री को एक पत्र भेजते हुए एनजेएसी में हिस्सा लेने से इनकार कर दिया. इसके बाद से ही यह साफ हो गया कि एनजेएसी अब भी भ्रूण अवस्था में ही है. गड़बड़ रिपोर्ट
अगर एनजेएसी कानून लागू हो गया होता तो इसके खतरनाक शैतान होने की कई लोगों की आशंका सच हो जाती. हैदराबाद की एनएएलएसएआर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर फैजान मुस्तफा कहते हैं कि सुनवाई से ही साफ था कि इस कानून को कितनी जल्दबाजी में पारित किया गया था और उसमें न्यायपालिका से कोई परामर्श नहीं किया गया था. वे कहते हैं, ''यह अधिकारों की लड़ाई नहीं है बल्कि न्यायपालिका की आजादी नागरिकों का बहुमूल्य अधिकार है." पूर्व प्रधान न्यायाधीश आर.एम. लोढ़ा भी कहते हैं, ''विधि मंत्री और दो प्रतिष्ठित व्यक्तियों का इसमें समावेश बाकी चार के फैसले को वीटो करने का उन्हें अधिकार दे देता... यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता को प्रभावित करता."
इसे ऐसे समझें (देखें ग्राफि क): एनजेएसी छह लोगों के अपने आयोग में दो 'प्रतिष्ठित' व्यक्तियों का प्रावधान करता है लेकिन ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो बताए कि इन व्यक्तियों को जरूरत पडऩे पर कैसे हटाया जा सकेगा, जिन्हें प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली एक समिति तीन साल के लिए नामित करती है. जैसा कि जजों का कहना है, सुप्रीम कोर्ट में जजों के क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व के किसी प्रावधान के बगैर किसी भी हाइकोर्ट विशेष के न्यायाधीशों के समूह के लिए यह संभव हो जाता कि वे सारे पदों पर कब्जा कर लें. सभी न्यायिक नियुन्न्ïतयों में प्रधान न्यायाधीश की प्रधानता के अभाव में क्या दो नेता आपस में मिलकर प्रधान न्यायाधीश की राय को अप्रासंगिक नहीं बना सकते थे? चूंकि इसमें 'मेरिट' पर जोर है, इसलिए एनजेएसी किसी निचले जज को भी यह छूट दे सकता है कि वह कार्यपालिका को खुश करके ऊंचे पद के लिए अपनी जगह सुरक्षित करवा ले.
जंग बाकी है
कार्यपालिका पर अपनी फतह के बावजूद न्यायपालिका ने इस मौके को सिर्फ एक अवसर के बतौर बरतने का फैसला किया है: पांच जजों की पीठ ने यह स्वीकार किया कि कॉलेजियम प्रणाली को मजबूत किए जाने और उसका कायाकल्प किए जाने की जरूरत है. सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम प्रणाली को दुरुस्त करने के लिए 3 नवंबर को एक सुनवाई रखी है.
कॉलेजियम प्रणाली से निकले सबसे अच्छे न्यायाधीशों में एक और उसके समर्थक लोढ़ा कहते हैं, ''मैं जब चीफ जस्टिस बना, तो मैंने हाइकोर्ट के सभी मुख्य न्यायाधीशों को लिखा और परामर्श की प्रक्रिया को विस्तार दिया. आप वकीलों और अन्य हितधारकों को इस प्रणाली में शामिल करेंगे तो उससे पारदर्शिता आएगी."
वे कुछ समाधान सुझाते हैं जिन्हें हम दे रहे हैं लेकिन साथ ही वे एक शर्त भी लगाते हैं कि कोई भी तंत्र अच्छा या बुरा नहीं होता, क्योंकि आखिरकार यह बात इस पर निर्भर करती है कि उसे चला कौन रहा है.
सही जज की तलाश: एक वकील को जज बनने के योग्य होने के लिए जरूरी है कि उसने पांच साल में 100 मुकदमे लड़े हों, जिनमें से मुकदमों की एक खास संक्चया को कानूनी जर्नलों में शामिल किया गया हो.
भ्रष्टाचार से समझौता नहीं: सबूत सामने आने पर कार्रवाई करें. बार को सतर्क रहना होगा. भ्रष्टाचार अकेले के बूते की बात नहीं है.
पारदर्शी अदालत की दरकार: बार के सदस्यों और सहकर्मियों के साथ विस्तृत परामर्श होना चाहिए. न्यायपालिका की भूमिका सिफारिश तक सीमित है जबकि नियुक्तियां राष्ट्रपति करता है.
दुनिया के सबसे अच्छे तरीके अपनाएं: मसलन, ब्रिटेन में भी एक न्यायिक नियुक्ति आयोग है लेकिन उसमें 15 सदस्य हैं. इसका अध्यक्ष एक सामान्य नागरिक होता है. इसके पांच से छह सदस्य कानून के क्षेत्र से नहीं जुड़े होते. वे अकादमिक, कारोबारी, अर्थशास्त्री या सामाजिक कार्यकर्ता होते हैं. वहां इन पदों के लिए विज्ञापन निकाला जाता है. शुरुआत में अच्छे वकील इसके लिए आवेदन नहीं करते थे लेकिन पांच साल बाद आज हालात बदल रहे हैं.
कानून बनाएं जंग न छेड़ें: सरकार सबसे बड़ी वादी है. उसके भीतर ही एक प्रभावी समाधान प्रणाली होनी चाहिए. जब वह चुक जाए, तब उसे कोर्ट में आना चाहिए. सरकार को निचली अदालत के फैसलों को स्वीकार करना चाहिए बार-बार अपील दायर नहीं करनी चाहिए. इसके अलावा, विधि अधिकारियों को तीव्र सुनवाई के लिए अदालतों का सहयोग करना चाहिए.
अधिकार क्षेत्र को न लांघें: अमूमन अदालतों को प्रशासनिक मसले नहीं छूने चाहिए. जहां कहीं कुछ अवैध है जिसमें दखल की दरकार हो, अदालतों को जिम्मेदारी भी नहीं भूलनी चाहिए. इस महीन विभाजन को दिमाग में रखना चाहिए कि न्यायपालिका कार्यपालिका की भूमिका को नहीं ले सकती है.
न्यायपालिका: इंसाफ कीजिए, जज साहब
सुप्रीम कोर्ट ने न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम प्रणाली को समाप्त करने की कार्यपालिका की कोशिश को किया बेमानी. इससे खड़ा हुआ संवैधानिक संकट खोल सकता है व्यापक न्यायिक सुधारों की राह.

अपडेटेड 26 अक्टूबर , 2015
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