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गोमांस की राजनीति: खौफनाक जुनून

मोदी जब दुनिया भर में घूमकर भारत को पूंजी निवेश के अहम ठिकाने के रूप में पेश कर हैं, एक “सामाजिक-सांस्कृतिक” समांतर एजेंडा भी जारी है. संप्रदाय और खान-पान के आधार पर जानलेवा विघटनकारी राजनीति ने देश के धर्मनिरपेक्ष और सामाजिक सह-अस्तित्व के ताने-बाने को किया तार-तार.  वित्त मंत्री और गृह मंत्री  ने बिसहेड़ा की घटना की निंदा की है पर प्रधानमंत्री की खामोशी कई हलकों में संदेह पैदा करती है.

गुस्साई भीड़ के जानलेवा हमले के बाद उत्तर प्रदेश के बिसहेड़ा में मोहम्मद अखलाक के घर का नजारा
गुस्साई भीड़ के जानलेवा हमले के बाद उत्तर प्रदेश के बिसहेड़ा में मोहम्मद अखलाक के घर का नजारा
अपडेटेड 12 अक्टूबर , 2015

उत्तर प्रदेश का बिसहेड़ा गांव दूर-दूर तक फैले विशाल खेतों के बीच ईंट और सीमेंट के पक्के मकानों के द्वीप की तरह दिखता है. गांव के बीचोबीच सूर्य की लालिमा शाम की सर्द और उजाड़ स्याही में डूब रही है. शाम के 7 बजे हैं. सूरज डूब चुका है. गांव की संकरी गलियों में काली छायाएं उतर आई हैं.

हर कोई घर के भीतर दुबका हुआ है. बाहर अगर कोई है, तो वर्दीधारी पुलिसवालों की भीड़, जो गांव की चौपाल पर पहरेदारी में खड़ी है. उनके कंधों पर चांदी के सितारे चांद की फीकी रोशनी में जगमगा रहे हैं. यह कीचड़ भरी कच्ची सड़क गांव को पक्की सड़क से जोड़ती है. यहीं एक छोटी-सी गली आपको दीवारों से घिरे दो घरों के उस झुरमुटे तक ले जाती है, जो एक खौफनाक हत्या का मंजर बन गया है. धर्म की आड़ में आस्था के जुनून में किया गया जुर्म. लेकिन सबसे बढ़कर था यह एक सियासी जुर्म.
28 सितंबर को वह सामान्य-सा सोमवार ही था. अचानक कुछ असामान्य घटनाक्रम से हिंदुओं की भीड़, जिसमें खेतिहर ठाकुर बिरादरी केलोग सबसे ज्यादा थे, गुस्से से बलबलाती हुई उस छोटी-सी गली की तरफ बढ़ी. इन सबने ये अफवाहें सुनी थीं कि एक गाय को काटा और खाया गया है और उसके बचे-खुचे टुकड़े गांव के बिजली के ट्रांसफॉर्मर के नजदीक डाल दिए गए हैं. गांव में 3जी नेटवर्क है और कभी-कभार 4जी नेटवर्क भी काम करता है. धड़ाधड़ टेक्स्ट और व्हाट्सऐप संदेश भेजे जाने लगे और मंदिर के पुजारी को इस बात के लिए राजी कर लिया गया कि वह बड़े मंदिर के लाउडस्पीकर से इसका ऐलान कर दे.

देखते ही देखते 1,000 से ज्यादा लोगों की भीड़ उस गली की तरफ बढ़ी, जहां गाय का कथित संदिग्ध हत्यारा और गांव के इस हिस्से में रहने वाले गिनती के मुसलमानों में से एक 50 वर्षीय मोहम्मद अखलाक रात होने पर अभी-अभी लौटकर अपने पहली मंजिल के छज्जे पर आया था. गली में “मारो, मारो” का शोर गूंजने के साथ ही भीड़ अखलाक के घर के हल्के-नीले दरवाजे से अंदर घुस गई, एक सिलाई मशीन से उसके सिर पर अंधाधुंध वार किए और उसके 22 साल के बेटे दानिश को ईंट से बुरी तरह मारा. फिर अखलाक को घसीटते हुए नीचे लाया गया, गली से होते हुए मुख्य सड़क तक ले जाया गया और उसके संदिग्ध जुर्म के जवाब में माकूल प्रतिशोध के तौर पर उसी ट्रांसफॉर्मर के नजदीक डाल दिया गया. सुबह उसे मृत घोषित कर दिया गया. दानिश नोएडा के कैलाश अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझ रहा है. विडंबना यह है कि यह उन्हीं महेश शर्मा का अस्पताल है, जो बीजेपी के नेता तथा केंद्रीय संस्कृति मंत्री हैं. वे अखलाक के परिवार में शोक संवेदनाएं जताने के लिए पहले ही गांव हो आए हैं और वहां उन्होंने गिरक्रतार हिंदुओं के परिवारों को भी भरोसा दिलाया है कि वे जानते हैं कि पीट-पीटकर मार डालना महज एक “हादसा” था. मुख्य आरोपियों में से एक विशाल स्थानीय बीजेपी नेता संजय राणा का बेटा है.

हत्या के बाद इस गांव पर धावा बोलने वाले शर्मा अकेले सियासी नेता नहीं थे-कांग्रेस के राहुल गांधी से लेकर आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल तक, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के असदुद्दीन ओवैसी से लेकर 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे के आरोपी बीजेपी विधायक संगीत सोम तक कई नेता पहले से विषाक्त माहौल में जहर घोलने के लिए यहां आ चुके हैं. हालांकि जिला मजिस्ट्रेट एन.पी. सिंह की अगुआई में स्थानीय प्रशासन ने हिंसा को और भड़कने से रोकने के लिए काफी कोशिश की है.

बिसहेड़ा में जो कुछ हुआ, उसे एकाएक घटी घटना मानकर खारिज कर देना आसान है. लेकिन यह हत्या टकराव के उस माहौल का एक सबसे बर्बर इजहार भर है, जो पिछले कुछ महीनों के दौरान नई दिल्ली में और देश भर के कई राज्यों में सत्ता के ऊंचे पायदानों से एक के बाद एक बयानों और फैसलों के जरिए पैदा किया गया है. इस सबका नतीजा यह हुआ है कि भारत आज उस चैराहे पर खड़ा है, जहां बहुसंख्यकवाद, हिंदुत्व और भारतीयता के सारतत्व को लेकर प्रचंड बहसें चलाई जा रही हैं. बहसें एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण को लेकर भी चलाई जा रही हैं, जिसका मकसद देश को औपनिवेशक और मुगल काल से पहले के कथित शानदार और महिमामंडित दौर में वापस ले जाना है. इन बहसों के गली-मुहल्लों में फैलने के साथ ही न सिर्फ राष्ट्र के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को गहरी आजमाइश से गुजरना पड़ रहा है, जो बिसहेड़ा की मिसाल से साफ है, बल्कि आधुनिकता और विकास के वे मंत्र भी खतरे में पड़ गए हैं, जिन पर सवार होकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2014 में केंद्र की सत्ता में आए थे.
बीजेपी के एक राष्ट्रीय महासचिव मुरलीधर राव इंडिया टुडे से कहते हैं, “हत्या को सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन भारत की भौगोलिक और सांस्कृतिक सरहदों के बाहर से आए धर्मों के मानने वालों को भारत की 5,000 साल पुरानी सञ्जयता की परंपरा और दर्शन को समझना और स्वीकार करना होगा. बात हिंदू धर्म को मानने की नहीं है, बात भारतीय होने की है.” इस बहस में आरएसएस के वैचारिक प्रवन्न्ता एक तरफ हैं, तो दूसरी तरफ उदार बुद्धिजीवी हैं, जबकि सत्ता पर काबिज मोदी का एनडीए, जिसके कई नेताओं के आरएसएस से नजदीकी रिश्ते हैं, दोनों के बीच में फंसा है और प्रगतिशील उदारवाद के सिद्धांतों और आक्रामक राष्ट्रवाद के बीच संतुलन साधने की कवायद में जुटा है. फिलहाल हालत यह है कि संघ परिवार कई मोर्चों को फतह करता दिखाई देता है&संस्कृति से लेकर शिक्षा और संचार तक.
इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ रही है. एक तरफ मोदी भारत को निवेश की मंजिल और उत्पादन के ठिकाने के तौर पर बढ़-चढ़कर पेश करते हुए दुनिया भर में घूम रहे हैं, वहीं देश के ऊपर लगातार “सांस्कृतिक और सामाजिक कायाकल्प” का एक समांतर एजेंडा थोपा जा रहा है, जो आधुनिकीकरण पर उनके जोर के मर्म पर ही सीधा कुठाराघात करता है. मिसाल के तौर पर गाय और गोवंश के मांस पर प्रतिबंध के चौतरफा आर्थिक नतीजे होंगे. इसके निर्यात, पर्यावरण और ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल असर पड़ेगा. ये सभी ऐसे मकसद हैं, जिनकी मोदी बढ़-चढ़कर हिमायत कर रहे हैं, और ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर कट्टर फैसला लेने से पहले सभी पहलुओं पर गहन सोच-विचार की जरूरत है. इस वक्त देश बेहद अहम मोड़ पर है. गोमांस पर रोक से लेकर पाठ्यपुस्तकों को नए सिरे से लिखने तक और सांस्कृतिक संस्थाओं पर कब्जा करने से लेकर “घर वापसी” और “लव जेहाद” तक, एक के बाद एक तीखे विवाद छेड़कर मिले-जुले संकेत दिए जा रहे हैं, जिनके बीच यह समझ पाना मुश्किल है कि नई सरकार आखिर किसके हक में है&विकास के या हिंदुत्व के. और बिसहेड़ा में हुई हत्या सहित इनमें से कई मुद्दों पर प्रधानमंत्री की खामोशी से उनके विचार को लेकर गफलत में इजाफा ही हो रहा है.

गोय को लेकर भारत में कानूनी स्थितिकानून और अव्यवस्था
टकराव का सबसे ताजातरीन मुद्दा होने की वजह से और हमारी रोजमर्रा की जिंदगी पर उसके फौरी असर के चलते देश भर में गाय और गोवंश के मांस पर प्रतिबंध लगाने की मुखर मांग भगवा एजेंडे में सबसे संवेदनशील मुद्दा बन गई है. यह सबसे आसान मुद्दा भी है, जिसके बल पर हमारे खेतिहर राष्ट्र में, जहां गाएं बड़ी तादाद में हैं, धार्मिक भावनाएं भड़काई जा सकती हैं और खासकर मुसलमानों को “गोहत्यारों” के तौर पर  अलगाव का शिकार बनाया जा सकता है. बिसहेड़ा की घटना से यह साबित भी हो चुका है. कांग्रेस के नेता सलमान खुर्शीद कहते हैं, “मुद्दा पवित्र पशु के प्रति चिंता का नहीं है, बात  सियासी आधार बढ़ाने की है. बीजेपी आर्थिक और राजनैतिक प्राथमिकताओं के बारे में स्पष्ट नहीं है. वे ऐसे मुद्दे उठा रहे हैं, जो हमारी राष्ट्रीय एकता को नष्ट करने और चोट पहुंचाने वाले हैं.”

प्राचीन भारत में गाय-बैल को समृद्धि के प्रतीक और आजीविका के साधन के तौर पर देखा जाता था. वे खेत जोतने, दूध, ईंधन और खाद का साधन थे. उनके साथ गहरी धार्मिक और मिथकीय प्रतीकात्मकता भी जुड़ी है, क्योंकि भगवान कृष्ण ग्वाले थे और नंदी बैल शिव का वाहन है. वक्त के साथ गायों से जुड़ी धार्मिक भावनाओं के परवान चढऩे के साथ टकराव भी बढऩे लगे. पहले 16वीं सदी में मुगलों के समय, जिनके मन में ऐसी कोई श्रद्धा नहीं थी, और फिर खास तौर पर 18वीं सदी में अंग्रेजों के आने के साथ, क्योंकि यूरोपीय गोमांस खाने के आदी थे.

भारत की संविधान सभा ने गायों की हालत पर खासी गहराई और विस्तार से विचार किया था. कॉन्स्टिट्यूशन हॉल नई दिल्ली में बुधवार 24 नवंबर, 1948 को हुई यह चर्चा इतिहास के पन्नों में दर्ज है-पंडित ठाकुर दास भार्गवरू “गाय हमारे लिए “कामधेनु” है...मैं निवेदन करता हूं कि हमें आर्थिक नजरिए से विचार करना चाहिए...”
सैयद मुहम्मद सईदुल्लाः “कइयों के दिमाग में यह शक दुबका बैठा है कि ये मुस्लिम लोग ही हैं जो गायों के वध के लिए जिम्मेदार हैं. यह पूरी तरह गलत है.”
भार्गवः “बिल्कुल गलत.”
सईदुल्लाः “मुझे खुशी है...”

संविधान तैयार करने की प्रक्रिया के वृत्तांतों से पता चलता है कि गायों को लेकर दो विरोधी खेमों में बहस छिड़ गई थी. इसके मुख्य किरदार भार्गव और सेठ गोविंद दास सरीखे नेता थे और उनके मुकाबले में जवाहरलाल नेहरू और बी.आर. आंबेडकर सरीखे नेता थे, जो गोवध-विरोधी मोर्चे का विरोध कर रहे थे. श्गाय्य शीर्षक के तहत “सांड, बैल, गाय प्रजाति के युवा पशुधन” को शामिल करने की कोशिश वोटों के दम पर नाकाम हो गई और सिर्फ “दुधारू” गाय को इसमें जोड़ा गया. और आखिरकार इस विषय को संविधान में अनुच्छेद 48 के रूप में शामिल किया गया, बुनियादी अधिकार के तौर पर नहीं, बल्कि राज्य के नीति-निर्देशक तत्व के तौर पर, जो राज्यों का यह “कर्तव्य” निर्धारित करते थे कि वे “कानून बनाने में उन सिद्धांतों को लागू करेंगे.” क्या निर्देशक सिद्धांत अल्पसंख्यकों के बुनियादी अधिकार से ऊपर हो सकता है? यह कानूनी सवाल अभी तक सुलझा नहीं है.

जिस फैसले की बिना पर मौजूदा शोर-शराबा मचाया जा रहा है, वह 2005 में आया था. गुजरात सरकार और मिर्जापुर मोती कुरेशी कस्साब मुकदमे में सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की पीठ ने न केवल गाय बल्कि गायों की पूरी प्रजाति पर संपूर्ण प्रतिबंध को जायज ठहराया था. इसमें न तो लोकप्रिय हिंदू भावनाओं का जिक्र किया गया, न ही आजीविका के अधिकार या पशु पर क्रूरता की दलील दी गई. इसकी बजाए मूत्र और गोबर से लेकर गायों (दुधारू, भैंस, बैल, युवा और बूढ़ी) के “मूल्य” पर आधारित आर्थिक दलील को तरजीह दी गई.

आज गोवध को लेकर कोई राष्ट्रीय कानून नहीं है, यह कहना है आलोक प्रसन्ना कुमार का, जो दिल्ली के गैर-मुनाफा कानूनी थिंक टैंक विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के शोध निदेशक हैं. इस सेंटर ने गायों और अन्य मवेशियों के वध पर सभी राज्य-स्तरीय कानूनों को इकट्ठा किया है (देखें ग्राफिक). वे कहते हैं, “ विभिन्न राज्यों ने अलग-अलग स्तर के प्रतिबंध लगाए हैं.” पूर्वोत्तर राज्यों, केरल और लक्षद्वीप में कोई प्रतिबंध नहीं है, हालांकि 10 साल से कम उम्र के पशुओं को नहीं मारा जा सकता. तमिलनाडु, असम और पश्चिम बंगाल में वध के लिए, बूढ़ी या आर्थिक रूप से बेकार होने का प्रमाणपत्र देना पड़ता है. आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तेलंगाना, बिहार, गोवा और ओडिसा में गोवध पर प्रतिबंध है, मगर अन्य पशुओं के लिए प्रमाणपत्र की जरूरत होती है. बाकी ज्यादातर राज्यों में गाय और सभी उम्र के सांड तथा बैलों सहित उसकी प्रजाति के वध पर पूरा प्रतिबंध है.

2005 के गुजरात वाले फैसले के बाद राज्यों में सक्चत कानूनों का रास्ता खुल गया. इसकी अगुआई 2011 में मध्य प्रदेश ने की, जहां गोवध के लिए और किसी भी गाय प्रजाति को एक से दूसरी जगह ले जाने के लिए सात साल की जेल की सजा का प्रावधान किया गया. 2015 में हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और पंजाब ने भी गोवध, ढुलाई, निर्यात, बिक्री और (सांड, बैल, वृषभ, बछिया या बछड़े के) गोमांस के सेवन पर प्रतिबंध लगा दिया. इसमें डिब्बाबंद गोमांस और “दुर्घटनावश या आत्मरक्षा में” गोवध को छूट दी गई. इनमें महाराष्ट्र पशु परिरक्षण (संशोधन) विधेयक 1995, जिसे मार्च 2015 में पारित किया गया, सबसे ज्यादा सक्चत है. इसमें गोवंश की हत्या, बिक्री, कब्जा, उपभोग और निर्यात को गैर-जमानती अपराध करार दिया गया, जिसके लिए पांच साल तक के कारावास या 10,000 रु. के जुर्माने या दोनों की सजा दी जा सकती है. इसे बंबई हाइकोर्ट में चुनौती दी गई, जिस पर अदालत ने सरकार से औचित्य बताने को कहा है कि दूसरे पशुओं को भी इस प्रतिबंध के तहत क्यों शामिल नहीं किया जाना चाहिए. मुस्लिम बहुल जम्मू-कश्मीर में व्यापक विरोध प्रदर्शन और विधानसभा में हंगामा आखिरकार तब थमा, जब 5 अक्तूबर को सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिबंध को दो महीनों के लिए स्थगित कर दिया और इस मुद्दे पर फैसले के लिए तीन सदस्यों की पीठ का गठन कर दिया.

वकील के.टी.एस. तुलसी कहते हैं, “गाय तो महज बहाना है और यह बेहद खतरनाक है. दूसरे समुदायों के खिलाफ जनमत को मजबूत करने और समाज को बांटने के लिए कानून का इस्तेमाल किया जा रहा है. क्या आप दूसरी बाबरी मस्जिद या, दूसरा गोधरा चाहते हैं?”

गाय को लेकर अर्थशास्त्रगोवंश का अर्थशास्त्र
आरएसएस और उसके आनुषंगिक संगठन अब बछड़े और बैलों सहित गोवंश के वध पर पूर्ण प्रतिबंध चाहते हैं, लेकिन धार्मिक भावनाओं के आधार पर प्रतिबंध लगाने की बहस आंकड़ों पर आकर उलझ जाती है. मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनावों में बीफ के निर्यात का मामला उछालने के लिए जिस “गुलाबी क्रांति” का खुलकर जिक्र किया था, वह दरअसल इतने तरह के उद्योगों के इस्तेमाल में आता है जिसकी समझ ज्यादातर गोहत्या पर रोक के पैरोकारों को नहीं है. गाय और उसकी प्रजाति के शरीर के कई हिस्से सींग से लेकर खुर तक कई तरह की दवाइयों, टेनिस के रैकेट, आग बूझाने के उपकरणों, चीनी मिट्टी के बर्तनों, सर्जरी के स्टिच, कपड़े और जूते-चप्पलों के उद्योगों के काम आते हैं.

भारत में गाय और बैलों की कुल संख्या 19.09 करोड़ है. इसके अलावा 10.87 करोड़ भैंसें हैं. यानी ये दोनों मिलकर देश में कुल मानव आबादी के करीब 25 प्रतिशत बैठते हैं. फिर, देश में गोशालाओं के लिए कोई जगह नहीं बची है. इससे गाय-भैंसें सड़कों पर मंडराने के लिए अभिशप्त हैं. भारत से 2014-15 में 24 लाख टन भैंस के मांस का निर्यात विएतनाम, मलेशिया, थाईलैंड और सऊदी अरब सहित 65 देशों में हुआ. सेंटर फॉर मानिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के मुताबिक, यह दुनिया भर में कुल बीफ निर्यात का 23.5 प्रतिशत बैठता है. लगभग 30,000 करोड़ रु. मूल्य का यह निर्यात भारत के कुल निर्यात का 1 प्रतिशत बैठता है. लेकिन गोवंश की अर्थव्यवस्था का यह बहुत ही मामूली हिस्सा है.

मुंबई उपनगरीय बीफ डीलर एसोसिएशन के अध्यक्ष हाजी मुहम्मद अली कुरैशी के मुताबिक, मांस के मद में महज 30 प्रतिशत बीफ की खपत होती है, बाकी दूसरे मकसदों के लिए इस्तेमाल किया जाता है. इसमें चमड़ा, जेलेटिन और साबुन तथा टूथपेस्ट उद्योगों के काम आता है. चमड़ा उद्योग में भारत विश्व बाजार में करीब 5 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखता है. जेलेटिन का इस्तेमाल सिर्फ खाद्य उत्पादों में ही नहीं बल्कि फोटोग्राफी और दवाइयों के कैप्सूल के कोटिंग में भी होता है. इसी तरह साबुन और टूथपेस्ट में हड्डियों के चूरे का इस्तेमाल किया जाता है. सींग के पाउडर का इस्तेमाल आग बुझाने के लिए किया जाता है. एक व्यापारी का सवाल है, “आप चाहे जितने ही धर्मपरायण क्यों न हों, क्या चाहेंगे कि आपका घर आग में जल जाए?” यानी आज औसत भारतीय की जिंदगी गाय-बछड़े और बैल के शरीर से बनने वाले उत्पादों के बिना नहीं चल सकती. गोहत्या पर पाबंदी से सिर्फ बीफ खाने वाले लोग ही प्रभावित नहीं होंगे.

गोहत्या पर पाबंदी का असर भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी होगा, जहां बछड़े और बैलों का जीवनचक्र किसानों की टिकाऊ अर्थव्यवस्था में मदद करता है. अगर कोई किसान एक बैल 25,000 रु. से 50,000 रु. में खरीदता है तो दो साल बाद भी उसकी कीमत अमूमन वही बनी रहती है. जब वह चोट लगने या बीमारी के कारण काम के लायक नहीं रह जाता या उसे रखना किफायती नहीं होता तो किसान उसे बूचडख़ाने को 10,000 रु. से 20,000 रु. तक में बेच देता है. इस तरह करीब 40 फीसदी रकम उसे वापस मिल जाती है, जिससे वह दूसरा पशु खरीद लेता है. महाराष्ट्र में ही इस साल मुख्यमंत्री देवेंद्र फडऩवीस की बीजेपी सरकार के प्रतिबंध लगाने के पहले तक इस्तेमालशुदा पशुओं के बाजार का सालाना कारोबार 1,180 करोड़ रु. था. अब किसान के पास काम के लायक न रहने वाले बैल को ठिकाने लगाने की कोई जगह नहीं है. किसी मवेशी को रोजाना औसत 30 से 50 किलो चारा और 60 से 70 लीटर पानी की जरूरत रहती है. इसकी अनुमानित कीमत हर बैल प्रति साल 39,336 रु. बैठती है. राज्य में कुल 11.8 लाख ऐसे बेकार बैल हैं. उनको खिलाने-पिलाने में हर साल 4,667 करोड़ रु. की खपत होगी.

अत्यधिक आवारा गायों का एक दूसरा खतरनाक नतीजा ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने के रूप में भी सामने आता है. यह वाहनों के प्रदूषण से ज्यादा खतरनाक है. भैंस, भेड़ और बकरियों की तरह गाएं भी काफी मिथेन गैस का उत्सर्जन करती हैं जो कार्बन डाइऑक्साइड से 21 गुना ज्यादा गर्मी पैदा करती है. भारत में करीब आधा अरब पशुओं की आबादी में बकरी, ऊंट, घोड़े और ऐसे दूसरे पशु शामिल हैं. दुनिया भर के पशुओं द्वारा उत्सर्जित मिथेन गैस का छठवां हिस्सा इनके जरिए निकलता है. एशियन-ऑस्ट्रलेशियन जर्नल ऑफ एनिमल साइंसेज में पिछले साल प्रकाशित आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में पशुओं से सालाना 14 करोड़ टन मिथेन गैस निकलती है. यह दुनिया के कुल आंकड़ों का 15 प्रतिशत है.

सरकार को इन समस्याओं से निबटना होगा और अत्यधिक आबादी के स्पष्ट विकल्प, ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर असर और पर्यावरण पर दुष्प्रभाव को ध्यान में रखकर गोवंश के बारे में कोई नीति बनानी होगी. हालांकि फडऩवीस को कोई दुविधा नहीं है. वे इंडिया टुडे से कहते हैं, “मुस्लिम देशों में पोर्क पर प्रतिबंध का कोई विरोध नहीं करता. लोग इसके आदी हो गए हैं. यहां सिर्फ गोवंश की हत्या पर प्रतिबंध है. भैंसों पर नहीं. यह हमारी संस्कृति है. अपनी संस्कृति का सम्मान करेंगे तो लोग हमारा साथ देंगे.” लेकिन भारत तो अपनी विविधता में गर्व करता है इसलिए किसी एक धार्मिक पहचान को प्राथमिकता देना सही नहीं है. समाजशास्त्री दीपांकर गुप्ता कहते हैं, “अमेरिका में पीढिय़ों से रह रहे अश्वेतों के लिए अब अमेरिका ही उनका देश है.” इसी तरह मुसलमान और ईसाई भी भारत में रहते हैं.

हर जगह भगवाकरण
बिसहेड़ा की वारदात पर आरएसएस के मुखपत्र पाञ्चजन्य के पूर्व संपादक तरुण विजय ने एक अलग नजरिया पेश किया है. उनकी दलील है कि यह भी देखा जाना चाहिए कि अखलाक या उनके परिवार ने गोहत्या की या गोमांस खाया जिसकी अभी कोई पुष्टि नहीं हुई है. इस दलील में यह निहित है कि अगर अखलाक के घर से पाया गया मांस बीफ था तो हत्या जायज भले न हो, पर उसकी वजह समझी जा सकती है.

आरएसएस के राष्ट्रीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य कहते हैं, “यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना है. दोषियों को कानून के मुताबिक सजा मिलनी चाहिए. हालांकि ऐसी घटनाओं के लिए हमेशा आरएसएस के दरवाजे पर दस्तक नहीं दी जानी चाहिए. मुसलमानों को 100 करोड़ हिंदुओं की गाय में आस्था के प्रति अपना समर्थन जाहिर करना चाहिए. यही पर्याप्त नहीं कि आप अच्छे हैं, बल्कि आपको अच्छा दिखना भी चाहिए.”

हालांकि वित्त मंत्री अरुण जेटली और गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने बिसहेड़ा की घटना की कड़े शब्दों में निंदा की है और इसे “भारत की छवि के लिए नुक्सानदेह” बताया है, फिर भी मोदी की चुप्पी उनकी छवि पर चोट पहुंचा रही है. उन्होंने अपने अनेक विदेशी दौरों में इस बात को जाहिर किया है कि सरकार विविधता का स्वागत करेगी. लेकिन उग्र दक्षिणपंथी तत्वों ने उनके इस एजेंडे को खतरे में डाल दिया है.

इसके सूत्र आरएसएस की विचारधारा में हैं. आरएसएस का उद्देश्य ऐसा “हिंदू राष्ट्र” और “नई आध्यात्मिक व्यवस्था” कायम करना है जिससे “ज्ञान का वह जलाशय फिर लबालब भर उठे जो करीब 500 साल के मुगल और अंग्रेजी राज की कृत्रिम संस्कृति से सूख गया.” संघ के प्रति सहानुभूति रखने वाली कई सांस्कृतिक संस्थाएं इस दलील को आगे बढ़ा रही हैं. इसकी मिसालें सीबीएफसी के मुखिया पहलाज निहलानी, आइसीएचआर के मुखिया वाइ. सुदर्शन राव और एफटीआइआइ के मुखिया गजेंद्र चौहान की नियुक्तियों के रूप में देखी जा सकती हैं. सूत्रों के मुताबिक, संघ की सुधार की फेहरिस्त में अब सीबीएसई, एनसीटीई और राष्ट्रीय अभिलेखागार जैसी संस्थाएं हैं.  

संस्कृति मंत्रालय से संकेत लेकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय भी नई शिक्षा नीति लाने की तैयारी कर रहा है. सूत्रों के मुताबिक, इसकी निगरानी संघ के संयुक्त महासचिव कृष्ण गोपाल कर रहे हैं. यह नीति संस्था की ओर से बनाई गई विस्तृत रूपरेखा के इर्दगिर्द रहेगी, जो “मैकाले की ओर से हम पर थोपे गए कथित भ्रष्ट शिक्षा मॉडल” से छुटकारा दिलाएगी.

समानांतर एजेंडा
नई पाठ्य पुस्तकों को लिखने की प्रक्रिया पहले ही शुरू हो चुकी है. जून में एनसीईआरटी ने इतिहास की किताबों की समीक्षा के लिए वर्कशॉप का आयोजन किया था. इसने कई विद्वानों को चौकन्ना कर दिया है. इतिहासकार डी.एन. झा पूछते हैं, “वे दावा करते हैं कि प्राचीन विज्ञान इतना विकसित था कि हमारे पास पश्चिमी दुनिया से पहले ही मूल कोशिका संबंधी शोध, प्लास्टिक सर्जरी और विमान मौजूद थे. लेकिन कोई प्रमाण नहीं है. वेद अभी भी मौजूद हैं तो फिर यह “विस्मृत ज्ञान” कहां है?”
इतिहासकार हरबंस मुखिया कहते हैं कि दुनिया जहां बहुलतावाद की ओर बढ़ रही है, संघ इतिहास को एकरूप करने की कोशिश कर रहा है. 6 अक्तूबर को लेखिका नयनतारा सहगल और साहित्यकार अशोक वाजपेयी ने विरोधस्वरूप साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया. सहगल ने कहा, “भारत की सांस्कृतिक  विविधता और विचार गंभीर प्रहार हो रहा है.” ऐसे देश को जहां सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास रहा है, शर्मनाक अतीत की ओर नहीं लौटना चाहिए.
(साथ में उदय माहूरकर और असित जॉली)

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