आग फिर धधक उठी है. तेरह साल बाद अहमदाबाद की सड़कों पर सशस्त्र जवान गश्त कर रहे हैं और पुलिस-प्रदर्शनकारियों की झड़प की दास्तां सड़कों पर जली हुई गाड़ियों के धुएं से निकल रही है. फर्क सिर्फ इतना है कि 2002 में गुजरात दंगे के वक्त नरेंद्र मोदी बतौर मुख्यमंत्री प्रशासन के नौसिखिए थे और 2015 में वे देश के प्रधानमंत्री हैं. लेकिन खुद को राजनीति का मंझा हुआ खिलाड़ी कहने वाले मोदी ने अपनी विरासत ऐसी शख्सियत को क्यों सौंप दी जिसकी एक चूक ने दुनिया की सबसे बड़ी राजनैतिक पार्टी की जुबान बंद कर दी है? बीजेपी नेताओं की बयानबाजी पर भले रोक हो, लेकिन पार्टी में दबी जुबान से यही सवाल उठ रहा है क्योंकि चिंगारी के शोला बनने की वजह गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल का वह बयान था जिसमें उन्होंने स्थिति की गंभीरता समझे बिना आरक्षण की मांग को खारिज कर दिया था.
आर्थिक तौर पर समृद्ध माने जाने वाले पटेल समुदाय की आरक्षण की मांग को लेकर हिंसा की लपटों में घिरे गुजरात का मामला बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व के पल्ले नहीं पड़ रहा. जबकि केंद्र सरकार और बीजेपी, दोनों के मुखिया गुजरात से आते हैं. सूत्रों के मुताबिक, केंद्रीय स्तर पर शीर्ष नेताओं की अनौपचारिक चर्चा में इसे मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल की प्रशासनिक विफलता के तौर पर देखा जा रहा है जो इतने बड़े जमावड़े का अंदाजा नहीं लगा पाईं. उन्होंने जिस तरह आंदोलन से निपटने की कोशिश की, वह भी किसी के गले नहीं उतर रहा. लेकिन पार्टी की प्राथमिकता किसी भी तरह से मौजूदा हिंसा के दौर को खत्म कर शांति बहाल करने की है. तब तक बीजेपी के किसी भी नेता या प्रवक्ता को इस मुद्दे पर बयान नहीं देने का दो-टूक निर्देश दिया गया है.
आरक्षण पर दोहराता इतिहास
तीन दशक बाद राज्य में इतिहास खुद को दोहरा रहा है. अप्रैल 1985 में पटेल समुदाय की अगुआई में चल रहे आरक्षण-विरोधी आंदोलनकारियों की ज्यादतियों के जवाब में पुलिस ने उससे भी बढ़कर ज्यादतियों को अंजाम दिया था. उस वक्त वह जाति-आधारित आंदोलन देखते ही देखते हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक हिंसा में बदल गया. नतीजतन, अगस्त 1985 में आखिरकार माधवसिंह सोलंकी को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के महज पांच महीने बाद ही कुर्सी छोडऩी पड़ी थी. जबकि 1985 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 182 में से 149 सीटें जीती थी, जो रिकॉर्ड खुद मोदी हैट्रिक जीत के बाद भी नहीं तोड़ पाए. सोलंकी ने शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों के आरक्षण में इजाफा कर दिया था, जिसकी वजह से पटेलों का गुस्सा भड़क उठा था.
वही मंजर 25 अगस्त को दोहराता हुआ दिखाई दिया, जब रिकॉर्ड आठ लाख पटेल अहमदाबाद में जुट गए. उनकी अगुआई अनजान शख्स से दिग्गज नेता में बदल चुका एक 22 साल का युवक हार्दिक पटेल कर रहा था. हार्दिक वीरमगाम के एक छोटे-से कारोबारी के पुत्र और पाटीदार अनामत आंदोलन समिति (पीएएएस) का संयोजक और आम आदमी पार्टी के पूर्व समर्थक हैं. यह जमावड़ा गुजरात की आबादी में 12 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले ताकतवर पटेल समुदाय को अन्य पिछड़े वर्ग में शामिल करने की मांग कर रहा था. रैली से पहले अपने भाषण में हार्दिक ने एक के बाद एक धमकाने वाले चुनिंदा लफ्जों और विशेषणों का इस्तेमाल करते हुए न सिर्फ आनंदीबेन बल्कि नरेंद्र मोदी तक को चुनौती दे डाली. हार्दिक ने कहा कि पटेल 2017 के चुनाव में गुजरात के मौजूदा हुक्मरानों को सत्ता से बेदखल भी कर सकते हैं. लेकिन माहौल तब बिगड़ा जब शाम 8 बजे पुलिस ने रैली स्थल पर धावा बोल दिया. वहां मौजूद लोगों पर लाठियां बरसाई गईं और फिर हार्दिक को हिरासत में लेकर उन्हें चुपचाप किसी दूसरी जगह के लिए रवाना कर दिया. यही नहीं, पुलिस ने मीडिया को भी नहीं बख्शा और अपनी लाठियों से दर्जनों वाहनों को भी तहस-नहस कर दिया.
यह खबर जैसे ही रैली से लौटते पटेलों को मिली, लोगों ने बसों में आग लगा दी, सरकारी प्रतिष्ठानों में तोड़-फोड़ करनी शुरू कर दी. पटेल समुदाय की नाराज भीड़ ने पुलिस चौकियों और राज्य सरकार के पटेल मंत्रियों के घरों को भी निशाना बनाया. मोढेरा में राज्य के गृह मंत्री रजनी पटेल के घर को आग के हवाले कर दिया गया. हालांकि हार्दिक को हिरासत में लेने के महज दो घंटे बाद ही पुलिस ने छोड़ दिया. लेकिन इससे हिंसा नहीं रुकी और आनंदीबेन पटेल की लगातार अपीलों का भी कोई असर नहीं हुआ. हिंसा दक्षिण से लेकर उत्तर गुजरात तक और मध्य गुजरात से लेकर सौराष्ट्र तक हरेक इलाके में फैल गई जिसमें 10 लोगों की मौत हो गई. 26 अगस्त की सुबह रेल को भी निशाना बनाया जाने लगा, जिससे अहमदाबाद से जाने वाली ट्रेनों को भी रद्द करना पड़ा. अफवाहों को फैलने से रोकने के लिए सरकार ने इंटरनेट पर भी रोक लगा दी.
कहां से उपजा आंदोलन
हार्दिक पटेल की महत्वाकांक्षा की कहानी मई के पहले हफ्ते में अहमदाबाद के सोला में उमिया माता शिक्षा परिसर में एक बैठक से शुरू हुई. बैठक इस बात पर चर्चा के लिए बुलाई गई थी कि लालजीभाई पटेल की अगुआई में चल रही पटेलों की सामाजिक संस्था सरदार पटेल ग्रुप (एसपीजी) पटेल नौजवानों को किस प्रकार प्रशिक्षित करे कि वे सिविल सेवाओं में चुने जाएं. साथ ही ओबीसी छात्रों को सामान्य श्रेणी से मेरिट में आने पर छूट ने भी गुस्से को भड़काया. हार्दिक ने बेहद कम समय में अप्रत्याशित भीड़ जुटा ली. वे राज्य में 6 जुलाई के बाद आयोजित ऐसी 100 से ज्यादा रैलियों में से छह दर्जन से ज्यादा रैलियों को संबोधित कर चुके हैं. लेकिन 25 जुलाई की अहमदाबाद की रैली में हार्दिक ने ऐलान कर दिया कि आंदोलनकारी यहां से तभी जाएंगे जब आनंदीबेन ज्ञापन स्वीकार करने के लिए यहां आएंगी.
लेकिन इसमें पटेल लॉबी में दरार सामने दिखती है. लालजीभाई ने कहा, “ज्ञापन लेने के लिए आनंदीबेन को रैली स्थल पर आने के लिए मजबूर करने का फैसला हार्दिक का अपना था. इस फैसले को हमारा समर्थन हासिल नहीं था.”
हार्दिक की पीठ पर किसका हाथ
2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान हार्दिक के ट्वीटों से साफ पता चलता है कि उनका झुकाव आम आदमी पार्टी की तरफ था और वे मोदी के खिलाफ थे. इससे इस बात को वजन मिलता कि अरविंद केजरीवाल उन बड़े नेताओं में से एक हो सकते हैं जो उन्हें पीछे से समर्थन दे रहे हैं. हार्दिक के ट्वीटों के कुछ नमूनेः
1. (18 अप्रैल, 2014) डॉक्टर कुमार विश्वास निकले आप अच्छा करने,.. आपका बुरा कौन करेगा...हम नहीं डरेंगे, आपका साथ नहीं छोड़ेंगे... गुजरात में 5 सीट “आप” की लाएंगे. 2. (18 अप्रैल) आजतक कपिल सिब्बल ने सही कहा है... गुजरात हरेक युवा बेरोजगार भी हैं... 3. (14 अप्रैल) सीए... सपने सच होंगे आम आदमी पार्टी को लाना. 4. (29 मार्च) सीए...गुजरात की 3 लोकसभा सीट सुरेंद्र नगर, भावनगर, राजकोट पर आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार के जीतने की संभावना.
मोदी के खिलाफ उसके राजनैतिक संदेश इतने धारदार थे और उसके इरादों के बारे में किसी तरह का संदेह नहीं रह जाता हैः “लोग सरदार पटेल की मूर्तियां बनाते हैं लेकिन उनके आदर्शों पर सिर्फ जुबानी जमा खर्च करके इतिश्री कर लेते हैं. ऐसा नहीं चलने दिया जाएगा. गुजरात में पिछले 10 वर्षों में छह हजार किसान आत्महत्या कर चुके हैं. अब अगर किसान आत्महत्या करते हैं तो देश को उसकी कीमत चुकानी होगी.”
बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व को भी इसमें किसी साजिश की बू आ रही है. जिस तरह से बिहार चुनाव से पहले केजरीवाल और नीतीश कुमार की नजदीकियां बढ़ी हैं, उससे भी संदेह पैदा हो रहा है. बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता इस कड़ी में यूथ ग्रुप सीटीजंस फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस के प्रशांत किशोर, जो लोकसभा चुनाव तक मोदी के रणनीतिकार थे और अब नीतीश के साथ हैं, का भी नाम उछाल रहे हैं. इतना ही नहीं, अहमदाबाद की रैली में विशाल संख्या में पटेलों की भागीदारी और उस दिन हार्दिक पटेल की गतिविधियों ने इस तथ्य को उजागर कर दिया कि उनके पीछे जो ताकतें काम कर रही हैं उनमें बीजेपी के भीतर वे स्थानीय पटेल नेता भी शामिल हैं, जो मोदी और आनंदीबेन के व्यवहार से आहत हैं. बीजेपी में कुछ पटेल नेता ऐसे भी हैं जो आनंदीबेन को आगे बढ़ाने के कारण मोदी से नाराज हैं. इन नेताओं में ए.के. पटेल (मेहसाणा से पूर्व सांसद), अरविंद पटेल और अनिल पटेल के अलावा राष्ट्रीय बीजेपी के उपाध्यक्ष पुरुषोत्तम रूपाला शामिल हैं. हार्दिक ने खुद घोषणा की है कि उनके आंदोलन को नीतीश कुमार का समर्थन हासिल है और अगर मांगें नहीं मानी गईं तो वे केजरीवाल का रास्ता अख्तियार कर सकते हैं. अपनी कमीज की बाहें चढ़ाते हुए और अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को जाहिर करते हुए उन्होंने कहा, “देश भर में हम पटेलों की आबादी 27 करोड़ है. संसद में हमारे सांसदों की संख्या 117 है. नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू भी हमारी जाति के हैं.”
यह भी महत्वपूर्ण बात है कि बीजेपी से कांग्रेस में आए शंकर सिंह वाघेला इनमें से ज्यादातर पटेल नेताओं के काफी करीबी रहे हैं. मजे की बात है कि जुलाई में मेहसाणा के करीब बेचाराजी में आरक्षण के मुद्दे पर आयोजित एक बैठक में ए.के. पटेल के बेटे हर्षद पटेल भी शामिल हुए थे. 25 अगस्त को जिन बसों में पटेल कार्यकर्ताओं को लाया गया था, उनमें गणपत विश्वविद्यालय की बसें भी शामिल थीं. इस विश्वविद्यालय का नियंत्रण अनिल पटेल के हाथ में है. इसी तरह पटेल जाति की दो महत्वपूर्ण हस्तियां निरमा कंपनी के मालिक करसनभाई पटेल और एक अखबार समूह के मालिक पार्थिव पटेल ने भी इस आंदोलन के लिए अपना समर्थन जाहिर किया. इन दोनों ही के संबंध मोदी के साथ अच्छे नहीं रहे हैं.
पटेल बनाम पटेल
यह आंदोलन बीजेपी में पटेल जाति के नेताओं के बीच सत्ता के बंटवारे को लेकर अंदरूनी टकराव की भी अभिव्यक्ति है. यह समुदाय राज्य में 1990 में चिमनभाई पटेल के मुख्यमंत्री बनने के बाद से अबाध रूप से सत्ता का स्वाद चखता आ रहा था. यह तब भी जारी रहा जब 1995 और फिर 1998 में केशुभाई मुख्यमंत्री बने. यह वह समय था जब सरकारी और पुलिस की नियुक्तियों में पटेल समुदाय की चला करती थी. लेकिन जब मोदी सत्ता में आए तो उन्होंने संतुलन बनाने की कोशिश की और जातिगत भावना रखने वाले पटेलों की जगह विकासोन्मुख पटेलों को तरजीह दी. हालांकि राज्य की सत्ता में अब भी पटेलों की भागीदारी है लेकिन एक समुदाय के तौर पर तैनातियों में उनकी नहीं चलती है. जातिगत चेतना रखने वाले पटेल नेताओं को यह बात अखर रही थी लेकिन मोदी की कुशलता और 2002 के दंगों के बाद हिंदुत्ववादी नेता की उनकी छवि के कारण वे खामोशी के साथ मोदी के साथ बने रहे. बीजेपी के एक केंद्रीय नेता की दलील है, “मोदी ने गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए अपने विरोधियों को किनारे लगाने में कसर नहीं छोड़ी. उनके ज्यादातर विरोधी पटेल नेता ही थे, लेकिन मोदी के गुजरात से जाने के मौके की ताक में बैठे पटेल नेता अचानक विरोध के लिए मैदान में कूद पड़े हैं.” हालांकि आनंदीबेन पटेल के 24 सदस्यीय मंत्रिमंडल में आठ पटेल मंत्री हैं. इसके बावजूद ज्यादातर पटेल मंत्रियों के घरों को निशाना बनाया गया और उन पर पत्थर फेंके गए.
आनंदीबेन की गलतियां
रैली के दिन 25 अगस्त की शाम को जब रैली शांतिपूर्ण ढंग से समाप्त हो चुकी थी और हार्दिक अनशन पर बैठे थे तो पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई ने ठंडे पड़ते आंदोलन को फिर से हवा दे दी. इससे यह भी पता चल गया कि पुलिस प्रशासन पर आनंदीबेन पटेल और उनके गृह राज्यमंत्री रजनी पटेल की कोई पकड़ नहीं है. बहुत से विभागों में अच्छे प्रशासन का उदाहरण पेश करने के बावजूद गृह विभाग ऐसा है जिसने मुख्यमंत्री को कमजोर साबित किया है. पुलिस प्रशासन पर उनकी कमजोर पकड़ की असली वजह यह है कि पुलिस विभाग में ज्यादातर नियुक्तियों में पक्षपात किया गया है और योग्य अधिकारियों को दरकिनार किया गया है. आशीष भाटिया, ए.के. सिंह, जी.एस. मलिक और शमशेर सिंह जैसे बहुत से अच्छे आइपीएस अधिकारी दरकिनार कर दिए गए हैं. अहमदाबाद में 2008 के बम धमाकों की गुत्थी सुलझाने में भाटिया ने प्रमुख भूमिका निभाई थी. जबकि दूसरे बहुत से पुलिस अधिकारी खास मकसद से जमीन से संबंधित सौदों में शामिल होने से जरा भी नहीं हिचकते हैं. मोदी के शासन के दौरान गृह मंत्रालय ने एक आदेश जारी किया था जिसमें जमीन के सौदों में पुलिस के हिस्सा लेने पर रोक लगा दी गई थी. इस आदेश के बाद जमीन के सौदों में पुलिस की भागीदारी के मामलों की संख्या एक साल में घटकर सिर्फ 34 ही रह गई थी, जबकि इससे पहले के दो वर्षों में यह संख्या 17,000 के आसपास थी.
दरअसल, आनंदीबेन ने जुलाई में हुए आंदोलन को हल्के में लिया था. उस वक्त यह आंदोलन धीरे-धीरे जोर पकड़ रहा था. मुख्यमंत्री ने तब इस मुद्दे से निबटने की जिम्मेदारी मंत्रियों की एक समिति पर छोड़ दी थी. 25 अगस्त की रैली के कुछ दिन पहले ही आनंदीबेन ने इस मुद्दे पर अपना पहला स्पष्ट बयान दिया कि आरक्षण के मुद्दे पर राज्य सरकार की कोई भूमिका नहीं है, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही जाटों और मराठों के आरक्षण की मांग को खारिज कर चुका है. रैली से दो दिन पहले दिया गया उनका दूसरा बयान एकदम सही था लेकिन यह कम से कम 20 दिन की देरी से आया था. अगर उन्होंने जुलाई के अंत में खुद इस समस्या के समाधान में हिस्सा लिया होता तो इस मुद्दे को हल कर सकती थीं. हालांकि उनकी अपनी ही जाति के लोग उनके नियंत्रण से बाहर हो गए लेकिन उन्होंने ओबीसी को बड़ी सफलता से संभाला. उनकी कोशिशों के कारण ही छिटपुट घटनाओं को छोड़ दें तो राज्य में पटेल बनाम ओबीसी का झगड़ा नहीं खड़ा हो पाया. स्पष्ट है कि 1985 में माधवसिंह सोलंकी की तरह ही आनंदीबेन के लिए यह परीक्षा की घड़ी है, खासकर उस वक्त जब अक्तूबर में होने वाले नगर निकायों के चुनाव सिर पर हैं.
अब अन्य राज्यों से भी आवाज
पटेल समाज के आंदोलन को जिस तरह हार्दिक पटेल ने राष्ट्रीय मुद्दा बना दिया, उससे आरक्षण की आस लगाए बैठे अन्य जातियों को भी शह मिल गई है. हरियाणा समेत नौ
राज्यों में जाटों का आरक्षण रद्द होने के बाद से ही जाट समाज ने सरकार पर दबाव बढ़ा दिया है, जबकि ओबीसी का एक मोर्चा जाटों के आरक्षण के खिलाफ बेहद मुखर है. राजस्थान में गुर्जर आरक्षण का संघर्ष 2007 से चल रहा है जो कभी भी भयावह रूप ले लेता है. राज्य सरकार ने गुर्जरों को 5 फीसदी आरक्षण के साथ आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को भी 14 फीसदी का आरक्षण दिया था जिसके बाद राज्य में सुप्रीम कोर्ट की ओर से तय कोटा की सीमा 50 फीसदी के पार चली गई. महाराष्ट्र में मराठों और मुसलमानों का आरक्षण अदालत और सियासत के बीच फंसा है, जबकि छत्तीसगढ़ में 2012 में एसटी का कोटा 20 से बढ़ाकर 32 फीसदी कर दिया गया और एससी का कोटा 16 से घटाकर 12 फीसदी कर दिया गया. ओबीसी का 14 फीसदी बरकरार रखा गया. यहां भी कोटा 58 फीसदी के पार है. इस मामले में सिर्फ तमिलनाडु ने कोटा को बढ़ाया तो संविधान संशोधन के जरिए उसे नौंवी अनुसूची में डलवाया. जबकि बांकी राज्यों में सिर्फ चुनावी वादों के लिहाज से सियासी दावपेच चलता रहता है.
इसमें दो राय नहीं कि आरक्षण के आंदोलनों में सियासी दांवपेच की भी भूमिका है. लेकिन यह समझने की जरूरत है कि उसे लोगों का बड़े पैमाने पर समर्थन कैसे हासिल हो रहा है. क्या यह देश की आर्थिक बदहाली और गैर-बराबर विकास की वजह से तूल पकड़ रहा है? यह जाने बगैर और आर्थिक दशा दुरुस्त किए बगैर इस आग से शायद ही निजात मिले.
(साथ में संतोष कुमार)
पाटीदार आंदोलन: आरक्षण की आग को हवा
पटेल आरक्षण आंदोलन के बेकाबू होने के साथ मोदी का घरेलू मैदान लपटों से घिर गया है और उनके सियासी दुश्मनों को इसमें उन्हें डावांडोल करने का मौका नजर आ रहा है लेकिन पटेल समाज की ताकत को देखते हुए बीजेपी भी कोई जोखिम लेने के मूड में नहीं. पटेल समाज के आंदोलन ने लंबे समय से आरक्षण की उम्मीद बांधे जाट, गुर्जर, मराठा और मुसलमानों को भी शह दे दी है.

अपडेटेड 31 अगस्त , 2015
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