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सपनों का स्मार्ट शहर

दुनिया भर में स्मार्ट शहर आज अंधी दौड़ जैसा बन गया है. भारत में भी स्मार्ट बनने की सोच बढ़ी है. मोदी सरकार की योजना 100 स्मार्ट शहर बनाने की है जिसमें 7,000 करोड़ रु. का निवेश किया जाना है. लेकिन देश के शहरी जीवन को क्या प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से बेहतर और सम्मानजनक बनाया जा सकता है? पढ़िए पूरी पड़ताल.

अपडेटेड 25 नवंबर , 2014
आप क्या स्मार्ट शहर में रहना चाहेंगे? जहां कारगर शहरी तंत्र पृष्ठभूमि में हरदम सक्रिय हो और आप पर कम से कम बोझ डाले? कारखाने अपने आप गड़बडिय़ां पकड़ लें और दुरुस्त कर दें, अस्पताल दूर से ही चिकित्सकीय उपकरणों और जरूरतों पर नजर रखें और होटलों में रोशनी और गर्मी-सर्दी आपकी सहूलियत से बदल जाए?

हममें कई, जो अपने मोबाइल को झटका देकर किसी गाने की जानकारी का पता लगा लेते हैं या घरों में स्मार्ट थर्मास्टैट का इस्तेमाल कर रहे हैं, उनके लिए यह दूर की कौड़ी नहीं है. लेकिन जो लोग शहरों में सम्मान की जिंदगी के लिए संघर्षरत हैं, उनके लिए यह किसी सपने या जादुई संसार से कम नहीं. भारतीय शहरों में करीब एक-चौथाई आबादी झुग्गी-झौंपडिय़ों में रहती है. मुंबई में तो करीब आधी आबादी ही झुग्गी बस्तियों में रहती है. जमीन और आवास, पाइपलाइन से पेयजल आपूर्ति और जल-मल निकासी पर बढ़ते भारी जनसंख्या दबाव की वजह से अनौपचारिक समझौते करने को मजबूर होना पड़ता है. यही क्यों, बंगलुरू जैसे टेक सेवी शहर को भी अपने कचरे के निष्पादन में दिक्कत आ रही है. इन हालात में स्मार्ट शहर दूर का सपना ही लग सकता है.
 
स्मार्ट शहर में प्रौद्योगिकी और डेटा के मेल-जोल से नागरिक सुविधाओं संबंधी फैसलों में सुधार लाया जाता है. संयुक्त अरब अमीरात का मसदर शहर, दक्षिणी कोरिया में सांगदो और पुर्तगाल में प्लैनआइटी वैली को ऐसे ही ऊर्जा सक्षम, प्रौद्योगिकी का अधिकतम प्रयोग करने वाले द्वीपों के रूप में नियोजित किया गया है. यहां सेंसरों और कैमरों का ऐसा तंत्र है जो मकानों, सड़कों, सार्वजनिक स्थलों, वाहनों पर नजर रखता है और जरूरी होने पर सर्विस का निर्देश जारी कर देता है.
 
बेशक, इनकी तरह तो नहीं लेकिन अधिकतर बड़े शहरों में स्मार्ट उपकरणों का इस्तेमाल शुरू हो चुका है. मसलन, रियो डी जनीरो के आइबीएम संचालित ऑपरेशंस सेंटर में एक स्क्रीन समूची दीवार पर लगी है जिस पर 560 कैमरों से सूचनाएं आती रहती हैं और उनके सीधे प्रसारण से अधिकारी खुद को बाखबर रखते हैं. उसमें मौसम पूर्वानुमान प्रणाली है और एक स्मार्ट नक्शा भी है जो शहर भर से आ रहे डेटा के 60 स्तरों का विश्लेषण करने में सक्षम है. इंटेलिजेंट बुनियादी ढांचे के सहारे ‘स्मार्ट राष्ट्र’ बनने के अपने लक्ष्य में सिंगापुर आज शहरी यातायात से जुड़े एप्लिकेशन बनाने में अग्रणी हो चुका है जिनका इस्तेमाल दुनियाभर में किया जा सकता है. आज मुंबई में भी ट्रैफिक सिग्नल प्रणाली के अनुकूलन के कई प्रयोग किए जा रहे हैं.
विश्व बैंक के सहयोग से विकसित ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से ट्रैफिक संचलान करती मुंबई पुलिस
(विश्व बैंक के सहयोग से विकसित ट्रांसपोर्ट प्रोजेक्ट टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल से ट्रैफिक संचलान करती मुंबई पुलिस)
योजनाएं और खाका
दुनिया भर में स्मार्ट शहर आज अंधी दौड़ जैसा बन गया है जो हर जगह नीतियों को प्रभावित कर रहा है. भारत में भी स्मार्ट बनने की सोच बढ़ी है. नरेंद्र मोदी सरकार की योजना 100 स्मार्ट शहर बनाने की है जिसमें 7,000 करोड़ रु. का निवेश किया जाना है. यह काम निजी और अंतरराष्ट्रीय सहयोग से होगा. लेकिन केंद्र सरकार हवाई जुमलेबाजी में फंसने की बजाए बिल्कुल व्यावहारिक नजरिया लेकर चल रही है, क्योंकि उसे एहसास है कि आज भारत में शहरीकरण ऐतिहासिक पड़ाव पर पहुंच चुका है. सरकार ने ‘स्मार्ट’ शब्द को गढ़ते वक्त शायद उसके दायरे में संस्थागत और भौतिक ढांचे में अनिवार्य सुधारों को शामिल किया है. शहरी विकास मंत्रालय का अवधारणा पत्र कुछ चुनिंदा शहरों को और ज्यादा निवेश सक्षम बनाने की बात कहता है, जहां बेहतर आवास, 24 घंटे बिजली व पानी की आपूर्ति, स्वच्छता, साफ हवा, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, मनोरंजन, खेल और आवागमन की सुविधाएं हों. इसमें स्मार्ट ग्रिड, मेडिसिटी और नए उद्यमों को शुरू करने के लिए इनक्यूबेटर का जिक्र है, प्रशासन में सूचना-संचार प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल की बात शामिल है. जाहिर है, इनमें प्रौद्योगिकी और निजी कंपनियों की ज्यादा भागीदारी होगी लेकिन यह योजना के केंद्र्र में नहीं है.

शहरी विकास सचिव शंकर अग्रवाल ने दिल्ली में हाल ही में आयोजित एलएसई अर्बन एज सम्मेलन में स्मार्ट सिटी की व्याख्या करते हुए बताया, “सिर्फ प्रौद्योगिकी ही बड़े बदलाव ला सकती है. आप किसी भी उस समाज को देखें जिसने महान प्रगति की हो. हमारे पास इंजीनियरिंग और सॉफ्टवेयर में बेहतरीन प्रतिभाएं हैं, तो क्यों नहीं हम इनका दोहन अपने शहरों और आम आदमी के लिए करें?” सरकार को इस योजना के क्रियान्वयन में मदद कर रहे नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अर्बन अफेयर्स के निदेशक जगन शाह कहते हैं, “बेहतर सेवाओं के लिए प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करने में कोई दो राय नहीं है, जैसे कि कचरे, बेहतर खसरा खातों, यातायात निगरानी वगैरह में आरएफआइडी का प्रयोग. शहर और सरकार के कामकाज की सूचनाएं प्राप्त करने का भी यह एक तरीका हो सकता है ताकि ज्यादा साक्ष्य आधारित फैसले लिए जा सकें और उनके आधार पर सामाजिक कार्यक्रम तय किए जा सकें.”

शाह ऐसे नजरिए की बात करते हैं जो शहरों को अपनी आर्थिक क्षमताओं का बेहतर इस्तेमाल करने में मदद कर सके और जिसके सहारे वे केंद्र्र, राज्य, औद्योगिक समूहों और नागरिक समाज से संसाधन और नए विचार प्राप्त कर सकें. वे मानते हैं कि यह काम इतना आसान नहीं होगा क्योंकि हमारे यहां फैसले लेने के मामले में शहरी निकायों के पास अधिकार काफी कम हैं. वे कहते हैं, “लेकिन इस आशंका को हम उम्मीद में कैसे बदलें, यही तो हमारी चुनौती है.”

संसाधनों की कमी के कारण नए शहर बनाने के जोखिम से सरकार वाकिफ है, इसीलिए केंद्र्र अभी सिर्फ  मौजूदा शहरों के लिए इन्फॉर्मेटिक्स का एक स्तर जोडऩे की योजना बना रहा है. देशभर में हालांकि स्मार्ट शहरों के प्रयोग जारी हैं. दिल्ली-मुंबई औद्योगिक गलियारे के इर्द-गिर्द आने वाले नए शहरों, गुजरात में धोलेरा, महाराष्ट्र में शेंद्रा और हरियाणा में मानेसर के लिए समेकित स्मार्ट इन्फ्रास्ट्रक्चर तैयार किया जा रहा है. कुछ नगर निकायों ने निजी कंपनियों के साथ समझौते कर लिए हैं ताकि वे सेवाएं प्रदान करने की प्रक्रिया को डिजिटल स्वरूप दे सकें.

 आकार ले रहे तीन स्मार्ट शहर‘स्सॉल्यूशंस’ का कारोबार
इस काम के लिए दुनियाभर में विचार, नक्शे और हार्डवेयर मुहैया कराने वाली आइबीएम, सिस्को, सीमेंस और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों के पास भविष्य की कहीं ज्यादा भव्य संकल्पना है.

आइबीएम का एक वीडियो यातायात व्यवस्था को समझने के लिए एनिमेटेड वीडियो का प्रयोग करता है, जिसमें एक शहर को ऐसे चमकदार बिंदुओं से दिखाया गया है जो एक ग्रिड के इर्द-गिर्द तेजी से हिलते हैं. वॉयस ओवर से यह समझाया जाता है कि कैसे चुंगी नाका, ट्रैफिक के पैटर्न, प्रत्यक्षदर्शियों, किरायों, मीटर और कैमरे से भारी मात्रा में डाटा इकट्ठा हो रहा है, उसके बाद कैसे इसे अलग-अलग विभागों और एजेंसियों में वर्गीकृत किया जाता है और कैसे कोई स्मार्ट शहर इन सूचनाओं का इस्तेमाल सुधार के लिए करेगा.

सीमेंस ने एक शहर को कॉकपिट के रूप में बनाया है जो “प्रबंधन, सूचना और फैसलों की एकमुश्त सहयोग प्रणाली” है जिसके सहारे ट्रैफिक, पर्यावरण, वित्त और अन्य क्षेत्रों में कामकाज पर निगरानी रखी जा सकती है.

सिस्को में स्मार्ट प्लस कनेक्टेड कम्युनिटीज के निदेशक अनिल मेनन कहते हैं, “व्वैश्विक आइटी और इंजीनियरिंग सेवाओं के बाद भारत में  वैश्विक सार्वजनिक सेवाओं में उछाल दिख सकता है.” वे बताते हैं कि कैसे यह पहले से ही शुरू हो चुका है. मसलन, अमेरिका के अस्पताल मेडिकल जांच और निदान के मामले में भारत की सेवाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं या फिर अमीर किसान किसी सुदूर जगह से निवेश की सलाह लेते हैं. वे बताते हैं कि सिस्को एक ऐसा डिजिटल आर्किटेक्चर तैयार कर चुका है जो सेवा प्रदाताओं के साथ या तो राजस्व बंटवारे के आधार पर या कुछ शुल्क लेकर काम करता है, या फिर पूरा समाधान मुहैया करा सकता है.

सर्किट, स्विच, कोलैबोरेशन सुइट और क्लाउड सेवाएं निर्मित व संचालित करने वाली यह कंपनी एक परामर्श केंद्र्र भी चलाती है जो शहर के प्रशासकों को उनकी जरूरतें पहचानने व फंड तैयार करने में मदद करती है. मेनन बताते हैं, “उदाहरण के लिए, हमने बंगलुरू पुलिस के साथ मिलकर एक प्रायोगिक परियोजना शुरू की है जिसमें एक मॉल में ऐसे कियोस्क लगाए जाने हैं जहां एफआइआर इलेक्ट्रॉनिक तरीके से दर्ज की जा सके. एक और उदाहरण लें, कि कैसे पार्किंग के काम को आसान बनाया जा सकता है. इसके लिए आपके मोबाइल फोन पर बस एक एप्लिकेशन होना जरूरी है जो बताएगा कि खाली जगह कहां है. इससे पार्किंग की जगह खोजने की जहमत से बच पाएंगे और जाम कम लगेगा.”

स्मार्ट वही जो काम करे
इन नई धारणाओं का वादा है कि अपराधों को पहले पहचाना जा सकेगा, हादसों को रोका जा सकेगा, ऊर्जा बचाई जा सकेगी और शहरी जीवन को सहज बनाया जा सकेगा. कर्नाटक सरकार में सूचना प्रौद्योगिकी, जैव-प्रौद्योगिकी और ई-प्रशासन विभाग के सचिव श्रीवत्स कृष्णा कहते हैं, “जो चीज पावर पॉइंट या किसी लैब या फिर किसी इमारत में भी अच्छी दिखती हो, वह जरूरी नहीं कि एक करोड़ लोगों के लिए कारगर हो.” प्रौद्योगिकी अपने आप में कोई अच्छी या बुरी चीज नहीं है. उसका असर उसके सामाजिक इस्तेमाल से तय होता है. यह तो शहरों के नीति-नियंताओं पर निर्भर है कि वे नए विचारों के लिए किन औजारों का क्या इस्तेमाल करेंगे.

एलएसई सिटीज में शहरी अध्ययन के प्रोफेसर और निदेशक रिकी बर्डेट पूछते हैं, “भारतीय शहरों को जिसकी जरूरत है, यदि वास्तव में स्मार्ट सिटी के विचार से उसे हासिल किया जा सकता है तो मैं सराहना करूंगा. शहरी जीवन की कुछ बुनियादी शर्तें होती हैं—स्वास्थ्य, आवास और काम तक पहुंच. जिस प्रौद्योगिकी की हम बात कर रहे हैं, क्या वह इनका हल निकाल सकती है?” वे कहते हैं कि जहां सीवेज प्रणाली सिर्फ 30 फीसदी शहरी लोगों को ही मुहैया हो, वहां नीति-निर्माताओं को प्राथमिकताएं संभलकर तय करनी चाहिए. बड़े पैमाने पर हो रहे पलायन, भूमि के सही इस्तेमाल, पानी और कचरा प्रबंधन, यातायात से जुड़ी वास्तविक चुनौतियों से निबटना किसी प्रौद्योगिकीय जुगाड़ से कहीं ज्यादा जरूरी है.

सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के चेयरपर्सन, पूर्व शहरी विकास सचिव  के.सी. शिवरामकृष्णन का मानना है कि सेवाओं को भले बेहतर बनाने की जरूरत हो लेकिन हमें उन्हें पहुंचाने की प्रणाली को लेकर सनक में नहीं फंसना चाहिए बल्कि यह सुनिश्चित करना चाहिए कि काम वास्तव में हो रहा है. वे कहते हैं, “पहले चेन्नै में हाउस टैक्स  इकट्ठा करने के लिए अमला घरों में जाता था और फॉर्म भरवाता था. अब वह काम उपकरणों से हो रहा है. यानी बुनियादी तौर पर खास कुछ नहीं बदला है. सूरत में आयुक्त को हर वार्ड से कचरा निस्तारण और जलापूर्ति की सूचना रोज दी जाती है—यह काम प्रौद्योगिकी की बजाए अधिकारी खुद कर सकते थे.” उनकी नजर में सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल बड़ी बात नहीं होगी. असली बात यह है कि हम अपने लक्ष्य कितने वास्तविक ढंग से तय करते हैं.

स्मार्ट नागरिकों पर भरोसा
कई लोगों ने स्मार्ट शहरों के हौवे पर गंभीर आपत्तियां उठाई हैं. मसलन, जिस देश में निजता की रक्षा का मामला पहले से ही इतना कमजोर हो, क्या हम इस बात के लिए तैयार हैं कि सेंसरों और कैमरों का एक जाल लगातार हमें रिकॉर्ड करता रहे और कंपनियां व प्रशासक चुपचाप हमारे बारे में सूचनाएं जुटाते रहें? पूरी संभावना है कि पुलिस और जांच एजेंसियां प्रौद्योगिकी से मिली इन सहूलियतों  का इस्तेमाल अपराध या आतंकवाद की रोकथाम में करेंगी. लेकिन यह आशंका भी कम नहीं है कि लोगों की निजी सूचनाओं का उनकी पूर्व सहमति या जानकारी के बगैर इस्तेमाल कर लिया जाए. पिछले दिनों की ही घटना को लें जहां दिल्ली मेट्रो के सीसीटीवी कैमरों का इस्तेमाल प्रेम करने वालों को बदनाम करने और उनकी अश्लील क्लिपिंग बनाने में इस्तेमाल कर लिया गया था. शहरों में हम आजादी और निजता की सुरक्षा की तलाश में आते हैं, प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल से यह फंदा भी बन सकता है.

और तो और, प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल के बारे में शर्तिया तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता और शहर की जरूरतों को प्रोग्राम में पहले से कैद नहीं किया जा सकता. शहरी मामलों के विद्वान तथा अगेंस्ट द स्मार्ट सिटी (द सिटी इज हेयर फॉर यू टु यूज) नामक पुस्तक के लेखक एडम ग्रीनफील्ड कहते हैं, “प्रौद्योगिकी की चाल शहरों से तेज होती है—आप 2012 में अगर कोई प्रौद्योगिकी लगाते हैं तो 2016 तक वह पुरानी पड़ जाएगी.” ग्रीनफील्ड और कुछ अन्य लोग शहरी जीवन को नियंत्रित करने के ऐसे अपारंपरिक तरीकों को लेकर चिंतित हैं.

वे हालांकि प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को लेकर इतने निराशावादी भी नहीं हैं क्योंकि अंततः वह नागरिक जीवन की जानकारियां जाहिर करने के ही काम आएगी, जैसा कि अभी ही देखा जा रहा है. ग्रीनफील्ड कहते हैं, “आपको सेंसर और प्रोसेसर लगाकर उनके रखरखाव और नवीकरण के लिए शुल्क चुकाने की जरूरत नहीं होगी. स्ट्रीटबम्प जैसे ऐप्स को ही देखें, जो जीपीएस और एक्सेलेरोमीटर का प्रयोग करके आपके फोन पर बता देता है कि गड्ढा कहां है.” उनका कहना है कि नागरिकों को किसी बंधी-बंधाई प्रणाली में बांधने की बजाए प्रौद्योगिकी को उनके लिए खुला रखा जाना चाहिए, उपकरण एक-दूसरे से जुड़े हों और लोगों का अपने डाटा के ऊपर पूरा नियंत्रण भी बना रहे. ग्रीनफील्ड के मुताबिक, “निशुल्क वाइ-फाइ एक स्मार्ट और जनहितकारी प्रौद्योगिकी हो सकती है.”

इस लिहाज से स्मार्टफोन बेशक ऐसे औजार हैं जिनसे ऐसे कई लक्ष्यों को हासिल किया जा सकता है. मसलन, बंगलुरू में, अगर किसी को कोई खराब स्ट्रीट लाइट दिखती है या कोई गड्ढा मिलता है, तो वह उसकी तस्वीर अपने स्मार्टफोन से लेकर कर्नाटक मोबाइल वन ऐप से भेज सकता है, जहां से यह सूचना इंजीनियरों तक पहुंच जाती है. संपत्ति कर, उपभोक्ता शुल्क अदा करना या टिकट बुक करवाने का काम भी फोन, यहां तक कि साधारण फोन से यूएसएसडी (अनस्ट्रक्ड्ढचर्ड सप्लिमेंटरी सर्विस डेटा) के सहारे संभव है.

श्रीवत्स कृष्णा कहते हैं, “मोबाइल डिजिटल और मॉड्युलर है” जो लोगों को अपने विवेक का इस्तेमाल करने का विकल्प देता है वरना वे बंद दीवारों के बीच सिर्फ उपभोक्ता बनकर रह जाएं. वे कहते हैं, “स्मार्ट शहरों के इंजन स्मार्ट लोग होंगे और स्थानीय सेवाओं को निर्मित करने के लिए उनके विचार ही शहर को स्मार्ट बनाएंगे.” ऐसी ही ऊर्जा को निर्देशित करने की दिशा में कोड फॉर कर्नाटक जैसी पहल अहम प्रयास है.

शहरों को खुद सोचने दें
स्मार्ट शहर की इस महत्वाकांक्षी और सर्वग्राही योजना के पैरोकारों तथा आंतरिक रूप से छोटे स्तर पर ही एक शहर की जरूरत पूरी किए जाने के समर्थकों के बीच यह बहस एक मोड़ पर दर्शनिक दलीलों का रूप ले लेती है. समाजशास्त्री और शहरी मामलों के अध्येता रिचर्ड सेनेट ने एक अत्याधुनिक शहर के कंट्रोल रूम का अपना अनुभव सुनाया, जहां तकनीकी विशेषज्ञ समझ रहे थे कि कैसे दो बिंदुओं को आपस में जोड़कर ट्रैफिक को कम किया जा सकता है. इस पर मेयर ने पूछा, “लेकिन हम इन इलाकों में रहने वालों को आधा कैसे काट सकते हैं?” अपने उदाहरण को समझाते हुए सेनेट कहते हैं कि शहर नियोजन सामाजिक रूप से स्मार्ट होना चाहिए, मामला सिर्फ दो बिंदुओं के बीच न्यूनतम दूरी का नहीं है. वे पूछते हैं, “किसी मानचित्र पर दिख रही स्थितियों के हिसाब से नहीं, लोगों की जीवन की स्थितियों के हिसाब से प्रौद्योगिकी कैसे अपनी चाल तय करेगी?”

केंद्र्र सरकार की योजना का स्वरूप भले अभी शैशवकाल में हो, लेकिन यह शहरों को उनकी प्राथमिकताएं खुद तय करने का अधिकार देती है. नतीजा इससे तय होगा कि चुनने का अधिकार किसके हाथ में होगा—स्थानीय सरकार, नागरिक समूह या निजी परामर्शदाता. हार्वर्ड में कानून के प्रोफेसर जेराल्ड फ्रूग कहते हैं कि स्मार्ट शहरों को स्मार्ट राज्यों की जरूरत है. भारत के संविधान में 74वें संशोधन के मुताबिक शहरों को राजनैतिक सत्ता दिए जाने का प्रावधान किया गया था लेकिन उसे नाकाम कर दिया गया.

अधिकतर शहर अपना राजस्व खुद नहीं जुटा सकते और अपने कामों का प्रबंधन नहीं कर सकते. कुछ विचारकों ने शहरों में मेयर चुने जाने की बात रखी थी, कुछ राज्यों में ऐसा है भी लेकिन कहीं ज्यादा अहम यह है कि शहर प्रशासन को ज्यादा वित्तीय स्वायत्तता दी जाए—और ऐसे तमाम तरीके हैं जिनसे केंद्र्र इस आजादी को प्रोत्साहित कर सकता है. निकट भविष्य में लागू होने वाला माल और सेवा कर संशोधन शहरी प्रशासन को ज्यादा आजादी देने के मामले में एक अवसर साबित हो सकता है. जैसा कि फ्रूग कहते हैं, “शहरों को स्मार्ट होने के लिए जरूरी है कि उन्हें एक मस्तिष्क दिया जाए जो खुद अपने फैसले ले सके बजाए इसके कि रोबोट की तरह आदेश का पालन करे.”

भारत अगर स्मार्ट शहरों को लेकर गंभीर है, तो शहरों को पर्याप्त क्षमताएं प्रदान की जानी चाहिए ताकि वे खुद के बारे में सोच सकें और उसी हिसाब से काम कर सकें.
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