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मंत्रालयों पर मोदी का पुख्ता नियंत्रण, सख्त निगरानी

मंत्रालयों की स्वायत्तता और रुतबे का दौर खत्म हुआ. नरेंद्र मोदी नियंत्रण की ऐसी पुख्ता व्यवस्था बनाने में जुटे जिसमें कोई भी विभाग या मंत्री अपने अधिकार को लेकर आश्वस्त नहीं. ऐसा करके उन्होंने न सिर्फ खुद को बल्कि  प्रधानमंत्री कार्यालय को भी पदानुक्रम में शीर्ष पर स्थापित कर लिया है. लिहाजा, बाकी  सभी मंत्री सतर्क, असहज और लगातार असुरक्षा के भाव में जी रहे हैं.

अपडेटेड 10 नवंबर , 2014

जब यूपीए-1 सरकार में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास ही कोयला मंत्रालय का प्रभार भी था, उस वक्त कार्यप्रणाली से परेशान कोयला राज्यमंत्री दसारी नारायण राव एक दिन अपनी नाराजगी जताने प्रधानमंत्री कार्यालय तक पहुंच गए थे. उनकी शिकायत थी कि कोयला ब्लॉकों के आवंटन के लिए बनाई गई स्क्रीनिंग कमेटी की बैठक की कार्रवाई उनके पास से होकर नहीं गुजर रही, जो नियमों का स्पष्ट उल्लंघन है और यह पीएमओ के नौकरशाहों का अधिकारों के अतिक्रमण का मामला बनता है.

बचाव में पीएमओ की दलील थी कि कोयला ब्लॉक संपन्न राज्यों के प्रतिनिधियों वाली स्क्रीनिंग कमेटी (जो अब बदनाम हो चुकी है) के अध्यक्ष कोयला सचिव थे और कार्रवाई पर उनके दस्तखत हो जाने के बाद बाकी सब कुछ यांत्रिक प्रक्रिया ही रह जाता था. इस तरह बैठक की कार्रवाई पर राज्यमंत्री की स्वीकृति महज औपचारिकता भर रह जाती थी, जिसे  लालफीताशाही का एक अनावश्यक चरण माना जा सकता था.

उस दिन के बाद मनमोहन सिंह ने मध्यमार्ग अपना लिया. उन्होंने अपने अफसरों से कहा कि वे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के अधिकारों का अतिक्रमण न करें और यह आश्वस्त करें कि फाइल संबंधित राज्यमंत्री तक पहुंचे. हालांकि उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि बैठक की कार्रवाई में कोई बदलाव करने का अधिकार राव के पास नहीं होगा. लेकिन, सूत्रों के मुताबिक राव फाइलों को दबाकर बैठ जाते थे और अक्सर संदेह व सवाल खड़े करते रहते थे. इसके बावजूद यह तर्क अपनी जगह बना हुआ था कि निर्वाचित प्रतिनिधि के नेतृत्व में चलने वाले मंत्रालय की उपेक्षा नहीं की जा सकती है.

अब 2014 पर आते हैं. कोयला क्षेत्र में गंभीर बदलावों के प्रति प्रतिबद्घ कोयला मंत्री पीयूष गोयल ने तय किया कि वे कोल इंडिया के चेयरमैन की नियुक्ति का कोई रास्ता फौरन निकालेंगे. उन्होंने मामले को उच्चतम स्तर पर उठाया और इस नतीजे पर पहुंचे कि नियुक्ति प्रक्रिया को सार्वजनिक उद्यम चयन बोर्ड (पीईएसबी) के दायरे से बाहर ले आया जाए. नई प्रक्रिया के तहत एक सर्च कमेटी बनाई जानी थी, नामों की फेहरिस्त बनाई जानी थी और अंततः कोयला मंत्री को नाम पर मुहर लगानी थी. गोयल ने मोदी सरकार के 100 दिन पूरे होने पर अपनी वचनबद्धता के तौर पर इस बाबत प्रेस कॉन्फ्रेंस में बाकायदा घोषणा कर डाली.

हालांकि पीईएसबी ने नई प्रक्रिया पर आपत्तियां उठाईं. इसके एक सप्ताह के भीतर नौकरशाहों ने प्रक्रिया की समीक्षा की और पीएमओ ने तय किया कि चयन को वापस पीईएसबी के दायरे में ले आया जाए. उसके बाद से कोयला मंत्री खुलकर सामने नहीं आए और हालत यह हो गई कि कोयला ब्लॉकों के आवंटन पर अध्यादेश के लिए वे वित्त मंत्री अरुण जेटली के अस्पताल से लौटने का इंतजार करते रहे.
गोयल इस तथ्य से खुद को दिलासा दे सकते हैं कि वे इस मामले में अकेले नहीं हैं. कुछ अहम मंत्रालयों के कैबिनेट मंत्रियों सहित उनके कई मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के पास सुनाने को ऐसी कई कहानियां हैं. ऐसा लग रहा है कि मंत्रालयों की स्वायत्तता और प्रभाव का दौर अब बीत चुका है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नियंत्रण की ऐसी सुगम व्यवस्था बनाने में लगे हैं जिसमें कोई भी विभाग, यहां तक कि कैबिनेट मंत्री भी, अपने अधिकार को लेकर आश्वस्त नहीं है. ऐसा करके उन्होंने न सिर्फ खुद को बल्कि  प्रधानमंत्री कार्यालय को भी पदानुक्रम में शीर्ष पर स्थापित कर लिया है. लिहाजा, बाकी  सभी मंत्री सतर्क, असहज और लगातार असुरक्षा के भाव में जी रहे हैं.
मोदी की आंख और कान बने ये आठ आला अधिकारी
मॉनीटर मोदी
प्रधानमंत्री जिस तेजी से सरकार को चलाने में यकीन रखते हैं, उस लिहाज से उनके लिए यह सामान्य बात है कि वे ज्यादा निगरानी की मांग करें और कोई ऐसा तरीका निकालें जिससे जरूरत पडऩे पर वे खुद नतीजों की पड़ताल कर सकें. इस संदर्भ में ई-समीक्षा पहली नजर में सरकार का एक और सजावटी व असरकारी प्रशासनिक औजार जान पड़ता है, लेकिन यह एक सॉफ्टवेयर से कहीं ज्यादा है. यह ऐसा प्लेटफॉर्म है जिसके जरिए प्रधानमंत्री मंत्रालय के अफसरों के साथ सीधे संवाद कायम कर सकते हैं और इस तरह कैबिनेट मंत्रियों का अतिक्रमण कर जाते हैं.

प्रधानमंत्री के निजी आइपैड पर लोड किए गए इस सॉफ्टवेयर में हर अहम मंत्रालय के साथ संपर्क का एक साधन मौजूद है जिनमें मोटे तौर पर इन्फ्रास्ट्रक्चर, ऊर्जा और अन्य निर्णायक विभाग शामिल हैं. प्रधानमंत्री को भेजे जाने वाले हर अहम संवाद खासकर मुख्यमंत्रियों के संदेश को विषय और विभाग के मुताबिक संबद्ध श्रेणी में डाल दिया जाता है और इसकी निगरानी करने के लिए एक अधिकारी को तैनात किया गया है. किसी भी ‘‘कार्रवाई के बिंदु’’ पर तुरंत नीचे के स्तर पर संवाद भेजा जाता है और अपडेट के तौर पर फीडबैक को प्रधानमंत्री के लिए तैयार कर दिया जाता है. अक्सर ऐसा होता है कि संबद्ध मंत्री को इसकी खबर बाद में लगती है. पहले ऐसा होता था कि सबसे पहले कोई पत्र संबद्ध मंत्रालय को जाता था और सचिव इस बाबत सूचना मंत्री को देता था और जरूरी कार्रवाई करता था.

माना जा रहा है कि कार्रवाई के विभिन्न बिंदुओं पर हर विभाग को हर महीने की पांच तारीख तक अपने फीडबैक को अपडेट करने का निर्देश जारी किया गया है. प्रधानमंत्री और पीएमओ के अधिकारियों की इस प्लेटफॉर्म पर मौजूद हर सूचना तक पहुंच है जबकि मंत्रालय के अधिकारी सिर्फ अपने विभाग से संबंधित सूचनाओं को ही देख सकते हैं. नौकरशाही के भीतर इसे लेकर एक शंका यह जाहिर की जा रही है कि जिस मात्रा में सूचनाएं इस पर नियमित तौर पर डाली जा रही हैं, लंबी दौड़ में ई-समीक्षा अव्यावहारिक हो जाएगी.

रोजमर्रा की प्रक्रियाओं को इस तरह काट-छांट दिया गया है ताकि उनके केंद्र में प्रधानमंत्री बने रह सकें. सारे कैबिनेट नोट पीएमओ को दो बार भेजे जाने की हिदायत दी गई है-पहली बार शुरुआत में जब संबद्ध मंत्रालय परामर्श के लिए नोट भेजेगा और दूसरी बार तब जब परामर्श के बाद अंतिम नोट बनाया जाएगा. इस प्रक्रिया के लिए दो सप्ताह की समय सीमा तय की गई है. पीएमओ को अंतिम नोट देखने के लिए तीन दिन का वक्त होगा और इस बीच और वितरण के लिए इसकी प्रति तैयार नहीं की जा सकती है.

अंदरूनी सूत्रों की मानें तो व्यवहार में हो यह रहा है कि मंत्रालयों को कैबिनेट नोट के अंतिम संस्करण का पता ही नहीं होता और कई अवसरों पर यह पीएमओ के साथ बैठक के दौरान सीधे मेज पर लाया जाता है और कुछ मामलों में तो आखिरी मौके पर इसमें बदलाव कर दिए जाते हैं जिससे संबद्ध मंत्रालय भौचक रह जाता है.

कोई भी मंत्री या सचिव कैबिनेट की बैठक में अपनी आपत्ति दर्ज करा सकता है लेकिन फिर उसे इसकी सफाई देनी होगी कि परामर्श की प्रक्रिया के दौरान उसने इस बात को क्यों नहीं उठाया. यह सब कुछ कैबिनेट सचिवालय से भेजे गए एक विस्तृत पत्र में दिशा-निर्देश के तौर पर बताया जा चुका है.

सूत्रों ने बताया कि कैबिनेट बैठकों में भी विशिष्ट  मसलों पर सिवाए अरुण जेटली जैसे वरिष्ठ मंत्री के या कभी-कभार वेंकैया नायडू या नितिन गडकरी को छोड़कर सामान्यतः कोई मंत्री नहीं बोलता. हर विषय पर फैसले में समय काफी कम लगाया जाता है. कैबिनेट सचिव निर्णय से जुड़ा पैरा पढ़ देते हैं और बगैर खास बहस के उसे मंजूरी दे दी जाती है. अधिकांश वक्त एजेंडे से इतर राजनैतिक मसलों पर खर्च होता है या फिर यह प्रधानमंत्री की मर्जी पर निर्भर करता है, अगर वे कुछ बोलना चाहते हों.

पीएमओ सभी अहम नीतिगत मामलों में सीधे जुड़ा हुआ है. यह पहली बार हुआ है कि किसी प्रधानमंत्री के पास अपने पोर्टफोलियो के हिस्से के तौर पर ‘‘सभी अहम नीतिगत मामले’’ हैं, जिसके चलते मोदी का कार्यालय सिर्फ ई-समीक्षा के माध्यम से ही ट्रांजैक्शन ऑफ बिजनेस नियमों के दायरे में बना रहता है और किसी भी मंत्रालय की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप कर सकता है. गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए भी यह मोदी के पोर्टफोलियो का हिस्सा था.

मसलन, गैस संचालित बिजली उत्पादन इकाइयों को काम शुरू करने के लिए जरूरी है कि गैस पूलिंग मूल्य प्रणाली का मसला हल कर लिया जाए. पीएमओ ने इस विषय को अपने हाथ में ले लिया है और वह अपनी इच्छा के मुताबिक पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस मंत्रालय व ऊर्जा मंत्रालय से एक ‘‘संयुक्त कैबिनेट नौट’’ तैयार करवा रहा है. सरकारों के कामकाज के लिहाज से ऐसा पहली बार हो रहा है. इसका उद्देश्य आयातित और घरेलू स्तर पर उत्पादित गैस को पूल करते हुए गैस के मूल्य को तय करना है.
लाल किले से आदर्श ग्राम योजना की घोषणा से पहले नितिन गडकरी को इसकी जानकारी नहीं थी
हरदम संशय में लेकिन सतर्क
कैबिनेट मंत्रियों की गिरती महत्ता को इस तथ्य से भी जाना जा सकता है कि अधिकतर कैबिनेट नोट पीएमओ के दिशा-निर्देशों के बाद तैयार किए जा रहे हैं. एक अपवाद को छोड़ दें तो किसी भी मंत्रालय ने अब तक अपने आप कोई प्रस्ताव नहीं रखा है. कई अवसरों पर मंत्री इसके चलते दुविधा में फंस गए हैं. एकाध उदाहरण देखेः

  • वाणिज्य और उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमन का आखिरी चरण तक ‘‘मेक इन इंडिया’’ अभियान से कोई लेना-देना नहीं था. यह मोदी की पहल थी जिसके लिए उद्योग सचिव अमिताभ कांत और पीएमओ में संयुक्त सचिव ए.के. शर्मा सीधे संपर्क में थे. जब प्रधानमंत्री ने इस योजना को मंजूरी दे दी, उसके बाद ही सीतारमन से इसके विवरण साझा किए गए और बताया गया कि योजना के लोकार्पण पर उन्हें क्या कहना है.

  • ग्रामीण विकास मंत्री नितिन गडकरी को प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना की जानकारी तब तक नहीं दी गई, जब तक इसकी घोषणा लाल किले की प्राचीर से नहीं हो गई. भाषण के बाद कार्यक्रम को कैबिनेट की स्वीकृति मिली. गडकरी को सिर्फ इतना ही पता था कि इस विचार पर उनके मंत्रालय ने कुछ काम किया है.
  • मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी कौशल विकास पर एक बैठक की अध्यक्षता कर रही थीं कि एक अधिसूचना जारी की गई जिसमें कहा गया कि यह विषय उनके पास से अब युवा मामलों और खेल मंत्रालय के पास चला गया है.
  • कृषि मंत्री राधामोहन सिंह उन विरले मंत्रियों में हैं जिन्होंने अपने बल पर कोई योजना चालू की और वह भी गायों की सुरक्षा पर, लेकिन वे पहले से ही इतने सतर्क थे कि उन्होंने इस विचार पर पीएमओ से परामर्श करने के लिए एक संयुक्त सचिव को तैनात कर डाला. प्रधानमंत्री के विचार जानने के बाद ही वे राष्ट्रीय गोकुल मिशन को कागज पर उतार सके.
  • खाद्य मंत्री रामविलास पासवान ने चीनी मिलों के लिए निर्यात प्रोत्साहन की घोषणा कर डाली थी लेकिन उन्हें इसे वापस लेना पड़ा. पीएमओ और कैबिनेट सचिवालय ने जब उनसे इस बाबत असहज सवाल पूछे तो उन्होंने ‘‘अडिय़ल’’ मिल मालिकों पर दोष डालते हुए कदम वापस खींच लिए. इसी तरह, भारतीय खाद्य निगम के पुनर्गठन के लिए बनाई गई कमेटी का अध्यक्ष कौन होगा, इस बारे में खाद्य मंत्री के नाते उन्हें कोई सूचना नहीं दी गई थी. उन्हें सिर्फ  इतना बताया गया था कि बीजेपी नेता शांता कुमार पैनल के प्रमुख होंगे
जेटली को छोड़ दें तो और कोई भी मंत्री अपने विभाग में अफसरों को नियुक्त नहीं कर सकता या हटा नहीं सकता है. हालांकि डीआरडीओ के अधिकारियों के सेवा विस्तार के मामले में जेटली को भी एकाध झटके झेलने पड़े थे. सूत्र बताते हैं कि हर नियुक्ति या बदलाव के लिए इन्हें पीएमओ की मंजूरी की दरकार होती है.
कोल इंडिया के चेयकमैन की नियुक्ति के लिए कोयला मंत्री पीयूष गोयल की प्रक्रिया पलट दी गई
अपनी शुरुआती कैबिनेट बैठकों में मोदी ने मंत्रियों को राजनैतिक नियुक्तियों के खिलाफ  आगाह किया था और उनसे कहा था कि वे खाली पदों की पहचान करें, योग्यता के मानक बताएं और पार्टी संगठन के साथ सलाह-मशविरा करके उपयुक्त उम्मीदवार की तलाश करें. यह संदेश जैसे-जैसे नीचे गया है, मंत्रियों पर दबाव काफी कम हुआ है हालांकि उनकी साख भी कम हुई है. एक मंत्री के सहायक ने बताया, ‘‘आवेदकों की संख्या कम हुई है क्योंकि वे जान रहे हैं कि मंत्री अकेले नियुक्ति नहीं करवा सकता.’’

एक मामला तो ऐसा आया जिसमें एक कैबिनेट मंत्री उम्मीदवार के लिए एक आरएसएस प्रचारक के पास चला गया ताकि उस पर कोई आरोप न लगने पाए. प्रकाश जावडेकर जैसे असरदार मंत्री के बारे में खबर है कि उन्होंने अपने अफसरों को निर्देश दिया है कि सारे रिक्त पदों को भरने से पहले नामांकन के लिए सूचना पीएमओ को भेजी जाए-जैसा कि नेशनल बोर्ड ऑफ  वाइल्ड लाइफ के मामले में हुआ था.

पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान अब भी आलाकमान से फैसले का इंतजार कर रहे हैं कि उनके मंत्रालय के अंतरराष्ट्रीय सहयोग प्रकोष्ठ का मुखिया कोई आइएएस होगा या आइएफएस अफसर. गोयल और अन्य मंत्रियों की ही तरह उनकी भी एक बड़ी दिक्कत सार्वजनिक उपक्रमों के बोर्ड में स्वतंत्र निदेशकों की नियुक्ति को लेकर है. राजनैतिक दिशा-निर्देश के तहत यूपीए द्वारा नियुक्त प्रतिनिधियों को हटाए जाने के बाद कोई मंत्री नाम नहीं छांट रहा है क्योंकि उसे प्रधानमंत्री की ओर से ताजा निर्देशों की प्रतीक्षा है.

हालत यह है कि ताकतवर मंत्री माने जाने वाले नितिन गडकरी भी अपने भरोसेमंद सहयोगी विनय सहस्रबुद्धे को ग्रामीण विकास मंत्रालय में नहीं रखवा पाए जबकि पासवान को अपने पुराने सहयोगी ओ.पी. राठी को सरकार के भीतर घुसाने के लिए भारतीय खाद्य निगम में रखवाना पड़ा.
महिला और बाल विकास मंत्री मेनका गांधी को भी राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष पद पर नाम चुनने के मामले में समझौता करना पड़ा जिस पर पार्टी की ओर से नामित उम्मीदवार ललिता कुमारमंगलम को बैठाया गया.
यहां तक कि मोदी की बहुप्रचारित करीबी स्मृति ईरानी ने भी अब निजी प्रस्ताव रखने बंद कर दिए हैं जब तक कि उनसे विशेष आग्रह नहीं किया जाता. तीन संयुक्त सचिवों को विस्तार देने के उनके कदम को पीएमओ के ठुकराए जाने के बाद ऐसा हुआ है. आरएसएस की ओर से लगातार बनाए जा रहे दबाव और अपने संरक्षक यानी प्रधानमंत्री को प्रभावित करने की कवायद (जिन्हें वे ‘‘सर’’ कहती हैं) के बीच पिस कर ऐसा लगता है कि ईरानी को फैसले लेने में बहुत दिक्कत आ रही है. सैकड़ों फाइलें मंजूरी के लिए लंबित पड़ी हैं और इस मामले में उनकी मदद करने के लिए करीबी सहयोगी व एबीवीपी के पूर्व सदस्य संजय काचरू दिन-रात एक किए हुए हैं जबकि मंत्रालय में उनकी मौजूदगी आधिकारिक नहीं है. मानव संसाधन विकास मंत्री के कार्यालय के माध्यम से आधिकारिक दस्तावेजों तक काचरू की अबाध पहुंच मंत्रालय की आंखों में लगातार गड़ रही है.

विदेश दौरे भी ऐसा ही एक विषय है जिस मामले में कैबिनेट मंत्री खुद को कमजोर महसूस कर रहे हैं. हर दौरे के बाद उन्हें पीएमओ को इस पर एक रिपोर्ट सौंपनी होती है. मोदी ने अपने ताजा दिशा-निर्देशों में स्पष्ट कर दिया है कि चाहे निजी हो या सरकारी, हर दौरे के लिए राजनैतिक मंजूरी लेनी होगी. कम-से-कम दस दिन पहले इस संबंध में एक अनुरोध भेजा जाना होगा. पहले यह अवधि पांच दिनों की थी. सबसे अहम बात यह है कि इसमें बाहर जाने के विस्तृत कारणों पर एक नोट होना चाहिए और लौटने के बाद रिपोर्ट जमा करवाई जानी होगी.

यहां तक कि सचिवों को भी विदेश दौरों से दूर रहने को कहा गया है और जहां कहीं संभव हो, कनिष्ठ अधिकारियों को भेजने की सलाह दी गई है. नतीजतन, मंत्री अब इस मामले में कोई खतरा नहीं उठाना चाह रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि ऊपर से कहीं मना न कर दिया जाए. कुछ धुरंधर प्रचारकों ने हालांकि बाहर के दौरे शुरू कर दिए हैं.
स्मृति ईरानी को फैसले लेने में दिक्कत आ रही है
लौह महिला की झलक
नियंत्रण कायम करने में प्रभावी संचार की भूमिका निर्णायक होती है और इस मामले में पीएमओ काफी सचेत है.
इसीलिए हर सुबह नौ बजे सूचना-प्रसारण सचिव सरकार की सभी अहम संचार इकाइयों समेत आकाशवाणी और दूरदर्शन के प्रमुखों के साथ बैठक करते हैं जिसमें यह तय किया जाता है कि प्रधानमंत्री को मीडिया में कैसे प्रस्तुत किया जाएगा और दिन भर की गतिविधियां क्या होंगी.

यह काम अब सिर्फ दूरदर्शन या आकाशवाणी के जिम्मे नहीं छोड़ा जा रहा है. सूचना-प्रसारण सचिव खुद इसकी निगरानी करते हैं और इसकी रिपोर्ट पीएमओ को देते हैं, जहां उन्हें अक्सर स्वच्छ भारत अभियान जैसे कार्यक्रमों पर चर्चा करने के लिए तलब कर लिया जाता है जबकि संबद्ध मंत्री को इसकी कोई खबर तक नहीं होती.

मोदी एक-एक विवरण को जानने में दिलचस्पी रखते हैं. मसलन, स्वच्छ भारत अभियान के लोकार्पण के लिए वे चाहते थे कि घरों में पतंग उड़ाई जाएं जिन पर अभियान का संदेश लिखा हो, क्योंकि उनका दावा था कि गुजरात में उन्होंने सफलतापूर्वक ऐसा किया है. यह योजना हालांकि परवान नहीं चढ़ पाई क्योंकि देश भर में इसे लागू करना मुश्किल था.

मोदी और उनके कार्यालय के लिए सूचना माध्यमों को नियंत्रित करने व उन पर वर्चस्व बनाए रखने का काम राजनैतिक मायने रखता है. सोशल मीडिया में मोदी की छवि के प्रबंधन के अलावा पीएमओ में परदे के पीछे के सारे काम का जिम्मा मोदी की भरोसेमंद तिकड़ी प्रतीक दोषी, हेमांग जानी और हिरेन जोशी के हाथों में है. सूचना-प्रसारण मंत्रालय की नौकरशाही यह देखने में लगी रहती है कि सरकारी स्तर पर कहीं कोई गड़बड़ी न होने पाए. प्रधानमंत्री खुद हर शाम गुजरात के अपने पुराने सहयोगी जगदीश ठक्कर से मीडिया में आई प्रतिक्रियाओं पर जानकारी लेते हैं जबकि दोषी सोशल मीडिया में आए फीडबैक से मोदी को अवगत कराते हैं.

ऐसा सीधा नियंत्रण अतीत की कांग्रेसनीत बहुमत वाली सरकारों के दिनों की याद दिलाता है. पूर्व कैबिनेट सचिव नरेश चंद्रा ने इंडिया टुडे को बताया कि यह तरीका बिल्कुल इंदिरा गांधी जैसा है. उन्होंने कहा, ‘‘लेकिन उस दौर में यह नियंत्रण दिल्ली से बाहर राज्यों और उनके मुख्यमंत्रियों तक फैला हुआ था जो निजी सचिव से निर्देश प्राप्त किया करते थे. ये लोग अभी उस चरण तक नहीं पहुंचे हैं.’’
चंद्रा का हालांकि मानना है कि कुछ बदलाव ऐसे हैं जो ‘‘सुधार के लिहाज से अनिवार्य’’ थे क्योंकि पीएमओ और कैबिनेट सचिवालय के ‘‘समन्वय के अधिकारों’’ की पिछली सरकार में काफी अनदेखी हुई थी. वे कहते हैं, ‘‘जहां तक मंत्रियों की बात है, चूंकि कुछ को छोड़ कर बाकी सभी में अनुभव की कमी है इसलिए यह जरूरी बन गया है. लेकिन कुल मिलाकर, यह (मंत्रियों की घटती प्रासंगिकता) नहीं होना चाहिए. वे लगातार फेरबदल और कैबिनेट में आने वाले नए चेहरों को लेकर सशंकित हैं. दूसरी ओर, बड़े-बड़े बयानों के बावजूद नियम और प्रक्रियाएं पहले जैसी ही हैं. तो फिर वे नतीजे कैसे देंगे? मुझे उम्मीद है कि आगे इसमें कुछ बदलाव होगा. फिलहाल तो स्थिति यही है कि कमान पीएमओ के हाथ में है.’’

हाल ही में ब्रिटेन के रक्षा सचिव माइकल फैलन भारत के आधिकारिक दौरे पर आए थे. जेटली के साथ बैठक में उन्हें शायद सबसे बेहतर समझ में आया कि आखिर वास्तविक स्थिति क्या है. बातचीत की शुरुआत फैलन ने की जब वे गिनाने लगे कि मार्गरेट थैचर की सरकार में एक कनिष्ठ मंत्री के तौर पर उनके अनुभव क्या थे. कैसे वे अनुशासन लागू करती थीं और युवा नेताओं से नतीजों की मांग करती थीं. अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि इस बिंदु पर जेटली ने फैलन को बताया कि मोदी के साथ भी ऐसा ही है, जहां सारा जोर नतीजे देने पर है और इसमें विदेशी सरकारों से वादे निभाने की भी बात शामिल है.

अगर पिछले दस साल के दौरान कांग्रेस यह साबित करने की कोशिश में जुटी रही कि वह एक गठबंधन की सरकार को पूरे कार्यकाल तक चला सकती है-जैसा कि प्रणब मुखर्जी जैसे उसके नेता जोर देकर कहते भी थे-तो कई मामलों में ऐसा लगता है कि मोदी सरकार में बीजेपी यह साबित करने की कोशिश में है कि वह प्रभावी कमान और नियंत्रण के साथ बहुमत की सरकार को चला सकती है.

(साथ में रवीश तिवारी और अनुभूति बिश्नोई  )

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