साउथ ब्लॉक की पहली मंजिल पर बलुआ पत्थर के बने विशाल अशोक स्तंभ के पास तैनात संतरी रोजाना दिन के ढाई बजे सावधान की मुद्रा में आ जाते हैं. यह समय अरुण जेटली के कमरा नंबर 134 स्थित अपने लकड़ी के पैनलों से बने दफ्तर में दाखिल होने का है. वे कुछ ही दूरी पर नॉर्थ ब्लॉक स्थित वित्त मंत्रालय के अपने दफ्तर से रोज इस समय यहां आते हैं. सौ दिन से ज्यादा होने को आए, जब रोजाना जगह बदलती है और इस देश का वित्त मंत्री एक कर्मकांड की तरह रक्षा मंत्री का अवतार ले लेता है.
समस्या यह है कि रक्षा मंत्रालय के समक्ष जो चुनौतियां हैं, वे लगातार कायम हैं. वैसे ही जैसे ये समस्याएं स्थायी तौर पर देश के सैन्यबलों के साथ जुड़ी हैं, जो फिलहाल बाढ़ प्रभावित जम्मू और कश्मीर में अभूतपूर्व मानवीय राहत अभियान में जुटे हुए हैं.
पूर्व रक्षा सचिव अजय विक्रम सिंह कहते हैं, ‘‘रक्षा मंत्रालय पूरी तवज्जो की मांग करता है. मौजूदा व्यवस्था न सिर्फ दोनों मंत्रालयों बल्कि उसके प्रभारी के लिए भी अन्यायपूर्ण है.’’
पिछले एक दशक के दौरान मंत्रालय का नीतिगत अनिर्णय, हथियारों की अव्यवस्थित खरीद नीति, घरेलू स्तर पर उन्हें बनाने की लचर क्षमता और अहम उपकरणों के अभाव में साफ झलकता है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का दावा इस तथ्य से ही धुंधला जाता है कि लगातार तीन साल से यह देश रक्षा उपकरणों का दुनिया का सबसे बड़ा विशुद्ध आयातक बना हुआ है और पी5 के देशों से अपनी जरूरत का 60 फीसदी या कहें 83,458 करोड़ रु. के हथियार खरीदता है.
दूसरी ओर चीन है, जिसे निकट भविष्य में हमारी सशस्त्र सेनाएं अपने लिए बड़े सैन्य रणनीतिक खतरे के रूप में देखती हैं. वह दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों का खरीदार हुआ करता था लेकिन आज की तारीख में पांचवां सबसे बड़ा हथियार निर्यातक है.
अरुण जेटली को बहुत मेहनत नहीं करनी पड़ती. रक्षा मंत्रालय के अफसरों की मानें तो वे काफी जल्दी चीजों को समझ लेते हैं और तुरंत फैसला लेते हैं. उनके मंत्रालय ने हाल ही में रक्षा उद्योग में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) बढ़ाकर 49 फीसदी किया है जो एक दशक से लंबित था. उन्होंने हथियारों के सौदागरों से निबटने की ऐसी नीति बनाई है जो उन्हें उनके पूर्ववर्ती मंत्री ए.के. एंटनी के बरअक्स काफी आगे खड़ी करती है, जिनके पास ब्लैकलिस्ट करने का इकलौता नुस्खा होता था.
इस बात के शुरुआती संकेत मिल रहे हैं कि सरकार घरेलू स्तर पर रक्षा उत्पादन को प्रोत्साहन देने पर जोर देगीः जेटली ने भारतीय उद्योगों को 197 लाइट यूटिलिटी हेलिकॉप्टर बनाने का ठेका दिया है जिसकी कीमत एक अरब डॉलर से ज्यादा है. रक्षा मंत्रालय ने पहले इन्हें आयात करने की योजना बनाई थी.
आने वाले महीनों में रक्षा मंत्री को बेकार पड़ चुके डिफेंस इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स को भी दुरुस्त करने की जरूरत होगी जो भारी निवेश के बावजूद नतीजे नहीं दे रहा. अकेले आयुध कारखाना बोर्ड सालाना 1,200 करोड़ रु. डकार जाता है जबकि क्षमता के मामले में वह बेकार हो चुका है.
एक इनफैन्ट्री कॉम्बैट वेहिकल को दुरुस्त करने के लिए वह रक्षा मंत्रालय से 1.4 करोड़ रु. लेता है जबकि इसकी कीमत 20 लाख रु. होनी चाहिए. फिलहाल पूरी निर्भरता बाहरी स्रोतों पर है. भारत के पास सिर्फ दो स्वदेशी रक्षा प्लेटफॉर्म हैं जिसे उसने बनाया है और जिनके निर्यात की वह पेशकश कर सकता हैरू एक पिनाका मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर और दूसरा धरती से हवा में मार करने वाली आकाश मिसाइल.
आयात पर हमारी निर्भरता ने घरेलू तैयारियों को बट्टा लगाया है. भारतीय वायु सेना के एक अधिकारी निराश स्वर में बताते हैं कि कैसे 100 एएन-32 ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट को अपग्रेड करने के लिए यूक्रेन के साथ भारत का संयुक्त प्रोजेक्ट अधर में लटका है. आधुनिकीकरण के लिए यूक्रेन भेजे गए पांच एएन-32 वहां रूस के साथ तनाव की वजह से अटके पड़े हैं. यूक्रेन के कारखानों से भारत को सुखोई एसयू-30 और मिग-29 के लिए प्राइमरी लांग रेन्ज मिसाइल, आर-27 और गैस टर्बाइनों की भी आपूर्ति की जाती है जो भारत के मौजूदा अग्रगामी नौसेना युद्धपोतों को संचालित करने के काम आती हैं.
भारत में सैन्य गड़बडिय़ों के केंद्र में यहां का रक्षा मंत्रालय है जो आधुनिकीकरण का बुनियादी ढांचा मुहैया कराने की अपनी भूमिका निभा पाने में अक्षम है. रक्षा मंत्रालय हथियार डिजाइन करने वाले रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ), उन्हें बनाने वाले सार्वजनिक उपक्रमों और सैन्यबलों के बीच दूरी को पाटने में नाकाम रहा है. यह खरीद को वरीयता के आधार पर निबटाने में नाकाम रहा है. यह फिलहाल फर्स्ट पास्ट द पोस्ट (बहुमत आधारित) खरीद प्रणाली अपनाता है.
हो सकता है कि असल दिक्कत एक समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के अभाव की हो जिसमें विदेश, आर्थिक और सामरिक नीति के उद्देश्यों का ऐसा एकीकरण होता है जो आधुनिकीकरण के कार्यक्रम के दिशा निर्देशक का काम कर सके. इसकी बजाए रक्षा नियोजन ‘‘रक्षा मंत्री के परिचालनात्मक निर्देश्य्य नामक एक पतले से दस्तावेज से निकलता है जिसे हर पांच साल पर जारी किया जाता है. यही निर्देश हर किस्म के हार्डवेयर की खरीद को संचालित करते हैं और भारत की रक्षा तैयारियों को आकार देते हैं. ये निर्देश हालांकि खुद सैन्यबलों की सिफारिशों पर आधारित होते हैं.
तीनों सशस्त्र बलों का इकलौता विजन स्टेटमेंट 15 वर्षीय लांग टर्म इंटिग्रेटेड पर्सपेक्टिव प्लान है जो हार्डवेयर खरीद की सूची है. हथियारों की खरीद में प्राथमिकता को लेकर तीनों सेवाओं के बीच इसकी वजह से मारामारी की स्थिति बनी रहती है जहां सारा जोर क्षमता नियोजन की बजाए प्लेटफॉर्म के बदलने पर होता है. नतीजा यह होता है कि तीनों सेवाएं अलग-थलग काम करती रह जाती हैं. इनमें तालमेल एक पूर्णकालिक चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) की कमी की वजह से प्रभावित होता है जिसकी सिफारिश करगिल समीक्षा समिति ने 2001 में की थी.
इंटिग्रेटेड डिफेंस स्टाफ का मुख्यालय पहले से अस्तित्व में है जहां 300 से ज्यादा रह्ना सेवा अधिकारी बैठते हैं, इसके बावजूद सीडीएस की नियुक्ति होना अब भी बाकी है. मुख्यालय के सुझाए गए निर्णायक सुधारों की सर्विसेज ने उपेक्षा कर दी है. इनमें लॉजिस्टिक्स कमान शामिल था जो सभी तीन सेवाओं के लिए आपूर्ति खरीद को संचालित कर पाता. शीर्ष अधिकारी ऐसी रिपोर्टों को तुरंत मंजूर कर लेते हैं जो उनके साम्राज्य का विस्तार करती हैं और इसी तरह उन रिपोर्टों को तत्काल खारिज भी कर देते हें जो उनके अधिकार क्षेत्र में कटौती करने का प्रस्ताव देती हैं.
कुल 2.2 लाख करोड़ रु. के रक्षा बजट का करीब साठ फीसदी मानव संसाधन पर खर्च हो जाता है. 40 फीसदी बचता है जिससे आपात स्थिति में सेवाओं के लिए हेलिकॉप्टर, पनडुब्ब्यिां और लड़ाकू विमान खरीदे जा सकें. उस पर से खरीद की जो लचर व्यवस्था है, उससे प्रतिस्पर्धी बोलियों के रास्ते किसी भी हथियार प्रणाली को खरीदने में रक्षा मंत्रालय को करीब आठ साल लग जाते हैं. डीआरडीओ के प्रोजेक्ट में देरी तो इतनी कुख्यात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में उसके ‘‘चलता है’’ वाले रवैए पर चेतावनी के लहजे में कहा था, ‘‘दुनिया हमारा इंतजार नहीं करेगी.’’
जिसे सबसे ज्यादा इंतजार है, वह सिर्फ इस देश का फौजी है. उसे आरामदेह कॉम्बैट बूट, हल्के बुलेप्रूफ वेस्ट और विश्वसनीय एसॉल्ट राइफल का इंतजार है. थल सेना को आधुनिक युद्धक किट मुहैया कराने की व्यवस्थागत नाकामी का नतीजा है कि फौजियों को अपनी कारतूस पेटी में एक लीटर वाली पानी की बोतल खोंस कर ले जाना पड़ता है क्योंकि उसकी बेल्ट में सेना वाली बोतलें लटकाने के लिए लूप नहीं होता.

भारतीय रक्षा प्रणाली में आया ठहराव कोई गोपनीय चीज नहीं है. रक्षा मंत्रालय को पिछले दशक भर से ज्यादा अवधि के दौरान कम से कम आधा दर्जन रिपोर्टें दी गई हैं जिनमें सुधार के लिए आवाज उठाई गई है. एक करगिल रिव्यू कमेटी 2001 में बनी थी जिसकी वजह से मंत्री समूहों की रिपोर्ट जारी की गई, जिसने समूचे ढांचे के कायाकल्प की सिफारिश की थी.
उसके बाद 2005 में विजय कुमार केलकर कमेटी बनी जिसने स्वदेशी रक्षा उत्पादन को प्रोत्साहन देने की बात कही. फिर 2012 में राष्ट्रीय सुरक्षा पर नरेश चंद्रा कार्यबल का गठन किया गया जिसने विशेष ऑपरेशन, स्पेस और साइबर हमलों की नई चुनौतियों से निबटने के लिए रक्षा बलों का ढांचा दोबारा गढ़े जाने की सिफारिश की थी.
इनमें से किसी भी रिपोर्ट को पूरी तरह लागू नहीं किया गया. संकटग्रस्त आयुध कारखाना बोर्ड को कॉर्पोरेट रूप देने और निजी क्षेत्र के लिए इसे खोलने की सिफारिश करने वाली केलकर कमेटी की रिपोर्ट को कथित तौर पर ठंडे बस्ते में इसलिए डाल दिया गया क्योंकि तत्कालीन रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ताकतवर ट्रेड यूनियनों को नाराज नहीं करना चाहते थे.
रक्षा मंत्रालय और सशस्त्र बलों ने उन आंतरिक सुधारों को जबरदस्ती रोके रखा है जो रक्षा बजट को बढ़ाने के दबाव को आंशिक तौर पर कम कर सकते हैं. रक्षा मंत्रालय की 2011 की आंतरिक वित्तीय रिपोर्टों के मुताबिक हर साल 5,400 करोड़ रु. से ज्यादा की राशि बरबाद हो रही है. मसलन, सेना सेवा कोर 2,122 करोड़ रु. की खाद्य सामग्री की खरीद करती है जबकि कार्यबल पर 1,500 करोड़ रु. खर्च करती है. यह खरीद कीमत का 70 फीसदी है (भारतीय खाद्य निगम की खरीद कीमत 16 फीसदी है).
रक्षा मंत्रालय संचालित सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) के करीब 75 फीसदी इंजीनियर फील्ड की बजाए प्रशासकीय कार्यों में लगाए गए हैं. यह स्थिति तब है जब उत्तर और पूर्वोत्तर में 13,000 किलोमीटर से ज्यादा लंबी 200 से ज्यादा रणनीतिक सड़कों के निर्माण का काम तय समय सीमा से बरसों पीछे चल रहा है.
उच्च कीमत वाली रक्षा खरीद-जैसे 60,000 करोड़ रु. की कीमत में नौसेना के लिए छह नई पारंपरिक पनडुब्बियों के आयात और निर्माण की आवश्यकता-आलोचनात्मक समीक्षा के दायरे में नहीं आती है. इसी तरह 23,000 करोड़ रु. की लागत से छह स्कॉर्पीन पनडुब्बियों को भारत में बनाने का 2005 में दिया गया ठेका अपनी समय सीमा से पांच साल पीछे चल रहा है और इसमें अब तक टेक्नोलॉजी हस्तांतरण नहीं हुआ है.
एफडीआइ बढ़ाने से टेक्नोलॉजी नहीं आएगी. निजी क्षेत्र की एक रक्षा कंपनी के सीईओ कहते हैं, ‘‘अगर ऐसा ही होता, तो भारत को मोबाइल फोन हैंडसेट का वैश्विक केंद्र होना चाहिए था क्योंकि यहां तो बरसों से दूरसंचार में 100 फीसदी एफडीआइ लागू है.’’ यहां तक कि सुखोई आदि के लाइसेंस आधारित उत्पादन का वैकल्पिक रास्ता भी इसका जवाब नहीं है.
आइडीएस के पूर्व प्रमुख वाइस एडमिरल रमन पुरी कहते हैं, ‘‘लाइसेंसी निर्माण स्वेदशी स्तर पर डिजाइन और विकसित किए गए हार्डवेयर को बनाने की हमारी क्षमता का नुकसान करते हैं.’’ इस गड़बड़ी को दुरुस्त करने के लिए समय, प्रयास और राजनैतिक इच्छाशक्ति की दरकार है. इसके लिए ऐसे रक्षा मंत्री की जरूरत है जो सुधारों के रास्ते पर आगे कदम बढ़ा सके.
समस्या यह है कि रक्षा मंत्रालय के समक्ष जो चुनौतियां हैं, वे लगातार कायम हैं. वैसे ही जैसे ये समस्याएं स्थायी तौर पर देश के सैन्यबलों के साथ जुड़ी हैं, जो फिलहाल बाढ़ प्रभावित जम्मू और कश्मीर में अभूतपूर्व मानवीय राहत अभियान में जुटे हुए हैं.
पूर्व रक्षा सचिव अजय विक्रम सिंह कहते हैं, ‘‘रक्षा मंत्रालय पूरी तवज्जो की मांग करता है. मौजूदा व्यवस्था न सिर्फ दोनों मंत्रालयों बल्कि उसके प्रभारी के लिए भी अन्यायपूर्ण है.’’
पिछले एक दशक के दौरान मंत्रालय का नीतिगत अनिर्णय, हथियारों की अव्यवस्थित खरीद नीति, घरेलू स्तर पर उन्हें बनाने की लचर क्षमता और अहम उपकरणों के अभाव में साफ झलकता है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का दावा इस तथ्य से ही धुंधला जाता है कि लगातार तीन साल से यह देश रक्षा उपकरणों का दुनिया का सबसे बड़ा विशुद्ध आयातक बना हुआ है और पी5 के देशों से अपनी जरूरत का 60 फीसदी या कहें 83,458 करोड़ रु. के हथियार खरीदता है.
दूसरी ओर चीन है, जिसे निकट भविष्य में हमारी सशस्त्र सेनाएं अपने लिए बड़े सैन्य रणनीतिक खतरे के रूप में देखती हैं. वह दुनिया का सबसे बड़ा हथियारों का खरीदार हुआ करता था लेकिन आज की तारीख में पांचवां सबसे बड़ा हथियार निर्यातक है.

इस बात के शुरुआती संकेत मिल रहे हैं कि सरकार घरेलू स्तर पर रक्षा उत्पादन को प्रोत्साहन देने पर जोर देगीः जेटली ने भारतीय उद्योगों को 197 लाइट यूटिलिटी हेलिकॉप्टर बनाने का ठेका दिया है जिसकी कीमत एक अरब डॉलर से ज्यादा है. रक्षा मंत्रालय ने पहले इन्हें आयात करने की योजना बनाई थी.
आने वाले महीनों में रक्षा मंत्री को बेकार पड़ चुके डिफेंस इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स को भी दुरुस्त करने की जरूरत होगी जो भारी निवेश के बावजूद नतीजे नहीं दे रहा. अकेले आयुध कारखाना बोर्ड सालाना 1,200 करोड़ रु. डकार जाता है जबकि क्षमता के मामले में वह बेकार हो चुका है.
एक इनफैन्ट्री कॉम्बैट वेहिकल को दुरुस्त करने के लिए वह रक्षा मंत्रालय से 1.4 करोड़ रु. लेता है जबकि इसकी कीमत 20 लाख रु. होनी चाहिए. फिलहाल पूरी निर्भरता बाहरी स्रोतों पर है. भारत के पास सिर्फ दो स्वदेशी रक्षा प्लेटफॉर्म हैं जिसे उसने बनाया है और जिनके निर्यात की वह पेशकश कर सकता हैरू एक पिनाका मल्टी बैरल रॉकेट लॉन्चर और दूसरा धरती से हवा में मार करने वाली आकाश मिसाइल.
आयात पर हमारी निर्भरता ने घरेलू तैयारियों को बट्टा लगाया है. भारतीय वायु सेना के एक अधिकारी निराश स्वर में बताते हैं कि कैसे 100 एएन-32 ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट को अपग्रेड करने के लिए यूक्रेन के साथ भारत का संयुक्त प्रोजेक्ट अधर में लटका है. आधुनिकीकरण के लिए यूक्रेन भेजे गए पांच एएन-32 वहां रूस के साथ तनाव की वजह से अटके पड़े हैं. यूक्रेन के कारखानों से भारत को सुखोई एसयू-30 और मिग-29 के लिए प्राइमरी लांग रेन्ज मिसाइल, आर-27 और गैस टर्बाइनों की भी आपूर्ति की जाती है जो भारत के मौजूदा अग्रगामी नौसेना युद्धपोतों को संचालित करने के काम आती हैं.
भारत में सैन्य गड़बडिय़ों के केंद्र में यहां का रक्षा मंत्रालय है जो आधुनिकीकरण का बुनियादी ढांचा मुहैया कराने की अपनी भूमिका निभा पाने में अक्षम है. रक्षा मंत्रालय हथियार डिजाइन करने वाले रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ), उन्हें बनाने वाले सार्वजनिक उपक्रमों और सैन्यबलों के बीच दूरी को पाटने में नाकाम रहा है. यह खरीद को वरीयता के आधार पर निबटाने में नाकाम रहा है. यह फिलहाल फर्स्ट पास्ट द पोस्ट (बहुमत आधारित) खरीद प्रणाली अपनाता है.
हो सकता है कि असल दिक्कत एक समग्र राष्ट्रीय सुरक्षा नीति के अभाव की हो जिसमें विदेश, आर्थिक और सामरिक नीति के उद्देश्यों का ऐसा एकीकरण होता है जो आधुनिकीकरण के कार्यक्रम के दिशा निर्देशक का काम कर सके. इसकी बजाए रक्षा नियोजन ‘‘रक्षा मंत्री के परिचालनात्मक निर्देश्य्य नामक एक पतले से दस्तावेज से निकलता है जिसे हर पांच साल पर जारी किया जाता है. यही निर्देश हर किस्म के हार्डवेयर की खरीद को संचालित करते हैं और भारत की रक्षा तैयारियों को आकार देते हैं. ये निर्देश हालांकि खुद सैन्यबलों की सिफारिशों पर आधारित होते हैं.
तीनों सशस्त्र बलों का इकलौता विजन स्टेटमेंट 15 वर्षीय लांग टर्म इंटिग्रेटेड पर्सपेक्टिव प्लान है जो हार्डवेयर खरीद की सूची है. हथियारों की खरीद में प्राथमिकता को लेकर तीनों सेवाओं के बीच इसकी वजह से मारामारी की स्थिति बनी रहती है जहां सारा जोर क्षमता नियोजन की बजाए प्लेटफॉर्म के बदलने पर होता है. नतीजा यह होता है कि तीनों सेवाएं अलग-थलग काम करती रह जाती हैं. इनमें तालमेल एक पूर्णकालिक चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) की कमी की वजह से प्रभावित होता है जिसकी सिफारिश करगिल समीक्षा समिति ने 2001 में की थी.
इंटिग्रेटेड डिफेंस स्टाफ का मुख्यालय पहले से अस्तित्व में है जहां 300 से ज्यादा रह्ना सेवा अधिकारी बैठते हैं, इसके बावजूद सीडीएस की नियुक्ति होना अब भी बाकी है. मुख्यालय के सुझाए गए निर्णायक सुधारों की सर्विसेज ने उपेक्षा कर दी है. इनमें लॉजिस्टिक्स कमान शामिल था जो सभी तीन सेवाओं के लिए आपूर्ति खरीद को संचालित कर पाता. शीर्ष अधिकारी ऐसी रिपोर्टों को तुरंत मंजूर कर लेते हैं जो उनके साम्राज्य का विस्तार करती हैं और इसी तरह उन रिपोर्टों को तत्काल खारिज भी कर देते हें जो उनके अधिकार क्षेत्र में कटौती करने का प्रस्ताव देती हैं.
कुल 2.2 लाख करोड़ रु. के रक्षा बजट का करीब साठ फीसदी मानव संसाधन पर खर्च हो जाता है. 40 फीसदी बचता है जिससे आपात स्थिति में सेवाओं के लिए हेलिकॉप्टर, पनडुब्ब्यिां और लड़ाकू विमान खरीदे जा सकें. उस पर से खरीद की जो लचर व्यवस्था है, उससे प्रतिस्पर्धी बोलियों के रास्ते किसी भी हथियार प्रणाली को खरीदने में रक्षा मंत्रालय को करीब आठ साल लग जाते हैं. डीआरडीओ के प्रोजेक्ट में देरी तो इतनी कुख्यात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में उसके ‘‘चलता है’’ वाले रवैए पर चेतावनी के लहजे में कहा था, ‘‘दुनिया हमारा इंतजार नहीं करेगी.’’
जिसे सबसे ज्यादा इंतजार है, वह सिर्फ इस देश का फौजी है. उसे आरामदेह कॉम्बैट बूट, हल्के बुलेप्रूफ वेस्ट और विश्वसनीय एसॉल्ट राइफल का इंतजार है. थल सेना को आधुनिक युद्धक किट मुहैया कराने की व्यवस्थागत नाकामी का नतीजा है कि फौजियों को अपनी कारतूस पेटी में एक लीटर वाली पानी की बोतल खोंस कर ले जाना पड़ता है क्योंकि उसकी बेल्ट में सेना वाली बोतलें लटकाने के लिए लूप नहीं होता.

भारतीय रक्षा प्रणाली में आया ठहराव कोई गोपनीय चीज नहीं है. रक्षा मंत्रालय को पिछले दशक भर से ज्यादा अवधि के दौरान कम से कम आधा दर्जन रिपोर्टें दी गई हैं जिनमें सुधार के लिए आवाज उठाई गई है. एक करगिल रिव्यू कमेटी 2001 में बनी थी जिसकी वजह से मंत्री समूहों की रिपोर्ट जारी की गई, जिसने समूचे ढांचे के कायाकल्प की सिफारिश की थी.
उसके बाद 2005 में विजय कुमार केलकर कमेटी बनी जिसने स्वदेशी रक्षा उत्पादन को प्रोत्साहन देने की बात कही. फिर 2012 में राष्ट्रीय सुरक्षा पर नरेश चंद्रा कार्यबल का गठन किया गया जिसने विशेष ऑपरेशन, स्पेस और साइबर हमलों की नई चुनौतियों से निबटने के लिए रक्षा बलों का ढांचा दोबारा गढ़े जाने की सिफारिश की थी.
इनमें से किसी भी रिपोर्ट को पूरी तरह लागू नहीं किया गया. संकटग्रस्त आयुध कारखाना बोर्ड को कॉर्पोरेट रूप देने और निजी क्षेत्र के लिए इसे खोलने की सिफारिश करने वाली केलकर कमेटी की रिपोर्ट को कथित तौर पर ठंडे बस्ते में इसलिए डाल दिया गया क्योंकि तत्कालीन रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी ताकतवर ट्रेड यूनियनों को नाराज नहीं करना चाहते थे.
रक्षा मंत्रालय और सशस्त्र बलों ने उन आंतरिक सुधारों को जबरदस्ती रोके रखा है जो रक्षा बजट को बढ़ाने के दबाव को आंशिक तौर पर कम कर सकते हैं. रक्षा मंत्रालय की 2011 की आंतरिक वित्तीय रिपोर्टों के मुताबिक हर साल 5,400 करोड़ रु. से ज्यादा की राशि बरबाद हो रही है. मसलन, सेना सेवा कोर 2,122 करोड़ रु. की खाद्य सामग्री की खरीद करती है जबकि कार्यबल पर 1,500 करोड़ रु. खर्च करती है. यह खरीद कीमत का 70 फीसदी है (भारतीय खाद्य निगम की खरीद कीमत 16 फीसदी है).
रक्षा मंत्रालय संचालित सीमा सड़क संगठन (बीआरओ) के करीब 75 फीसदी इंजीनियर फील्ड की बजाए प्रशासकीय कार्यों में लगाए गए हैं. यह स्थिति तब है जब उत्तर और पूर्वोत्तर में 13,000 किलोमीटर से ज्यादा लंबी 200 से ज्यादा रणनीतिक सड़कों के निर्माण का काम तय समय सीमा से बरसों पीछे चल रहा है.
उच्च कीमत वाली रक्षा खरीद-जैसे 60,000 करोड़ रु. की कीमत में नौसेना के लिए छह नई पारंपरिक पनडुब्बियों के आयात और निर्माण की आवश्यकता-आलोचनात्मक समीक्षा के दायरे में नहीं आती है. इसी तरह 23,000 करोड़ रु. की लागत से छह स्कॉर्पीन पनडुब्बियों को भारत में बनाने का 2005 में दिया गया ठेका अपनी समय सीमा से पांच साल पीछे चल रहा है और इसमें अब तक टेक्नोलॉजी हस्तांतरण नहीं हुआ है.
एफडीआइ बढ़ाने से टेक्नोलॉजी नहीं आएगी. निजी क्षेत्र की एक रक्षा कंपनी के सीईओ कहते हैं, ‘‘अगर ऐसा ही होता, तो भारत को मोबाइल फोन हैंडसेट का वैश्विक केंद्र होना चाहिए था क्योंकि यहां तो बरसों से दूरसंचार में 100 फीसदी एफडीआइ लागू है.’’ यहां तक कि सुखोई आदि के लाइसेंस आधारित उत्पादन का वैकल्पिक रास्ता भी इसका जवाब नहीं है.
आइडीएस के पूर्व प्रमुख वाइस एडमिरल रमन पुरी कहते हैं, ‘‘लाइसेंसी निर्माण स्वेदशी स्तर पर डिजाइन और विकसित किए गए हार्डवेयर को बनाने की हमारी क्षमता का नुकसान करते हैं.’’ इस गड़बड़ी को दुरुस्त करने के लिए समय, प्रयास और राजनैतिक इच्छाशक्ति की दरकार है. इसके लिए ऐसे रक्षा मंत्री की जरूरत है जो सुधारों के रास्ते पर आगे कदम बढ़ा सके.