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जनरल की नापाक चालें

पड़ोसी देश में आठ बम हमले कराना, दुश्मन के इलाके में विद्रोह के लिए पैसे देना, देश में एक राज्य सरकार को अस्थिर करने के लिए 'दोस्ताना रवैये वाले' मंत्रियों को प्रायोजित करना, देश के रक्षा मंत्री सहित सरकार के बड़े ओहदों पर बैठे लोगों की जासूसी करना. कहते हैं राजनैतिक महत्वकांक्षा पालने वाले पूर्व सेनाध्यक्ष वी.के. सिंह ने ये सबकुछ अपना निजी बदला चुकाने के लिए करवाया.

अपडेटेड 8 अक्टूबर , 2013
पड़ोसी देश में आठ बम हमले कराना, दुश्मन के इलाके में विद्रोह के लिए पैसे देना, देश में एक राज्य सरकार को अस्थिर करने के लिए ‘‘दोस्ताना रवैये वाले’’ मंत्रियों को प्रायोजित करना, देश के रक्षा मंत्री सहित सरकार के बड़े ओहदों पर बैठे लोगों की जासूसी करना. कहते हैं कि पूर्व सेनाध्यक्ष विजय कुमार सिंह ने टेक्निकल सपोर्ट डिवीजन (टीएसडी) का इस्तेमाल भारत और पाकिस्तान के बीच विवादित नियंत्रण रेखा के दोनों तरफ  अपना निजी बदला चुकाने के लिए किया. टीएसडी सेना के चुने हुए जासूसों का गोपनीय संगठन था. जनरल सिंह ने अपने इस गोपनीय प्रोजेक्ट को 2010 से 2012 के बीच अंजाम दिया. अपने रिटायरमेंट के 16 महीने बाद भी जनरल ने लडऩा बंद नहीं किया है. इस बार निशाने पर सरकार है, जो जनरल की चालों का जवाब अपनी चालों से दे रही है. दोनों के बीच इस ओछी लड़ाई में देश की सुरक्षा की बलि चढ़ रही है.

23 सितंबर को टेलीविजन पर वी.के. सिंह ने ऐलानिया अंदाज में कहा कि सेना ने ‘‘1947 के बाद से जम्मू और कश्मीर में सभी मंत्रियों को पैसे दिए हैं.’’ लेकिन 24 घंटे के भीतर वे मुंह छिपाने लगे. उनका बयान आते ही दिल्ली से श्रीनगर तक जवाबी आरोपों की झड़ी लग गई. वी.के. सिंह कहने लगे कि यह रकम ‘‘रिश्वत’’ के तौर पर या श्सियासी मकसद्य से नहीं, बल्कि आतंकी गतिविधियों से तबाह राज्य में स्थिरता लाने की व्यापक पहल के तहत दी गई. जनरल ने गुडग़ांव में सेक्टर 30 में अपने मकान के लॉन में चुने हुए पत्रकारों को लंबे-चौड़े वक्तव्य में जो सफाई दी है, वह और कुछ नहीं बल्कि सरकार के साथ मारो और छिप जाओ की उनकी लंबी जंग का हिस्सा है जब वे रणनीति के तौर पर थोड़ा पीछे हटे हैं. यह जंग तब से चल रही है, जब सरकार ने 2011 में उनकी जन्मतिथि बदलने से इनकार कर दिया था. अगर जन्मतिथि बदल जाती तो उन्हें न सिर्फ सेनाध्यक्ष के तौर पर दस महीने और मिल जाते बल्कि उनके बाद बनने वाले सेनाध्यक्षों की कतार बदल जाती.

पिछले एक साल से वी.के. सिंह और सरकार के बीच चल रहे छद्म युद्ध में 20 सितंबर के बाद विस्फोटक स्थिति पैदा हो गई, जब एक अखबार ने टीएसडी के अनधिकृत ऑपरेशन का भंडाफोड़ कर दिया. टीएसडी का गठन सीधे वी.के. सिंह के नियंत्रण में मई, 2010 में किया गया था, जब उन्हें सेनाध्यक्ष बने महज एक महीना हुआ था. टीएसडी की कारगुजारियों में 1.19 करोड़ रु. का वह लेन-देन भी है, जो इस इकाई ने जम्मू-कश्मीर के कृषि मंत्री गुलाम हसन मीर को कथित तौर पर दी. कहा जाता है कि यह रकम 2010 की गर्मियों में उमर अब्दुल्ला की सरकार को गिराने के लिए दी गई थी.

वैसे तो मीर ने इस आरोप से इनकार करते हुए 25 सितंबर को एक लिखित बयान में कहा है कि वे ‘‘समयबद्ध, खुली जांच’’ कराने को तैयार हैं. वी.के. सिंह के इस दावे ने प्रमुख नेताओं और राजनैतिक दलों में हड़कंप मचा दिया है कि सेना ने जम्मू-कश्मीर के ‘‘सभी’’ मंत्रियों को पैसा दिया है. पूर्व उपमुख्यमंत्री, पीपल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) के नेता मुजफ्फर हसन बेग का कहना है, ‘‘कश्मीर में भारत समर्थक राजनीति को पाकिस्तान की आइएसआइ ने कई दशकों में जितना नुकसान नहीं पहुंचाया, उतना पूर्व सेनाध्यक्ष ने एक दिन में पहुंचा दिया है.’’ यह खबर पहली बार उजागर होने पर करीब एक हफ्ते तक सकते में रहने के बाद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी स्वीकार किया, ‘‘जनरल ने घाटी में काम कर रहे मुख्यधारा के राजनैतिक दलों के लिए ऐसी मुश्किलें खड़ीं कर दी हैं, जिन्हें बयान नहीं किया जा सकता.’’ जनरल को राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों में खासकर कश्मीर में गुप्त रूप से चल रही गतिविधियों के बारे में बात करते समय ज्यादा संयम रखना चाहिए था.

टीएसडी के बारे में मिलिटरी ऑपरेशंस के महानिदेशक ले. जनरल विनोद भाटिया की इस जांच रिपोर्ट पर सरकार छह महीने तक चुप बैठी रही.  रिपोर्ट ऐसे समय लीक की गई, जब जनरल ने 15 सितंबर को हरियाणा में रेवाड़ी की रैली में बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के साथ गठजोड़ का खुला ऐलान किया. इससे संदेह बढ़ा कि यह रिपोर्ट जान-बूझकर इस समय लीक की गई है. इस लड़ाई में जीत किसी की नहीं हुई है, पर भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा और सशस्त्र सेनाओं की साख पर बट्टा लगा है.



गुप्त यूनिट
इस सारे विवाद की जड़ टीएसडी है. 2010 के शुरू में देश के 26वें सेनाध्यक्ष के रूप में जनरल वी.के. सिंह के कमान संभालने के कुछ दिन बाद सेना के गलियारों में एक रहस्यमय नए संगठन के बारे में खुसफुस होने लगी. यह गुप्तचर एजेंसी के भीतर गुप्तचर एजेंसी थी. इसमें छह अधिकारी, पांच जेसीओ और 30 जवान थे. यह संगठन दिल्ली छावनी में ‘‘बुचरी’’ कहलाने वाली एक मामूली-सी दोमंजिला इमारत से काम करता था. असल में यह ब्रिटिश हुकूमत के दिनों का कसाईघर ही था. डिविजन की कमान कर्नल मुनिश्वर नाथ बख्शी के हाथ में थी. यह लंबा, बांका अधिकारी ‘‘हनी’’ उपनाम से जाना जाता था. सेना के शब्दों में यह ‘‘तदर्थ संस्था’’ थी, जिसके लिए कोई औपचारिक स्वीकृति नहीं ली गई, इसे कोई ‘‘युद्ध प्रतिष्ठान मंजूरी’’ नहीं थी. टीएसडी में नियुक्त कर्मचारियों को मिलिटरी इंटेलीजेंस की एमआइ-25 यूनिट के साथ जुड़ा दिखाया गया.

टीएसडी कैसे बनी और उसका क्या काम था, यह स्पष्ट नहीं है. सेना के अफसर कहते हैं कि इसे ‘‘दिलचस्पी वाले देशों’’ के अलावा जम्मू और कश्मीर तथा पूर्वोत्तर में गतिविधियों के लिए बनाया गया था, जहां सेना विद्रोही गतिविधियां रोकने की भूमिका में थी और सशस्त्र सेना विशेषाधिकार कानून (एएफएसपीए) के संरक्षण में थी. यह यूनिट इतनी गुप्त थी कि कर्नल बख्शी सीधे सेनाध्यक्ष को रिपोर्ट करते थे, जबकि सेना की कमान ऐसे नहीं चलती. कर्नल बख्शी जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर में पिछली नियुक्तियों के दौरान जनरल वी.के. सिंह के साथ काम कर चुके थे.

जनरल से उनकी निकटता से साथियों में जलन पैदा होने लगी. यह जलन जल्दी ही उस समय नफरत में बदल गई, जब सीमा पर सक्रिय फील्ड गुप्तचर इकाइयों को पता चला कि उनका सीक्रेट सर्विस फंड दिल्ली में सैन्य खुफिया महानिदेशालय ने आधा कर दिया है. सालाना करीब 50 करोड़ रु. का यह फंड मुखबिरों और जासूसों को पैसे देने के लिए विभिन्न यूनिटों को बांटा जाता था. इसमें से पैसा टीएसडी को दिया जाने लगा. फॉर्मेशन कमांडरों ने देखा कि उनकी जानकारी के बिना टीएसडी के कर्मी सीमावर्ती क्षेत्र में सक्रिय थे और कभी-कभी उन्हीं की तरह आतंकवादियों के खिलाफ कार्रवाई करते थे. कम-से-कम एक जनरल ने कश्मीर में टीएसडी की गतिविधियों के बारे में जनरल वी.के. सिंह से शिकायत की थी. अगले कुछ महीनों तक जब जनरल अपनी जन्मतिथि बदलवाने के लिए सरकार से लड़ रहे थे, उन्हीं दिनों मीडिया में बार-बार टीएसडी का नाम उछला, जिसे सरकार नकारती रही.

2012 के शुरू में खुफिया ब्यूरो की एक रिपोर्ट में कहा गया कि यूनिट ने गैर-कानूनी रूप से दो ऑफ एयर इंटरसेप्टर्स खरीदे हैं, जो मोबाइल फोन की बातचीत सुन सकते हैं. लैपटॉप साइज के इन पोर्टेबल उपकरणों में से प्रत्येक की लागत डेढ़ करोड़ रु. से ज्यादा थी. आइबी ने चेतावनी दी कि ये मशीनें साउथ ब्लॉक के आसपास लगाई गई हैं. इससे यह चिंता पैदा हुई कि उनका उपयोग बिना कोई मंजूरी लिए बातचीत सुनने के लिए किया जा रहा है. वी.के. सिंह के रिटायर होते ही मई, 2012 में टीएसडी ने काम करना बंद कर दिया.

जनरल वी.के. सिंह ने इन आरोपों का खंडन किया है और इन्हें आगामी चुनाव से जुड़ा हथकंडा बताया है. उन्होंने हथियार लॉबियों और मंत्रालय के भीतर के अफसरों पर रिपोर्ट लीक कराने की जिम्मेदारी डाल दी. टीएसडी को औपचारिक रूप से दिसंबर में भंग कर दिया गया था, लेकिन ले. जनरल भाटिया की जांच जारी थी. इस जांच में कामकाज में गड़बड़ी मिली थी. यह जांच समिति असल में अधिकारियों का बोर्ड थी, जिसकी मिलिटरी कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी जैसी कोई कानूनी हैसियत नहीं है. एक जनरल का कहना है कि ऐसा जनरल वी.के. सिंह को गवाही के लिए बुलाने की शर्म से बचने के लिए किया गया है.

ले. जनरल भाटिया ने अपनी जांच के नतीजे सेनाध्यक्ष जनरल बिक्रम सिंह को भी सौंप दिए हैं. इस रिपोर्ट के कुछ हिस्से हेडलाइंस टुडे को मिल गए हैं. इनसे पता चलता है कि अक्तूबर और नवंबर, 2011 के बीच टीएसडी ने पड़ोसी देश के एक प्रांत में एक अलगाववादी मुखिया को पटाने के लिए पैसा मांगा था. इसके अलावा दो देशों के बीच हथियारों की आवाजाही रोकने के लिए 1.27 करोड़ रु. मांगे थे. 2011 के शुरू में टीएसडी ने पड़ोसी देश में आठ हल्के बम धमाके कराने के लिए कुछ रकम मांगी थी.

टीएसडी के साथ ही यूथ एम्पावरमेंट सर्विसेज (यस) कश्मीर की स्थापना हुई. इस गैर-सरकारी संगठन का नाम पहले किसी ने नहीं सुना था. इसने जम्मू और कश्मीर हाइकोर्ट में याचिका दायर कर आरोप लगाया कि अनंतनाग में 2001 में हुई जंगलात मंडी मुठभेड़ फर्जी थी. जनरल बिक्रम सिंह उस समय ब्रिगेडियर थे और इस मुठभेड़ में बुरी तरह घायल हुए थे. एक सेनाधिकारी का कहना है कि यह यूनिट ‘‘डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट’’ की तरह काम करती थी, ताकि जनरल वी.के. सिंह जन्मतिथि के विवाद में अपने पक्ष में फैसला करा सकें. यूनिट का काम उम्र का विवाद उछाल कर जनरल बिक्रम सिंह को अगला सेनाध्यक्ष बनने से रोकना भी था. दोनों कोशिशें नाकाम हुईं, लेकिन उनकी भारी कीमत चुकानी पड़ी.

सिर्फ दो साल में टीएसडी ने सीक्रेट सर्विस फंड में 20 करोड़ रु. खर्च किए. यह सेना की सबसे बड़ी कमान, उत्तरी कमान के बाकी हिस्से द्वारा इस अवधि में खर्च की गई रकम से करीब दोगुनी राशि है. रक्षा मंत्रालय के एक अधिकारी के मुताबिक, सबसे अहम बात यह है कि यूनिट ने जो आठ करोड़ रु. खर्च किए उसका हिसाब नहीं दे पाई. जांच से परिचित एक अधिकारी ने बताया कि यूनिट की गतिविधियां गोपनीयता की चादर में लिपटी हुई थीं, जिससे उसकी कई हरकतों को तो साबित करना ही मुश्किल हो गया.

ले. जनरल भाटिया की जांच ने इस बात की भी पुष्टि कर दी कि अवैध इंटरसेप्टर्स को राजधानी में तैनात किए जाने कि खबरें अखबार में छपने के बाद टीएसडी ने उन्हें नष्ट कर दिया. महानिदेशक सहित मिलिट्री इंटेलिजेंस की टीम मार्च, 2012 में गतिविधियों की देखरेख के लिए जम्मू और कश्मीर पहुंची थी. मशीनें तोड़ी गईं और उन्हें जम्मू में चिनाब नदी की तेज धारा में डाल दिया गया.

जनरल वी.के. सिंह के रिटायर होने के दो महीने बाद जुलाई, 2012 में कर्नल बख्शी दिल्ली में सेना के बेस अस्पताल के मनोरोग वार्ड में भर्ती हो गए. कर्नल बख्शी ने आरोप लगाया कि बड़े अधिकारी परेशान कर रहे हैं. लेकिन यह बात झूठी साबित हुई. 200 से अधिक पन्नों की जनरल भाटिया की रिपोर्ट मार्च, 2013 में सेना मुख्यालय को सौंपी गई और यह राजनैतिक विवाद का विषय बन गई है. जनरल बिक्रम सिंह के नेतृत्व में सेना ने फौरन, फटने को तैयार, इस विस्फोटक सामग्री को असैनिक अफसरों और राजनैतिक नेताओं के हाथों में उसी महीने सौंप दिया. यह रिपोर्ट उस समय के रक्षा सचिव शशिकांत शर्मा की मेज से रक्षा मंत्री ए.के. एंटनी की मेज तक पहुंच गई. सेनाध्यक्ष ने रिपोर्ट में लगाए गए आरोपों की सीबीआइ जांच की सिफारिश की. एंटनी ने यह रिपोर्ट राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और प्रधानमंत्री को भेज दी. तभी से यह प्रधानमंत्री कार्यालय में है.

सरकार ने पता नहीं क्यों, इस रिपोर्ट के नतीजों पर कार्रवाई न करने का फैसला किया है. रक्षा मंत्री एंटनी 15 सितंबर की सर्जरी के बाद दिल्ली में सेना के आरऐंडआर अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं. रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता सीतांशु कार ने बताया, ‘‘यह रिपोर्ट राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों से जुड़ी है और सरकार इस पर सावधानी से गौर करने के बाद आगे की कार्रवाई तय करेगी.’’



कश्मीर में गूंज
इसकी आग ने सिर्फ सेना को ही नहीं बल्कि जम्मू और कश्मीर में लोकतंत्र को भी झुलसाया है. उमर चाहते हैं कि गुलाम हसन मीर के बारे में कोई भी फैसला दिल्ली में कांग्रेस हाई कमान ले, क्योंकि उन्हें जनवरी, 2009 में ‘‘कांग्रेस पार्टी के सहयोगी के रूप में’’ राज्य मंत्रिमंडल में शामिल किया गया था, लेकिन मुख्यमंत्री के चाचा और सत्तारूढ़ नेशनल कॉन्फ्रेंस के महासचिव मुस्तफा कमाल माफ करने के मूंड में नहीं हैं. उनका कहना था कि ‘‘मीर सुरक्षा प्रतिष्ठान के जगजाहिर दलाल हैं. कमाल सेना की जांच रिपोर्ट के इस नतीजे से सहमत हैं कि मीर ने 2010 में राज्य सरकार को गिराने की कोशिशों का साथ दिया था. 13 सितंबर, 2010 को सुरक्षा बलों ने मीर के निर्वाचन क्षेत्र तंगमर्ग में तीन हजार लोगों की भीड़ पर गोली चलाई और सात लोग मारे गए. ये लोग अमेरिका में कुरान के अपमान की खबरों पर विरोध प्रकट कर रहे थे.

भीड़ ने जब कई सरकारी इमारतों और एक ईसाई मिशनरी स्कूल को आग लगा दी, उसके बाद फायरिंग का आदेश दिया गया. कमाल का दावा है, ‘‘विरोध प्रदर्शन और उसके बाद गोलीबारी, दोनों सेना और आइबी के कहने पर हुई. उन्होंने मीर और उनके साथियों का इस्तेमाल किया.’’ कमाल इस बात पर अड़े हुए हैं कि यह राज्य सरकार से इस्तीफा दिलाने की यह सेना और जनरल वी.के. सिंह की चाल थी. लगभग उसी समय की बात है, जब मीर को कथित रूप से टीएसडी से 1.19 करोड़ रु. मिले थे.

कमाल जैसे नेता पहले ही खुद को आजादी समर्थक अलगाववादियों के साथ खड़ा कर चुके हैं. उनका कहना है कि ‘‘भारत की बेलगाम सेना जम्मू-कश्मीर में बड़ी संख्या में आम नागरिकों की हत्याएं करवा रही है.’’ 24 सितंबर को जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के अध्यक्ष यासिन मलिक ने राज्य के हाइकोर्ट में याचिका दायर कर 2010 की गर्मियों में 117 कश्मीरियों की हत्या की जांच कराने की मांग की है.

कश्मीर में गुलाम हसन मीर जैसे नेताओं की मुसीबत बढ़ सकती है

दिल्ली में तूफान
एक तरफ सरकार सेना की रिपोर्ट के नतीजों पर डगमग है, वहीं वी.के सिंह काफी व्यस्त हैं. उन्हें एक ऐसे कवच की तलाश थी, जो पाप की गठरी उनके दरवाजे पर छोडऩे वाली जांच रिपोर्ट से उन्हें बचा ले. यह कवच उन्हें राजनीति के बीहड़ में मिला. पूर्व सेनाध्यक्ष पिछले साल नवंबर में नई दिल्ली में अण्णा हजारे की रैली में पहली बार दिखाई दिए थे. वे राष्ट्रीय लोकदल के नेता ओम प्रकाश चौटाला के साथ रेवाड़ी में एक मंच पर दिखाई दिए. उन्होंने सफाई दी कि वे जिले में परमाणु बिजलीघर का विरोध कर रहे थे. इस साल अगस्त में वी.के. सिंह ने आम आदमी पार्टी के नेताओं से मुलाकात की और हजारे के साथ एक राष्ट्रव्यापी प्रचार की योजना बनाई. 15 सितंबर को रेवाड़ी में वे पूर्व सैनिकों के सामने दहाड़े, ‘‘अगर देश को मजबूत करना है तो हमारे सैनिकों के साथ कदम मिलाने होंगे.’’ जब सरकार ने पलट वार किया तो बीजेपी उनके बचाव में आगे आई. पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने 21 सितंबर को कहा, ‘‘वी.के. सिंह ने जो कुछ भी कहा है सब सही है. वे उनके रिटायर होने के एक साल बाद जांच क्यों करा रहे हैं और वह
भी नरेंद्र मोदी के साथ मंच पर खड़े होने के लगभग तुरंत बाद?’’

जनरल वी.के. सिंह का कहना है कि टीएसडी की स्थापना रक्षा मंत्री के रक्षा संबंधी निर्देशों में दर्ज विवरणों के आधार पर की गई थी. ये निर्देश 26 नवंबर, 2008 को मुंबई हमलों के बाद दिए गए थे. उन्होंने एक टीवी चौनल को बताया, ‘‘जब भी आप टीएसडी का नाम लेते हैं, तो देश की सुरक्षा खतरे में पड़ती है. आज हमारी सीमाओं पर बहुत कुछ ऐसा इसलिए हो रहा है कि टीएसडी को बंद करने का फैसला किया गया.’’

जनरल वी.के. सिंह की जबानी जंग से सेना परेशान है कि गुप्त कार्रवाइयों को किस तरह खुलेआम उछाला जा रहा है. इससे वह जंग फिर शुरू हो गई है, जो जनरल वी.के. सिंह के रिटायर होने पर खत्म मान ली गई थी. जनरल के मन में पलती पीड़ा ने राजनैतिक रूप ले लिया है. सेना के एक पूर्व कमांडर का अनुमान है कि पूर्व सेनाध्यक्ष का इस्तेमाल राजनैतिक दलों पर वार करने के लिए होगा. उनका कहना है कि ‘‘सेनाध्यक्ष का पद एक पवित्र संस्था है, वी.के. सिंह समझते नहीं कि वे इसे कितना नुकसान पहुंचा रहे है.’’ लेकिन सरकार को आड़े हाथ लेने की वजह से सेना के कई अफसर वी.के. सिंह से खुश हैं.

जनरल वी.के. सिंह भारत के अकेले ऐसे सैन्य अधिकारी हैं, जिसने अमेरिकी सेना का 61 दिन का रेंजर कोर्स पूरा किया है. रेंजर की भावना के बारे में उन्होंने एक बार अपने सबसे विश्वस्त सलाहकार से कहा था कि ‘‘अगर एक अकेला मैं जिंदा रहा तो भी रेंजर के उद्देश्यों को पूरा करने का जज्बा दिखाऊंगा.’’ आज जनरल सिंह ने ठान लिया है कि राजनीति के बीहड़ में अपनी छेड़ी प्रतिशोध की इस जंग में वे बचकर दिखाएंगे. अगर यह जंग चलती रही तो इसका अंत दोनों पक्षों के लिए निश्चित विनाश के सिवा कुछ नहीं हो सकता.     -साथ में नसीर गनई
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