भारत के 67वें स्वतंत्रता दिवस से दो दिन पहले 13 अगस्त को ओडिसा के घने जंगलों के अंदर एक छोटे-से गांव ने आजादी के असल स्वाद को चखा.
105 डोंगरिया कोंध आदिवासियों के गांव खम्बेसी तक पहुंचना आसान नहीं है. रायगढ़ जिले के इस खूबसूरत गांव तक पहुंचने के लिए न कोई सड़क है और न कोई रेल. घने जंगल के अंदर चार जल धाराओं और एक नदी को पार करने के बाद नौ किलोमीटर पैदल चलकर ही यहां पहुंचा जा सकता है. फिर भी उस दिन कई सरकारी कर्मचारी, सामाजिक
कार्यकर्ता, शोधकर्ता और पत्रकार ग्राम सभा की बैठक की कार्यवाही देखने के लिए खम्बेसी जा रहे थे.
बैठक में यह तय होना था कि सरकारी ओडिसा खनन निगम (ओएमसी) और वेदांता एल्युमिनियम लिमिटेड के संयुक्त उपक्रम को नियमगिरि पहाडिय़ों से बॉक्साइट निकालने की इजाजत दी जाए या नहीं. वेदांता लंदन स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध अंतरराष्ट्रीय खनन कंपनी वेदांता रिसोर्सेज की इकाई है जिसके मालिक अरबपति अनिल अग्रवाल हैं. नियमगिरि पर्वत शृंखला 250 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैली है और यहां बॉक्साइट का 7 करोड़ टन भंडार है. ग्राम सभा की बैठक शुरू होते ही एक के बाद एक ग्रामीण प्रोजेक्ट के बारे में अपनी राय देने लगा. उन्होंने बताया कि किस तरह यह प्रोजेक्ट उनके धार्मिक अधिकारों के लिए खतरा है और इससे किस तरह इतना खूबसूरत जंगल और उनकी आजीविका दोनों नष्ट हो जाएंगे.
प्रौढ़ महिला लश्किया सिकाता ने सभा में कहा, ‘‘हम इतने समय से यहां रह रहे हैं तो सरकार हमारा डोंगर (जंगल) अब कैसे बेच सकती है.’’ ग्राम सभा की सुरक्षा के लिए भारी तादाद में पुलिस और केंद्रीय अर्धसैनिक बल के जवान तैनात थे. उसी गांव की रिकोता भाली का कहना था कि इस जंगल में उनके देवता नियम राजा का वास है और अगर यह जंगल उनसे छीन लिया गया तो उनकी संस्कृति भी मिट जाएगी. कुछ महिलाएं गुस्सा हो गईं. कुत्रुका कुंझी ने सभापति से माइक छीन लिया और गरजीं, ‘‘हमारे जंगल पर किसी का अधिकार नहीं है, न सरकार का और न ही किसी कंपनी का. किसी ने जबरदस्ती हमसे हमारा जंगल छीना तो हम उसे तीरों से छलनी कर देंगे.’’

उसके कुछ ही देर बाद ग्रामीणों ने सर्वसम्मति से अपनी पूजनीय नियमगिरि पहाडिय़ों में खनन के खिलाफ वोट कर दिया.
रायगढ़ और कालाहांडी जिलों में डोंगरिया कोंध और कटिया कोंध आदिवासियों के खम्बेसी जैसे करीब दर्जन भर गांव हैं, जहां ऐसी ग्राम सभाओं का आयोजन हुआ. ओडिसा सरकार ने 18 जुलाई और 19 अगस्त के बीच इन ग्राम सभाओं का आयोजन किया और सभी ने इसी आधार पर खनन को नामंजूर कर दिया है. कालाहांडी के जिला कलेक्टर बिजय केतन उपाध्याय ने यह जानकारी दी कि नियमगिरि पर्वत शृंखला में 112 गांव आते हैं, लेकिन राज्य सरकार ने ग्राम सभाओं के लिए डेढ़ किलोमीटर के दायरे में सिर्फ 12 गांव को ही चुना क्योंकि यही गांव माइनिंग जोन में पड़ते हैं.
इस ऐतिहासिक जनमत संग्रह का बीज केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अगस्त, 2010 के निर्देश से पड़ा, जिसमें बॉक्साइट माइनिंग प्रोजेक्ट को नामंजूर कर दिया गया था. ओएमसी ने इस निर्देश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. कोर्ट ने अप्रैल में राज्य सरकार को आदेश दिया कि वन अधिकार अधिनियम-2006 के तहत ग्राम सभाएं आयोजित कर माइनिंग की अनुमति देने या न देने के बारे में वनवासियों की राय ली जाए.
ग्राम सभाओं का सर्वसम्मति से लिया गया फैसला अंतिम तो नहीं है, फिर भी माइनिंग के पट्टे को वन तथा पर्यावरण संबंधी अंतिम मंजूरी देने के केंद्र सरकार के फैसले पर इसका असर जरूर पड़ेगा. आदिवासियों का फैसला निश्चय ही वेदांता के लिए बड़ा झटका है. कंपनी कालाहांडी में लांजीगढ़ में दस लाख टन सालाना क्षमता वाली एल्युमिना रिफाइनरी लगाने में 5,000 करोड़ रु. इन्वेस्ट कर चुकी है. इस रिफाइनरी के लिए नियमगिरि से एल्युमिनियम अयस्क बॉक्साइट मिलना था. कंपनी फिलहाल अन्य राज्यों से कच्चा माल जुटा रही थी. पिछले साल दिसंबर में बॉक्साइट की कमी की वजह से कंपनी ने रिफाइनरी बंद कर दी थी, जिसमें उत्पादन जुलाई में आंशिक रूप से शुरू किया गया. एल्युमिनियम रिफाइनरी की क्षमता बढ़ाकर 50 लाख टन करने की कंपनी की योजना के लिए भी नियमगिरि में खनन बेहद जरूरी है.
इसके बावजूद कंपनी निराश नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जारी 2013 की वार्षिक रिपोर्ट में वेदांता रिसोर्सेज ने कहा है कि सितंबर तक माइनिंग की मंजूरी मिल जाने की उम्मीद है और दो साल में बॉक्साइट निकलने लगेगा. रिपोर्ट के मुताबिक कंपनी को जनवरी, 2014 तक रिफाइनरी के विस्तार की अनुमति मिल जाने की भी उम्मीद है. लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि समय को लेकर कोई भी नियंत्रण उनके हाथ में नहीं है. वेदांता एल्युमिनियम के प्रवक्ता ने बताया कि बॉक्साइट दिलाने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की थी. राज्य सरकार ने कंपनी को 15 करोड़ टन बॉक्साइट दिलाने का वादा किया था और उसे लांजीगढ़ रिफाइनरी के लिए आस-पास से कच्चा माल दिलाने में वेदांता की मदद करनी चाहिए.
सारे देश में खनिजों के मामले में ओडिसा सबसे संपन्न राज्य है. भारत का बॉक्साइट का आधे से अधिक भंडार यहीं है और यह राज्य देश में एल्युमिनियम का सबसे बड़ा उत्पादक है. भारत का 90 प्रतिशत क्रोमाइट और एक-तिहाई से अधिक लौह अयस्क भंडार भी यहीं है. इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि राज्य को खनिजों से मोटी कमाई होती है. खानों से उसकी नॉन टैक्स कमाई दो साल पहले 3,300 करोड़ रु. थी, जो 2012-13 में 5,695 करोड़ रु. पर पहुंच गई.

खनिजों से भरपूर पड़ोसी राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ की तरह ओडिसा भी इस्पात, एल्युमिनियम और बिजली कंपनियों को लौह अयस्क, बॉक्साइट और कोयला निकालने के लिए माइनिंग का वादा देकर कारखाने लगाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है. पड़ोसी राज्यों की तरह ही ओडिसा में भी ऐसे प्रोजेक्ट्स को जनविरोध का सामना करना पड़ रहा है. वेदांता के अलावा दक्षिण कोरिया की स्टील कंपनी पॉस्को सहित कई कंपनियों के सामने माइनिंग लीज (खनन पट्टे), पर्यावरण एवं वन संबंधी मंजूरी और जमीन के अधिग्रहण से जुड़ी समस्याएं पेश आ रही हैं. ग्राम सभा की बैठकें शुरू होने से एक दिन पहले 17 जुलाई को अंतरराष्ट्रीय स्टील कंपनी आर्सेलर मित्तल ने ओडिसा में 50,000 करोड़ रु. का प्रोजेक्ट रद्द कर दिया था. कंपनी का कहना था कि दिसंबर, 2006 में राज्य सरकार के साथ प्रारंभिक समझौते पर हस्ताक्षर के छह साल बीत जाने के बाद भी 1.2 करोड़ टन क्षमता वाले इस प्रोजेक्ट के लिए जमीन और लौह अयस्क की खानें लेने में कामयाबी नहीं मिल सकी है.
आलोचकों का कहना है कि राज्य सरकार ने स्थानीय लोगों के सरोकारों पर ध्यान दिए बिना विभिन्न कंपनियों को हजारों एकड़ जमीन देने का वादा कर लिया. स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता बिजय कुमार बाबू का कहना है कि पूरे भारत में आदिवासी अपनी जमीन पर अपना हक पाने के लिए जूझ रहे हैं. दिल्ली में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के रिसर्च एसोसिएट मनीष कुमार के अनुसार, ‘‘लंबे समय से उनके साथ दोयम दर्जे के नागरिक जैसा बर्ताव किया जा रहा था.’’ मनीष खम्बेसी ग्राम सभा की बैठक में मौजूद थे.
कनाडा की टोरंटो यूनिवर्सिटी से फॉरेस्ट्री में रिसर्च स्कॉलर राणा रॉय भी ग्राम सभा में मौजूद थे. उनका कहना था कि अगर वन अधिकार कानून सही ढंग से अमल में लाया गया तो आगे चलकर यह आदिवासियों की ढाल बन सकता है. उनका यह भी कहना था कि सरकारी अधिकारियों और सामाजिक संगठनों ने आदिवासियों को कानून की पूरी जानकारी देने के लिए कुछ खास काम नहीं किया है. रॉय के अनुसार, ‘‘आदिवासियों की नजर में यह कानून उनके अधिकार सीमित कर देगा जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है.’’ राणा ओडिसा के कंधमाल और देवगढ़ जिलों में कानून पर अमल का जायजा ले रहे हैं.
रिश्वत का विरोध करने वाले ग्रुप ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया के बोर्ड के सदस्य बिस्वजीत मोहंती का कहना है कि ओडिसा के माइनिंग सेक्टर में पहली बार कुछ जवाबदेही दिखाई दे रही है. लांजीगढ़ और नियमगिरि में वेदांता के प्रोजेक्ट के खिलाफ मोहंती ने ही दशक भर पहले कोर्ट में पहला केस दायर किया था. उनका कहना है, ‘‘माइनिंग कंपनियां अधिकारियों और नेताओं को रिश्वत देकर खुल्ला खेल रही हैं.’’
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) के स्थानीय कार्यकर्ता भालचंद्र सारंगी का कहना है कि ग्राम सभाओं ने वनवासियों के व्यक्तिगत, सामुदायिक और सांस्कृतिक अधिकारों की पुष्टि कर दी है. उनका मानना है कि आदिवासी फ्रूट प्रोसेसिंग यूनिट जैसे किसी प्रोजेक्ट के लिए तो राजी हो सकते थे, क्योंकि उन्हें अपनी वन उपज की बिक्री से कुछ और पैसा मिल जाता. लेकिन माइनिंग से उन्हें क्या हासिल होता?

लेकिन राज्य सरकार के अधिकारी औद्योगिक और माइनिंग प्रोजेक्ट्स को सही ठहराते हैं. ओडिसा के खनन निदेशालय में डिप्टी डायरेक्टर (माइन्स) उमेश चंद्र जेना का कहना है कि सिर्फ तीन फीसदी जंगल में माइन्स हैं जबकि सड़क निर्माण, सिंचाई और ट्रांसमिशन प्रोजेक्ट्स के लिए इससे कहीं ज्यादा जंगल चाहिए. इसके अलावा माइन्स की जमीन पर पेड़ दोबारा लगाए जा सकते हैं. वे कहते हैं, ‘‘नोवामुंडी में टाटा स्टील की लौह अयस्क माइन और नेशनल एल्युमिनियम कंपनी का दामनजोड़ी प्रोजेक्ट खनन के बाद पेड़ लगाए जाने की मिसालें हैं.’’
कालाहांडी के कलेक्टर उपाध्याय का कहना है कि इस मुद्दे का बुरी तरह राजनीतिकरण हो गया है, जिससे राज्य में इन्वेस्टमेंट का माहौल खराब हुआ है. उन्हें लगता है कि माओवादी भी आदिवासियों के असंतोष को भुनाकर इलाके में अपने पांव जमाने की जुगत में लगे हुए हैं. उन्होंने कहा, ‘‘जहां कहीं भी खनिजों के भंडार हैं, वहीं स्थानीय निवासी अपनी परंपरा के अनुसार पूजा की बात करेंगे, लेकिन अंतिम फैसला राज्य सरकार को ही करना चाहिए.’’ उन्होंने जोर दिया कि औद्योगिक और माइनिंग प्रोजेक्ट्स के जरिए स्थानीय लोगों को ही फायदा पहुंचेगा.
कुछ समाज विज्ञानी भी उनसे सहमत दिखते हैं. बार्सिलोना के रिसर्चर लिया टेंपर और युआन मार्टिनेज-एलियर ने एन्वायर्नमेंटल जस्टिस ऑर्गेनाइजेशंस लायबिलिटीज ऐंड ट्रेड की वेबसाइट पर लिखा, ‘‘नियमगिरि को लेकर चल रही लंबी लड़ाई ने कुछ समस्याएं खड़ी कर दी हैं.’’ यह प्रोजेक्ट एकेडमिक्स और पर्यावरण संबंधी समूह को मदद देता है. बार्सिलोना की ऑटोनोमस यूनिवर्सिटी के दो रिसर्चर का सवाल था, ‘‘आखिर स्थानीय समुदायों के पास कितना वीटो हो सकता है? यह संपत्ति के अधिकार का सवाल नहीं है, क्योंकि जमीन के नीचे के खनिजों पर शासन का स्वामित्व होता है और जमीन गांव वालों की नहीं है.’’
फिर ग्राम सभाओं के फैसलों के माइनिंग इंडस्ट्री के लिए क्या मायने हैं? क्या इसने ऐसा आधार तैयार कर दिया है, जो औद्योगिक प्रोजेक्ट्स के बारे में फैसले लेने के लिए इसी तरह की जन अदालतों की मांग को हवा देगा? हो सकता है. लेकिन टेंपर और मार्टिनेज एलियर का मानना है कि इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि इससे किसी समुदाय को औद्योगिक प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन के इस्तेमाल को धार्मिक आधार पर वीटो करने की अनुमति मिल जाएगी. वेदांता और ऐसी ही परिस्थितियों में फंसी दूसरी कंपनियों के लिए बहुत कुछ अगले साल के लोकसभा चुनाव पर भी निर्भर करता है. कम-से-कम तब तक माइनिंग का भविष्य अधर में लटका है.
105 डोंगरिया कोंध आदिवासियों के गांव खम्बेसी तक पहुंचना आसान नहीं है. रायगढ़ जिले के इस खूबसूरत गांव तक पहुंचने के लिए न कोई सड़क है और न कोई रेल. घने जंगल के अंदर चार जल धाराओं और एक नदी को पार करने के बाद नौ किलोमीटर पैदल चलकर ही यहां पहुंचा जा सकता है. फिर भी उस दिन कई सरकारी कर्मचारी, सामाजिक
कार्यकर्ता, शोधकर्ता और पत्रकार ग्राम सभा की बैठक की कार्यवाही देखने के लिए खम्बेसी जा रहे थे.
बैठक में यह तय होना था कि सरकारी ओडिसा खनन निगम (ओएमसी) और वेदांता एल्युमिनियम लिमिटेड के संयुक्त उपक्रम को नियमगिरि पहाडिय़ों से बॉक्साइट निकालने की इजाजत दी जाए या नहीं. वेदांता लंदन स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध अंतरराष्ट्रीय खनन कंपनी वेदांता रिसोर्सेज की इकाई है जिसके मालिक अरबपति अनिल अग्रवाल हैं. नियमगिरि पर्वत शृंखला 250 वर्ग किलोमीटर इलाके में फैली है और यहां बॉक्साइट का 7 करोड़ टन भंडार है. ग्राम सभा की बैठक शुरू होते ही एक के बाद एक ग्रामीण प्रोजेक्ट के बारे में अपनी राय देने लगा. उन्होंने बताया कि किस तरह यह प्रोजेक्ट उनके धार्मिक अधिकारों के लिए खतरा है और इससे किस तरह इतना खूबसूरत जंगल और उनकी आजीविका दोनों नष्ट हो जाएंगे.
प्रौढ़ महिला लश्किया सिकाता ने सभा में कहा, ‘‘हम इतने समय से यहां रह रहे हैं तो सरकार हमारा डोंगर (जंगल) अब कैसे बेच सकती है.’’ ग्राम सभा की सुरक्षा के लिए भारी तादाद में पुलिस और केंद्रीय अर्धसैनिक बल के जवान तैनात थे. उसी गांव की रिकोता भाली का कहना था कि इस जंगल में उनके देवता नियम राजा का वास है और अगर यह जंगल उनसे छीन लिया गया तो उनकी संस्कृति भी मिट जाएगी. कुछ महिलाएं गुस्सा हो गईं. कुत्रुका कुंझी ने सभापति से माइक छीन लिया और गरजीं, ‘‘हमारे जंगल पर किसी का अधिकार नहीं है, न सरकार का और न ही किसी कंपनी का. किसी ने जबरदस्ती हमसे हमारा जंगल छीना तो हम उसे तीरों से छलनी कर देंगे.’’

उसके कुछ ही देर बाद ग्रामीणों ने सर्वसम्मति से अपनी पूजनीय नियमगिरि पहाडिय़ों में खनन के खिलाफ वोट कर दिया.
रायगढ़ और कालाहांडी जिलों में डोंगरिया कोंध और कटिया कोंध आदिवासियों के खम्बेसी जैसे करीब दर्जन भर गांव हैं, जहां ऐसी ग्राम सभाओं का आयोजन हुआ. ओडिसा सरकार ने 18 जुलाई और 19 अगस्त के बीच इन ग्राम सभाओं का आयोजन किया और सभी ने इसी आधार पर खनन को नामंजूर कर दिया है. कालाहांडी के जिला कलेक्टर बिजय केतन उपाध्याय ने यह जानकारी दी कि नियमगिरि पर्वत शृंखला में 112 गांव आते हैं, लेकिन राज्य सरकार ने ग्राम सभाओं के लिए डेढ़ किलोमीटर के दायरे में सिर्फ 12 गांव को ही चुना क्योंकि यही गांव माइनिंग जोन में पड़ते हैं.
इस ऐतिहासिक जनमत संग्रह का बीज केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के अगस्त, 2010 के निर्देश से पड़ा, जिसमें बॉक्साइट माइनिंग प्रोजेक्ट को नामंजूर कर दिया गया था. ओएमसी ने इस निर्देश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. कोर्ट ने अप्रैल में राज्य सरकार को आदेश दिया कि वन अधिकार अधिनियम-2006 के तहत ग्राम सभाएं आयोजित कर माइनिंग की अनुमति देने या न देने के बारे में वनवासियों की राय ली जाए.
ग्राम सभाओं का सर्वसम्मति से लिया गया फैसला अंतिम तो नहीं है, फिर भी माइनिंग के पट्टे को वन तथा पर्यावरण संबंधी अंतिम मंजूरी देने के केंद्र सरकार के फैसले पर इसका असर जरूर पड़ेगा. आदिवासियों का फैसला निश्चय ही वेदांता के लिए बड़ा झटका है. कंपनी कालाहांडी में लांजीगढ़ में दस लाख टन सालाना क्षमता वाली एल्युमिना रिफाइनरी लगाने में 5,000 करोड़ रु. इन्वेस्ट कर चुकी है. इस रिफाइनरी के लिए नियमगिरि से एल्युमिनियम अयस्क बॉक्साइट मिलना था. कंपनी फिलहाल अन्य राज्यों से कच्चा माल जुटा रही थी. पिछले साल दिसंबर में बॉक्साइट की कमी की वजह से कंपनी ने रिफाइनरी बंद कर दी थी, जिसमें उत्पादन जुलाई में आंशिक रूप से शुरू किया गया. एल्युमिनियम रिफाइनरी की क्षमता बढ़ाकर 50 लाख टन करने की कंपनी की योजना के लिए भी नियमगिरि में खनन बेहद जरूरी है.
इसके बावजूद कंपनी निराश नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जारी 2013 की वार्षिक रिपोर्ट में वेदांता रिसोर्सेज ने कहा है कि सितंबर तक माइनिंग की मंजूरी मिल जाने की उम्मीद है और दो साल में बॉक्साइट निकलने लगेगा. रिपोर्ट के मुताबिक कंपनी को जनवरी, 2014 तक रिफाइनरी के विस्तार की अनुमति मिल जाने की भी उम्मीद है. लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि समय को लेकर कोई भी नियंत्रण उनके हाथ में नहीं है. वेदांता एल्युमिनियम के प्रवक्ता ने बताया कि बॉक्साइट दिलाने की जिम्मेदारी राज्य सरकार की थी. राज्य सरकार ने कंपनी को 15 करोड़ टन बॉक्साइट दिलाने का वादा किया था और उसे लांजीगढ़ रिफाइनरी के लिए आस-पास से कच्चा माल दिलाने में वेदांता की मदद करनी चाहिए.
सारे देश में खनिजों के मामले में ओडिसा सबसे संपन्न राज्य है. भारत का बॉक्साइट का आधे से अधिक भंडार यहीं है और यह राज्य देश में एल्युमिनियम का सबसे बड़ा उत्पादक है. भारत का 90 प्रतिशत क्रोमाइट और एक-तिहाई से अधिक लौह अयस्क भंडार भी यहीं है. इसमें कोई हैरानी की बात नहीं कि राज्य को खनिजों से मोटी कमाई होती है. खानों से उसकी नॉन टैक्स कमाई दो साल पहले 3,300 करोड़ रु. थी, जो 2012-13 में 5,695 करोड़ रु. पर पहुंच गई.

खनिजों से भरपूर पड़ोसी राज्यों झारखंड और छत्तीसगढ़ की तरह ओडिसा भी इस्पात, एल्युमिनियम और बिजली कंपनियों को लौह अयस्क, बॉक्साइट और कोयला निकालने के लिए माइनिंग का वादा देकर कारखाने लगाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है. पड़ोसी राज्यों की तरह ही ओडिसा में भी ऐसे प्रोजेक्ट्स को जनविरोध का सामना करना पड़ रहा है. वेदांता के अलावा दक्षिण कोरिया की स्टील कंपनी पॉस्को सहित कई कंपनियों के सामने माइनिंग लीज (खनन पट्टे), पर्यावरण एवं वन संबंधी मंजूरी और जमीन के अधिग्रहण से जुड़ी समस्याएं पेश आ रही हैं. ग्राम सभा की बैठकें शुरू होने से एक दिन पहले 17 जुलाई को अंतरराष्ट्रीय स्टील कंपनी आर्सेलर मित्तल ने ओडिसा में 50,000 करोड़ रु. का प्रोजेक्ट रद्द कर दिया था. कंपनी का कहना था कि दिसंबर, 2006 में राज्य सरकार के साथ प्रारंभिक समझौते पर हस्ताक्षर के छह साल बीत जाने के बाद भी 1.2 करोड़ टन क्षमता वाले इस प्रोजेक्ट के लिए जमीन और लौह अयस्क की खानें लेने में कामयाबी नहीं मिल सकी है.
आलोचकों का कहना है कि राज्य सरकार ने स्थानीय लोगों के सरोकारों पर ध्यान दिए बिना विभिन्न कंपनियों को हजारों एकड़ जमीन देने का वादा कर लिया. स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता बिजय कुमार बाबू का कहना है कि पूरे भारत में आदिवासी अपनी जमीन पर अपना हक पाने के लिए जूझ रहे हैं. दिल्ली में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी के रिसर्च एसोसिएट मनीष कुमार के अनुसार, ‘‘लंबे समय से उनके साथ दोयम दर्जे के नागरिक जैसा बर्ताव किया जा रहा था.’’ मनीष खम्बेसी ग्राम सभा की बैठक में मौजूद थे.
कनाडा की टोरंटो यूनिवर्सिटी से फॉरेस्ट्री में रिसर्च स्कॉलर राणा रॉय भी ग्राम सभा में मौजूद थे. उनका कहना था कि अगर वन अधिकार कानून सही ढंग से अमल में लाया गया तो आगे चलकर यह आदिवासियों की ढाल बन सकता है. उनका यह भी कहना था कि सरकारी अधिकारियों और सामाजिक संगठनों ने आदिवासियों को कानून की पूरी जानकारी देने के लिए कुछ खास काम नहीं किया है. रॉय के अनुसार, ‘‘आदिवासियों की नजर में यह कानून उनके अधिकार सीमित कर देगा जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है.’’ राणा ओडिसा के कंधमाल और देवगढ़ जिलों में कानून पर अमल का जायजा ले रहे हैं.
रिश्वत का विरोध करने वाले ग्रुप ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल इंडिया के बोर्ड के सदस्य बिस्वजीत मोहंती का कहना है कि ओडिसा के माइनिंग सेक्टर में पहली बार कुछ जवाबदेही दिखाई दे रही है. लांजीगढ़ और नियमगिरि में वेदांता के प्रोजेक्ट के खिलाफ मोहंती ने ही दशक भर पहले कोर्ट में पहला केस दायर किया था. उनका कहना है, ‘‘माइनिंग कंपनियां अधिकारियों और नेताओं को रिश्वत देकर खुल्ला खेल रही हैं.’’
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी लेनिनवादी) के स्थानीय कार्यकर्ता भालचंद्र सारंगी का कहना है कि ग्राम सभाओं ने वनवासियों के व्यक्तिगत, सामुदायिक और सांस्कृतिक अधिकारों की पुष्टि कर दी है. उनका मानना है कि आदिवासी फ्रूट प्रोसेसिंग यूनिट जैसे किसी प्रोजेक्ट के लिए तो राजी हो सकते थे, क्योंकि उन्हें अपनी वन उपज की बिक्री से कुछ और पैसा मिल जाता. लेकिन माइनिंग से उन्हें क्या हासिल होता?

लेकिन राज्य सरकार के अधिकारी औद्योगिक और माइनिंग प्रोजेक्ट्स को सही ठहराते हैं. ओडिसा के खनन निदेशालय में डिप्टी डायरेक्टर (माइन्स) उमेश चंद्र जेना का कहना है कि सिर्फ तीन फीसदी जंगल में माइन्स हैं जबकि सड़क निर्माण, सिंचाई और ट्रांसमिशन प्रोजेक्ट्स के लिए इससे कहीं ज्यादा जंगल चाहिए. इसके अलावा माइन्स की जमीन पर पेड़ दोबारा लगाए जा सकते हैं. वे कहते हैं, ‘‘नोवामुंडी में टाटा स्टील की लौह अयस्क माइन और नेशनल एल्युमिनियम कंपनी का दामनजोड़ी प्रोजेक्ट खनन के बाद पेड़ लगाए जाने की मिसालें हैं.’’
कालाहांडी के कलेक्टर उपाध्याय का कहना है कि इस मुद्दे का बुरी तरह राजनीतिकरण हो गया है, जिससे राज्य में इन्वेस्टमेंट का माहौल खराब हुआ है. उन्हें लगता है कि माओवादी भी आदिवासियों के असंतोष को भुनाकर इलाके में अपने पांव जमाने की जुगत में लगे हुए हैं. उन्होंने कहा, ‘‘जहां कहीं भी खनिजों के भंडार हैं, वहीं स्थानीय निवासी अपनी परंपरा के अनुसार पूजा की बात करेंगे, लेकिन अंतिम फैसला राज्य सरकार को ही करना चाहिए.’’ उन्होंने जोर दिया कि औद्योगिक और माइनिंग प्रोजेक्ट्स के जरिए स्थानीय लोगों को ही फायदा पहुंचेगा.
कुछ समाज विज्ञानी भी उनसे सहमत दिखते हैं. बार्सिलोना के रिसर्चर लिया टेंपर और युआन मार्टिनेज-एलियर ने एन्वायर्नमेंटल जस्टिस ऑर्गेनाइजेशंस लायबिलिटीज ऐंड ट्रेड की वेबसाइट पर लिखा, ‘‘नियमगिरि को लेकर चल रही लंबी लड़ाई ने कुछ समस्याएं खड़ी कर दी हैं.’’ यह प्रोजेक्ट एकेडमिक्स और पर्यावरण संबंधी समूह को मदद देता है. बार्सिलोना की ऑटोनोमस यूनिवर्सिटी के दो रिसर्चर का सवाल था, ‘‘आखिर स्थानीय समुदायों के पास कितना वीटो हो सकता है? यह संपत्ति के अधिकार का सवाल नहीं है, क्योंकि जमीन के नीचे के खनिजों पर शासन का स्वामित्व होता है और जमीन गांव वालों की नहीं है.’’
फिर ग्राम सभाओं के फैसलों के माइनिंग इंडस्ट्री के लिए क्या मायने हैं? क्या इसने ऐसा आधार तैयार कर दिया है, जो औद्योगिक प्रोजेक्ट्स के बारे में फैसले लेने के लिए इसी तरह की जन अदालतों की मांग को हवा देगा? हो सकता है. लेकिन टेंपर और मार्टिनेज एलियर का मानना है कि इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि इससे किसी समुदाय को औद्योगिक प्रोजेक्ट्स के लिए जमीन के इस्तेमाल को धार्मिक आधार पर वीटो करने की अनुमति मिल जाएगी. वेदांता और ऐसी ही परिस्थितियों में फंसी दूसरी कंपनियों के लिए बहुत कुछ अगले साल के लोकसभा चुनाव पर भी निर्भर करता है. कम-से-कम तब तक माइनिंग का भविष्य अधर में लटका है.