आणंद में स्टेशन रोड के पास गली में मर्द बरगद के पेड़ के नीचे या बेंच पर बैठे इंतजार करते रहते हैं कि उनकी औरतें बगल के क्लीनिक में अपना काम पूरा कर लें. विदेशी और भारतीय जोड़ों को टैक्सियां दरवाजे पर छोड़ देती हैं. पति अपनी पत्नियों का हाथ थामे रहते हैं.
भारत की सहकारी दूध उद्योग की राजधानी अब किराए की कोख का गढ़ भी बन गई है. 55 वर्षीय डॉक्टर नैना पटेल और 57 वर्षीय उनके पति हितेश अपने सत कैवल हॉस्पिटल और आकांक्षा इन्फर्टिलिटी क्लीनिक में हर महीने औसतन 30 बच्चे पैदा करवाते हैं.
500वीं सरोगेट मदर 28 वर्षीया महिला ने 5 अगस्त को बच्ची को जन्म दिया. पति से अलग हो चुकी इस महिला के अपने दो बच्चे हैं. गर्भ किराए पर देने के इस कारोबार में कीर्तिमान अनचाहे ही बन गया है. चार दिन बाद लखनऊ से आए बच्ची के मां-बाप ने पहली बार उसे बच्ची का चेहरा दिखाया. तस्वीरें देखकर वह बच्ची को पहचान नहीं पाई. बस इतना ही कहा, ''अगर वह लड़की है तो मेरी ही होगी. ''
एक साल पहले तक उसके पास कुछ नहीं था. सिर्फ पांच साल का बड़ा बेटा और तीन साल का छोटा बेटा. छोटे बेटे की पैदाइश के वक्त पति ने उसे छोड़ दिया और वह अपनी मां के पास रहने चली आई. वह घरों में काम करती है और डॉक्टर पटेल के घर के पीछे वाली सड़क पर रहती है.
घर-घर काम करके महीने में 2,000 रु. कमाती थी. एक सहेली उसे डॉक्टर के पास ले आई. तब से उसने अपने बच्चों को नहीं देखा है. 500वीं सरोगेट मदर कहती हैं, ''अब मैं अपना मकान बनवा सकती हूं. '' लेकिन वह कहती है कि अब दोबारा ऐसा नहीं करेगी. जो भी हो आणंद में 3,00,000 रु. बहुत होते हैं.

आणंद में सड़क का हर मोड़ बताता है कि ये पुराना कस्बा कैसे आधुनिकता की तरफ बढ़ रहा है. बंदूक की दुकान से कुछ आगे रथ बेचने वाला है. सब-वे फ्रेंचाइजी से आगे अमूल की दुकान है, जहां श्रीखंड और स्थानीय मिठाई काजू कतली मिलती है. अमूल की शुरुआत वर्गीज कुरियन ने 1946 में सहकारी दुग्ध आंदोलन के रूप में की थी. आज अमूल एक दिन में 65 लाख किलो दूध बेचता है.
18 लाख की आबादी वाले इस कस्बे को दुनिया श्वेत क्रांति की जन्मस्थली के रूप में जानती है. लेकिन तब से यहां कई और क्रांतियां जड़ें जमाने के लिए जूझ रही हैं. आज यहां 66 उच्च शिक्षा संस्थान और दो यूनिवर्सिटी हैं. ये कस्बा इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग का केंद्र भी है और पड़ोस में खंभात बंदरगाह खुल जाने से जहाज निर्माण के गढ़ के रूप में भी उभर रहा है.
लेकिन मेडिकल टूरिज्म को बढ़ावा देने का श्रेय यहां के अस्पतालों को जाता है, जिनमें शंकर आई हॉस्पिटल, शहर के बाहरी इलाके में खुला नया जाइडस मल्टी स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल, अनगिनत मेडिकल एजेंसीज, फार्मेसी, प्राइवेट नर्सिंग होम और क्लीनिक बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं. 'वाइब्रेंट गुजरात' के नक्शे पर आपको आणंद का जिक्र नहीं मिलेगा, लेकिन जहां तक सहकारी आंदोलन का सवाल है तो इस कस्बे में सबसे बड़ा सहकारी आंदोलन है—किराए पर बच्चा पैदा करना यानी सरोगेसी.
साल 1999 से इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन के जरिए बच्चे पैदा कराने में लगे डॉक्टर पटेल ने 2001 में एक प्रवासी भारतीय परिवार के कहने पर पहली बार किराए पर संतान पैदा करने का मामला हाथ में लिया, जिसमें एक नानी ने अपनी बेटी की शादी बचाने के लिए उसके बच्चे को अपनी कोख में पाला.
वह 2006 में ओपरा विन्फ्रे के शो में दिखाई दीं और तब से लेकर अब तक सरोगेसी के सभी जाने माने मामलों में शामिल रही हैं और अपने आप में एक संस्था बन गई हैं. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने सरोगेसी के बारे में जो दिशा निर्देश तैयार किए हैं, वे 2001 में डॉक्टर पटेल की प्रवासी भारतीय नानी के केस और उसके बाद के अनुभवों पर आधारित हैं.
वे 2008 में सुर्खियों में तब आईं, जब आणंद में डॉ. पटेल के अस्पताल में जन्मी जापानी माता-पिता की संतान मानजी यामादा की कस्टडी का मामला उलझ गया क्योंकि उसके जन्म से पहले ही माता-पिता अलग हो गए. जेन बलाज बनाम भारतीय संघ नाम से मशहूर एक मुकदमे में डॉक्टर पटेल के क्लीनिक का नाम आया.
इस मामले में जुड़वा बच्चियों को भारत की नागरिकता दी गई और उन्हें गोद लेने की पूरी प्रक्रिया अपनाई गई. इन मामलों ने आणंद को सरोगेसी की राजधानी का दर्जा दिला दिया.

डॉक्टर पटेल के क्लीनिक में इस तरह के 680 बच्चे पैदा हो चुके हैं और उनकी गिनती बढ़ती जा रही है. लेकिन एक नए विधेयक का मसौदा तैयार हो रहा है, जिसमें सरोगेट मदर्स को फर्टीलिटी क्लीनिक की नौकरी करने की इजाजत नहीं होगी और उन्हें सरोगेट एजेंसी के तहत आना होगा. विधेयक की प्रमुख विशेषताएं हैं:
सरोगेट मदर की आयु 21-35 वर्ष के बीच होनी चाहिए.
कोई सरोगेट मदर एक दंपती के लिए तीन बार से ज्यादा इम्प्लांटेशन नहीं कराएगी.
अगर सरोगेट मदर शादीशुदा है तो अपने पति की सहमति लेगी.
सिर्फ भारतीय नागरिकों के लिए ही कोख किराए पर दी जा सकती है.
सरोगेट मदर को होने वाली संतान पर मातृत्व के सभी अधिकार छोडऩे होंगे.
किराए की कोख से जन्मी संतान को उसके माता-पिता को स्वीकार करना होगा.
आइवीएफ को सरोगेसी की शर्तों से अलग रखा जाएगा और उसके लिए विशेषज्ञ एजेंटों की सेवाएं ली जाएंगी. डॉक्टर पटेल चाहती हैं कि सरकार डॉक्टरों और सरोगेट मदर पर भरोसा करें. वह पूछती हैं, ''सरकार कहती है कि वह एक एजेंट पर भरोसा करेगी, जो पढ़ा-लिखा हो या न हो. सरोगेट मदर्स के प्रति मानवीयता दिखाए या नहीं. लेकिन डॉक्टरों पर भरोसा नहीं करेगी. क्यों? ''
छह महीने से 32 साल की सुमन के गर्भ में जुड़वां बच्चे आकार ले रहे हैं. उसका सवाल है, ''मैं कभी-कभी सोचती हूं कि अगर दो बच्चे हुए, एक लड़की और एक लड़का और वे लड़का न चाहें तो क्या मैं उसे घर ले जा सकती हूं? '' वह पांच महीने से घर नहीं गई है, लेकिन उसकी तीनों बेटियां उससे मिलने आती हैं. उस दिन मां बाजार से बेटियों के लिए प्लास्टिक की गुडिय़ा लेकर आई थीं.
आणंद से 11 किमी दूर मेहराऊ गांव में ईद की धूम थी. गांववाले सुमन का हाल-चाल पूछने आए थे. गांव में सिर्फ एक वकील का परिवार उनका साथ नहीं देता. सुमन पूछती है कि जो लोग आज बातें करते हैं, क्या वे मेरा पेट भरेंगे. मैंने कुछ गलत नहीं किया तो छिपाना क्या? बच्चे सुमन पर चढ़े जा रहे हैं. उसे पैसे की जरूरत है. उसका पति खेतों में मजदूरी करके रोजाना 100 रु. कमाता है.
2005 में डॉक्टर पटेल ने जब अपना सरोगेसी कार्यक्रम शुरू किया, तभी से विभिन्न रूपों में वे सामाजिक विरोध का सामना कर रही हैं. यहां पैदा हुए एक-तिहाई बच्चे भारतीय जोड़ों के पास गए, एक-तिहाई प्रवासी भारतीयों के पास और शेष 34 अलग-अलग देशों के विदेशी निवासियों के पास गए.
उनके क्लीनिक में सभी सरोगेट मदर 35 साल से कम उम्र की हैं और उनकी अपनी कम-से-कम एक संतान है. उन्हें स्वास्थ्य की न्यूनतम शर्तें पूरी करनी होती हैं या फिर उन्हें पोषक आहार देकर स्वस्थ बनाया जाता है. वे अगर शादीशुदा हैं तो उनके पति की मंजूरी जरूरी है.

डॉक्टर पटेल शहर के बाहर एक लाख वर्गफीट में नया अस्पताल बनवा रही हैं, जहां होने वाले माता-पिता और सरोगेट मांएं रह सकेंगी. वहां आइवीएफ सुविधाएं और नवजात शिशुओं की यूनिट होगी. 1999 में उनके पहले आइवीएफ केस में जन्मी बच्ची का नाम आकांक्षा था और उसी के नाम पर उनके क्लीनिक का नाम है.
तब से डॉक्टर पटेल जीवनदाता और परिवारों की भाग्य विधाता बनी हुई हैं. यह गुण उन्हें विरासत में मिला है. उनकी स्वर्गीय मां सामाजिक कार्यकर्ता और महिला अधिकारों की प्रबल हिमायती थीं. वे 1950 के दशक में राजकोट में नगर निगम की सदस्य थीं.
अंगोला से आया निराश पुर्तगाली भाषी जोड़ा भारी कदमों से कार से उतरा और क्लीनिक में आया. अंगोला से आने वाला यह दूसरा जोड़ा था. 34 साल की दुबली-पतली सुंदर महिला के चेहरे पर दुख था. गर्भाशय की किसी जटिलता की वजह से उसने संतान पैदा करने की क्षमता खो दी थी. उसने लडख़ड़ाती अंग्रेजी में पूछा कि क्या हम एक से ज्यादा किराए की कोख ले सकते हैं?
दरवाजे पर 34 साल की जापानी महिला ताजिमा थीं, जिन्होंने कुछ साल पहले परमाणु विकिरण से उत्पन्न कैंसर के कारण अपना गर्भाशय गंवा दिया था. उनका बच्चा एक दिन पहले ही पैदा हुआ और अब जाइडस अस्पताल के नवजात शिशु आइसीयू में है.
उसी शाम स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक डॉक्टर जगदीश प्रसाद के जरिए असिस्टेंड रिप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजी नियमन विधेयक के बारे में एक कैबिनेट नोट आया, जिसमें कहा गया है कि अब विदेशियों को कोख किराए पर लेने की इजाजत नहीं होगी. इससे पहले गृह मंत्रालय ने समलैंगिक जोड़ों और विदेशी मूल के एकल माता या पिता पर इस तरह की पाबंदी लगाई थी.
आकांक्षा क्लीनिक में बच्चे की आस में आए माता-पिता अपनी रिपोर्ट, दवाओं और बिलों पर नजरें गड़ाए हुए वहां लगे पांच एलसीडी स्क्रीनों पर चल रही खबर को अनदेखा कर देते हैं.
सरोगेट हाउस दोमंजिला बंगला है. 9 अगस्त को ईद थी. सुबह 11 बजे गोद भराई की रस्म चल रही थी. 31 साल की आरती, 29 साल की गीता और 27 साल की रुक्मणी तीनों को 7 माह का गर्भ था. उनकी पार्टियों ने उनके लिए साड़ी भेजी थी और रस्म का खर्च भी उठाया था.
इन महिलाओं ने नई साड़ी पहनी, मेकअप किया और अपने बाल गूंथे. लेकिन इन खुशियों के बीच ये सच्चाई भी जाहिर है कि कोख में पल रहा बच्चा उनका नहीं है. 29 साल की दुर्गा ने मुस्कराते हुए कहा कि यह हमारा ही बच्चा है. रुक्मणी के लिए खुश होने की एक और वजह है कि उसके पति ने उसी दिन सुबह अपनी दुकान का मुहूर्त किया था. वापस लौटकर वह भी अपना ब्यूटी पार्लर खोलेगी.

सरोगेट मदर को अलग रखने की इस व्यवस्था की अकसर यह कहकर आलोचना की जाती है कि उन्हें जबर्दस्ती आलीशान घर में अलग रखा जा रहा है. लेकिन डॉक्टर पटेल के अनुसार यह मां और बच्चे, दोनों की सेहत की गारंटी है. बहुत-सी सरोगेट मांओं का कहना था कि वे इसे पसंद करती हैं क्योंकि इससे वे अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों की नजरों से बची रहती हैं.
यहां उन्हें पौष्टिक भोजन के साथ चॉकलेट बनाने, कंप्यूटर और कढ़ाई सीखने, बाल संवारने तथा मेकअप करने जैसे हुनर सीखने को मिलते हैं. एक सरोगेट मदर का कहना था कि क्लीनिक, भारतीय या विदेशी माता-पिता से जो 8-11 लाख रु. तक की रकम लेते हैं, उसमें से करीब एक-चौथाई उन्हें गर्भ धारण करने की एवज में मिल जाता है. विदेशी अभिभावकों के उलट भारतीय मां-बाप बच्चा पाने के बाद मां से कोई संबंध नहीं रखते.
सरोगेट हाउस की निचली मंजिल पर एक कमरे के भीतर अहमदाबाद के ऑटोरिक्शा चालक 29 साल के सुरेश ने अपनी पत्नी शीतल के लिए चावल पकाए हैं. 26 साल की उसकी पत्नी की कोख में पहला सरोगेट बच्चा है. उनके दो बच्चे हैं. एक सात साल का और दूसरा ग्यारह साल का.
दोनों बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते हैं. यहां से जो 4 लाख रु. मिलेंगे, उससे वे मकान खरीदना चाहते हैं. सुरेश समझता है कि यह बच्चा उसका नहीं है, लेकिन उसके प्रति स्नेह का भाव न रखना उसके लिए मुश्किल है. वह प्यार से अपनी पत्नी के पेट पर हाथ फेरता है.
स्थानीय मैथोडिस्ट और कैथलिक गिरजाघरों, मौलवियों और पुजारियों ने अपनी-अपनी प्रार्थना सभाओं में सरोगेसी के विरोध में उपदेश दिए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. डॉक्टर पटेल कहती हैं, ''जब मैंने शुरुआत की थी, तब हालात ज्यादा मुश्किल थे. अब मैं नहीं लड़ती क्योंकि जानती हूं कि जो भी बोल रहा है, वह इन माता-पिता को बच्चा नहीं दे सकता और न ही सरोगेट मांओं को गरीबी से बचा सकता है. ''
सरोगेट मांएं इस काम में वापस आती रहती हैं क्योंकि पैसा बड़ी चीज है. 37 साल की कौशल के तीन बच्चे हैं और कुक का काम करके वह हर महीने 2,000 रु. कमाती है. 2007 से दो बार कोख किराए पर देकर उसने जो भी कमाया था, वह सारा पैसा शराबी पति के इलाज में खर्च हो गया. कौशल कैथलिक है.
उसे डर था कि अगर पादरी और जिस घर में वह काम करती है, उन्हें इस बारे में पता चला तो वे उसे नौकरी से निकाल सकते हैं. लेकिन अपने सिर पर छत बनाने के लिए उसे इन लोगों की मंजूरी की जरूरत नहीं. वह ईश्वर से आंख मिला सकती है क्योंकि वह जानती है कि उसने कुछ गलत नहीं किया है.
फोटो: रोहित चावला
भारत की सहकारी दूध उद्योग की राजधानी अब किराए की कोख का गढ़ भी बन गई है. 55 वर्षीय डॉक्टर नैना पटेल और 57 वर्षीय उनके पति हितेश अपने सत कैवल हॉस्पिटल और आकांक्षा इन्फर्टिलिटी क्लीनिक में हर महीने औसतन 30 बच्चे पैदा करवाते हैं.
500वीं सरोगेट मदर 28 वर्षीया महिला ने 5 अगस्त को बच्ची को जन्म दिया. पति से अलग हो चुकी इस महिला के अपने दो बच्चे हैं. गर्भ किराए पर देने के इस कारोबार में कीर्तिमान अनचाहे ही बन गया है. चार दिन बाद लखनऊ से आए बच्ची के मां-बाप ने पहली बार उसे बच्ची का चेहरा दिखाया. तस्वीरें देखकर वह बच्ची को पहचान नहीं पाई. बस इतना ही कहा, ''अगर वह लड़की है तो मेरी ही होगी. ''
एक साल पहले तक उसके पास कुछ नहीं था. सिर्फ पांच साल का बड़ा बेटा और तीन साल का छोटा बेटा. छोटे बेटे की पैदाइश के वक्त पति ने उसे छोड़ दिया और वह अपनी मां के पास रहने चली आई. वह घरों में काम करती है और डॉक्टर पटेल के घर के पीछे वाली सड़क पर रहती है.
घर-घर काम करके महीने में 2,000 रु. कमाती थी. एक सहेली उसे डॉक्टर के पास ले आई. तब से उसने अपने बच्चों को नहीं देखा है. 500वीं सरोगेट मदर कहती हैं, ''अब मैं अपना मकान बनवा सकती हूं. '' लेकिन वह कहती है कि अब दोबारा ऐसा नहीं करेगी. जो भी हो आणंद में 3,00,000 रु. बहुत होते हैं.

आणंद में सड़क का हर मोड़ बताता है कि ये पुराना कस्बा कैसे आधुनिकता की तरफ बढ़ रहा है. बंदूक की दुकान से कुछ आगे रथ बेचने वाला है. सब-वे फ्रेंचाइजी से आगे अमूल की दुकान है, जहां श्रीखंड और स्थानीय मिठाई काजू कतली मिलती है. अमूल की शुरुआत वर्गीज कुरियन ने 1946 में सहकारी दुग्ध आंदोलन के रूप में की थी. आज अमूल एक दिन में 65 लाख किलो दूध बेचता है.
18 लाख की आबादी वाले इस कस्बे को दुनिया श्वेत क्रांति की जन्मस्थली के रूप में जानती है. लेकिन तब से यहां कई और क्रांतियां जड़ें जमाने के लिए जूझ रही हैं. आज यहां 66 उच्च शिक्षा संस्थान और दो यूनिवर्सिटी हैं. ये कस्बा इंडस्ट्रियल इंजीनियरिंग का केंद्र भी है और पड़ोस में खंभात बंदरगाह खुल जाने से जहाज निर्माण के गढ़ के रूप में भी उभर रहा है.
लेकिन मेडिकल टूरिज्म को बढ़ावा देने का श्रेय यहां के अस्पतालों को जाता है, जिनमें शंकर आई हॉस्पिटल, शहर के बाहरी इलाके में खुला नया जाइडस मल्टी स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल, अनगिनत मेडिकल एजेंसीज, फार्मेसी, प्राइवेट नर्सिंग होम और क्लीनिक बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं. 'वाइब्रेंट गुजरात' के नक्शे पर आपको आणंद का जिक्र नहीं मिलेगा, लेकिन जहां तक सहकारी आंदोलन का सवाल है तो इस कस्बे में सबसे बड़ा सहकारी आंदोलन है—किराए पर बच्चा पैदा करना यानी सरोगेसी.
साल 1999 से इन-विट्रो फर्टिलाइजेशन के जरिए बच्चे पैदा कराने में लगे डॉक्टर पटेल ने 2001 में एक प्रवासी भारतीय परिवार के कहने पर पहली बार किराए पर संतान पैदा करने का मामला हाथ में लिया, जिसमें एक नानी ने अपनी बेटी की शादी बचाने के लिए उसके बच्चे को अपनी कोख में पाला.
वह 2006 में ओपरा विन्फ्रे के शो में दिखाई दीं और तब से लेकर अब तक सरोगेसी के सभी जाने माने मामलों में शामिल रही हैं और अपने आप में एक संस्था बन गई हैं. भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने सरोगेसी के बारे में जो दिशा निर्देश तैयार किए हैं, वे 2001 में डॉक्टर पटेल की प्रवासी भारतीय नानी के केस और उसके बाद के अनुभवों पर आधारित हैं.
वे 2008 में सुर्खियों में तब आईं, जब आणंद में डॉ. पटेल के अस्पताल में जन्मी जापानी माता-पिता की संतान मानजी यामादा की कस्टडी का मामला उलझ गया क्योंकि उसके जन्म से पहले ही माता-पिता अलग हो गए. जेन बलाज बनाम भारतीय संघ नाम से मशहूर एक मुकदमे में डॉक्टर पटेल के क्लीनिक का नाम आया.
इस मामले में जुड़वा बच्चियों को भारत की नागरिकता दी गई और उन्हें गोद लेने की पूरी प्रक्रिया अपनाई गई. इन मामलों ने आणंद को सरोगेसी की राजधानी का दर्जा दिला दिया.

डॉक्टर पटेल के क्लीनिक में इस तरह के 680 बच्चे पैदा हो चुके हैं और उनकी गिनती बढ़ती जा रही है. लेकिन एक नए विधेयक का मसौदा तैयार हो रहा है, जिसमें सरोगेट मदर्स को फर्टीलिटी क्लीनिक की नौकरी करने की इजाजत नहीं होगी और उन्हें सरोगेट एजेंसी के तहत आना होगा. विधेयक की प्रमुख विशेषताएं हैं:
सरोगेट मदर की आयु 21-35 वर्ष के बीच होनी चाहिए.
कोई सरोगेट मदर एक दंपती के लिए तीन बार से ज्यादा इम्प्लांटेशन नहीं कराएगी.
अगर सरोगेट मदर शादीशुदा है तो अपने पति की सहमति लेगी.
सिर्फ भारतीय नागरिकों के लिए ही कोख किराए पर दी जा सकती है.
सरोगेट मदर को होने वाली संतान पर मातृत्व के सभी अधिकार छोडऩे होंगे.
किराए की कोख से जन्मी संतान को उसके माता-पिता को स्वीकार करना होगा.
आइवीएफ को सरोगेसी की शर्तों से अलग रखा जाएगा और उसके लिए विशेषज्ञ एजेंटों की सेवाएं ली जाएंगी. डॉक्टर पटेल चाहती हैं कि सरकार डॉक्टरों और सरोगेट मदर पर भरोसा करें. वह पूछती हैं, ''सरकार कहती है कि वह एक एजेंट पर भरोसा करेगी, जो पढ़ा-लिखा हो या न हो. सरोगेट मदर्स के प्रति मानवीयता दिखाए या नहीं. लेकिन डॉक्टरों पर भरोसा नहीं करेगी. क्यों? ''
छह महीने से 32 साल की सुमन के गर्भ में जुड़वां बच्चे आकार ले रहे हैं. उसका सवाल है, ''मैं कभी-कभी सोचती हूं कि अगर दो बच्चे हुए, एक लड़की और एक लड़का और वे लड़का न चाहें तो क्या मैं उसे घर ले जा सकती हूं? '' वह पांच महीने से घर नहीं गई है, लेकिन उसकी तीनों बेटियां उससे मिलने आती हैं. उस दिन मां बाजार से बेटियों के लिए प्लास्टिक की गुडिय़ा लेकर आई थीं.
आणंद से 11 किमी दूर मेहराऊ गांव में ईद की धूम थी. गांववाले सुमन का हाल-चाल पूछने आए थे. गांव में सिर्फ एक वकील का परिवार उनका साथ नहीं देता. सुमन पूछती है कि जो लोग आज बातें करते हैं, क्या वे मेरा पेट भरेंगे. मैंने कुछ गलत नहीं किया तो छिपाना क्या? बच्चे सुमन पर चढ़े जा रहे हैं. उसे पैसे की जरूरत है. उसका पति खेतों में मजदूरी करके रोजाना 100 रु. कमाता है.
2005 में डॉक्टर पटेल ने जब अपना सरोगेसी कार्यक्रम शुरू किया, तभी से विभिन्न रूपों में वे सामाजिक विरोध का सामना कर रही हैं. यहां पैदा हुए एक-तिहाई बच्चे भारतीय जोड़ों के पास गए, एक-तिहाई प्रवासी भारतीयों के पास और शेष 34 अलग-अलग देशों के विदेशी निवासियों के पास गए.
उनके क्लीनिक में सभी सरोगेट मदर 35 साल से कम उम्र की हैं और उनकी अपनी कम-से-कम एक संतान है. उन्हें स्वास्थ्य की न्यूनतम शर्तें पूरी करनी होती हैं या फिर उन्हें पोषक आहार देकर स्वस्थ बनाया जाता है. वे अगर शादीशुदा हैं तो उनके पति की मंजूरी जरूरी है.

डॉक्टर पटेल शहर के बाहर एक लाख वर्गफीट में नया अस्पताल बनवा रही हैं, जहां होने वाले माता-पिता और सरोगेट मांएं रह सकेंगी. वहां आइवीएफ सुविधाएं और नवजात शिशुओं की यूनिट होगी. 1999 में उनके पहले आइवीएफ केस में जन्मी बच्ची का नाम आकांक्षा था और उसी के नाम पर उनके क्लीनिक का नाम है.
तब से डॉक्टर पटेल जीवनदाता और परिवारों की भाग्य विधाता बनी हुई हैं. यह गुण उन्हें विरासत में मिला है. उनकी स्वर्गीय मां सामाजिक कार्यकर्ता और महिला अधिकारों की प्रबल हिमायती थीं. वे 1950 के दशक में राजकोट में नगर निगम की सदस्य थीं.
अंगोला से आया निराश पुर्तगाली भाषी जोड़ा भारी कदमों से कार से उतरा और क्लीनिक में आया. अंगोला से आने वाला यह दूसरा जोड़ा था. 34 साल की दुबली-पतली सुंदर महिला के चेहरे पर दुख था. गर्भाशय की किसी जटिलता की वजह से उसने संतान पैदा करने की क्षमता खो दी थी. उसने लडख़ड़ाती अंग्रेजी में पूछा कि क्या हम एक से ज्यादा किराए की कोख ले सकते हैं?
दरवाजे पर 34 साल की जापानी महिला ताजिमा थीं, जिन्होंने कुछ साल पहले परमाणु विकिरण से उत्पन्न कैंसर के कारण अपना गर्भाशय गंवा दिया था. उनका बच्चा एक दिन पहले ही पैदा हुआ और अब जाइडस अस्पताल के नवजात शिशु आइसीयू में है.
उसी शाम स्वास्थ्य सेवा महानिदेशक डॉक्टर जगदीश प्रसाद के जरिए असिस्टेंड रिप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजी नियमन विधेयक के बारे में एक कैबिनेट नोट आया, जिसमें कहा गया है कि अब विदेशियों को कोख किराए पर लेने की इजाजत नहीं होगी. इससे पहले गृह मंत्रालय ने समलैंगिक जोड़ों और विदेशी मूल के एकल माता या पिता पर इस तरह की पाबंदी लगाई थी.
आकांक्षा क्लीनिक में बच्चे की आस में आए माता-पिता अपनी रिपोर्ट, दवाओं और बिलों पर नजरें गड़ाए हुए वहां लगे पांच एलसीडी स्क्रीनों पर चल रही खबर को अनदेखा कर देते हैं.
सरोगेट हाउस दोमंजिला बंगला है. 9 अगस्त को ईद थी. सुबह 11 बजे गोद भराई की रस्म चल रही थी. 31 साल की आरती, 29 साल की गीता और 27 साल की रुक्मणी तीनों को 7 माह का गर्भ था. उनकी पार्टियों ने उनके लिए साड़ी भेजी थी और रस्म का खर्च भी उठाया था.
इन महिलाओं ने नई साड़ी पहनी, मेकअप किया और अपने बाल गूंथे. लेकिन इन खुशियों के बीच ये सच्चाई भी जाहिर है कि कोख में पल रहा बच्चा उनका नहीं है. 29 साल की दुर्गा ने मुस्कराते हुए कहा कि यह हमारा ही बच्चा है. रुक्मणी के लिए खुश होने की एक और वजह है कि उसके पति ने उसी दिन सुबह अपनी दुकान का मुहूर्त किया था. वापस लौटकर वह भी अपना ब्यूटी पार्लर खोलेगी.

सरोगेट मदर को अलग रखने की इस व्यवस्था की अकसर यह कहकर आलोचना की जाती है कि उन्हें जबर्दस्ती आलीशान घर में अलग रखा जा रहा है. लेकिन डॉक्टर पटेल के अनुसार यह मां और बच्चे, दोनों की सेहत की गारंटी है. बहुत-सी सरोगेट मांओं का कहना था कि वे इसे पसंद करती हैं क्योंकि इससे वे अपने पड़ोसियों और रिश्तेदारों की नजरों से बची रहती हैं.
यहां उन्हें पौष्टिक भोजन के साथ चॉकलेट बनाने, कंप्यूटर और कढ़ाई सीखने, बाल संवारने तथा मेकअप करने जैसे हुनर सीखने को मिलते हैं. एक सरोगेट मदर का कहना था कि क्लीनिक, भारतीय या विदेशी माता-पिता से जो 8-11 लाख रु. तक की रकम लेते हैं, उसमें से करीब एक-चौथाई उन्हें गर्भ धारण करने की एवज में मिल जाता है. विदेशी अभिभावकों के उलट भारतीय मां-बाप बच्चा पाने के बाद मां से कोई संबंध नहीं रखते.
सरोगेट हाउस की निचली मंजिल पर एक कमरे के भीतर अहमदाबाद के ऑटोरिक्शा चालक 29 साल के सुरेश ने अपनी पत्नी शीतल के लिए चावल पकाए हैं. 26 साल की उसकी पत्नी की कोख में पहला सरोगेट बच्चा है. उनके दो बच्चे हैं. एक सात साल का और दूसरा ग्यारह साल का.
दोनों बोर्डिंग स्कूल में पढ़ते हैं. यहां से जो 4 लाख रु. मिलेंगे, उससे वे मकान खरीदना चाहते हैं. सुरेश समझता है कि यह बच्चा उसका नहीं है, लेकिन उसके प्रति स्नेह का भाव न रखना उसके लिए मुश्किल है. वह प्यार से अपनी पत्नी के पेट पर हाथ फेरता है.
स्थानीय मैथोडिस्ट और कैथलिक गिरजाघरों, मौलवियों और पुजारियों ने अपनी-अपनी प्रार्थना सभाओं में सरोगेसी के विरोध में उपदेश दिए, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. डॉक्टर पटेल कहती हैं, ''जब मैंने शुरुआत की थी, तब हालात ज्यादा मुश्किल थे. अब मैं नहीं लड़ती क्योंकि जानती हूं कि जो भी बोल रहा है, वह इन माता-पिता को बच्चा नहीं दे सकता और न ही सरोगेट मांओं को गरीबी से बचा सकता है. ''
सरोगेट मांएं इस काम में वापस आती रहती हैं क्योंकि पैसा बड़ी चीज है. 37 साल की कौशल के तीन बच्चे हैं और कुक का काम करके वह हर महीने 2,000 रु. कमाती है. 2007 से दो बार कोख किराए पर देकर उसने जो भी कमाया था, वह सारा पैसा शराबी पति के इलाज में खर्च हो गया. कौशल कैथलिक है.
उसे डर था कि अगर पादरी और जिस घर में वह काम करती है, उन्हें इस बारे में पता चला तो वे उसे नौकरी से निकाल सकते हैं. लेकिन अपने सिर पर छत बनाने के लिए उसे इन लोगों की मंजूरी की जरूरत नहीं. वह ईश्वर से आंख मिला सकती है क्योंकि वह जानती है कि उसने कुछ गलत नहीं किया है.
फोटो: रोहित चावला