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खंडहर हो गया है पूरा बूढ़ाकेदार

तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को लेकर सभी चिंतित, लेकिन स्थानीय लोगों की व्यथा-कथा का अभी शुरुआती आकलन भी नहीं हुआ. प्राकृतिक आपदा के बुरी तरह शिकार बने एक गांव की मार्मिक कहानी.

अपडेटेड 9 जुलाई , 2013

थाती गांव की सुधा व्यास हर वक्त धर्मगंगा की बाढ़ में तबाह हो चुके अपने घर के पास ही खड़ी रहती हैं. केदारनाथ की बूढ़ाकेदार घाटी में बसे उनके इस गांव में अब कोई घर साबुत नहीं है. वे आने-जाने वालों को अपना दुखड़ा सुनाना चाहती हैं.

बूढ़ाकेदार बाजार में धर्मगंगा और बालगंगा नदियों के संगम से 50 मीटर दूर बूढ़ाकेदार-झाला पिंस्वाड़ रोड के किनारे ही 17 जून तक सुधा का आठ कमरों का मकान था. यह मकान उनकी खराब माली हालत के चलते उनके भाई ने दिया था. अब वक्त की मार ने एक बार फिर सुधा को सड़क पर ला दिया है. बाढ़ में उनका घर तो बहा ही, घर में रखा सारा सामान भी बह गया. बाढ़ जब आंगन तक आ गई, तब भी किसी ने नहीं सोचा था कि उनका आशियाना उजडऩे वाला है. अब सुधा लगातार यही बुदबुदा रही हैं, ‘‘हमें मुआवजा भले न मिले, सरकार हमें बस दो कमरे लायक जमीन और मकान बनाने के लिए पैसे दे दे. हम तो किराया भी नहीं दे सकते.’’ यही हालत उन परिवारों की है, जिनके मकान या तो बाढ़ में पूरी तरह बह गए या अब रहने लायक नहीं रहे.

टिहरी जिले के भिलंगना विकास खंड की बालगंगा घाटी को टिहरी रियासत के समय टिहरी राजा की दूसरी राजधानी के नाम से जाना जाता था. आज भी यह घाटी खेती की दृष्टि से अव्वल है. लेकिन साल-दर-साल आ रही आपदा ने लोगों को झकझोर दिया है. बूढ़ाकेदार बाजार में ही 15 से अधिक मकान बाढ़ की चपेट में आकर जमींदोज हो गए हैं, जिनमें से सात मकानों का तो नामो-निशान तक मिट गया है. बूढ़ाकेदार के ग्राम प्रधान सुंदरनाथ कहते हैं, ‘‘इस आपदा ने पूरे गांव को बर्बाद कर दिया है. मकानों के साथ खेती को भी बहुत नुकसान हुआ है. 100 परिवारों की करीब 200 नाली से अधिक खड़ी फसल और खेतों का नामो-निशान नहीं बचा. गांव में पिसाई के लिए लगी सारी पनचक्की बह गईं.’’ थाती गांव के ही मनमोहन सिंह रावत कहते हैं, ‘‘आपदा के दिन डीएम, एसडीएम, तहसीलदार और 108 आपातकालीन सेवा तक को फोन किया था, लेकिन 8 दिनों तक कोई नहीं आया. थाती-बूढ़ाकेदार ग्राम पंचायत के रैफल, डडोली, डुनला और घनाली ताकों में बहुत नुकसान हुआ है. लोगों के खेत, छानी, मकान सब बह गए हैं. गांव के दो दर्जन से अधिक परिवार गांव के दूसरे परिवारों के घरों में शरण लिए हुए हैं.’’

आज जहां धर्मगंगा की बाढ़ ने तबाई मचाई है, कभी वह उन घरों से 50 मीटर दूरी पर गांव के किनारे से बहती थी. गांव और नदी के बीच हरे-भरे खेत थे, जो अब रेत के मैदान में बदल चुके हैं. लोकजीवन विकास भारती के संरक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता बिहारी भाई कहते हैं, ‘‘इस नदी का ऐसा रौद्र रूप पहले कभी नहीं देखा. लेकिन यह सब मनुष्य द्वारा नदी घाटियों में निरंतर बढ़ाई गई गतिविधियों का नतीजा है.’’ इसका सबसे ज्यादा खामियाजा स्थानीय लोग ही झेल रहे हैं. नत्थीलाल ने अपने सारे खेत बेचकर सड़क के किनारे चार कमरों का मकान बनाया था. लेकिन जैसे ही घर में छत पड़ी, प्रकृति ने अपना काम कर दिया. अब नत्थीलाल के पास न खेत बचे और न उनका आशियाना ही बन पाया. नत्थीलाल कहते हैं, ‘‘मेरे पास अब कुछ भी नहीं बचा है. सारे खेत बेचकर मकान बना रहा था. अब वह भी नहीं बचा. मैं पहले भी दूसरे के मकान में रहता था. अब शायद कभी अपना मकान नहीं हो पाएगा.’’ नत्थीलाल मजदूरी के सहारे गुजर-बसर करते हैं.

जगदेही की कहानी भी इससे अलग नहीं है. उनके पति पिछले आठ वर्षों से लापता हैं. बाजार में चार छोटी-छोटी दुकानों से मिलने वाले 2,000 रु. के किराए से जगदेही का चूल्हा जलता था. बालकनाथ ने जिंदगीभर की मेहनत से बूढ़ाकेदार में चार कमरे का मकान बनवाया, लेकिन अब उस मकान की जगह खाली खंडहर बचा है. वे कहते हैं, ‘‘जाने अब कभी अपना घर बनेगा भी या नहीं.’’

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