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माओवाद: गणतंत्र को 'गन-पति' की चुनौती

माओवादी 2050 तक भारत की राजसत्ता पर कब्जा करने की खूनी जंग लड़ रहे हैं, लेकिन सरकारें यही नहीं तय कर पा रही हैं कि यह कानून व्यवस्था की समस्या है या विकासहीनता की.

अपडेटेड 14 जून , 2013

छत्तीसगढ़ के कद्दावर कांग्रेसी नेता महेंद्र कर्मा को जेड प्लस सुरक्षा हासिल थी. राज्य की रमन सिंह सरकार से उन्हें बुलेटप्रूफ गाड़ी मिली हुई थी. उनके घर पर 60 सुरक्षाकर्मी तैनात थे. जब भी उन्हें कहीं जाना होता तो वे इस पूल में से जितने सुरक्षाकर्मियों को चाहते साथ ले जाते थे. लेकिन पिछले कुछ दिनों से वे अपनी सुरक्षा को लेकर कुछ अलग ढंग से सोचने लगे थे. उन्हें लगने लगा था कि कम लोगों के साथ सफर करना अधिक सुरक्षित है. तमाम नेताओं के बीच वे किसी मामूली आदमी की तरह खप सकते थे.

25 मई को भी कर्मा ने कुछ अलग सोच रखी. उन्हें एक व्यापारी की कार में बैठना अपनी सुरक्षा के लिए सही लगा. गाड़ी को व्यापारी चला रहा था. बॉडीगार्ड पीछे की सीट पर बैठा था. उन्होंने रात में सफर करने से बचने की भी पूरी तैयारी कर रखी थी. उन्होंने जगदलपुर में रात गुजारने के लिए कमरा बुक करवा रखा था. लेकिन जब राज्य की राजधानी रायपुर से करीब 350 किमी दक्षिण में सुकमा में माओवादियों ने 25 गाडि़यों के काफिले पर खूनी हमले को अंजाम दिया तो जहां कर्मा की यह चतुराई उन्हें एक आसान निशाना बना बैठी, वहीं पुलिस की लापरवाही ने भी नक्सलियों के हमले को मदद ही पहुंचाई. छत्तीसगढ़ के पूर्व पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन के अनुसार सड़क को सैनिटाइज नहीं किया गया था क्योंकि कांग्रेस के काफिले के गुजरने से पहले सड़क की जांच के लिए कोई रोड ओपनिंग पार्टी नहीं भेजी गई थी.

सुरक्षा का यह आलम उस समय था जब इस बारे में इंटेलीजेंस ब्यूरो (आइबी) ने राज्य सरकार को सतर्क किया था कि बस्तर इलाके में माओवादी फिर एकजुट और हथियारों से लैस हो गए हैं और बड़े हमले की तैयारी में हैं. लेकिन यह नहीं बताया कि त्रिपुरा जितने बड़े इस इलाके में यह हमला कहां होगा. इस साल फरवरी में माओवादी नेताओं ने छत्तीसगढ़ के घने जंगलों में अपने ठिकाने पर गुप्त बैठक बुलाई थी. बैठक में अतिवादी सीपीआइ (माओवादी) आंदोलन के प्रमुख नेता खास मकसद से जुटे थे. उन्होंने शासन के खिलाफ एक बड़े सैनिक हमले को मंजूरी दी थी.


हमले में मरने वालों में विवादों से घिरे सलवा जुडूम अभियान के जनक महेंद्र कर्मा, छत्तीसगढ़ कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, उनका पुत्र दिनेश पटेल और पूर्व विधायक उदय मुदलियार शामिल थे. 27 अन्य लोग भी मारे गए. पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल हमले में बुरी तरह घायल हुए. हैरानी तो यह है कि माओवादियों ने अपने आम शिकार यानी सुरक्षाकर्मियों को जाने दिया. वे जानते थे कि इस बार बड़े नेताओं को मारकर उन्होंने जोर का झटका दिया है. 200 से अधिक सदस्यों ने अचूक तालमेल से यह हमला किया. इनमें ऑटोमैटिक राइफलों से लैस कई महिलाएं वॉकी-टॉकी पर निर्देश ले-दे रही थीं. सेना की एक  बटालियन के बराबर माओवादियों ने हल्की सुरक्षा में चलते काफिले पर घात लगाई. प्रमुख नेताओं को चुन-चुनकर बेरहमी से मारा. खबर है कि कर्मा के चेहरे पर 78 बार चाकू से वार करने के बाद माओवादी उनकी लाश के चारों ओर नाचे. पटेल और उनके बेटे को घसीटकर ले गए. गोली मारकर ढेर कर दिया. उनका भेजा जंगल की जमीन पर पड़ा था. देश में पहली बार किसी राज्य में विपक्ष के पूरे नेतृत्व का सफाया हुआ है.

यह पहली बार नहीं है जब माओवादियों के 2004 में भारत के खिलाफ युद्ध का ऐलान करने के बाद इतना बड़ा हमला हुआ है. 2009 में उन्होंने छत्तीसगढ़ में चिन्तलनार में सीआरपीएफ के 76 जवानों को मार डाला था और अक्तूबर, 2003 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु के काफिले पर घात लगाकर उन्हें बुरी तरह जख्मी किया था. लेकिन बस्तर की इस घटना में पहली बार इतने सारे नेताओं को निशाना बनाया गया जिन्हें माओवादी प्रवक्ता गुडसा उसैंदी ने 26 मई की प्रेस विज्ञप्ति में जनता का दुश्मन बताया था. उसैंदी के हस्ताक्षर वाली चार पन्नों की इस विज्ञप्ति में माओवादियों की नई हिट लिस्ट के नौ नाम दिए गए थे जिनमें छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह, राज्यपाल शेखर दत्त और छत्तीसगढ़ के पुलिस अधिकारी शामिल हैं. इनके आगे माफिया के अंदाज में लिखा था—''ये नहीं बचेंगे.”

कौन है गणपति और क्या है मिशन-2050
छत्तीसगढ़ में पुलिस अधिकारियों का कहना है कि राजनेताओं को चुन-चुनकर मारने के आदेश अवश्य ही पॉलित ब्यूरो के टॉप से आए होंगे. माओवादियों की 14 सदस्यों की सेंट्रल कमेटी का मुखिया जनरल सेक्रेटरी मुपला लक्ष्मण राव अपनी देख-रेख में बस्तर में काडर को ट्रेनिंग दिला रहा था. गणपति कहलाने वाला 63 वर्षीय राव ही दो साल की शांति के बाद माओवादियों के फिर से सिर उठाने का जिम्मेदार है. उसके नेतृत्व में आंध्र प्रदेश के विशेषज्ञों ने बीजापुर और सुकमा जिलों के बीहड़ों में पीपल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के जवानों को ट्रेनिंग देनी शुरू की.

शांत, मृदुभाषी और चश्मा लगाने वाला गणपति एशिया की सबसे बड़ी गुरिल्ला आर्मी का नेता तो कतई नहीं लगता. आंध्र प्रदेश के करीमनगर जिले में स्कूल टीचर रह चुका राव उन 10,000 हथियारबंद जवानों का कमांडर है जो छत्तीसगढ़ से झारखंड, ओडिसा और बिहार तक फैले 40,000 किमी के इलाके में सक्रिय हैं. फिर भी वह परदे में रहता है, उसे आखिरी बार 2002-03 में राउरकेला और बेहरामपुर में देखा गया था. उस पर 24 लाख रु. का इनाम है. लेकिन खुफिया एजेंसियों के पास उसकी 1977 की धुंधली-सी तस्वीर है जब उसे करीमनगर में जग्तियाल में हिंसा और आगजनी के आरोप में धरा गया था. छत्तीसगढ़ पुलिस को हत्या, हत्या की कोशिश और शासन के खिलाफ युद्ध छेडऩे के 44 आरोपों में उसकी तलाश है.


गणपति 1979 में जमानत पर था और उसी दौरान भाग निकला. वह फिर कभी सार्वजनिक तौर पर नजर नहीं आया. प्रचार से बचने वाले माओवादी नेतृत्व के सांचे में ढला राव बस्तर के घने जंगलों में 25 उग्रवादियों के सुरक्षा घेरे में रहता है और पकड़े जाने के डर से शायद ही कभी वहां से निकलता है. आंध्र प्रदेश में बीरपुर की ऊंची जाति वेलामा के किसान परिवार का गणपति 1979 में नक्सलवादी आंदोलन से जुड़ा और तेजी से आगे बढ़ते हुए 1990 में पीपल्स वॉर ग्रुप की सबसे अहम सेंट्रल ऑर्गेनाइजिंग कमेटी तक जा पहुंचा. 2004 तक गणपति ने सभी नक्सल गुटों को मिलाकर सीपीआइ (माओवादी) का गठन किया और ऐसी अजेय सेना का निर्विवाद सेनापति हो गया जिसे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में आंतरिक सुरक्षा के लिए ''इकलौता सबसे बड़ा खतरा” बताया.

खुफिया सूत्रों के अनुसार इस माओवादी सरगना ने जून, 2009 में सीपीआइ माओवादी पॉलित ब्यूरो की चुनाव बाद समीक्षा बैठक में अपनी रणनीति को तराशा. उसकी रणनीति माओवादी पहुंच का दायरा बढ़ाने और सुरक्षा बलों को ज्यादा बड़े इलाके में फैलाकर थका देने की थी. उसने यह भी कहा कि 25 मई के हमले की तरह समझ-बूझकर जवाबी हमले तेज किए जाएं और उन्हें नए इलाकों में फैलाया जाए ताकि उसके गुरिल्ला अड्डों और राजनैतिक शक्ति के अंगों पर हमलावर दुश्मन सेना के एक हिस्से का ध्यान बंटाया जा सके. माओवादी विद्रोह का अंतिम लक्ष्य 2050 तक भारत के शासन का तख्ता पलटना है.

गणपति यानी सफर मौत के मसीहा का
टी. नागि रेड्डी के बाद गणपति अब तक का सबसे तेज-तर्रार और चालाक वामपंथी अतिवादी नेता है. आज के कई दूसरे माओवादी नेताओं की तरह राव पर भी 1974-75 में गवर्नमेंट कॉलेज ऑफ  एजुकेशन में बीएड की पढ़ाई के दौरान नक्सलवादी विचारक कोंडापल्ली सीतारमैया और उनके दलित साथी के.जी. सत्यमूर्ति का असर हुआ. सीतारमैया और सत्यमूर्ति के वशीकरण मंत्र ने राव के दिमाग में अच्छी तरह बैठा दिया कि हिंसा के जरिए क्रांतिकारी बदलाव लाने से ही समाज की असमानता और गांव के विकास का असंतुलन दूर हो सकता है. राव को बंगाल के दो कामरेड चारू मजूमदार और कानु सान्याल के किस्से भी सुनाए गए कि किस तरह 1970 में उन्होंने इस आंदोलन को श्रीकाकुलम में राज्य के द्वार तक पहुंचाया.

गणपति 1970 में करीमनगर में एसआरआर कॉलेज से बीएससी की डिग्री लेने के बाद करीमनगर जिले में ही एलगांदल में जिला परिषद हाइस्कूल में 1971-74 तक तीन साल पढ़ा चुका था. उसी दौरान वारंगल में रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज और हैदराबाद में उस्मानिया यूनिवर्सिटी के नौजवानों की तरह गणपति भी 1975 में सीतारमैया और सत्यमूर्ति की प्रेरणा से क्रांतिकारी छात्र संघ में शामिल हो गया.

गणपति ने गांव के नौजवानों को प्रदर्शनों के लिए बढ़-चढ़कर संगठित किया लेकिन उसी साल इमरजेंसी लग गई. सरकार ने वामपंथी संगठनों पर पाबंदी लगा दी. वह गिरफ्तार हुआ और करीब 13 महीने तक जेल में बंद रहा. 1977 के शुरू में राव को जमानत मिल गई. अब और भी पक्के इरादे के साथ राव ने पूरी तरह नक्सली चोला धारण करने का फैसला कर लिया. 1977 में हिंसा और आगजनी के आरोप में राव की गिरफ्तारी हुई. 1977 में जमानत मिलते ही राव ने छिपकर अपने पुश्तैनी जिले में पेदापल्ली दलम नाम का संगठन बनाया और नक्सली नेतृत्व की सीढ़ी चढ़ता गया. 1980 से 1984 तक जिला कमेटी की सदस्यता से होते हुए उसने 1985 में डिविजनल कमांडर और 1987 में आंध्र प्रदेश प्रांतीय समिति के सचिव का पद हथियाया और फिर 1990 में सेंट्रल ऑर्गनाइजिंग कमेटी में जगह बना ली.

दो साल के भीतर 1992 में ग्रुप का दायरा बढ़ाने की जरूरत पर राव का अपने गुरु सीतारमैया से मतभेद हो गया. सीतारमैया शांत हो चुके थे और राव की उग्रता बढ़ती जा रही थी. राव ने गुरु को बर्खास्‍त किया और सर्वशक्तिमान महासचिव की गद्दी हथिया ली. इसके बाद राव ने आंध्र प्रदेश के चतुर सहायकों की वजह से दूसरे राज्यों में जाल फैलाया. महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु, ओडिसा, छत्तीसगढ़ और झारखंड सहित विभिन्न राज्यों में अपने नेतृत्व का सिक्का जमाया. उसके बाद 21 सितंबर, 2004 को एमसीसी जैसे दूसरे वामपंथी उग्रवादी गुटों को अपने साथ लिया और महाविलय से 21 सितंबर, 2004 को सीपीआइ माओवादी का गठन कर लिया. राव की माओ के इस कथन में कट्टर आस्था है कि सत्ता बंदूक की नली से निकलती है.

सुरक्षा-व्यवस्था की सूरतेहाल
जहां इस खूनी खेल को अंजाम दिया गया, उस इलाके में अर्धसैनिक बलों की दो कंपनियां मौजूद थीं. पहली घटनास्थल से लगभग 10 किमी की दूरी पर और दूसरी कंपनी का शिविर 14 किमी दूर दूसरी दिशा में स्थित था. इसी तरह दोनों दिशाओं में लगभग इतनी ही दूरी पर दो पुलिस थाने भी मौजूद थे लेकिन कोई भी वक्त पर न पहुंच सका. पुलिस को घटनास्थल तक पहुंचने में तीन घंटे लग गए क्योंकि बारूदी सुरंगों के डर से वहां तक वे पैदल ही चलकर पहुंचे. रायपुर के एक उच्च पदस्थ सूत्र ने स्वीकार किया कि स्थानीय मीडियाकर्मी वहां पहले पहुंच गए थे.

 इलाके की जानकारी के लिए अर्धसैनिक बल हमेशा स्थानीय पुलिस पर ही भरोसा करते हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ में कानून लागू करने वाली इन दोनों एजेंसियों के बीच समन्वय का मौजूदा स्तर बहुत संतोषजनक नहीं रहा है. अर्धसैनिक बल और छत्तीसगढ़ की स्थानीय पुलिस आरोप-प्रत्यारोप में लगे हैं.

जनवरी, 2013 में भी भारतीय वायु सेना ने सीआरपीएफ और प्रदेश पुलिस पर छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले के वन क्षेत्र को सैनिटाइज न करने का आरोप तब लगाया था जब इलाका खाली कराने के लिए भेजे गए भारतीय वायु सेना के हेलीकॉप्टर पर नक्सलियों ने धुआंधार गोलियां बरसाई थीं और हेलीकॉप्टर को आपात स्थिति में उतारना पड़ा था. दो वायु सेनाकर्मी एक सीआरपीएफ कैंप तक भागकर पहुंचे जबकि एक घायल जवान को वे हेलीकॉप्टर में ही छोड़ गए थे. उसे बाद में बचाया गया था.
रायपुर के आइबी सूत्रों ने बताया कि माओवादी विरोधी हमलों की संख्या में कमी आई है. अर्धसैनिक बल अपने प्रभुत्व वाले इलाकों में अभ्यास से ही संतुष्ट रहते हैं, जिनमें वे जंगल के किसी गांव में जाते हैं और सूरज डूबने के पहले अपने शिविर में लौट आते हैं. स्थानीय पुलिस भी माओवादियों को खत्म करने में शायद ही कभी दिलचस्पी लेती है.

पुलिस कार्रवाई की आइबी छानबीन से एक और भारी गड़बड़ी का पता चला है. ''पूरे देश में 10,000 हथियारबंद माओवादी हैं. वे हमारी फायर पावर के सामने कहीं नहीं ठहरते. अकेले छत्तीसगढ़ में ही केंद्रीय अद्धसैनिक बलों के 30,000 से अधिक जवान तैनात हैं. यहां एक दूसरा बड़ा सवाल उठ खड़ा होता है. नक्सलियों पर अंकुश क्यों नहीं लगाया जा सका है, साफ है कि सुरक्षा बलों की ऐसी कोई मंशा ही नहीं है.”

बड़ी समस्या की जड़ें भीतर ही हैं. और भी गहरी छानबीन से व्यवस्था की और भी गंभीर खामियों का पता चला है. एक आइबी अधिकारी ने बताया, ''माओवादियों से मुकाबला करने का काम केंद्रीय अर्धसैनिक बलों का माना जाता है. और उनका नेतृत्व कमांडिंग अफसर (सीओ) के हाथों में होता है जिनकी अपने आयु-वर्ग की वजह से अलग-अलग प्राथमिकताएं होती हैं. एक सीओ सामान्यतया 40 से 47 आयु वर्ग का होता है यही वह समय होता है जब कोई शख्स अपने बच्चे के करियर के बारे में सोचना शुरू कर देता है, वह सुरक्षित रूप से रिटायर होने के बारे में सोचने लगता है और हमला करने की उसकी क्षमता और इच्छा काफी कम हो जाती है.”


ऐसे हमलों की ऊंची कीमत भी चुकानी पड़ती है यदि नक्सल विरोधी हमलों के दौरान उसकी कंपनी को कोई जनहानि उठानी पड़े तो अधिकारी को लगभग निश्चित रूप से विभागीय कार्रवाई का सामना करना ही पड़ता है—उसने अनुमति ली थी या नहीं. जिला पुलिस के साथ सूचना को साझा किया था या नहीं. सुरक्षा कवायद का पालन किया था या नहीं जैसे सवालों का सामना करना पड़ता है. अधिकारी ने बताया, एक विभागीय कार्रवाई लगभग पांच साल तक चलती है. इसलिए जहां सैद्धांतिक रूप से जोर हमला और पीछा करने पर होता है, वहीं मैदान में अधिकारी माओवादियों से टकराव टालने के हरसंभव प्रयास करते हैं.

उलटा पड़ा सलवा जुडूम का दांव
सलवा जुडूम जिसमें छत्तीसगढ़ के गांवों से आदिवासियों को एकत्रित कर नक्सलियों से लडऩे के लिए उन्हें हथियारबंद किया गया था, का दांव भी उलटा ही साबित हुआ है. सरकार ने अप्रशिक्षित ग्रामीणों को हथियार थमाकर उनमें से 4,000 को विशेष पुलिस अधिकारियों के रूप में नियुक्त कर दिया. मगर ये अप्रशिक्षित ग्रामीण माओवादियों के सामने कहीं नहीं ठहरते.

पुलिस और अर्धसैनिक बलों को माओवादियों के खिलाफ पूरी ताकत से एक अभियान शुरू करना चाहिए था, बजाय इसके वे पिछली सीट पर बैठ गए और खराब ढंग से प्रशिक्षित आदिवासियों को आगे कर दिया. नतीजा विनाशकारी रहा और इसने माओवादियों की मदद ही की. रायपुर के सूत्रों ने इस बात की पुष्टि की कि 2005 में जब सलवा जुडूम को शुरू किया गया था तब माओवादियों के पास छत्तीसगढ़ में तैनात सिर्फ दो मारक दस्ते ही थे. 2007 तक अपनी ताकत बढ़ाते हुए प्रतिक्रिया में उन्होंने 9 दस्तों का गठन कर लिया. आइबी के एक बड़े अधिकारी का कहना है, ''लगातार सरकारी हमले ने माओवादियों को छिन्न-भिन्न होने और भागने या मारे जाने के लिए मजबूर कर दिया होता. मगर उत्साही सलवा जुडूम कार्यकर्ता ज्यादा से ज्यादा माओवादियों के पैदल सैनिकों को ही नुकसान पहुंचा सकते थे. इससे उन्हें संगठित होने, ताकत बढ़ाने और फिर से उठ खड़े होने में मदद ही मिली, यह एक रणनीतिक गलती थी.”

बैठे हाथ मल रही हैं सरकारें
बस्तर के खूनी खेल पर सरकार की प्रतिक्रिया ढुलमुल थी. हमले के कुछ ही घंटों के भीतर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस उपाध्यक्ष रायपुर पहुंच गए. ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने माओवादियों को आतंकवादी कहा और अमेरिका में छुट्टियां मना रहे गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे की जगह गृह राज्यमंत्री आर.पी.एन सिंह ने मुंह तोड़ जवाब देने की कसम खाई. रमन सिंह ने तीन दिन के राजकीय शोक और राष्ट्रीय जांच एजेंसी से पड़ताल कराने का ऐलान किया. इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज ऐंड एनालिसिस के पी.वी. रमन्ना का अनुमान है कि अगले कुछ महीनों में कई राज्यों में चुनाव और अगले वर्ष आम चुनाव को देखते हुए माओवादी हिंसा बढ़ेगी. माओवादी अपनी घातक रणनीति में लगातार सुधार कर रहे हैं. लेकिन सरकार के पास कोई रणनीति नहीं है. गृह मंत्रालय के आकलन बेसिरपैर के और बेहिसाब आशावादी रहे हैं. 2004 में तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल ने उन्हें गुमराह बच्चे कहा था. 2010 में इंडिया टुडे कॉन्क्लेव में तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम ने बड़े भरोसे से कहा था कि यूपीए का दूसरा कार्यकाल खत्म होने से पहले हम माओवादी दानव से छुटकारा पा लेंगे.
जमीनी हकीकत कुछ और ही है. सिर्फ पांच साल में माओवादियों ने जितने साथी खोए हैं, उससे कई गुना लोग मारे हैं. यानी 1,325 सुरक्षाकर्मी बनाम 905 माओवादी. इस दौरान 2,031 मासूम नागरिक मारे गए. छत्तीसगढ़ में 2012 में 46 सुरक्षाकर्मी मारे गए जो पांच साल में सबसे कम हैं. लेकिन राज्य के पूर्व डीजीपी विश्वरंजन के शब्दों में इसकी वजह यह रही कि पिछले दो साल में माओवादियों के खिलाफ कार्रवाई की संख्या कम हुई है. 2008 में सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम पर भी पाबंदी लगा दी थी.

एक वरिष्ठ सुरक्षा अधिकारी का कहना है कि सरकार में बड़ी भारी उलझन है कि समस्या को क्या माना जाए—कानून और व्यवस्था की समस्या या सामाजिक आर्थिक समस्या. और यह उलझन जब जमीन पर आती है तो अफरा-तफरी मच जाती है. खाली कराओ–कब्जा करो और विकास करो की गृह मंत्रालय की नीति संकट में है क्योंकि उसके पास माओवादियों से इलाके खाली कराने या उन पर कब्जा रखने और माओवादियों के इलाकों में सड़कें, स्कूल और अस्पताल बनवाने के लिए पर्याप्त सुरक्षाकर्मी नहीं हैं. गृह मंत्रालय ने छत्तीसगढ़ में अर्धसैनिक बलों के केवल 30,000 कर्मी तैनात किए हैं जबकि जरूरत 1,25,300 सुरक्षाकर्मियों  की है. जवान इस इलाके में ड्यूटी नहीं करना चाहते. आइबी अफसरों के अनुसार सरकार के सामने एक ही विकल्प है कि खुफिया सूचना के आधार पर अचूक कार्रवाई में माओवादी नेताओं को निशाना बनाया जाए. आंध्र प्रदेश में ग्रेहाउंड्स की यह चाल कामयाब रही है. उनसे मिले सुराग के आधार पर ही 2009 में कोबाड गांधी जैसे माओवादी नेताओं की गिरफ्तारी हुई. 2010 में चेरुकुरि राजकुमार उर्फ आजाद मुठभेड़ में मारा गया. जबकि छत्तीसगढ़ पुलिस के पास तो गणपति की हाल की कोई तस्वीर तक नहीं है.

—भावना विज-अरोड़ा और लेमुअल लाल

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