बिहार के अपने बिजली घरों से इस समय 0 यानी शून्य मेगावाट बिजली पैदा होती है. इसके लिए वे सभी सरकारें जिम्मेदार हैं, जिन्होंने आज से लेकर पिछले 27 साल में राज्य में शासन किया है. इस दौरान उत्पादन क्षमता स्थिर रही और बिजली घर ठप हो गए. क्या बिजली इंजीनियर से मुख्यमंत्री बने नीतीश कुमार दूसरे कार्यकाल के बचे समय में इस स्थिति को बदल पाएंगे?
उत्तरी बिहार में नेपाल सीमा के पास पूर्वी चंपारण के बडहरवा फतेह मोहम्मद गांव में शाम को सूरज ढलने वाला है. लोहे के खंभों पर बिजली का तार गांव के एक-सिरे से दूसरे सिरे तक फैला है. पक्की नालियों के बीच सीमेंट से बनी सड़कों पर ट्रैक्टर, जीप, बाइक और दूसरी गाडिय़ों की आवाजाही से लगता है कि इस गांव की कायापलट हो गई है.
दो बड़ी नहरों की गोद में आबाद करीब 6,000 की आबादी वाले इस गांव में थोड़ी-थोड़ी दूर पर किराने की दुकानें और चावल, आटे, दाल, तेल की पांच मिलें हैं, जिनसे कारोबार के फलने-फूलने का अंदाजा लगता है. लेकिन शाम ढलते ही चारों ओर अंधेरा छा जाता है. बच्चे हाथों में लालटेन, बोरा और बस्ता लेकर उस बंगले की ओर चल पड़ते हैं जहां पिछले साढ़े तीन दशक से कोई-न-कोई व्यक्ति पढ़ाता रहा है. वहां 72 वर्षीय मास्टर अब्दुस शकूर के चारों ओर बैठे हर बच्चे की चटाई पर किताब के आगे लालटेन है, जिसकी मद्धिम रोशनी में बिहार के विकास की गाथा धुंधली होने लगती है. शकूर कहते हैं, “सड़कें और नालियां बन गईं पर अंधकार युग बरकरार है.” वजहः पिछले 27 साल से राज्य सरकार ने एक यूनिट बिजली उत्पादन नहीं बढ़ाया है.
राज्य के ऊर्जा मंत्री विजेंद्र प्रसाद यादव उदासीन अंदाज में कहते हैं, “बिहार में कर्पूरी ठाकुर की सरकार के दौरान 1977 में लगाई गई दो बिजली उत्पादन इकाइयों के बाद से यहां बिजली उत्पादन क्षमता में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है” (पढ़ें बातचीत). लेकिन वे एक अहम तारीख भूल गएः 17 मार्च, 1986 का वह दिन जब बिहार में बिदेश्वरी दुबे के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में मुजफ्फरपुर ताप विद्युत केंद्र्र में 110 मेगावाट की दूसरी यूनिट स्थापित की गई थी लेकिन समुचित रखरखाव और बेहतर मेंटनेंस के अभाव में एक यूनिट 2010 से जबकि दूसरी यूनिट 17 मार्च, 2012 से ठप है. बिजली संयंत्रों में एक भी यूनिट बिजली नहीं बन रही है.
राज्य में बिजली की 3,000 मेगावाट मांग पूरी करने के लिए विभिन्न केंद्रीय विद्युत संयंत्रों से बिहार के हिस्से के रूप में 1,722 मेगावाट मिलती है और इसका असर शहरों और गांवों में दिख रहा है.
अररिया में पिछले पखवाड़े बिहार राज्य की स्थापना के 101वें साल के अवसर पर शहर में दो दिन लगातार बिजली थी और लोग इसी का जश्न मना रहे थे. लेकिन इसका राज बिहार पेंशनर समाज के पूर्व जिला सचिव राजमोहन सिंह बताते हैं. वे कहते हैं, “ऐसा सौभाग्य तभी मिलता है, जब ऊर्जा मंत्री विजेंद्र प्रसाद यादव जिले में होते हैं.” यानी उनके जाते ही बिजली भी गुल हो जाती है.
अररिया की यह हालत तब है जब जिले के प्रभारी मंत्री के रूप में ऊर्जा मंत्री खुद हैं. हालांकि अररिया की स्थिति कुछ हद तक ठीक है, जहां मंत्री के रहने से बिजली आपूर्ति में सुधार दिख जाता है. लेकिन कई जिलों में मंत्रियों और प्रतिनिधियों की मौजूदगी भी बेअसर दिखती है. नवादा के सांसद डॉ. भोला सिंह को ही लें. शुरू में वे जब जिले के दौरे पर होते थे, तब बिजली के आने से लोग अनुमान लगा लेते थे कि सांसद क्षेत्र में हैं. इसके चलते क्षेत्र में उनकी पहचान ‘बिजुलिया बाबा’ के रूप में लोकप्रिय हुई थी. लेकिन लगता है अब उनसे भी बिजली रूठ गई है और 24 घंटे में चार घंटे से ज्यादा बिजली नहीं मिल पाती.
राज्य के अधिकांश जिलों की स्थिति कमोबेश ऐसी ही है. पर्यटन की दृष्टि से गया काफी प्रसिद्ध जगह है लेकिन बिजली मुश्किल से छह घंटे मिल पाती है. बाकी समय में या तो जनरेटर का भरोसा है या बिना बिजली जीने की मजबूरी.
पश्चिम चंपारण की स्थिति और भी दिलचस्प है, जहां बिजली कभी-कभार छह से आठ घंटे और कभी कई दिन तक नदारद हो जाती है. बगहा पटखौली की ग्रेजुएशन की छात्रा आकांक्षा कहती हैं, “समय पर बिजली नहीं मिलने से रात में पढ़ाई नहीं हो पाती है.” सीतामढ़ी में मैट्रिक और इंटर की परीक्षा के दौरान छात्रों ने मोमबत्ती-लालटेन की रोशनी में पढ़ाई की.
शहरी क्षेत्रों में पानी के लिए लाइन लगती है. इलाज के लिए मशहूर पड़ोसी जिले दरभंगा में बिजली की किल्लत की मार मरीजों को भी झेलनी पड़ती है. शिशु रोग विशेषज्ञ और आइ.बी. स्मृति रोग संस्थान के कंसल्टेंट डॉ. मृदुल शुक्ल कहते हैं, “बिजली का बिल हर महीने 12,000-13,000 रु. आता है, जबकि जेनसेट का खर्च दो लाख रु. होता है.” जाहिर है, यह खर्च मरीजों की जेब से ही जाता है.
उत्तरी बिहार के बड़े शहर मुजफ्फरपुर में भी स्थिति ठीक नहीं है, जहां कांटी ताप बिजली घर स्थित है. पटना की स्थिति भी संतोषजनक नहीं है. वीआइपी इलाके को छोड़ दें तो पावर कट अब राजधानी की बड़ी समस्या बनती जा रही है. बिजली के बिना बड़े शहरों का हाल किसी बड़े से गांव जैसा हो जाता है. दुकान, क्लीनिक, सैलून और घर मोमबत्ती या इनवर्टर और जेनसेट की बिजली से रोशन होते हैं.
इनवर्टर-जेनसेट का धंधा चोखा
इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पावर कट के वैकल्पिक स्रोत की डिमांड तेजी से बढ़ रही है. पटना स्थित फ्रेजर रोड पर एसएस एंटरप्राइजेज के डायरेक्टर मंजीत सिंह साहनी कहते हैं, “पटना में बैटरी इनवर्टर की मांग बढ़ी है, और दो वर्षों के अंतराल में तिगुना का अंतर हुआ है.” एग्जीबिशन रोड स्थित हरजीत इलेक्ट्रिकल के प्रोपराइटर कमलजीत सिंह का मानना है कि आपूर्ति और मांग का जो अंतर 10 साल पहले था वह अब भी दिखता है. उनके मुताबिक जेनरेटर सेट की बिक्री का समय गर्मी का मौसम है, जब पूरे साल की 60-70 प्रतिशत बिक्री होती है.
बिजली संकट ने कुछ लोगों के लिए रोजगार का अवसर पैदा कर दिया है. गांव और शहरों में जेनरेटर से बिजली आपूर्ति व्यवसाय बन गया है. गया के राजू एक दशक से ज्यादा समय से नूर कंपाउंड में जेनरेटर की बिजली सप्लाई कर रहे हैं. वे अपने पांच सदस्यीय परिवार को इसी से पाल रहे हैं. लेकिन इस संकट से ज्यादातर लोग परेशान हैं. पूर्वी चंपारण के व्यापारी 48 वर्षीय बीरेंद्र साह कहते हैं कि मिल चलाने के लिए डीजल पर काफी पैसा खर्च करना पड़ता है. राज्य में उद्योग का बुरा हाल है. ईस्टर्न बिहार चैंबर ऑफ कॉमर्स के सचिव जगदीश चंद्र मिश्र कहते हैं कि बिजली की दयनीय स्थिति से लोग हताश हैं और बड़े व्यापारी राज्य से पलायन कर रहे हैं. गया इलेक्ट्रॉनिक्स के मालिक और चैंबर ऑफ कॉमर्स के पूर्व अध्यक्ष वीपेंद्र अग्रवाल उनसे सहमति जताते हैं, “बिजली न रहने से इलेक्ट्रॉनिक सामान का बाजार मंदा है. शोरूम का कोई औचित्य नहीं रह गया है.”
रहती भी है तो आती नहीं
समस्या सिर्फ जेनरेशन ही नहीं, ट्रांसमिशन और डिस्ट्रिब्यूशन (पारेषण और वितरण) की भी है. सूबे में ट्रांसमिशन की क्षमता करीब 4,000 मेगावाट से ऊपर पहुंच चुकी है, लेकिन बिजली उपलब्ध रहने के बावजूद लोगों तक नहीं पहुंच पाती है. भागलपुर के रेशम निर्यातक जियाउर रहमान का कहना है, “अगर यहां ज्यादा बिजली दे दी गई तो फॉल्ट शुरू हो जाएगा क्योंकि यहां के तार जर्जर हैं.” खुद ऊर्जा मंत्री के क्षेत्र अररिया में आवंटित बिजली भी चार घंटे से ज्यादा नहीं मिल पाती. फिलहाल 42-43 फीसदी बिजली बर्बाद हो जाती है, जिसे 18-19 फीसदी पर लाने की चुनौती है.
आपूर्ति आधी, उत्पादन शून्य
पिछले एक दशक के दौरान राज्य की आबादी आठ करोड़ से बढ़कर 10 करोड़ से ज्यादा हो गई लेकिन बिजली का उत्पादन शून्य है. दरअसल, आखिरी बार 27 साल पहले राज्य की दो यूनिटों में 110 मेगावाट बिजली का उत्पादन शुरू हुआ, जो पिछले साल ठप हो गईं. ऐसे में राज्य में मांग और आपूर्ति की खाई चौड़ी होती जा रही है. 2002-03 में मांग और आपूर्ति का अंतर 4.6 फीसदी था जो 2010-11 में 44.53 हो गया है. बिहार इकोनॉमिक सर्वे रिपोर्ट 2013 के मुताबिक, राज्य में केंद्र की 6,800 मेगावाट क्षमता की बिजली परियोजनाएं हैं, जिसमें से 24.93 फीसदी यानी 1,772 मेगावाट बिजली आवंटित है, लेकिन 900 से 1,000 मेगावाट बिजली ही मिल पाती है. फिलहाल, मिल रही बिजली से ही रेलवे, रक्षा, ग्रिड और अन्य जरूरी सेवाओं के लिए सुरक्षित रखना होता है. अकेले 450 मेगावाट पटना की मांग है, जिसमें 250-300 मेगावाट मिल पाती है. शेष बची बिजली जिलों को मिल पाती है.
ऐसे में ताज्जुब नहीं कि राज्य में प्रति व्यक्ति बिजली खपत देश में सबसे कम है. इस मामले में गोवा सबसे आगे है. बिहार कृषि प्रधान राज्य है, लेकिन राष्ट्रीय औसत 20.30 फीसदी की एक-चौथाई बिजली ही किसानों को मिल पाती है.
संयंत्रों का अंतहीन मरम्मत कार्य
राज्य में लंबे समय तक ऊर्जा संयंत्र नहीं स्थापित किए गए. बिहार विभाजन के बाद बिजली उत्पादन के 70 फीसदी संयंत्र झारखंड में चले गए. बिहार के बचे पुराने संयंत्रों का रखरखाव नहीं किया जा सका. नतीजतन राज्य का करीब 400 मेगावाट बिजली उत्पादन ठप है.
विद्युत संयंत्र लगाने और स्थापित संयंत्रों के रखरखाव को लेकर पहले की सरकार गंभीर नहीं है. 26 जनवरी, 1960 को बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह ने बरौनी थर्मल पावर स्टेशन (बीटीपीएस) में 15 मेगावाट क्षमता की तीन यूनिट का शिलान्यास किया था, जिससे 1963-66 के बीच बिजली उत्पादन शुरू हुआ था. लेकिन बाद की सरकारों ने तकनीकी मेंटनेंस की ओर ध्यान नहीं दिया, जिसके कारण 1983-85 तक तीनों यूनिटें ठप हो गईं. दूसरे चरण में 50 मेगावाट क्षमता की दो यूनिट 1969-71 में स्थापित की गई थीं, वे भी 1994-96 तक ठप पड़ गईं. तीसरे चरण में 1984-85 में 110 मेगावाट क्षमता की दो यूनिट स्थापित की गईं, लेकिन समुचित मेंटनेंस के अभाव में एक यूनिट 2010 में जबकि दूसरी 17 मार्च, 2012 से ठप पड़ी हैं, जिसका रेनोवेशन अभी जारी है.
राज्य सरकार ने मार्च, 2013 तक इससे उत्पादन की घोषणा की थी. नवीनीकरण कार्य को देख रहे अधीक्षण अभियंता ए.के. झा ने बताया कि अक्तूबर, 2013 तक का समय दिया गया है, इस अवधि में कार्य पूरा किए जाने की पूरी कोशिश हो रही है. हालांकि यह तीसरा समय विस्तार है. निर्धारित समय के मुताबिक, बरौनी की 110 मेगावाट क्षमता की एक यूनिट का नवीनीकरण मार्च, 2013 तक, जबकि सात माह बाद इतनी
ही क्षमता वाली दूसरी यूनिट से बिजली उत्पादन शुरू किया जाना था. नीतीश सरकार ने 11 मार्च, 2011 से बरौनी में 250 मेगावाट की दो नई पावर यूनिटों का निर्माण शुरू कराया है, जिससे स्थिति सुधार सकती है (पढ़ें: क्या लालटेन राज से निजात दिला पाएंगे नीतीश?).
अनिश्चितता का ऐसा अंधेरा बरौनी तक ही सीमित नहीं है. राज्य सरकार की दूसरी बिजली उत्पादन इकाई मुजफ्फरपुर में स्थित कांटी के रिनोवेशन की रफ्तार भी कुछ ऐसी ही है. कांटी में 110 मेगावाट क्षमता की दो बिजली यूनिट हैं, जिनका रेनोवेशन अभी पूरा नहीं हुआ है. अधीक्षण अभियंता आर.के. मूर्ति समयसीमा बताने की स्थिति में नहीं हैं. बिहार में पनबिजली की भी 54 मेगावाट इंस्टाल्ड कैपिसिटी है लेकिन नहर में पानी न होने के कारण 20 मई तक उनमें उत्पादन नहीं होगा. 20 मई के बाद भी यहां सिर्फ 25 मेगावाट तक ही बिजली बन पाएगी.
विकास को सत्ता का संदर्भ बनाने वाले नीतीश कुमार के लिए इस ‘अंधकार युग’ से निकलने की चुनौती उनके सियासी भविष्य के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकती है.
—साथ में गया से जितेंद्र पुष्प, भागलपुर से संजू झा, मुजफ्फरपुर से अमित कुमार, अररिया से सुदन सहाय, प. चंपारण से तीर्थराज कुशवाहा, सीतामढ़ी से राकेश कुमार राज और दरभंगा से प्रह्लाद कुमार