अपने ही छोटे भाई हरदीप के साथ गोलीबारी में मारे गए 59 वर्षीय शराब कारोबारी गुरदीप सिंह 'पोंटी’ चड्ढा को सवा साल पहले एक पूर्वाभास हुआ था. शायद यह दिल्ली के उस ज्योतिषी की भविष्यवाणी का असर रहा होगा जिसने पोंटी को अगस्त 2011 में उनकी कुंडली में दिख रहे एक 'काले साये’ के बारे में चेताया था. उसने उन्हें शराब का कारोबार छोड़ देने की सलाह दी थी.
यह शराब ही थी जिसने मुरादाबाद के एक मामूली-से रेहड़ी वाले को इतनी ऊंचाई दी कि उत्तर प्रदेश के 80 फीसदी शराब कारोबार पर उसका कब्जा हो गया. लेकिन 17 नवंबर को दोपहर के वक्त दिल्ली के नंबर 42 सेंट्रल ड्राइव फार्म हाउस में यही शराब पोंटी और उनके भाई हरदीप की मौत का सबब बन गई.
दरअसल पोंटी की मां प्रकाश कौर और परिवार के बड़े बुजुर्ग पहले से सोच रहे थे कि किसी दिन सब लोग एक साथ बैठ जाएं और दोनों भाइयों के बीच जायदाद का झगड़ा सुलटा लिया जाए. यहां चीनी मिलों से लेकर डिस्टिलरी, सार्वजनिक परिवहन और रियल एस्टेट को मिलाकर करीब 20,000 करोड़ रु. के समूचे कारोबारी साम्राज्य का बंटवारा होना था. लेकिन इस विवाद के ताबूत में आखिरी कील बना महज तीन एकड़ में फैला छतरपुर का 42 नंबर वाला फार्महाउस.
भाइयों के बीच दरारें आज से दो साल पहले दिखनी शुरू हुईं. तब उनके पिता कुलवंत सिंह चड्ढा को अलजाइमर बीमारी हो गई. उसके बाद से तीन भाइयों में सबसे छोटे हरदीप उर्फ सतनाम बेचैन रहने लगे. दोनों बड़े भाई पोंटी और राजू (राजिंदर) की पक्की जोड़ी थी. इसी नवंबर में दीवाली से पहले पोंटी ने राजू की बेटी की शादी इस्तांबुल में करवाई थी. हरदीप उसमें नहीं गए थे.
कारोबारी मामलों में हरदीप के सलाहकार उनके एक मित्र ने बताया, ''हरदीप के बार-बार तंग करने पर डेढ़ साल पहले कुलवंत सिंह अपने लड़कों को दिल्ली के रकाबगंज गुरुद्वारे ले गए और अपनी मौत के बाद संपत्ति के तीन बराबर हिस्सों में बंटवारे पर उन्हें राजी कर लिया. मरते हुए पिता की आखिरी इच्छा का सम्मान करते हुए पोंटी राजी तो हो गए, लेकिन खुश नहीं थे.”
आखिर पोंटी ही थे जिन्होंने मुरादाबाद में अपने पिता के शराब के दो ठेकों के मूल कारोबार को एक बड़े साम्राज्य में तब्दील किया था. चड्ढा परिवार के पिछले दो दशक से मित्र रहे पंजाब के एक कांग्रेसी सांसद कहते हैं, ''उन्होंने बहुत मेहनत की थी.” वे बताते हैं कि पोंटी का पहला उद्यम 1992 में उत्तर प्रदेश-बिहार सीमा पर पुल और सड़क के निर्माण का ठेका था. वे कहते हैं, ''स्थानीय गिरोहों और अपहरण के लिए बदनाम इलाके में कोई नहीं जाना चाहता था.”
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