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फरीदकोट से अब तक फरार है अजमल कसाब का कुनबा

अजमल कसाब का परिवार अब तक अपने गांव नहीं लौटा है. पाकिस्तान में कसाब के गांव का मुआयना करके लौटे क़सवर अब्बास की रिपोर्ट.

अपडेटेड 21 नवंबर , 2012

फरीदकोट में ऐसा कुछ नहीं है जो उसे पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के दक्षिण के गरीब गांवों से अलग करता हो. कच्चे ईंट के मकानों में ज्यादातर गरीब किसानों की 3,000 की आबादी रहती है. सूफी संत बाबा फरीद के नाम पर इतने गांव हैं कि यह वाला फरीदकोट उनके बीच गुमनाम बना रहता है. यह गुमनामी 2008 के दिसंबर में उस दिन गायब हो गई जब मुल्तान से 80 किमी दूर इस गांव पर बदनामी के बादल घुमड़ आए. 26 नवंबर, 2008 को मुंबई पर हुए हमले के इकलौते जीवित हमलावर, 25 वर्षीय अजमल आमिर कसाब ने इकबालिया बयान दिया कि वह ओकारा जिले के इसी अनजान गांव का बाशिंदा है.

पत्रकारों ने कसाब के परिवार को खोज निकाला. मुंबई में अपने बेटे की गिरफ्तारी के बाद आमिर शाहबान कसाब ने डॉन अखबार से अपने आंगन में बात करते हुए कहा था, ‘मैं कुछ दिन तक मान ही नहीं सका, मैं खुद से कह रहा था कि मेरा बेटा ऐसा नहीं हो सकता... अब मैंने सच को मान लिया है. मैंने अखबारों में उसकी तस्वीर देखी. ये मेरा बेटा अजमल ही है.’ अभी और शर्मिंदगी इस गांव के लिए बाकी थी. पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने न सिर्फ इस बात की पुष्टि की कि कसाब इसी गांव का है, बल्कि फरीदकोट के इर्दगिर्द सुरक्षा घेरा लगाने के लिए आसिफ अली जरदारी सरकार की आलोचना भी की.

मैं पहली बार 2007 में एक शादी में फरीदकोट गया था. वहां के लोग बड़े दोस्ताना और मेहमाननवाज थे. दिसंबर 2008 में मेरी दूसरी यात्रा तक गांव का माहौल पूरी तरह बदला हुआ था. गुस्साए ग्रामीणों ने मुझे खदेड़ दिया. एक गांव वाले ने जोर देकर कहा, ‘हम नहीं जानते, अजमल कसाब कौन है.’ उसके परिवार का वहां नामोनिशान नहीं था.

चार साल बीत जाने पर मैं दीपलपुर प्रेस क्लब पहुंचा. वहां मेरी मुलाकात छायाकार हसनैन अख्तर से हुई. उनके साथ मुझे गांव जाना था. वे थोड़ा घबराए हुए थे. उन्होंने जाने से इनकार कर दिया, लेकिन अपना कैमरा मुझे दे दिया. बाद में उन्होंने कुछ सोच कर कहा, ‘इसे कुछ हो जाए तो मुझे इसकी कीमत दे देना.’

मैं धूल भरे कच्चे रास्ते पर चलते हुए पानी में नहाती भैंसों और बकरियों के झुंड के पास क्रिकेट खेलते बच्चों के बीच से होते हुए वहां पहुंच गया. यही वह जगह थी जहां कसाब करीब 14 साल तक रहा था. मैंने लकड़ी के नीले दरवाजे को खटखटाया, इस उम्मीद में कि मिट्टी और कच्ची ईंट से बने दो कमरे के इस ढांचे में शायद कसाब का परिवार लौट आया हो. कसाब के मामा 51 वर्षीय अब्दुल गफूर कसाब का जवाब आया. पांच फुट दस इंच के इस शख्स ने मुझे तुरंत पहचान लिया और चिल्ला कर पूछा कि मैं दोबारा क्यों आया हूं. चार साल पहले गफूर ने ही बताया था कि कसाब का परिवार यहां बीस साल तक रहा था. आज उसके पास बताने के लिए कुछ नहीं था. उसने पंजाबी में कहा, ‘मेरे पास तुम्हें बताने को कुछ नहीं है... अजमल मेरी बहन का लड़का है, लेकिन मैं उसके माजी (अतीत) के बारे में कुछ नहीं जानता और उसके मुस्तकबिल (भविष्य) के बारे में बात नहीं करना चाहता.’ उन्होंने मुझे जल्द से जल्द गांव से चले जाने को कहा और अपना दरवाजा बंद कर दिया.

कसाब के घर से 200 फुट दूर किराने की एक दुकान पर सलवार पहने कुछ लोग खड़े थे, लेकिन मैंने जैसे ही उनसे कसाब के बारे में पूछा, सब एक-एक करके निकल लिए.

61 वर्षीय दुकानदार सुल्तान महमूद ने बताया, ‘छप्पन साल के आमिर शाहबान कसाब अपने खानदान के साथ अनजान जगह चले गए.’ कसाब का बाप गांव में एक ठेले पर समोसे और पकोड़े बेचता था. कसाब के पकड़े जाने के बाद छोटी बहन सुरैया और छोटे भाई मुनीर समेत पूरा परिवार ही गायब हो गया. महमूद ने बताया, ‘हमें चार साल से उनके बारे में कोई खोज-खबर नहीं मिली है.’

मैं उस दोपहर गांव के बीचोबीच एक चाय की दुकान पर पहुंचा जहां एक खटिया बिछी हुई थी. मैं जिसके बगल में बैठा, वे सरकारी प्राथमिक स्कूल में शिक्षक, एक बूढ़े शख्स अल्लाह दित्ता थे. वे नरम आवाज वाले थे, साफ सलवार-कमीज पहने, और बाकी लोगों से अलग अच्छी उर्दू बोल लेते थे. उन्होंने चारों ओर निगाह दौड़ाई और फुसफुसाकर बताने लगे. कसाब पांचवें दर्जे में उनका छात्र था. 26/11 की टीवी फुटेज से वे उसे पहचान गए थे. कसाब 14 साल की उम्र में ही घर से भाग गया था और 26/11 से कुछ दिन पहले ही कुछ वक्त के लिए एक बार लौटकर फरीदकोट में अपने घर आया था. तब तक उसके गांव के लोग जान चुके थे कि वह लाहौर में जुर्म की दुनिया में जा चुका है और लश्कर से उसने फिदायीन की ट्रेनिंग ले ली है.

दित्ता ने बताया, ‘यह मानना मुश्किल है कि वह लड़का इतने लोगों का कातिल हो सकता है.’ दित्ता ने फुसफुसा कर बताया कि 12 साल की उम्र में उसने अपने एक करीबी रिश्तेदार को गलती से गोली लगते देखी थी. दित्ता बोले, ‘उसके बाद से वह तो खिलौने वाली पिस्तौल से भी डरता था.’

यह बात उस शख्स के बारे में कही जा रही थी जिसकी एके-47 लहराती तस्वीर ग्लोबल आतंक का प्रतीक बन चुकी है.

मुंबई हमले के चार साल बाद फरीदकोट के साथ बदनामी का दाग चस्पां हो गया है लेकिन कसाब का परिवार वजूद की अजनबियत में खुद को बचा ले गया है.

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