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राजनैतिक वंशवाद: वंश बना सत्ता की चाबी

वंशवाद एक ऐसा बढ़िया गोंद है जो राजनैतिक दलों को मजबूती से एकसाथ जोड़े हुए है, चाहे वह कांग्रेस हो या फिर क्षेत्रीय क्षत्रप. लेकिन लोकतंत्र के लिए सिर्फ इतना काफी नहीं होता.

अपडेटेड 11 अगस्त , 2012

सामंतवाद मध्यकालीन यूरोपीय समाज की परिभाषा है और कई इतिहासकार सवाल उठाते हैं कि यह उन दिनों की तस्वीर पेश करने के लिए उपयोगी संकल्पना है भी या नहीं. लेकिन भारत के आज के वंशवादी लोकतंत्र की भर्त्सना करने में सामंत शब्द का उतनी मजबूती से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. अपने समय के थोड़ा पास आकर बात करें तो अकसर यह कहा जाता था कि भारतीय वंशवाद ने यह दिखाया है कि यहां लोकतंत्र अब भी उसी लीक में फंसा हुआ है जिसने 300 साल पहले ब्रिटिश राजनीति को बाधित कर रखा था. वह जमाना जब निर्वाचन क्षेत्र बहुत छोटे होते थे, इतने छोटे कि प्रत्येक वोटर को निजी रूप से घूस दी जा सके. मेरा मानना है कि भारतीय लोकतांत्रिक वंशवाद इस वजह से पला-बढ़ा है क्योंकि यह मौजूदा परिस्थितियों के अनुकूल है. वे आधुनिक राजनैतिक हाइब्रिड्स या संकर हैं.

इस बात में कोई संदेह नहीं है कि भारत में वंशवाद भरपूर है. सबसे स्पष्ट उदाहरण नेहरू-गांधी खानदान है जो कांग्रेस पार्टी पर प्रभुत्व रखता है. आम तौर पर इस बात का श्रेय इंदिरा गांधी को दिया जाता है कि उन्होंने कांग्रेस को एक पारिवारिक कारोबार में तब्दील कर दिया, लेकिन हाल में प्रकाशित अपनी आत्मकथा में कुलदीप नैयर कहते हैं कि लाल बहादुर शास्त्री का यह मानना था कि नेहरू की वंशवादी आकांक्षाएं थीं, वे अपनी बेटी को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे. राज्‍यों में और ज्‍यादा ताकतवर वंशवादी पिता हैं. उदाहरण के लिए उत्तर में मुलायम सिंह यादव, दक्षिण में एम. करुणानिधि और पूरब में नवीन पटनायक. हाल में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार मौजूदा सांसदों में करीब 28 फीसदी वंश परंपरा से आए हैं.

भारत की वंशवादी राजनीति की सामंती या पिछड़ा जैसे निंदात्मक शब्दों में आलोचना करने से पहले यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि वंशवाद समूचे एशिया में व्यापक रूप से फैला हुआ है. सिंगापुर, जिसकी आर्थिक तरक्की की व्यापक रूप से तारीफ  की जाती है, को ली परिवार प्रभावी रूप से चला रहा है. बहुत तारीफ  हासिल करने वाली बर्मा की विपक्षी नेता आंग सान सू की भी स्वतंत्रता संग्राम के हीरो आंग सान की बेटी हैं. हमारे पड़ोसी बांग्लादेश में दो दुर्जेय महिला उत्तराधिकारियों में सत्ता की लड़ाई रहती हैः हसीना वाजेद स्वतंत्रता संग्राम के नेता शेख मुजीब की बेटी हैं तो खालिदा जिया मार दिए गए सैन्य शासक जियाउर रहमान की विधवा हैं. पाकिस्तान के बारे में कई सवालों में से एक यह भी उठाया जा रहा है कि क्या बेनजीर भुट्टो के बेटे बिलावल, जुल्फिकार अली भुट्टो द्वारा स्थापित वंशवाद की रक्षा करने में सक्षम रहेंगे. यहां तक कि चीन में भी पार्टी के बड़े नेताओं के बेटे और बेटियों को उनके प्रभाव को देखते हुए 'रेड प्रिंसेज' कहा जाता है. रूजवेल्ट, केनेडी और निश्चित रूप से बुश परिवार वाला अमेरिका भारतीय वंशवाद की खिल्ली नहीं उड़ा सकता. ब्रिटेन ने हाल में ही क्वीन एलिजाबेथ के डायमंड जुबली समारोह के प्रति लोगों का जबरदस्त आकर्षण देखा है और वहां यदि कोई वंशवाद है तो वे उसकी उत्तराधिकारी हैं.

हांगकांग यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर मार्क आर. थॉम्पसन ने एशियाई वंशवाद पर लिखे एक आलेख में तर्क दिया है कि वे कोई 'पुराने जमाने के रास्ते' पर नहीं चल रहे. उन्होंने कहा कि वंशवाद आधुनिक राजनैतिक व्यवस्था में भी उतना ही कारगर है क्योंकि इसमें ''विरासत में मिले करिश्मे के आधार पर लोगों को आकर्षित किया जाता है जिससे नेतृत्व के उत्तराधिकार को वैध बनाने में मदद मिलती है और संगठनात्मक विभाजन को कम से कम किया जा सकता है.''

भारत में वंश परंपरा से आए लोगों का पार्टियों पर कब्जा रहा है. मुझे याद है कि जब मैंने एक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता को यह सुझाव दिया कि जब राजीव गांधी की किस्मत सबसे खराब दौर में थी, पार्टी को उनसे पल्ला झड़ लेना चाहिए था. यह सुनकर कांग्रेस नेता स्तब्ध से दिख रहे थे. उन्होंने कहा, ''नेहरू-गांधी परिवार पार्टी का मुख्य स्तंभ है. उन्हें बाहर कर देने से पार्टी ही ढह जाएगी.'' इसके बाद कई घटनाओं ने उनकी इस बात को सही साबित किया. अयोध्या आंदोलन के बाद पार्टी ढहने के कगार पर पहुंच गई थी, लेकिन पार्टी नेता अर्जुन सिंह ने प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव के खिलाफ  अपना अभियान शुरू कर दिया. आपको बता दें, जाहिर तौर पर अनिच्छुक दिख रहीं वंश परंपरा की अगली कड़ी सोनिया गांधी ने परदे के पीछे से नरसिंह राव की सत्ता को कुंद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. कौन जानता है कि यदि अचानक सोनिया गांधी बीच में नहीं आई होतीं और पारिवारिक पार्टी पर नियंत्रण हासिल नहीं किया होता तो कांग्रेस आज कहां होती?

भारतीय नेताओं को अनुशासन में रहने के लिए एक कद्दावर नेता की जरूरत होती है. बीजेपी में कई ऐसे नेता होंगे जो अपनी नेताविहीन पार्टी का संकट देखकर यह सोचते होंगे कि काश! अटल बिहारी वाजपेयी का कोई वंशज होता. कांग्रेस को दिक्कत हो रही है क्योंकि इंदिरा गांधी ने यह नियम बना दिया है कि किसी भी कांग्रेसी नेता को क्षेत्रीय वंशवाद चलाने की इजाजत नहीं दी जाएगी, ताकि कोई करुणानिधि जैसी चुनौती दे सकने के लिए पर्याप्त ताकतवर न हो जाए. इस साल उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय वंश परंपरा का नेता न होने के कारण कांग्रेस को दो काफी मजबूत वंशवादी नेताओं मुलायम और मायावती से लड़ने के लिए पूरी तरह से राहुल गांधी के करिश्मे पर ही निर्भर रहना पड़ा. मायावती को भी वंशवादी परंपरा का नेता इस वजह से माना जा सकता है कि उनकी पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने उन्हें वसीयत में नेतृत्व दिया था.

क्या उत्तर प्रदेश में कोई चमत्कार कर पाने में राहुल गांधी की विफलता का मतलब यह है कि उनका कोई जादू नहीं है, कोई खानदानी करिश्मा नहीं है? लेकिन उन्हें देखने के लिए जो भीड़ जुटती थी वह इसके विपरीत संकव्त देती है. लेकिन चुनाव जीतने के लिए हमेशा नेहरू-गांधी खानदान के करिश्मे पर निर्भर रहने वाले आलसी कांग्रेसी नेता यह भूल गए कि सिर्फ  करिश्मा ही वोट दिलाने के लिए काफी नहीं होता और भीड़ से मतदाताओं के रुझन का भरोसेमंद संकव्त हासिल नहीं किया जा सकता. 1991 के चुनाव अभियान के दौरान राजीव गांधी के साथ झंसी से कानपुर की यात्रा के दौरान मैंने देखा कि विशाल, उत्साही भीड़ उनको घेर लेती थी और धक्कामुक्की में कई बार मैं गिरते-गिरते बचता था. मैं यह मानने लगा था कि चुनाव उनकी झेली में है. लेकिन नतीजों ने यह संकव्त दिया कि यदि उनकी हत्या की दुखद घटना नहीं हुई होती तो कांग्रेस अगली सरकार नहीं बना पाती और सहानुभूति वोटों के बाद भी उसे पूर्ण बहुमत हासिल नहीं हो पाया.

ज्‍यादातर क्षेत्रीय वंश परंपरा के नेताओं को जाति जोड़ती है और कांग्रेस तथा बीजेपी दोनों अपने जातीय गणित के हिसाब से काम करती हैं. वैसे तो दुनियाभर में इसकी आलोचना की जाती है, लेकिन वंशवादी लोकतंत्र जातियों में ऐसी क्रांति ला सका है जिससे परंपरागत तौर पर सत्ताविहीन रहने वाले लोग भी सशक्त हो गए हैं. लेकिन पश्चिम के एकल परिवारों से काफी अलग भारत की मजबूत पारिवारिक परंपरा ही वोटरों की नजर में वंशवाद को जायज ठहराती है. भारत में इसे काफी स्वाभाविक और स्वीकार्य माना जाता है कि किसी भी तरह का अधिकार रखने वाले पिता और माता अपने बेटे या बेटी को उसे सौंप दे. इंदर मल्होत्रा ने इसे बहुत अच्छी तरह से बताया है. अपनी पुस्तक डायनस्टीज ऑफ   इंजिया ऐंड बियांड  में वे कहते हैं, ''वंशवाद की मुखर अल्पसंख्यक भर्त्सना खासकर भारत में ज्‍यादा तेज है और इसका मुख्य लक्ष्य नेहरू-गांधी परिवार है. लेकिन इसकी वास्तव में शांत बहुसंख्यक जनता की चुप्पी से कोई तुलना नहीं है. उपमहाद्वीप की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा राजनैतिक सत्ता की विरासत मां-बाप से संतान को देने में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मानता.''

इंदर इस चुप रहने वाले बहुमत को 'सामाजिक रूप से कुंद' बताते हैं. यह मुझे अपमानजनक लगता है, एक ऐसी व्याख्या जो इस आधार पर टिकी है कि भारतीय लोकतंत्र सामंती और पिछड़ा है. इसकी जगह मैं वंशवाद को भारत में मौजूदा समय की जरूरतों को पूरा करने वाला मानता हूं, जो कुछ हद तक स्थिरता प्रदान करते हुए लोकतंत्र को बचाए हुए है. भविष्य की बात करें तो मुझे उम्मीद है कि वंशवाद का महत्व कम होगा, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि भारत को आंख मूंदकर पश्चिमी लोकतंत्र को अपना लेना चाहिए. आखिरकार लोकतंत्र के बारे में सबसे ज्‍यादा शोर मचाने वाले अमेरिका को धनिक तंत्र ही कहा जा सकता है, और ऐसा इसलिए है क्योंकि वहां राजनीति में बड़ा खिलाड़ी बनने के लिए बहुत ज्‍यादा धन की जरूरत होती है.

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